कथाकार नन्दल हितैषी पुण्य स्मृति में
1-अकाल

आँगन के ऊपर से सुग्गों का एक झुण्ड चिंचियाता हुआ दाने-पानी की तलाश में गुजर रहा था।
….और वह पालतू सुग्गा पिंजड़े में कैद आँगन के एक कोने में, अपने सीमित दायरे में ही मस्त….दीन-दुनिया से बेखबर। एक चमचमाती कटोरी में पानी और दूसरी में कुछ भीगे दाने।
उड़ते हुए झुण्ड से एक सुग्गा छूटकर आँगन वाले सुग्गे के पास आया। पिंजड़े के चारों ओर छितराए चने के छिलकों और दानों से पहले पेट पूजा की और फिर उपदेशी हो उठा, ‘‘भाई! तुम इस पिंजड़े में कैद हो, देखो बाहर की दुनिया में कितनी आजादी है, कितना आनंद है।’’
पिंजड़े में कैद सुग्गा बोला, ‘‘क्या करूँ भाई? इस घर की खूसट मालकिन ने मुझे कैद कर रखा है। कभी पिंजड़े का दर खुला छोड़ती ही नहीं। मैंने कई बार अंदर से खोलने की कोशिश भी की, लेकिन अपनी ही जीभ ओर चोंच जख्मी हो गए।’’
बाहर वाला सुग्गा अब नेताओं की बोली बोलने लगा, ‘‘मुसीबत में घबराना नहीं चाहिए, हम देखेंगे, हमें देखना है, आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। तुम अंदर से कोशिश करो, मैं बाहर से ताकत लगाता हूँ।’’ और सचमुच दोनों ने पिंजड़े का दर कुछ ऊपर उठाने में सफलता पा ली। अंदर वाला सुग्गा आसानी से बाहर निकला, पंखों को फैलाकर अंगड़ाई ली और फिर बगैर पीछे देखे आसमान में फुर्र हो गया।
उपदेशी सुग्गा धीरे से पिंजड़े के अंदर दाखिल हुआ और खुद पिंजड़े का दर बंद कर दिया।
काफी देर तक वह सुग्गा मस्ती में इधर-उधर घूमता रहा और धिक्कारता रहा अपनी पिछली जिंदगी को….जब वह थककर चूर हो गया, तब उसे भूख-प्यास सता रही थी। जब उसने दाने-पानी के लिए निगाह दौड़ाई, सभी खेत-खलिहान उजड़े दिखे, नदी-नाले सूखे मिले। पेड़-पौधे ठंूठ हो रहे थे, दूर-दूर तक अनाज का एक दाना भी नहीं दिखा। चारों ओर अकाल का सन्नाटा सांय-सांय कर रहा था।
….वह सुग्गा फिर अपनी उसी खूसट मालकिन के घर की ओर मुड़ गया। आँगन में दूसरे कोने में पिंजड़ा अब भी रखा था, कटोरी दाने-पानी से अब भी भरी थी और वही सुग्गा जिसने उसे मुफ्त कराया था, अब पिंजड़े के अंदर आँखें बंद किए हुए किसी चिंतन में लीन था।
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2-औरत
गली के उस मोड़ पर अच्छी-खासी भीड़ लगी थी।सभी उचक-उचक कर मक्खियों से भिनभिनाते उस गंदे और खूनिल कपड़े में बंधे हुए लुजलुज टुकड़े को देख रहे थे।
मैं दूध लेने जा रहा था, भीड़ देखकर वहीं ठिठक गया। वो कंडे पाथने वाली औरत हथलव दे-देकर शोर मचा रही थी, ‘‘इयार के साथेे सोवय माँ नाहीं लाज लाग, पइदा कइके बहाय गई। अरे राम चाही तव ओकर कोखिव अब जरि जाई’’….
रांड, कुलटा, छिनाल आदि तमाम विश्लेषणों से कई औरतें हवा में शब्द उछाल रही थीं। कुछ लोग इस अमानवीय कर्म पर आश्चर्य कर रहे थे, तो कुछ छी-छी-छी, च….च…च…
भीड़ लगातार बढ़ती जा रही थी, किसी ने कहा, ‘‘पुलिस में खबर कर देनी चाहिए।’’
भीड़ से एक आवाज और उभरी, ‘‘आखिर में यह पाप है किसका?’’
