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ततःकिम’ –प्रतिकार की शक्ति से भरी- पूरी लघुकथाएँ

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हिन्दी लघुकथा का व्यापक प्रसार हुआ है और बहुआयामी विविधता से नये-नये अक्स उभरकर आये हैं। नई दस्तक में डॉ. संध्या तिवारी की ‘ततःकिम’ संग्रह की लघुकथाएँ न केवल प्रभावी हैं, बल्कि प्रतिकार की शक्ति से भरी पूरी हैं। बड़ी बात यह है कि उनकी लघुकथाएँ मिथकों की पौराणिकता को उलझाती हुई समकालीन यथार्थ को समानान्तर रूप से इस तरह अंतर्ग्रथित करती हैं कि काल की लंबाई के बावजूद वे कालदोष से मुक्त हैं। 

     संध्या जी  नारी विमर्श के ऐसे अक्स उभारती हैं, जो जाने-पहचाने होकर भी तीखे और असरदार हो जाते हैं। यथार्थ को वे हर क्षेत्र में व्याप्त सीलन, सेंध और सलवटों से खींच ले आती हैं, पर उनमें जितनी विवशता और लाचारगी की भाव मुद्राएं हैं, उतने ही तेजस्वी स्वर भी हैं। लघुकथा के संक्षिप्त आकार में वे दो कथाओं को समान्तर रूप से लिपटाकर उसे ऐसे बिन्दु पर ले आती हैं, जहाँ पौराणिक जड़ता दम तोड़ती नज़र आती है। 

विराम चिन्हों और शीर्षकों से लेकर लघुकथा के अंतर्ग्रथन में लघुकथाएँ बहुत चौकस और प्रयोगी शिल्प से अपने चरमान्त की नाटकीय आकस्मिकता दे जाती हैं। लोक कथाओं, लोक विश्वासों, लोकोक्तिओं मुहावरों, आंचलिक बोलियों, मानवेतर पात्रों को भी वे कथाविन्यास की संचेतना में इस तरह जोड़ देती हैं, कि अभिव्यक्ति के क्षेत्रफल का ही विस्तार नहीं होता, अपितु व्यंजना को भी लोकधर्मी बना देता है। 

      नारी विमर्श के अनेक अक्स उनकी लघुकथाओं में उस अस्मितावंचित नारी को समाने लाते हैं, तो नक्काल आधुनिकताओं में पगी मानसिकता पर भी आघात करते हैं। कविता अपने शिल्प में जिस काव्यात्मक लय में नारी अस्मिता को पूरे घर में संजोती है, झाड़ू-बुहारू, रसोई, ड्रांइगरूम की सज्जा में। सुंदर घर और लेखन की तन्मयता में। पर कुछ वो छूट गया है, जो पूरा घर स्त्री से बना होकर भी मुख्य द्वार पर अपनी नेम प्लेट से  वंचित है, पुरूष प्रधान नाम-द्वार और नाम विहीन स्त्री का सुन्दर घर सारे कृतत्व वाले रात दिन के सेवा भाव पर पुरूष की नामधारी मुहर, जिसे समाज पहचानता है। पर ‘मैं मुख्य द्वारा की साँकल’ में जितनी सुरक्षा और पोषण नारी का है, उतना ही ‘घर की नेमप्लेट’ में अपने से ही वंचित। 

      छोटी सी लघुकथा ;लेकिन कितना विराट स्कैच, तंज भरा विमर्श पुरूष प्रधान मानसिकता के साथ अस्मिता विहीन नारी के उदात्त निर्लेप संस्कार को ध्वनित करता है। कविता की लय में यह कथा विन्यास और सहज व्यापार में यति-गति दृश्यमान है, ‘मैं’ की लय में सधी तर्ज के बावजूद लेखकीय प्रवेश नहीं।

      अक्स और भी हैं नारी विमर्श के जो कि सामाजिक मर्यादाओं की सिलवट में कसमसाती हुई भी अपने होने का अर्थ संजोती हैं।

आधी आबादी, हूटर, काला फागुन, स्वपरिचय, हूक, लड़कियाँ आदि लघुकथाओं में समाज की सकारात्मक दृष्टि से वंचित फिर भी  तथाकथित मर्यादावादी संस्कारों पर गहरी चोट करतीं संध्या तिवारी के नारी पात्र इसी समाज में अपने हिस्से की ज़मीन छीन कर खड़े हैं। उनके नारी पात्र समाज की इन्हीं सलवटों के बीच, सूरज की रोशनी से आँख मिलाते घास की तरह खड़े हैं। 

समान्तर कथाशीलता में ययाति शर्मिष्ठा के मिथ में देवमानी के अस्तित्व को लघुकथा 254/-  में नुकीलेपन के साथ आज के सन्दर्भ में उभारा गया है। उपेक्षिता माँ ’देवयानी’ इस मिथ की संधि में शिक्षा और नौकरी के विकल्प में नई रोशनी दिखाती है। ……

      ’ब्रह्मराक्षस’ में सम्मोहन शिल्प उस कुंठा को सरेआम कर देती है जहाँ माँ, अपनी बेटी को अपनी ही प्रतिमूर्ति बनाना चाहती है और इसी कुंठा में बेटी हो जाती है मनोरोगी। और यह मनोवृत्त घर-घर का है, जिस कैंचुल से निकलने को नारी तड़फड़ाती है। स्वतंत्र सहज व्यक्तित्व के लिये। ’सम्मोहित’ में योग साधाना के बीच औरताना कौतूहल समाधि और आकुल हलचल का द्धन्द्ध बन जाता है। नारियों के बीच एक नारी ही पूरी लघुकथा का सम्मान व्यंजक व्यंग्य है। 

      कन्या भ्रूण हत्या का विषय पुराना है पर उसकी निर्मम विभीषिका घरों की सरहद में कुहराम मचाये रखती है। ’छिन्नमस्ता का देवीरूप, जो नृशंस के नाश की पूज्य शक्ति का मातृरूप है। पर माँ ही गर्भस्थ कन्या भ्रूण की हत्या होने देने के लिये विवश है। कोलाज की तरह गड्डमड्ड होते देवी और नारी के ये दो रूप सांस्कृतिकता आध्यात्मिकता और व्यवहार में पगी नारी विवशता में छिन्नमस्ता का प्रश्निल व्यंग्य बन जाती है। लघुकथा की यह शक्ति भी कि किस तरह हजारों साल के सांस्कृतिक मिथ और अल्ट्रासाउण्ड में बिलबिलाते कन्या भ्रूण स्वर को चिंतनीय धुरी पर ला खड़ा करते हैं और कालदोष हवा हो जाता है।। ’श्मशान वैराग्य’ सधे शिल्प की व्यंजक लघुकथा भी नारी पर अत्याचारों की करुण ध्वनि है, जो टीवी और शास्त्रीय नृत्य संगीत की ध्वनियों के शोर में कोहराम तक को पचा जाती है, चाहे बलात्कार हो, लड़कियों के शव हो, पत्नी और पुत्रियों को गाड़ी से धकेलने के नृशंस कृत्य हो, जीवित चिंताओं के बीच नृत्य संगीत हो, रेल हादसा हो। पर सारे तांडवो के बीच नृत्य के घुँघरू यथावत् बज रहें हैं। तांडव जीवन का, तांडव नृत्य का। दो अलग अलग कथावृत्त है। कैसे कोड मिक्ंिसग कर व्यंजना को प्रत्यग्र बना देते हैं। 

      नारी अस्मिता का केवल यथार्थ और विडम्बना वाला स्वर ही इन लघुकथाओं में नहीं उभरा है। किसी कीमत पर, ’मैं बाँझ नही हूँ’, ’सदाबहार’, ’बया और बंदर’, ’बाबू’, ’खरपतवार’, ’आधी आबादी’, ’दुकान’, दिठौना आदि लघुकथायें अलग-अलग तरह से पुत्र-पितृवादी सत्ता पर चोट करती हैं, पर ‘बिना सिर वाली लड़की’ में लड़की का वह चेहरा ’नारी देह’ की पुरुषवादी प्रयोजनीयता पर कसकर प्रहार करता है।

 ’बेताल प्रश्न’ में वर्जिनिटी की नैतिकता को मिडिल क्लास मानसिकता मानने वाली आधुनिकता पर भी खासा तंज कसा गया है। किटी पार्टी के आधुनिकतावादी फैशनों में बदलता हुआ चरित्र ऐसा लगता है, जैसे तयशुदा संज्ञाओं ने खुशी से अपने विकारी सर्वनाम खोज लिए हों, आदमी के बदले शराब में। सदियों की नारी की विवश दास्तानें ’अलजबरा’ में बेहद तीखा सवाल कर जाती हैं- ’’औरत के संदर्भ में रूप, नाद और चरित्र अलजबरा प्रागैतिहासिक है …. तो माना, कि यदि शक की एक भुजा रूप, दूसरी चरित्र, तीसरी नाद तो चौथी क्या होगी?’’ यह जरूर है कि कभी ऐसी लघुकथायें सांकेतिक अमूर्तन में उलझती नजर आती हैं पर अमूर्तन हटते ही वे विषाद के साथ गहरी मार भी करती नज़र आती हैं।

      जातीयता के विभेदक संस्कारों पर भी आक्रामक करती लघुकथाएँ मानवीय समानता के सोच में ‘क्षेपक’ की तरह हैं। आदमी थोड़ा-सा बेहतर स्थितियों में आने पर अपनी ही जाति और बचपन की स्थितियों से मुँह सिकोड़ने लगता है। सुखिया का एस. लाल बन जाना और बेटी के लिये अच्छा प्रस्ताव आने पर भी जाति के नाम पर ’अचानक खीर के बर्तन में सुअरों की थूथन-सी बाडी लैंग्वेज बन जाना ’क्षेपक’ लघुकथा की मारक व्यंजना है। ‘चप्पल के बहाने’ तो लेखिका के मोचीराम ने बाबू मनोज के जूते ही नहीं उसके जातिवाद सोच पर भी तीखी कीलें ठोंक दी हैं

