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बार-बार आकर्षित करती लघुकथाएँ

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            अब तक जो लघुकथाएँ मैंने पढ़ीं हैं, उनमें से किन्हीं दो का चुनाव करना मेरे लिए बहुत कठिन है, लेकिन यदि फिर भी चुनना ही पड़े, तो मैं सुकेश साहनी की ‘विजेता’ और अखिल रायज़ादा की ‘पहला संगीत’ को वरीयता दूंगा। अनूठी विषय-वस्तु और उसे बरतने के अंदाज़ से ये दोनों लघुकथाएँ मुझे बार-बार आकर्षित करती हैं। दोनों ही रचनाओं में प्रत्यक्षतः जितना कहा गया है, अप्रत्यक्ष रूप से उससे कहीं ज़्यादा ध्वनित होता है – जो स्पष्ट रूप से सुनाई भी देता है।

            सुकेश साहनी की ‘विजेता’ एक ऐसे वृद्ध से परिचय करवाती है, जो अपने पुत्रों के हाथों बार-बार अपमानित होने के बाद – अंततः अकेले रहने का फैसला करता है।

            पड़ोस में रहने वाला एक छोटा बालक, अक्सर इस बूढ़े के घर चला आता है। उसे अपने हमउम्र बच्चों के बजाय बूढ़े के साथ खेलना ज़्यादा पसंद है। बूढ़े को भी अपने इस नन्हे दोस्त की संगत ख़ूब भाती है।

            एक दिन वे आँखों पर पट्टी बाँधकर  एक-दूसरे को ढूँढने का खेल खेलते हैं। जैसे ही बालक बूढ़े की आँखों पर पट्टी बाँधता है, बूढ़े को याद आता है कि किस तरह मोतियाबिंद के बाद उसकी एक आँख की रोशनी जा चुकी है और दूसरी आँख की रोशनी भी लगातार क्षीण हो रही है। उसे एकाएक महसूस होता है कि यदि वह अंधा हो गया तो किसके सहारे जिएगा? अपने रोज़मर्रा के काम कैसे करेगा? क्या वह फिर से अपने उन्ही बेटों के पास चला जाए? नहीं – नहीं!! बेटों ने तो बार-बार उसका अपमान किया है। तो फिर?

            अगले ही क्षण वह बूढ़ा अपनी लाचारी को नकार देता है। आँखों पर पट्टी बाँधे, ख़ुद को एक अंधे व्यक्ति के रूप में रख कर, वह कमरे में मौजूद अपनी ज़रूरत की चीजों की स्थिति का अंदाज़ा लगाने में जुट जाता है।

            नन्हे बालक का यह खेल, उस बूढ़े के लिए भावी संकट से जूझने का पूर्वाभ्यास बन जाता है। एक बालसुलभ क्रीड़ा एक विराट संघर्ष में तब्दील हो जाती है। खेल में तो बच्चा जीत जाता है; लेकिन असली विजेता वह बूढ़ा साबित होता है – जिसके लिए नब्बे वर्ष की आयु में अकेले जीना किसी संग्राम से कम नहीं है।

            शीर्षक से लेकर अंतिम पंक्ति तक, यह लघुकथा बेहद मजबूती और गहरी संवेदनशीलता के साथ बुनी गई है। ‘विजेता’ शीर्षक न केवल लघुकथा के सर्वथा अनूकूल है वरन यह इसे एक विराट स्वरूप भी प्रदान करता है। लघुकथा की शुरुआत दो पात्रों के बीच हो रहे संवादों से होती है। जो बहुत ही सरलता से, इन दोनों पात्रों, उनके बीच स्थापित संबंध तथा उनकी पृष्ठभूमि से परिचित करवा देते हैं। इसके लिए कहीं भी अतिरिक्त विवरण देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। संवाद बहुत सहज, स्वाभाविक और चरित्रानुकूल हैं, जैसे –

            बच्चा  – “मेरा खाना तो माँ बनाती है, तुम्हारी माँ कहाँ है?”

            बूढ़ा – “मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गई थी।”

– साथ ही रोचक और बहुत अर्थपूर्ण भी, जैसे –

            बूढ़ा – “दोस्त, अपना काम ख़ुद ही करना चाहिए…और फिर…अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ हूँ…           है न!”

            बच्चा – “और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।”

            आँखों पर पट्टी बाँधकर खेले जा रहे खेल के साथ यह लघुकथा अपने चरम पर पहुँचती है – जहाँ, वह बूढ़ा अपने अंधे हो जाने की संभावना को ध्यान में रखते हुए, बिना किसी सहारे के अपना जीवन जीने का अभ्यास करता दिखाई देता है। यह बिन्दु इस लघुकथा को बेहद ताकतवर बना देता है, जिसे लेखक ने इस तरह बयान किया है –

            “…उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे से कदम बढ़ाए…हाथ से टटोलकर देखा…मेज…उस पर रखा    गिलास…पानी का जग…यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई…और…और…यह रहा बिजली का       स्विच…लेकिन…तब…मुझ अंधे को इसकी क्या ज़रूरत होगी?…होगी…तब भी रोशनी की ज़रूरत          होगी…अपने लिए नहीं…दूसरों के लिए…मैंने कर लिया…मैं तब भी यह सब काम कर लूँगा!”

