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विक्रम सोनी की लघुकथाएँ

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आठवें दशक की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि डॉ. सतीश दुबे के सम्पादन में 1979 में प्रकाशित ‘आठवे दशक की लघुकथाएँ’ है,हालाँकि उसी समय सशक्त हस्ताक्षरों के बीच विक्रम सोनी को इस संकलन में न लेना आश्चर्य की बात थी’- अपने एक लेख ‘लघुकथा : स्वरूप और विकास’ में डॉ. वेदप्रकाश जुनेजा द्वारा विक्रम सोनी के प्रति की गई इस टिप्पणी की ओर विक्रम सोनी को कुछ लघुकथाओं पर बातचीत करते हुए बरबस मेरा ध्यान चला गया। दरअसल ऐसा न तो किसी पूर्वाग्रह के कारण हुआ, न ही किसी विशेष सन्दर्भ में। व्यक्तिगत तौर पर एक रचनाकार के रूप में विक्रम सोनी से मैं डॉ. जुनेजा की अपेक्षा वर्षों पूर्व से परिचित रहा हूँ। ‘आठवें दशक की लघुकथाएँ’ की प्रकाशनावधि में विक्रम सोनी एक बीज के अंकुरित होने की प्रसव–प्रसूत का आनन्द गूँगे के गुड़ की तरह ले रहे थे, और अपने मित्रों के बीच ईमानदारी से यह कबूल कर रहे थे कि–अभी मैं छिपा रहा हूँ,छपा नहीं रहा हूँ।
इस दो टूक बात की प्रासंगिकता, तत्कालीन सन्दर्भ में यह भी है कि एक लेखक की हैसियत से विक्रम सोनी हमेशा ईमानदार रहे हैं, और यही कारण है कि उनकी रचनाओं में समय, आदमी, घटना, चरित्र, प्रसंग या प्रतीक इतने ईमानदारी से खड़े हैं कि वे बरबस लघुकथा के वैशिष्ट्य का स्थान ग्रहण करते नजर आते हैं। विक्रम सोनी नौवें दशक के उगते क्षितिज में चमकने वाले देदीप्यमान सितारे हैं। ‘लघुआघात’ पत्रिका के प्रकाशन के कारण उनकी प्रतिभा को और कौंध मिली। रचनाकार, समीक्षक होने के साथ–साथ सम्पादक होने के नाते अनेक नये–पुराने लेखकों की रचनाएँ उनकी निगाह से गुजरीं, इन सब कारणों ने लघुकथा जगत से विक्रम सोनी को ऐसे मिला दिया जैसे पानी से रंग।
लघुकथा लिखने के पहले लघुकथा के रचनात्मक धरातल से बखूबी परिचित विक्रम सोनी का लघुकथा के बारे में वक्तव्य है कि जीवन का मूल्य स्थापित करने के लिए व्यक्ति और उसके ‘काल’ से विवेच्य क्षण लेकर, इसे कम–से–कम और सारगर्भित शब्दों में असरदार ढंग से कहने की सफलतम विधा का नाम लघुकथा है–जो सीधे चिन्तन तन्तुओं को प्रभवित करती है…
जाहिर है कि विक्रम सोनी के लेखन का मूल उद्देश्य जीवन–मूल्यों को स्थापित करना भी रहा है, इसीलिए इनकी लघुकथाओं में कही उत्साह का छोर थामें तो कहीं समाज में व्याप्त विसंगतियों पर प्रहार करते हुए नई पीढ़ी तथा समसामयिकता के अनुरूप सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए चिन्तित समाज के अगुआ पात्र बनकर चित्रित हुए हैं।
विक्रम सोनी की इस वैचारिक मानसिकता को लघुकथा–लेखन के तकनीकी पक्ष की कसौटी के सन्दर्भ में देखा जाना जरूरी है–वह भी उनकी उन लघुकथाओं के सन्दर्भ में जिनको एक पाठक लेखक के नाते विशेष रूप से चुना गया है।
