लघुकथा अपने आकार और कथ्य वैशिष्ट्य के कारण आज साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधाओं में से एक है। आधुनिक जीवनशैली की प्रतिबद्धताओं से साम्य के कारण लघुकथा ने जहाँ आम आदमी, विशेषकर युवाओं में साहित्य के प्रति घटते रुझान को कम किया है, वहीं डिजिटल मीडिया के प्रति लोगों में बढ़ते आकर्षण ने इस विधा की लोकप्रियता को नई ऊँचाइयाँ दी हैं। जैसा कि ज्ञात है कि लघुकथा किसी घटना का संक्षिप्त ब्यौरा मात्र न होकर उत्कृष्ट रचनात्मकता को अपने आप में समेटे एक विशिष्ट अभिव्यक्ति होती है, जिसमे तीर जैसी भेदने और गोली जैसी धँसने की क्षमता होती है। समाज की नब्ज़ टटोलती किसी घटना के तथ्य और कथ्य की रचनात्मक एकात्मता से लघुकथा के रूप में उपजी अभिव्यक्ति कई बार बरसों तक मस्तिष्क में कौंधती प्रतीत होती है। अपनी पसंद की ऐसी ही जिन दो लघुकथाओं की आज मै चर्चा करूँगी ,वे दोनों ही साहित्यिक पत्रिका कथादेश द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी हैं। पहली लघुकथा है सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और व्यंग्यकार श्री उर्मिल कुमार थपलियाल की ‘गेट-मीटिंग’ और दूसरी नवोदित लेखिका मानवी वहाणे की ‘स्त्रीवादी पुरुष’।
उर्मिल कुमार थपलियाल व्यंग्य-विधा के प्रख्यात हस्ताक्षर हैं। उनकी शैली ही उनका परिचय है। छोटे-छोटे वाक्यों से अभिव्यक्त बड़ी-बडी बातें। चुटीलापन ऐसा जो बड़ी से बड़ी समस्या में भी मुस्कुराने की गुंजाइश पैदा कर दे! पंच ऐसी जगह अवस्थित जो सीधे व्यवस्था के मुँह पर पड़ते प्रतीत होते हैं। नौटंकी, श्री थपलियाल जिसके पर्याय बन चुके हैं, समेत सभी साहित्यिक विधाओं में श्री थपलियाल की रचनाएँ , पैनी अभिव्यक्ति के यह अवयव प्रचुरता से समेटे, अपने आप को भीड़ से साफ़ अलग कर देती हैं।
‘गेट-मीटिंग’ नामक लघुकथा में अभिव्यक्ति के उपरोक्त अवयव बेहद खूबसूरती से गुँथे हैं। मजदूर अपनी माँगों को लेकर आन्दोलन पर हैं; मगर अतीत के अपने प्राप्य पर मायूस हैं,उदासीन हैं है,अनमने हैं और इसीलिए आज आयोजित गेट-मीटिंग उनके लिए औपचारिकता मात्र है। वे परिवर्तन के आकांक्षी हैं ;इसलिए गेट-मीटिंग में क्रांति का प्रतीक उनका यूनियन लीडर जब उनसे मुखातिब होता है ,तो उनकी सुप्त आशाएँ मुखरित हो उठती हैं। लीडर उनसे पूछता है कि तुम्हारे पास राशन है? मजदूर कहते हैं नहीं, कपड़े है? मजदूर कहते हैं नहीं ,घर है? मजदूर कहते हैं नहीं,पैसे हैं? मजदूर कहते हैं नहीं,माचिस है? मजदूर ‘हाँ’ में जवाब देते है। उनकी दयनीय हालत देख लीडर पूछता है कि तुम ऐसी व्यवस्था को इस माचिस से जला क्यों नही देते? जवाब आता है कि माचिस तो है, मगर तीलियाँ नही है। मजदूरों का यह जवाब अपने आप में समूची व्यवस्था को आग लगाने की क्षमता रखता है। यह पंच, व्यवस्था के मुँह पर पड़कर उसे टेढ़ा करने की क्षमता रखता है । लघुकथा का अंतिम डायलॉग मजदूरों और श्रमिक-आंदोलनों और ट्रेड यूनियनों की वास्तविक स्थिति को बयाँ करते हुए उनकी सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगाता है। मजदूरों के बल पर किए गए आंदोलनों का हासिल, श्रमिकों के हाथ में तीली राहित माचिस क्यों है? लघुकथा यह सोचने पर मजबूर करती है कि मजदूरों के हिस्से की तीलियाँ और उनमे लगा बारूद आखिर कौन और कहाँ ले जाता है? मजदूरों की इस स्थिति का ज़िम्मेदार कौन है? यह प्रश्न लघुकथा को अतीव मार्मिकता प्रदान कर उसे पाठकों के अन्तस में सदा कौंधने वाले शीर्ष पायदान पर स्थापित करता है। व्यापक अर्थों में यह लघुकथा तमाम कल्याणकारी उपक्रमों पर भी कटाक्ष मानी जा सकती है, जिनमे लाभार्थी, तथाकथित लाभ प्राप्त कर भी शोषित ही रह जाता है। लघुकथा पढ़कर धूमिल की कालजयी रचना ‘रोटी और संसद’ की पंक्तियाँ सहसा याद आ जाती है-
“मैं पूछता हूँ –
‘यह तीसरा आदमी कौन है?’
मेरे देश की संसद मौन है।”
लघुकथा में कथ्य का विकास और भाषा शैली आकर्षक है। अतिसूक्ष्म वाक्यों के अर्थ-घनत्व विस्मित करते हैं। व्यवस्था से, किसी इन्कलाब से मजदूरों के मोहभंग का सूक्ष्मदर्शी चित्रण लघुकथा को बेजोड़ बनाता है। मेरी पसन्द की दूसरी लघुकथा नवोदित लघुकथाकार मानसी वहाणे की ‘स्त्रीवादी-पुरुष’ है। ‘स्त्रीवाद’ स्त्री की उन परिस्थितियों को बदलने की बात करता है, जिनके कारण उन्हें पुरुषों के समान अधिकार नहीं मिल पाते । स्त्रीवाद, स्त्री को स्त्री-सुलभ गुण छोड़कर, बदल जाने की वकालत नहीं करता; बल्कि परिस्थितियों के बदलाव से औरत को स्वतन्त्र निर्णय लेने के अधिकार देने की बात करता है। भारतीय समाज में जहाँ एक ओर कुछ स्त्रियों द्वारा नारी स्वतंत्रता को ऐसे पारिभाषित किया जा रहा है, मानो स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता मात्र हो, वहीं कई बार पुरुष समाज भी लैंगिक सोच के दायरे से बाहर न निकलते हुए, स्त्री को देह मानने की मानसिकता से अब तक उबर नहीं पाया है।‘स्त्रीवादी-पुरुष’ ऐसी ही पृष्ठभूमि को रेखांकित करती एक बेहतरीन लघुकथा है।
एक स्त्री और पुरुष, मात्र दो पात्रों के बीच संक्षिप्त सम्वाद समस्त स्त्री-मुक्ति आन्दोलन की ‘दिशा और दशा’ को दर्शाते प्रतीत होते है। संवादों के तानेबाने में केवल प्रश्नोत्तर गुँथे हैं। पुरुष पात्र पूछता है, “आपको पता है, यह सिंदूर, व्रत-उपवास गुलामी की निशानी है!” स्त्री पात्र का उत्तर ‘हाँ’ में है। पुरुष पात्र पूछता है, स्त्री देह वर्षों से पुरुषों की गुलाम रही है, पर अपनी देह पर के स्त्री का खुद का अधिकार होना चाहिए और उसे वर्जिनिटी के बन्धनों से आज़ाद होना चाहिए।” स्त्री पात्र का उत्तर ‘हाँ’ में है । इस पर पुरुष पात्र स्त्री से कहता है- “कल मुझसे मिलो एक स्वतंत्र औरत की जिंदगी जीने के लिए।” स्त्री के मना करने पर कि यह सब उसे पसन्द नहीं, पुरुष पूछता है कि क्या आप आज़ाद नही होना चाहती ? स्त्री कहती है – “यह मै स्वयं तय करूँगी” पुरुष का गुस्सा फूट पड़ता है और वह कहता है – “आप गुलाम हैं. और गुलाम ही बनी रहेंगी!”