            इस बिन्दु पर, अपनी ही संतान द्वारा उपेक्षित व अपमानित किए जा रहे तमाम वृद्ध अभिभावकों का प्रतिनिधित्व करता यह बूढ़ा पात्र, एक प्रेरणा-स्रोत के रूप में खड़ा दिखाई देता है। आत्मविश्वास से भरा – मंद-मंद मुस्कुराता हुआ।

            मेरे लिए यह ‘द ओल्ड मैन एंड द सी’ का बूढ़ा है – जो किसी विशाल समुद्र में निपट अकेला जूझ रहा है। मेरे लिए इस लघुकथा का सार तत्व अरुण कमल की कविता ‘बुढ़ापा’ की यह अंतिम पंक्ति है – “न विवशता, न थकान, न स्यापा / हो, तो ज़िंदगी की नोक हो बुढ़ापा”

            मेरी दूसरी पसंदीदा लघुकथा अखिल रायजादा की ‘पहला संगीत’ है। कथादेश द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता (2010) में इसे दूसरा पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

            लघुकथा का मुख्य पात्र एक ऐसा व्यक्ति है जो अपनी नई खरीदी गिटार के साथ एक लोकल ट्रेन के भीड़ भरे डिब्बे में सफर कर रहा है। कुछ फेरीवाले और भिखारी भी वहाँ मौजूद हैं। किसी स्कूल की फटी हुई ड्रेस पहने एक छोटी-सी लड़की, गोद में अपने भाई को उठाए, भीख माँग रही है। जब वह गिटारवाले को देखती है तो उससे ‘हैप्पी बर्थ डे’ की धुन बजाने की प्रार्थना करती है – क्योंकि आज उसके भाई का जन्मदिन है।

            इस अनूठे कथानक और इसके क्लाईमेक्स ने मुझे बहुत प्रभावित किया। लेखक ने इसे इतनी ख़ूबी से रचा है कि जब मैंने पहली बार इस लघुकथा को पढ़ा था तो, अन्त तक पहुँचते-पहुँचते भावुक हो उठा था। विगत दस वर्षों के दौरान मैं इसे कई बार पढ़ चुका हूँ, और आज भी इसका प्रभाव मुझ पर वैसा ही है। अपनी इस बुनावट के लिहाज से भी यह मेरी पसंदीदा लघुकथा है।

            लोकल ट्रेन के डिब्बे में किसी तरह ठुंस कर सफर कर रहे यात्रियों की भारी भीड़, फेरीवाले और भिखारी। यह सब मिलकर हमारी वयवस्था का एक विद्रूप कोलाज़ प्रस्तुत करते हैं। लघुकथा के शुरुआती हिस्से में इसका संक्षिप्त वर्णन है। यहाँ एक यात्री का यह संवाद बहुत अर्थपूर्ण है – “इतनी भीड़ में भी इन फेरीवालों और भिखारियों को जगह मिल ही जाती है।“

            फिर मध्य भाग में, उस भिखारी लड़की का परिचय, कुछ यात्रियों की आपसी बातचीत के माध्यम से दिया गया है कि – “ये देखिए भावी भिखारी। पता नहीं इनके माँ-बाप इन्हें क्यों पैदा करते हैं?”  और – “अरे परसों जिस भिखारिन की ट्रेन से कट कर मौत हुई थी ये उसी के बच्चे हैं।”

            यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते पाठक संभवतः नई गिटार को भूल सा जाता है। जिज्ञासा के केंद्र में अब भीख मांग रही वह छोटी बच्ची है – स्कूल की फटी ड्रेस पहने – गोद में छोटे भाई को संभाले। जब वह लड़की गिटारवाले को देख, बार-बार उससे कहती है कि – “आज मेरे भाई का जन्मदिन है।” – और फिर अंत में अपनी यह मंशा ज़ाहिर करती है कि – “हैप्पी बर्थडे बजा दो न!” तो अचानक पाठक का ध्यान पुनः ‘नई’ गिटार की तरफ जाता है – जिसे बजाते हुए पहली बार उस पात्र की आँखें नाम हो जाती हैं।

            लेखक ने नई गिटार से उपजे ‘पहले संगीत’ के बहाने वर्ग-विभाजित समाज, सृजन के वास्तविक उद्देशय एवं वंचित रह गए बहुत बड़े तबके को रेखांकित किया है। चाहे कला हो या साहित्य, सबमें जीवन ही होता है। इसके सृजन हेतु हम जो कुछ भी जुटाते हैं, सब इसी जीवन से उधार लेते हैं। तो हम वह सब इस रूप में वापस लौटाएँ कि यह जीवन और अधिक सुंदर बन सके। किसी भी सृजन का उद्देशय वास्तव में यही होना चाहिए। यह जीवन को ही समर्पित होना चाहिए।

