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यथार्थ और कोमल ध्वनियों की अनुगूंज

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निःशब्द नहीं मैं डॉक्टर नीरज सुधांशु का पहला लघुकथा संग्रह है। इन लघुकथाओं में आक्रोश  के तेवर हैं, ना बँधी हुई मुठ्ठियों का संसार। यह अपनी कहन और संवेदना में बहुत सहज हैं। व्यथाएँ इनमें भी लहराती हैं, भीतर की ध्वनि तरंगें नृत्य के लिए विवश भी करती हैं, उपचार के व्यावसायिक लोभ बीमार के मनोविज्ञान को कुंठित भी करते हैं, पुलिसिया हरकतें सुरक्षा के सधे रास्तों को खरंजा भी बना देते हैं, बुजुर्गों की उपेक्षा के अनाचार समाजशास्त्र को जीने योग्य नहीं रहने देते, बेटी का जन्म परिवार में सन्नाटा पैदा कर देता है, भ्रष्टाचार नित नये अनुबंधों से पतनशील मूल्यों को आम बना देते हैं , ग़रीबों पर सदैव बेईमानी का शक करती पूँजी की नज़रें तीखी हो जाती हैं। इन सभी परिस्थितियों में कोई भी शब्द और समय-सजग रचनाकार निःशब्द कैसे हो सकता है! ये अनेक सामाजिक, पारिवारिक, नैतिक, प्रशासनिक और अंतरात्मा को संवेदित करते सरोकार इस लघुकथा संग्रह में पाठक को जगाते हैं बदलाव की पैरवी करते हुए।

               इसीलिए इन लघुकथाओं का तनी हुई मूठ्ठियों से अलग एक ध्रुव भी है जहाँ बदलाव की गीली ज़मीन है। मानसिकता में भावनात्मक स्पर्श है और सांस्कारिकता का उपदेशविहीन संदेश भी। लेखिका ने तमाम सामाजिक जड़ताओं, उजड़ते संस्कारों, वृद्धावस्था की बेचैनियों, अनाथ बच्चों में  सिसकते सूनेपन, रिश्तो में उभरती दरारों, वृद्ध और युवापन के टकरावों, मातृत्व की सिकुड़ती परिधियों , मृत्यु के परिदृश्य में सामाजिक दायित्व के बीच भी कोमलतम मानवीय पहलू को बिना शिक्षाबोध, दृष्टांत या उपदेशात्मकता के साथ सिरजा है, जो व्यक्ति और समाज के सोच में भावांतर के लिए मन को स्पर्शिल बना देता है। आखिर साहित्य ही है जो तमाम विकृत मानसिकताओं को एक छोर तक ले जाता है और उसी परिदृश्य में उन भावों का कथाविन्यास भी करता है जो बदलाव और रूपांतरण की ज़मीन तैयार करते हैं।

               एक तीसरा पक्ष भी इन लघुकथाओं का है, जहाँ निःशब्दता तो दूर व्यंग्य और प्रहार अपने शब्द-कर्म को मारक बना देते हैं। अस्पतालों में वसूली के मनोविज्ञान, पुलिसिया चरित्र में दलाली की साँठगाँठ, मीडिया के दांव पेच, सरकारी कार्यक्रमों में बेखौफ उचक्के नेताओं के लाभवादी गणित, लड़की पैदा होने के सन्नाटे की लिंगभेदी सोच, गुलामी का गले का पट्टा जैसे अनेक कथानक व्यंग्य की ही अपेक्षा करते हैं, लाइलाज विकृतियों पर मारक प्रहार।

               पहले पक्ष को अपने कथाविन्यास में रचती कुछ लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं, जहाँ यथार्थ खुलकर खेलता है। ये ज़मीनें केवल खुरदरी नहीं हैं बल्कि पतनशीलता, सामाजिक- प्रशासनिक और पारिवारिक परिदृश्य को मनःस्थितियों के अनुरूप रचती हैं। इनकी पीड़ाएँ निःशब्द नहीं रहने देतीं। ‘दबे पांव’ मैं कीड़े को घटकती हुई छिपकली के सांकेतिक प्रतीक और समानांतर कथाविन्यास में अस्पतालों की लूट और रोगियों को भय के मनोविज्ञान से पस्त करने वाली त्रासद वास्तविकता व्यक्त हुई है। सलाह, चाल, डर लघुकथाओं में पुलिसिया चरित्र और साँठगाँठ की दलाली। पर पारिवारिक, सामाजिक धरातल पर दुआ, माँ, पिन ड्रॉप साइलेंस, कुदरत की नैमत जैसी लघुकथाएँ सिकुड़ते मन, वृद्धों के पिता, छीजती हुई सेवा भावना, कन्याओं के प्रति सामाजिक उदासीनता और परिवार की अपेक्षा कुत्तों के प्रति लगाव को दर्शाती है।

