1-अभिलेख
जंगल के एक पौधे ने पुराने दरख़्त से पूछा, ‘दद्दा क्या बात है कि इस साल अब तक आग नहीं लगी जंगल में?’’
‘‘लगेगी बेटा, अभी गरमी का मौसम गया कहाँ?’’
पौधे ने फिर पूछा, ‘‘दद्दा सुना है, पुराने जमाने में आग कभी-कभार ही लगती थी जंगल में, जबकि आजकल तो हर साल ही लगती है और कई-कई दिनों तक जलती रहती है। आखिर ऐसा क्यों?’’
‘बेटा, वो इसलिए कि आग लगेगी तो जंगल साफ होगा। जंगल साफ होगा तो जंगल की कुछ जगह खाली होगी। कुछ जगह खाली होगी, तो वहाँ वन-विभाग नया जंगल तैयार करने के लिए कुछ पेड़-पौधे लगाएगा। पेड़-पौधे लगेंगे तो वन-विभाग को कुछ काम मिलेगा। काम मिलेगा तो सरकारी पैसा आएगा-जाएगा….।’’
‘‘लेकिन दद्दा, वन-विभाग की इतनी जमीन तो खाली पड़ी है। उस पर क्यों नहीं लगाए जाते पेड़-पौधे?’’
‘‘वो जमीन खाली नहीं है बेटा। वन-विभाग के अभिलेख के अनुसार वहाँ तो कब के पेड़-पौधे लग चुके हैं।’’
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2-अशुभ
पूजाघर से बाहर निकलकर दादी ने पौत्री से पूछा, ‘‘किसका फोन था, अंत्याक्षरी?’’
‘‘बुआ का था, दादी-माँ। कह रही थीं, उनकी देवरानी को बिटिया हुई है।’’
‘‘अच्छा!….चलो ठीक ही हुआ।’’
‘‘दादी-माँ, परसों अपने ड्राइवर को भी बिटिया ही हुई न!’’
‘‘हाँ री….ईश्वर जो करता है, अच्छा ही करता है।’’
‘‘दादी-माँ,…अक्षय भैया को भी बिटिया ही होगी, देखना…!’’
‘‘अरी, सुबह-सुबह ऐसे अशुभ वचन काहे को मुँह से निकालती है, कलमुँही….! जरा शुभ-शुभ बोल ना।’’ और दादी-माँ पूजा घर में जाकर फिर से जाप करने बैठ गई।
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3-उलाहना
बुजुर्ग चाची जी गाँव से शहर आई तो थीं मात्र चार-छह दिनों के लिए लेकिन यहाँ आकर वे बीमार पड़ गई। अस्पताल में भरती होना पड़ा उन्हें। पूरे पंद्रह दिन। छुट्टी हुई तो डॉक्टर ने बेड-रेस्ट बता दिया। अब वे दिन भर बिस्तर पर पड़ी रहतीं। एक दिन दरवाजे पर कोई पूछताछ करने आ गया। उससे बात करके बहू भीतर आई तो चाची जी ने पूछा, ‘‘कौन था?’’
‘‘वो अखबार वाला था।’’
‘‘क्या कह रहा था?’’
‘‘पूछ रहा था, कौन सा अखबार पढ़ते हो….कितने पढ़े-लिखे हो…घर में कौन-कौन रहते हैं आदि।’’
‘‘यह सब काहे के लिए पूछ रहा था, मुआ!’’
‘‘वो एक नया अखबार शुरू हो रहा है न, उसके ग्राहक बनाने के लिए सर्वे कर रहे हैं ये लोग।’’
अगले दिन फिर एक पूछताछ करने वाला आ गया। चाची जी पूछने लगीं बहू से, ‘‘कौन था?’’
