रामप्यारी झाड़ू-पोछा करके बर्तन माँजने बैठी ही थी। तभी कमरे में से मालकिन निकल कर आई, “ऐ रामप्यारी, ये बादाम लेती जाना।”
वह चौंक पड़ी, “बादाम !”
इतना बरस हो गया काम करते, जब देखो मलकिन पिस्ता-मूँगफली खा-खा कर छिलका डस्टविन में भरती जाती हैं। भूले से भी ना कहतीं कभी कि ले रामपियारी, थोड़ी-सी मूँगफली ही खा ले।
सिर घुमाकर उसने बादाम की थैली पर एक नजर डाली।
हूँ…अच्छा! तभी हम कहें कि आज रामपियारी से इतना परेम काहे को जागा है। पल भर में ही उसकी जासूसी आँखों ने सारी जाँच- पड़ताल भी कर ली। बादाम घुन चुके थे।
“चच्च! बताओ, इतने सारे बादाम … !”
“तो बता, ले जाएगी न? देख, अपने मुनुआ को खिला देना। बादाम खाने से दिमाग तेज हो जाता है।”
“अरे मलकिन, ये आप अपने बंटी को ही खिला देना। हम गरीबन का दिमाग बादाम खाए से नाहीं, धोखा खई-खई के ही तेज हो जावत है।”
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