               इनसे इतर कुछ दूसरे पक्ष को संजोती वे लघुकथाएँ भी हैं जिनमें सामान्य से व्यक्ति में भी इंसानियत के कोमल रूप अपनी परिधि का विस्तार कर देते हैं। उगाही, सक्षम, निक्कू नाच उठी, मंथन, सकल तीरथ, जीत, पिघलता पत्थर, संकल्प, एक समय की बात जैसी लघुकथाएँ उन मूल्यों को सिरजती हैं, जो मानवीय अर्थवत्ता का सांस्कृतिक परिष्करण है। और तो और ‘अप्रत्याशित’ में तो थर्ड जेंडर भी दो जेंडरों के लिए आश्वस्ति बन जाता है।

               परिस्थितियों के बीच सामान्य से व्यक्ति में भी वे रसायन उद्वेलित हो जाते हैं, जो माननीय अनुभूतियों का भावपरक विस्तार कर देते हैं। ‘मंथन’ की बहू सास के मर जाने पर ससुर के अंतर्मन को बखूबी पढ़कर वह कर देती है जो ससुर की भावनाओं को पुष्ट करता है। ‘सकल तीरथ’ का बेटा मातृत्व के चरणों में ही सारे तीर्थ बसा लेता है। ‘खरीदी हुई औरत’ में औरत की अस्मिता पैसे के मोल को ध्वस्त कर देती है। ‘हॉकर’ का रोजी-रोटी और पाठकों से जुड़ा दायित्वबोध चौंकाता है। ‘अपेक्षा’ का बेटा माँ के लिए सारी धूमिल आशाओं के बीच प्लेन का टिकट ले आता है। सामाजिक-पारिवारिक जीवन के संकरीले होते रास्तों में यह कोमल तंतु जीवन मूल्यों का सांस्कारिक बोध कराते हुए विकृतियों को लाल बत्ती दिखाते हैं।

               लेकिन तीसरे पक्ष की लघुकथाएँ नोटबंदी और मीडिया तक भी ले जाती हैं। हिंदी लघुकथा के धरातल का विस्तार करते हुए। ‘इंटरव्यू’ में यदि स्कूली शिक्षा के बदलते रंग-ढंग हैं तो ‘शर्त’ में गरीबों की ईमानदारी पर शक करती उच्चवर्गीयता। ‘जाम’ में  नेताओं के लवाजम से लगते जाम के बीच जनता के बढ़ते कष्ट, तो नोटबंदी में उचक्कों और नेताओं के लाभ का गणित। डॉक्टरी गोरखधंधों में कसमसाते रोगियों पर तो व्यंग्यात्मक प्रहार कसकर किए गए हैं।

               ‘ निःशब्द नहीं मैं’ की लघुकथाएँ अपने कथा विन्यास में कथानक को कभी नहीं छोड़तीं। इनमें कथाकथन उतार-चढ़ाव, मनोव्यथा, चारित्रिक गठन और अंत में नुकीले स्पर्श या व्यंग्य बहुत सहजता से विन्यस्त हैं। सैद्धांतिक विमर्श इनमें घंटी बजाता ही नहीं, इसलिए कथा मंथर गति से अपने उद्दिष्ट की और जाती है, अलबत्ता कहानी बनने से पहले ही अपने लघु रूप में सिमट जाती हैं। लेखिका किसी उद्देश्य को खूंटे की तरह गाड़ कर आगे नहीं बढ़ती, पर यथार्थ की खुरदरी ज़मीन के साथ वह उस नरमीली ज़मीन को भी तलाशती हैं जहाँ भावों का सिंचन कथा-बीजों से नये मूल्य उगा सकता है। कहीं वह प्रतीकों से तो कहीं द्वंद्वों से भाव बोध को मुखर करती हैं। निश्चय ही ये लघुकथाएँ शिल्प के अमूर्तन प्रयोगों के अति सांकेतिक रूपों में उलझे कथानकों के बजाय सरल विन्यास में ही सहज हैं।

-0- निःशब्द नहीं मैं: डॉ.नीरज सुधांशु ,वनिका पब्लिकेशंस,रजि.कार्या.एन ए-168,गली नं-6, विष्णु गार्डन नई दिल्ली-110018,मुख्य कार्यालय-सरल कुटीर बिजनौर-246701 , संस्करण:2018,मूल्य –250,: पृष्ठ: 112

सम्पर्क:बी. एल. अच्छा,     36, क्लीमेंट्स रोड ,सरवना स्टोर्स के पीछे ,पुरुषवाकम, चेन्नई ,तमिल नाडु- 600007  (मोबा- 9425083335)


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