‘‘गैस वाला था। पूछताछ कर रहा था कि कौन सी कंपनी का कनेक्शन है…घर में कितने लोग है….सिलेंडर कितने दिन चलता है….कितनी इनकम है आदि।’’
‘‘ये सब काहे के लिए?’’-चाची जी ने जिज्ञासा व्यक्त की।
‘‘वो सिलेंडर पर सब्सिडी मिलने वाली है न, उसके लिए जानकारी इकट्ठी की जा रही है।’’
अगले दिन सुबह-सुबह एक वाटर-फिल्टर वाला आकर इसी प्रकार की पूछताछ कर गया। दोपहर बाद कोई आया और वैक्यूम-क्लीनर के बारे में पूछताछ करके अपने प्रोडक्ट के पर्चे छोड़ गया।
उसी दिन शाम को बेटा ऑफिस से लौटा ,तो चाची जी कहने लगीं, ‘‘बेटा, मेरी टिकट बनवा दो, मैं अपने गाँव जाऊँगी।’’
‘‘अरे अम्मा, यहीं आराम करो कुछ और दिन।’’
‘‘नहीं बेटा, बहुत हो गया। अब और नहीं रह सकती मैं यहाँ। कल ही निकल जाऊँगी अपने गाँव।’’
‘‘ये अचानक क्या हो गया अम्मा को….?’’ बेटा सशंकित दृष्टि से अपनी पत्नी की ओर देखकर कहने लगा।
‘‘उसका कोई दोष नहीं है।….तुम्हारे यहाँ शहर में, अखबार के बारे में पूछताछ करने वाले आते हैं, गैस-कनेक्शन की जानकारी लेने वाले आते हैं, वैक्यूम क्लीनर के बारे में पूछने आते हैं ; लेकिन ये जानने कोई नहीं आता कि कुछ दिन पहले इस घर का एक व्यक्ति बीमार पड़ गया था, वो जिंदा है कि मर गया! हमारे यहाँ गाँव में गाय या बकरी भी पड़ जाए तो उसकी खैरियत जानने वालों का ताँता लगा रहता है, दिन भर।’’
बेटे के पास चाची जी के इस उलाहने का कोई जवाब नहीं था।
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4-नाम
पाँव से जूते उतारकर पॉलिश के लिए सरकाते हुए सेठ पन्नालाल बोले, ‘‘अरे हाँ मंसाराम……,तुम्हारे बेटे का क्या हुआ?…..मैं दो माह के लिए बेंगलुरु चला गया था; इसलिए तुमसे मुलाकात नहीं हो पाई। मैट्रिक का रिजल्ट तो आ गया होगा!’’
‘‘हाँ मालिक….आपके आशीर्वाद से इक्यानबे परसेंट मार्क्स मिले, चुन्नू को। दो-चार जगह सत्कार भी हुआ, उसका। आपकी बहुत याद आई …पर आपने बतलाया था, आप बाहर जाने वाले हैं।’’
हाँ,….पर अब कहाँ एडमिशन लिया?’’
‘‘पॉलिटेक्निक में आसानी से मिल गया, एडमिशन। वह भी गवर्नमेंट पॉलिटैक्निक में।’’ मंसाराम ने हाथ का काम एक ओर रखकर पन्नालाल जी के जूते पॉलिश के लिए उठा लिये थे। बड़े पुराने संबंध थे, दोनों के। पहले मंसाराम पन्नालाल जी की दुकान के सामने ही बैठता था। ऐन चौक पर दुकान है, पन्नालाल जी की। मंसाराम की भी खूब कमाई होती थी। बाद में सड़क चौड़ी हुई ,तो मंसाराम को अपना ठिकाना बदलना पड़ा; लेकिन मंसाराम पन्नालाल जी का एहसान नहीं भूला। अब भी उनके पूरे परिवार के जूते-चप्पल वह बराबर पॉलिश करके देता है और एक पैसा नहीं लेता।
‘‘बारहवीं कराके बी.ई.कराना था न! होशियार बेटा है तुम्हारा। उसे इंजीनियर बनाओ।…मैंने तो तुमसे कितनी बार कहा कि उसकी पढ़ाई के लिए कभी भी पैसों की जरूरत पड़े ,तो मुझसे कहना।’’
‘‘जी, इंजीनियर ही बनना है उसे। कह रहा था, ‘पॉलि’ करके फिर बी.ई. करूँगा।…अब मैं क्या कहूँ मालिक! उनका वे जानें….’’
‘‘कोई बात नहीं। करने दो, जो चाहता है…।’’ जूते तैयार हो गए थे। पन्नालाल जी पहनते हुए कहने लगे, ‘‘पर मेरी बात याद रखना। उसकी पढ़ाई के लिए कभी भी पैसों की जरूरत हो ,तो, मुझसे कहने में संकोच न करना….।’’
‘‘जी…आप ही लोगों का तो भरोसा है।’’
पन्नालाल जी गाड़ी की ओर बढ़े ,तो मंसाराम को सहसा कुछ याद आ गया। वह उठा और तेज कदमों से उनके पास पहुँच गया।
‘‘मालिक, एक प्रार्थना है। मेरे छोटे भाई का लड़का भी अपने चुन्नू के साथ ही था, दसवीं में। उसे पचपन परसेंट मिले हैं। उसकी भी इच्छा है, पॉलिटेक्निक में एडमिशन की। लेकिन सरकारी कॉलेज में नम्बर नहीं लगा। प्राइवेट वाले कम से कम पचास हजार माँग रहे हैं। हम लोगों ने हर प्रकार की कोशिश करके चालीस तो जुटा लिये हैं। परसों आखिरी तारीख है, एडमिशन की। दस के लिए बात रुक गई है। अगर इतनी सहायता मिल जाए ,तो गरीब का उद्धार हो जाएगा।…..मैं सोच ही रहा था कि आपसे मिलूँ!’’
