बारिश का पानी छत से पाइप के जरिए पूरे चौक में फैला था।
नन्हीं शालू बगीचे में छोटे-छोटे गड्ढे खोदती जा रही थी। हाथ में एक छोटी लकड़ी व खुरपी थी।फ्राक,पायजामा सब कीचड़ पानी में लथड़-पथड़ हो गए थे, तभी अन्दर से माँ आती दिखी। शालू उत्साहित हो उन्हें बताने लगी, ‘‘देखो, देखो मैंने…तभी तड़ाक….।’’
माँ का एक थप्पड़ अचानक से उसके गालों पर पड़ा। उसके शब्द मुँह के अन्दर व आँसू आँखों से बाहर निकल आए।
“सारे कपड़े गंदे कर दिए। समझ में नहीं आता, अन्दर नहीं खेल सकती?..” .और भी सारी उलाहना देती माँ ने उसकी बाँह खींची।
रूआँसी शालू ने सफाई दी, “मैं तो आपके लिए पानी बो रही थी। माली भैया कह रहे थे गड्ढा खोदकर जो डालो वही उग आता है। आप गर्मी में कितने परेशान होते हो ना पानी के लिए, इसीलिए मैं पानी बो रही थी। अब पानी का झाड़ उगेगा। फिर आप परेशान नहीं होओगी न?”
माँ की आँखें अपराधबोध से नम हो गईं। शालू अनजाने ही उन्हें गर्मी के अलावा भी पानी बचाने का सबक सिखा गई। उन्होंने बिना गंदे कपड़ों की चिंता किए शालू को गोदी में भींच लिया।