“…एक संत रैदासऊ रहे पहिले, उनकी चमड़ा भिगोने वाली कठौती में साछात गंगाजी आयीं रही तो ई तो केवल गांठने वाला डब्बाइ है, और महाराज सच्च पूछौ तो इहे कौम ठीक से समुझि पाई, कि ईसुर कहाँ नाहीं है’’। महाराज और मोचीराम, विवेकानंद और रैदास में भेद करती सांस्कारिक संकीर्णता पर यह मानवीय संदेश मारक चोट करता है। ’साँकल’ में भी इसी तरह की द्वैतवादी जातीय पेशबंदियाँ दोहरेपन पर प्रहार करती हैं। 

      यों इन लघुकथाओं में विषयों की विविधता है। ‘राजा नंगा है’ में नारी की विवशता का पर्दा पुरुषत्ववादी सभ्यता से छिटककर जब राजा-प्रजा की पुरानी कहानी में तीर की तरह जा बिंधता है तो पारदर्शी सत्य भी घर में तमाचे और राजा के दरबार में बच्चे के हाथ काट दिये जाने की संभावना से आहत हो जाता है। लेखिका इन दोहरे कथानकों की संधि में एक बड़े सत्य में छलाँग लगाने के शिल्प में माहिर है। ’चिड़िया उड’़ में बीमार लड़की को सभी स्वार्थ की नज़र से तौलते हैं, पर यही लड़की इन दुनियादार चरित्रों से हटकर अन्य बच्चों के साथ खेलती माँ को देखती है, तो उसे अपनी उड़ान का आसमान भी माँ की अँगुली की दिशा में नज़र आता है। ’मैं तो नाचूँगी गूलर तले’ में असहिष्णुता के नाम पर उठे तथाकथित चेहरों पर सांकेतिक प्रहार किया गया है। ‘और वह मरी नहीं’ लघुकथा तो गीत की सी टेक पर बर्तनवाली डुकरिया की जिन्दगी को ही समेट लेती है, बल्कि व्यक्तिवाची से इस पूरी जात की पीड़ा बन जाती है। कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को बयाँ करती ’सपनों का दरवाजा’ भी लेखिका के कैनवास को व्यापक बनाती है। 

      यह सही है कि हिन्दी लघुकथा की सहज शैली वर्णनात्मक शिल्प से निकलकर प्रयोगी शिल्प में निखर रही है। संध्या तिवारी ने मानवेतर शिल्प संवादी शिल्प, मिथकीय नियोजन, लोककथा शैली, काव्यात्मक पैटर्न, गद्यगीत शैली में अपनी इन कथा निर्मितियों को असरदार बनाया है। कुछ लघुकथाएँ सहज शिल्प में हैं, तो अधिकतर सांकेतिक व्यंजना लिए हुए कहीं-कहीं अमूर्तन तक चली जाती हैं, लेकिन वे भाषिक कोटियों के चयन और नियोजन के प्रति बहुत सचेत हैं। अज्ञेय ने तारसप्तक में कहा था कि अभिव्यक्ति के लिये कवि भाषा को अक्षम पाता है और कई बार विरामादि चिन्हों के माध्यम से अर्थ की सत्ता का विस्तार करता है। संध्या तिवारी भाषिक ध्वनियों विराम चिन्हों , सांगीतिक ध्वनियों, शब्द के बीच की दूरियों से उस अमूर्त को भी व्यक्त करने की राह तलाशती हैं। इससे न केवल परिवेश, व्यक्ति के भीतर का मनोविज्ञान, बॉडी लैंग्वेज की दृश्यमानता, नाटकीय मोड़, विज्युअल होते चरित्र सामने आते हैं, बल्कि अर्थाें की छिपी परत भी कुछ कहने लगती है। शीर्षकों में भी पूरी लघुकथा के विन्यास को संजो देने की क्षमता है, कभी-कभी तो वे बिना शब्द के भी पूरी लघुकथा पढ़ने के बाद शीर्षक तक लौटने के लिये बाध्य करते हैं, जैसे – ₹,  …. , !!!!!! ???? आदि। पौराणिक मिथकों से लेकर आधुनिक जीवन परिदृश्यों को छोटे से कैनवास पर समेटती कई लघुकथाएँ उन्हें ’टाइप’ से निकालकर ’हस्ताक्षर’ बनाती हैं। 

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-36, क्लीमेंस रोड, सरवना स्टोर्स के पीछे, पुरुषवाकम, चेन्नई-600007, तमिलनाडु/मो. 09425083335


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