पन्नालाल जी ने मंसाराम के कंधे पर हाथ रखा और कहने लगा, ‘‘देखो मंसाराम, मुझे जीतने वाले घोड़े पर दाँव लगाना अच्छा लगता है। जीत घोड़े की होती है और नाम अपना हो जाता है।…तुम लोग और थोड़ी कोशिश करो। जैसे चालीस जुटा लिये वैसे दस और जुट जाएँगे। ….चलो ड्राइवर।’’ कहते हुए पन्नालाल कार में बैठ गया।
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5-साध
‘‘यहाँ ट्रेन काफी समय तक रुकती है।’’
‘‘अच्छा….पर क्यों?’’
‘‘इंजन बदला जाता है, इसलिए।’’
‘‘तो नीचे उतरकर कुछ खाने के लिए खरीद लिया जाए!….वो ‘खाना’ तो बिलकुल ही रद्दी था। उन लोगों ने पैसे पूरे वसूले और हम सबको बेवकूफ बना दिया!’’
इस प्रकार बातचीत चल ही रही थी कि दो मुस्टंडे कूपे में पहुँच गए।
‘‘मोबाइल पर किसने शिकायत की थी, खाने के बारे में….? स्साले….घरों में फाइव स्टार से खाना मँगवाकर खाते हो क्या…बोलो?’’ उनमें से एक बोला।
‘‘बोलो ना, किसने शिकायत की? मादर….हमारी रोजी-रोटी छीनने पर तुले हो, तुम लोग! वो टी.टी ने हमारे ऊपर ‘एन्क्वायरी’ लगा दी। बोलो किसने कंप्लेंट की…?’’ दूसरा और अधिक तैश में था।
‘‘मैंने की थी शिकायत….। खाना बहुत ही खराब था। फेंक देना पड़ा….।’’ धोती-कुर्ता पहनकर बैठे एक रिटायर्ड बुजुर्ग फौजी बोल पड़े। एक मुस्टंडे ने आगे बढ़कर तत्काल उनकी कॉलर पकड़ ली। दूसरे ने उनकी बाँह पकड़ी और लगा घसीटने। ‘‘चल बुड्ढे…नीचे चल…तुझे अच्छा खाना खिलाते हैं…..,’’सब सकते में! तभी दो युवक ऊपरी बर्थो पर लेटे-लेटे यह तमाशा देख रहे नीचे कूद पड़े और कहने लगे, ‘‘दद्दा को छोड़ दो। कंप्लेंट हम लोगों ने की थी….।’’
‘‘तुम लोग ज्यादा होशियारी दिखा रहे हो क्या? चलो नीचे…। तुमको चखाते हैं, अच्छा खाना। स्सालों…उस टी0टी0 ने जुर्माना ठोंक दिया और हमारी एंट्री बंद कर दी टेªन में…।’’
इस बीच दो मुस्टंडे और आ धमके। चारों मिलकर लगे उन दोनों युवकों को घसीटने। साइड बर्थ पर बैठे दो युवक सामने आकर कहने लगे, ‘‘उन्हें छोड़ दो….कंप्लेंट हम लोगों ने की है।….चाहे तो हमारे मोबाइल देख लो।’’
‘‘इन्होंने नहीं, हमने बीस प्लेट मँगवाई थी। हमने की है कंप्लेंट…बोलो कहाँ चलना है…।’’ पड़ोस के कूपों में किसी कॉलेज की हॉकी टीम सफर कर रही थी। उसके सदस्य हाथ में हॉकी स्टिक्स लेकर उपस्थित हो गए थे। पूरा माहौल देखकर चारों मुस्टंडे बिना किसी को हाथ लगाए, खिसक लिए। गाड़ी भी चलने लगी थी।
कूपे में स्थिति पूर्ववत् हो गई। केवल ‘बुजुर्ग फौजी’ बहुत देर तक पनीली आँखों से अपने ईद-गिर्द के युवकों की ओर ऐसे देखते रहे जैसे उनकी कोई ‘साध’ पूरी हो गई हो।
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