लोग बाग अपना-अपना गुंताड़ा भिड़ाने लगे। कंडे पाथने वाली उसी औरत ने अपने अनुभव और ज्ञान का फिर प्रदर्शन ऊँची आवाज में किया।
‘‘अरे अउर के कर होई, इ रमकलियय क धंधा आय, तबै मुहे करिखा पोति के ममाने भाग गई।’’
लोग चटखारे ले-लेकर अपना-अपना मनोविकार उड़ेल रहे थे….मैं अब दूध लेने आगे बढ़ गया।
दूध वाला बाल्टी में धारे छोड रहा था, अभ्यस्त हाथों से बीच-बीच में वह भी इस पाप के खिलाफ शब्द उछाल दिया करता था।
दूध लेकर मुझे फिर उसी राह वापस आना पड़ा, लोगों का जमवाड़ा वैसे ही था, गुंताड़े अब भी लगाए जा रहे थे, कंडे पाथने वाली वही औरत भीड़ के केंद्र में थी।
रमुआ जमादार के आते ही, भीड़ ने उसे चारों तरफ से घेर लिया। उसने फरूहे से उस टुकड़े को नाले से बाहर निकाला, और आहिस्ता से गांठों को खोला। एकाएक सभी अपना मुँह पिटा लिए। उस गंदे कपड़े के टुकड़े में एक अदद मोटी-सी मरी हुई मछली लिपटी थी।
अब भीड़ छँटने लगी थी, मैं कंडे पाथने वाली उसी औरत की खोज कर रहा था, जो अब भीड़ से नदारद थी।
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3-हम कहाँ
वह अब भी लेटा हुआ किन्हीं विचारों में खोया था। घड़ी भी अपनी टिक-टिकाहट बिसर गई थी, लगता था, उसकी एंेठन इस सन्नाटे में ढीली हो गई है।
सामने दीवार पर बल्ब के नीचे दो छिपकलियों से घिरा हुआ एक पतंगा अपने बचाव का असफल प्रयास कर रहा था।
छिपकलियाँ सधे पाँव, चोरी-चोरी उसकी ओर बढ़ रही थीं। उसे कीड़े की स्थिति पर तरस आया, झटक से उठकर स्विच को ऑफ कर दिया, दूसरे ही पल पूरा कमरा अंधेरे के हवाले….
वह फिर से यथास्थिति लेट गया और सोचने लगा हम कहाँ है?-प्रकाश में अंधेरे में, छिपकलियों में, या पतंगों में?
इसी उधेड़-बुन में वह दबे पाँव उठा और एकाएक बल्ब को फिर से जला दिया।
पतंगे के दो टुकड़े हो चुके थे, छिपकलियाँ झटके से उन्हें उदरस्थ कर रही थी।
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4-पोस्टर वाला
नवंबर की सर्दीली रात, शहर में सोती–जागती बत्तियाँ। विश्वविद्यालय की घड़ी ने वक्त के हंडे पर बारह जोरदार खोटके मारे, आसपास का माहौल टनटना गया।
यूनिवर्सिटी रोड पर कुछ रिक्शे वाले रोटियाँ सेंक रहे थे। चौराहे की ओर मुड़ते ही सड़क उजली हो उठी। एक दस–बारह साल का लड़का दीवारों पा ‘सत्यम्–शिवम्–सुन्दरम्’ का पोस्टर चिपका रहा था, फुल साइज के बड़े–बड़े पोस्टर।
छोटी बाल्टी में काढ़े की तरह लेई और ढेर सारा पोस्टर….काफी फुर्ती में था बेचारा।
मैंने उसकी बीड़ी से अपनी सिगरेट जलाई, और यूं ही पूछ बैठा, ‘पोस्टर लगाने का क्या रेट है?’