लघुकथाकार लघुकथा को बुनते हुए प्राय ऐसे कथानक चुनता है जिनका रचनागत वैशिष्ट्य लघु हो। किसी बड़े कथानक को बड़े कैनवास पर संयोजित करने की अपेक्षा आकार में लघु बना देना लघुकथा नहीं है। लघुकथा, कथानक को लघु करना नहीं, लघु कथानक को लघु फलक पर जीवन के जीवन्त क्षणों को कलागत स्पर्श देकर बड़ा बनाता है। विक्रम सोनी की लघुकथाएँ ‘जूते की जात’, ‘मीलों लम्बे पेंच,– ‘अन्तहीन सिलसिला’,‘अजगर’, ‘बनैले सुअर’, ‘बातचीत’ या ‘लाठी’ ऐसी ही हैं। ये लघुकथाएँ जीवन के विराट को अपने में समेटे हैं। कहने को बात भले ही छोटी हो और हम उसकी उपेक्षा कर जाएं, किन्तु उसमें जो एक चिंगारी है उसको फूँक मारना लघुकथा है–‘जूते की जात’ गोदान की सिलिया चमारन से चमारवाड़े द्वारा लिए गए शालीन बदले से बढ़कर पूरे वर्ग पर किए गए निरन्तर अत्याचारों की सशक्त अभिव्यक्ति है। ‘अन्तहीन सिलसिला’ में किसान के बारे में प्रचलित इस मिथ को कथानक के रूप में स्पर्श किया गया है कि किसान ऋण में पैदा होता है, बढ़ता है तथा मरता है, किन्तु नेतराम के चित्रण द्वारा इसे गाँव की किसी घटना से जोड़कर जो प्रभाव कायम किया गया है, वह अद्भुत है। ‘अजगर’ में भी इसी प्रकार कृषक के भाग्य को छोटे–से फलक पर रूपायित किया गया है। विक्रम सोनी की लघुकथाएँ तयशुदा शब्दों या आकार के फ़्रेम में नहीं मढ़ी गई हैं बल्कि कथानक के अनुरूप प्रयुक्त शब्द या आकार के अनुसार स्वत: फ़्रेम तैयार हुई हैं। इसीलिए इन लघुकथा को पढ़ते हुए यह नहीं लगता कि लघुकथा बनाने के लिए शब्दों को सीमित किया गया है या कैनवास को बड़ा या छोटा बनाने की कोशिश की गई है।
विक्रम सोनी को कई लघुकथाएँ ग्रामीण परिवेश से जुड़ी हुई है और इन लघुकथाओं में जिन जीवन्त संवादों की योजना की गई है वह इस कथा विधा के लिए अनूठी है। विक्रम सोनी के संवाद कथानक की पूर्व–पीठिका के साथ आते हैं, नतीजा यह होता है कि संवादों में एक स्वभावत: आकर्षण पैदा हो जाता है–मसलन–दिसा–मैदान से फारिग होकर पंडित रामदयाल मिश्र और रघुनाथ चौबे लौट रहे थे कि रास्ते में पोस्टमैन चिट्ठी पकड़ाकर चला गया। हाथ में पत्र रखे दोनों एक–दूसरे का मुँह ताकने लगे। चौबे बोले–‘अरे कहलाते हम पंडित हैं, मगर इस कागज का चेहरा तक नहीं बाँच सकते हैं। धिक्कार है हमारी पंडिताई पर….’ लघुकथा का कथानक संवाद–योजना से जुड़कर रचना को किस प्रकार बल प्रदान करता है यह विक्रम सोनी की रचनाओं से स्पष्ट है। कथा विधा में कुछ रचनाएँ केवल संवादों या कथोपकथन के आधार पर लिखी गई हैं। लघुकथा में भी कुछ सशक्त रचनाएँ इसी रूप में आई हैं। वस्तुत: कथोपकथन के दम पर पात्र चरित्र, वातावरण, प्रभाव कथात्मक–स्तर पर प्रस्तुत करना आसान नहीं है, इस जटिल शैली से विक्रम सोनी भी जुझे़े हैं। उनकी एक लघुकथा ‘बातचीत’ इसी प्रकार की है। यह लघुकथा न केवल लघुकथा है बल्कि देश की मौजूदा स्थितियों के बीच हमें खड़ा कर देने वाला सन्देश भी।