लघुकथा सामाजिक यथार्थ को उजागर करती है। स्त्री के
लिए स्थापित परम्परागत मूल्यों से एक स्त्री का विचलन भले ही स्त्रीवादी आन्दोलन
के तहत गुलामी से बाहर निकलना हो, पर समाज द्वारा यह विचलन अभी केवल सतही
तौर पर स्वीकार्य है, विशेष रूप से पुरुष समाज द्वारा ‘ऐसी स्त्री’ को उच्छृंखल एवं सर्वसुलभ मान लिया जाता है। कुछ ऐसी ही मान्यता के
चलते लघुकथा में पुरुष पात्र, स्त्री पात्र से आज़ाद स्त्री के रूप में मिलने का प्रस्ताव
रख देता है। स्त्री द्वारा मना करने पर यानी आत्मनिर्णय लेने पर पुरुष का अहम
परम्परागत रूप से तार-तार हो जाता है और वह गुस्से में कह उठता है, “आप गुलाम हैं और
गुलाम ही बनी रहेंगी!” । आज़ादी
क्या है और ग़ुलामी क्या है? यह कौन तय करेगा? लघुकथा स्त्रीवादी आन्दोलन का सच
दर्शाती है। पूर्णतया स्त्रीवादी पुरुष पात्र होने के बावजूद उसके द्वारा स्त्री
के आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार नहीं कर पाना बताता है की स्त्री-मुक्ति की
मंजिल फिलहाल काफी दूर है।
(1)
गेट-मीटिंग/ उर्मिल कुमार थपलियाल
हमेशा की तरह की गेटमीटिंग थी। बैठे हुए
मजदूरों के चेहरे पर एक औपचारिकता थी। शिथिल, क्लांत और बासी–तिबासी।
आज बाहर से यूनियन के एक जुझारू नेता आने वाले
थे। वे आए । चेहरे पर ही क्रांति की चमक थी। मजदूरों ने तालियों से उनका स्वागत किया। मजदूरों की दशा देखकर वे पहले द्रवित और
फिर क्रोध में हो गए । लम्बा–चौड़ा भाषण न देकर वे सीधे प्वाइंट पर आ गए ।
उन्होंने चीखकर पूछा-क्या तुम्हारे घर में राशन है?
सभी मजदूर मायूसी में बोले-नहीं ।
नेता- रहने को घर है?
सब-नहीं ।
नेता-पहनने को कपड़ा है?
सब-नहीं ।
नेता- कुछ पैसा वैसा है?
सब-नहीं
नेता-तुम्हारे पास माचिस है?
सब- हाँ, है
।
नेता-तो जला क्यूँ नहीं डालते इस व्यवस्था को । अभी इसी
वक्त।
सब-माचिस में तीलियाँ नहीं हैं ।
(2)
स्त्रीवादी पुरुष/मानवी वहाणे
आपको पता है, यह
सिंदूर गुलामी की निशानी है!”
“हम्म ठीक है।”
“आपको पता है, यह व्रत-उपवास गुलामी की निशानी है!”
“जी सही है।”
“आपको पता है, स्त्राी देह वर्षों से पुरुषों की गुलाम रही है.”
“हाँ, यह तो है।”
“अपनी देह पर केवल आपका अधिकार
होना चाहिए.”
“हाँ सच!”
“आपको वर्जिनिटी जैसे बंधनों से
आजाद होना चाहिए.”
“हाँ, इसके चक्कर में हमने बहुत भुगता है!”
“तो कल मिलिए न।”
“जी, क्यों?”
“एक स्वतंत्र औरत की जिंदगी जीने
के लिए…”
“जी… आप गलत समझ रहे हैं… मुझे यह सब पसंद नहीं।”
“तो क्या आप आजाद नहीं. होना
चाहतीं?”
“जी लेकिन यह तो मैं तय करूँगी न…”
“क्या बकवास है! आप गुलाम हैं और
गुलाम ही बनी रहेंगी!”
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