‘‘पांच रुपया सैकड़ा’’ अपना काम चालू रखते हुए ही उसने संक्षिप्त–सा उार दिया। मैं उन पोस्टरों में नायिका के अद्र्धनग्न रूप में, सत्य शिव और सुंदर तवों की खोज रहा था। तहाए हुए ढेर से एक सारे पोस्टर।
उसे लगातार व्यस्त देखकर मैंने अंदाजन कुछ पोस्टर उठाए, और साधिकार साइकिल की कैरियर में लगाकर बस चलने ही वाला था।
‘‘अरे साहब! मलिक मुझे बोत मारेगा, रख दीजिए,’’ लेई की बाल्टी सरकाते हुए लड़के ने टोक दिया।
मेरी चोरी पकड़ी गई थी, झेंप मिटाता हुआ बोला–‘‘अरे यार कमरे में लगाना है। दो–चार ही तो लिए हैं, मालिक क्या गिनने आ रहा हॅै?’’
‘‘बाबू जी कम–से–कम तीस पोस्टर लिया है आपने,’’ सीढ़ी को सीधा करते हुए उसी अनमनेपन से उार दिया उस छोकरे ने।
‘‘अबे! दिमाग खराब है क्या? ले गिन के देख ले, और चुराए गए पोस्टरों को ताव से फेंक दिया उसके सामने।’’
‘‘रही हमारी आपकी शर्त बाबूजी।’’ सहजता और आत्मविश्वास के साथ उसने मेरे द्वारा फेंके गए बिखरे पोस्टरों को तहाना शुरू किया और वहीं मुझे दिखाकर गिनना शुरू कर दिया।
एक,दो,तीन चार….छब्बीस,सााइस, अट्ठाइस, घा तेरे की, दो कम पड़ गया, उसने बाल्टी के नीचे दबे पोस्टरों से दो पोस्टर और निकाला। तीस पूरा करके मेरी साइकिल के कैरियर में खुद ही लगा दिया। औश्र उसी लापरवाही से बाल्टी, सीढ़ी और पोस्टरों को उठाकर नुक्कड़ पर चाय वाले की दुकान पर चला गया। गोया वह हार गया था और पलायन कर गया।
मुझे अपना किरदार बेहद ओछा लग रहा था, मुँह पिटा कर मैं कमरे में वापस आ गया।
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5-अपना हाथ
पौ फटते ही किसान अपने बड़े बेटे के साथ खेत की ओर गया। फसल पक कर तैयार हो गई थी। उसने अपने बेटै से कहा, ‘‘बस अब फसल पक गई है, कल गांव वालों की मदद से कटवा लेनी है।’’ और दोनों घर की ओर वापस चले गए।
खेत के बीच में ही सारस के दो बच्चों ने भी किसान की वार्तालाप सुनी और चिंतित हो गए। शाम को जब चुग्गा करके उनके माँ –बाप वापस आए तो उन्होंने कल ही खेत कट जाने की बात से अवगत करा दिया। सारस ने अपनी पत्नी और बच्चों को आश्वस्त किया–‘‘आराम से पड़े रहो, चिंता करने की कोई बात नहीं है’’….और बात आई गई हो गई।
चार–पाँच दिन बाद किसान फिर अपने बेटे के साथ खेत पर आया, पकी हुई फसल हिचकोले खा रही थी, उसने फिर अपने बेटे से कहा, ‘‘अब फसल पूरी तरह पक गई है, बस अब एक–दो दिन में ही गाँव वालों की मदद से कटवा ही लेनी है।’’
और अपने बेटे के साथ वह फिर उन्हीं पगडंडियों से वापस चला गया। सारस के बच्चों ने पूरी बात सुन ही रखी थी, स्वाभाविक रूप से वे चितिंत भी हुए और शाम को फिर उन्होंने माँ–बाप से, एक–दो दिन में खेत कट जाने की बात कही।
इस बार भी माँ और बच्चे चितिंत हो गए। सारस ने उसी गंभीरता से फिर आश्वस्त किया, ‘‘चिन्ता करने की कोई बात नहीं है, आराम से पड़े रहो, अभी खेत कटने से रहा।’’
….और बात फिर आई–गई हो गई।