लघुकथा के पात्र प्राय: वे होते हैं जिन्हें हम प्राय: अपने आसपास देखते हैं, उनसे सम्पर्कित होते हैं किन्तु उनसे जुड़े अनुभव, विचार या घटना को जीवन के प्रवाह में तरंगों को तरह उभरकर मिटते नहीं देख सकते और जब लघुकथा के कैनवास पर पेण्ट हो जाते हैं तो लगता है , दररअसल जीवन इन्हीं अणुओं का उपन्यास है। विक्रम सोनी की लघुकथाएँ जीवन के ऐसे ही अनुभव–खण्डों से ली गई हैं। इन लघुकथाओं में कहीं चाँदी और सोने के सिक्कों के कारण ‘सर्वशक्तिमान’ बने मन्दिर का विचार है तो कहीं गरीब जनता के प्रति उपेक्षा–भाव बरतकर पूँजीपति वर्ग को उनके खून से जीवन देनेवाले डॉक्टर का उल्लेख। प्रतिदिन रोटी के जुगाड़ के लिए संघर्ष करते हुए नटवर ‘बड़ी मछली का शिकार’ होता है, ‘खेल–खेल मे बच्चे जीवन के लिए आत्मविश्वास का सबक सीख लेते हैं या सियारास मिसिर की गर्दन में उठे हूल का इलाज करते–करते रमोली चमार का मस्तिष्क प्रतिहिंसा की ज्वाला से जलने लगता है, इस प्रकार की तमाम एक मन:स्थिति का चित्रण विशेष संदर्भ ये लघुकथाएँ करती हैं डॉक्टर, गुरुजी,नटवर, खैरू, रमुआ,सियाराम मिसिर, रमोली चमार, फूलकुँवर, नेतराम, रामदयाल मिश्र, रघुनाथ चौबे या बड़कुल जैसे पात्र जिस परिवेश से आए हैं, वहाँ की जीवन्त लघुकथा के कैनवास पर उजागर करते है।
इस प्रकार विक्रम सोनी की लघुकथाएँ लघुकथा–लेखन की तकनीक से तराशी हुई रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में अपने समय की पहचान है। इनकी पृष्ठभूमि मानव–मन के अन्तर्द्वन्द्व से जुड़ी होकर, अपनी स्थिति से नाखुश उस व्यक्ति के संघर्ष को व्यक्त करती है। जो बेहतर जीवन के लिए निरन्तर लड़ाई लड़ रहा है। ये लघुकथाएँ भारतवर्ष के उन इलाकों से साहित्य के पृष्ठों पर पहुँची हैं जहाँ पूँजीवादी व्यवस्था अपने कुत्सित रूप में कायम है। एक रचनाकार के नाते विक्रम सोनी ने जिन परिदृश्यों को देखा है, उनकी सूक्ष्मता को रूपायित करते हुए इस तथ्य को नजरअन्दाज नहीं किया कि लघुकथा के तन्तु इतने कोमल होते हैं कि यदि उन्हें ठीक से संगठित नहीं किया गया, तो जो कहा जा रहा है, उसके बिखराव की पूरी गुंजाइश रहती है।
लघुकथा की प्रभावोत्पादकता इस बात में निहित है कि कथानक को सम्प्रेषित करते हुए उसे चमत्कार या विस्फोट के अन्त में तस्दीक नहीं किया जाए, क्योंकि चमत्कार आँखों के चौंधियाने के सुख का अहसास कराता है तथा विस्फोट बारूद के फूटने का। लघुकथा पाठक के साथ एक पूरी रचनात्मक यात्रा पूरी करती है, और अन्त में उसे एक ऐसे स्थान पर छोड़ देती है, जहाँ से उसके सोच के अहसास की यात्रा शुरू होती है। विक्रम सोनी की लघुकथाएँ पढ़ते हुए तकरीबन ऐसा ही अहसास होता है।
विक्रम सोनी के लघुकथा–लेखन पर विचार करते हुए महत्त्वपूर्ण प्रश्न जो उभरकर आता है ,वह यह नहीं है कि उनका लेखन कब से शुरू हुआ, वे कौन–से दशक के मसीहा है या उन्होंने अपने लेखन से कितने समकालीन लेखकों को प्रभावित किया, पर महत्त्वपूर्ण यह है कि उन्होंने अपनी लेखकीय ऊर्जा से ऐसी कितनी रचनाएँ लघुकथा साहित्य को दीं, जिनके कारण हिन्दी लघुकथा विधा के रत्न–भंडार में अभिवृद्धि हो सकी।


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