लगभग चार–पाँच दिन बाद किसान फिर अपने बेटे के साथ खेत पर आया। अब पकी हुई फसल अपना रंग बदलने लगी थी। अब तक उसे कटकर खलिहान में दाँवरी के लिए डाल देना था।
उसने अपने बेटे से कहा, ‘अब कल हम दोनों खुद ही अपना खेत काटेंगे,’’ और बाप बेटे फिर घर की ओर रवाना।
शाम को बच्चों ने किसान के वार्तालाप से फिर अपने माँ–बाप को अवगत कराया कि आज किसान कह रहा था, ‘‘कल वह खुद ही अपना खेत काटेगा।’’
सारस ने कहा, ‘‘बस अब कल ही पौ फटने से पूर्व ही यह डेरा छोड़ देना है, कल निश्चय ही यह खेत कट जाएगा।’’
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6-व्यंजन
शाम होते ही बंबई की रंगीनियाँ गहरी उठी, ‘परेल’ स्थित ‘ए’ ग्रेड के ‘होटल एंड बार’ से सेठिया संस्थान का एक युवा लड़खड़ाते कदम से बाहर निकला, दरबान ने गेट खोला और सेल्यूट किया।
युवक होटल के सामने खड़ी अपनी फिएट तक आया, बेचैनी के कारण ‘स्टेयरिंग’ पर बैठकर तुरंत फिर बाहर निकल पड़ा और वहीं सड़क परही कै करने लगा। होटल केअंदर का खाया–पिया सब बाहर…उसी दरबान ने शीशे के जार में पानी पेश किया, युवक ने मुंह धोया, दो–चार कुल्ली किया और आँखों पर पानी के छींटे मारे। निश्चय ही अब वह कुछ राहत की साँस ले रहा था, पहले से काफी बेहतर।
युवक ने जेब से किसी महंगी सिगरेट का पैकेट निकाला, एक सिगरेट दरबान को थमाई, अपनी सिगरेट सुलगाते हुए अपनी झेंप मिटाई–
‘‘आज कुछ ज्यादा हो गई।’’
मुस्कराते हुए कार में दाखिल हुआ और कारों की आपाधापी में उड़न–छू हो लिया।
एक भिखारी उधर से गुजरा, खिचड़ीनुमा कै को देखकर उसकी आँखों में एक अजीब किस्म की चमक उभरी।
वह वहीं बैठकर बड़े इत्मीनान से छितराये व्यंजन को चटकारे लेकर खाने लगा, और देखते–ही देखते चावल का एक–एक दाना ठूँस लिया अपने पेट में।
होटल में भीड़, लगातार बढ़ती ही जा रही थी, कारों का ताँता काफी लंबा हो गया था….वह भिखारी भी भीड़ में कहीं गुम हो गया।
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7-पेट की पट्टी
कामदारों के बीच वह औरों की तुलना में कम उमर की थी, लेकिन थी साँवली और तीखी। घुटनों तक मैली–कुचैली धोती, कमर में किसी पुराने कपड़े का फेंटा, सिर पर सधाए हुए कुछ ईंटों का बोझा….फिर भी उसकी चाल में, कुछ अधिक ही फुर्ती रहती।
कारीगर, कन्नी और वसूली अंदाज से चलाते, जब भी वह अपनी पारी पर आती–जाती उसे छेड़ने से बाज न आते।
‘‘जल्दी–जल्दी हाथ बटा लो, छुट्टी होने में बस आध घंटे की कसर है’’- बेलदार ने सुगनी की ओर मुस्कराते हुए शब्द उछाले।
सुगनी अपनी कमर का फेंटा पेट खलाकर कसने लगी, स्तन तनिक हिले और थिर हो गए, वह ईंटों का बोझा फिर से तहाने लगी।
अबकी बार उस अधेड़ मिश्री ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘तू तौ जनौ बुढ़ाय गई? देखो त फेंटा कसे हैं, कमर दरद करत होई का सुगनी?’’
‘‘अरे दादा! ज्वानी में तुमरा माँ झा ढील हुआ होई, ई फेंटा आई इया पेटे में पट्टी, ईका हम जियादा जानत हन’’
सगुनी ने नहले पर दहला मारा और आगे बढ़ गई।
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