            इस दृष्टि से जब मैं इस लघुकथा को पढ़ता हूँ तो पाता हूँ कि संगीत की रचना आनंद हेतु ही तो की जाती है। इस आनंद पर सबका समान अधिकार है। वंचितों का तो शायद सबसे ज्यादा। कोई भी कलाकार अपनी पहली रचना किसी न किसी को समर्पित करता है। हर नए काम की शुरुआत हम मंगल-कामना से ही करते हैं। इस लघुकथा में भी सृजन का यही रूप देखने को मिलता है। गिटारवाला अपनी पहली रचना को, बचपन से वंचित रह गए उन भिखारी बच्चों को समर्पित करता है। यहाँ शीर्षक ‘पहला संगीत’ न केवल सटीक है बल्कि रचना के उस उद्देश्य की भी पूर्ति करता है जिसे ध्यान में रखकर इसे रचा गया होगा।

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1-विजेता

सुकेश साहनी

“बाबा, खेलो न!’’

‘‘दोस्त, अब तुम जाओ। तुम्हारी माँ तुम्हें ढूँढ रही होगी।’’

‘‘माँ को पता है-मैं तुम्हारे पास हूँ। वो बिल्कुल परेशान नहीं होगी। ‘पकड़म-पकड़ाई’ ही खेल लो न!’’

‘‘बेटा, तुम पड़ोस के बच्चों के साथ खेल लो। मुझे अपना खाना भी तो बनाना है।’’

‘‘मुझे नहीं खेलना उनके साथ! वे अपने खिलौने भी नहीं छूने देते।’’

अगले ही क्षण कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘मेरा खाना तो माँ बनाती है, तुम्हारी माँ कहाँ है?’’

‘‘मेरी माँ तो बहुत पहले ही मर गई थी।’’ नब्बे साल के बूढ़े ने मुस्कुराकर कहा।

बच्चा उदास हो गया। बूढ़े के नजदीक आकर उसने उसका झुर्रियों-भरा चेहरा अपने नन्हे हाथों में भर लिया, ‘‘अब तुम्हें खाना बनाने की कोई जरूरत नहीं, मैं माँ से तुम्हारे लिए खाना ले आया करूँगा। अब तो खेल लो!’’

“दोस्त!’’ बूढ़े ने बच्चे की आँखों में झाँकते हुए कहा, ‘‘अपना काम खुद ही करना चाहिए…और फिर…अभी मैं बूढ़ा भी तो नहीं हुआ  हूँ …है   न !’’

‘‘और क्या, बूढ़े की तो कमर भी झुकी होती है।’’

‘‘तो ठीक है, अब दो जवान मिलकर खाना बनाएँगे।’’ बूढ़े ने रसोई की ओर मार्च करते हुए कहा। बच्चा खिलखिलाकर हँसा और उसके पीछे-पीछे चल दिया।

कुकर में दाल-चावल चढ़ाकर वे फिर कमरे में आ गए। बच्चे ने बूढ़े को बैठने का आदेश दिया, फिर उसकी आँखों पर पट्टी बाँधने लगा।

पट्टी बँधते ही उसका ध्यान अपनी आँखों की ओर चला गया-मोतियाबिन्द के ऑपरेशन के बाद एक आँख की रोशनी बिलकुल खत्म हो गई थी। दूसरी आँख की ज्योति भी बहुत तेजी से क्षीण होती जा रही थी।

‘‘ बाबा, पकड़ो…पकड़ो…!’’ बच्चा उसके चारों ओर घूमते हुए कह रहा था।

उसने बच्चे को पकड़ने के लिए हाथ फैलाए ,तो एक विचार उसके मस्तिष्क में कौंधा-जब दूसरी आँख से भी अन्धा हो जाएगा…तब?….वह …क्या करेगा?..किसके पास रहेगा?…बेटों के पास? नहीं…नहीं! बारी-बारी से सबके पास रहकर देख लिया…हर बार अपमानित होकर लौटा है…तो फिर …?

‘‘मैं यहाँ हूँ …मुझे पकड़ो!’’

उसने दृढ़ निश्चय के साथ धीरे-से कदम बढ़ाए…हाथ से टटोलकर देखा…मेज..उस पर रखा गिलास..पानी का जग…यह मेरी कुर्सी और यह रही चारपाई…और…और…यह रहा बिजली का स्विच…लेकिन..तब..मुझ अन्धे को इसकी क्या जरूरत होगी?…होगी…तब भी रोशनी की जरूरत होगी…अपने लिए नहीं….दूसरों के लिए….मैंने कर लिया…मैं तब भी सब काम कर लूँगा!

‘‘बाबा, तुम मुझे नहीं पकड़ पाए। तुम हार गए…तुम हार गए!’’ बच्चा तालियाँ पीट रहा था।

बूढ़े की घनी सफेद दाढ़ी के बीच होठों पर आत्मविश्वास से भरी मुस्कान थिरक रही थी।

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2-पहला संगीत

अखिल रायजादा

रोज की तरह एक गर्म, बेवजह उमस भरा दिन। पसीने में नहाते, किसी तरह साँस लेते यात्रियों को समेटे लोकल ट्रेन पूरी रफ्तार से चली जा रही थी। यात्रियों की इस भीड़ में मैं भी अपना नया खरीदा गिटार टाँगे खडा था। इस हालत में स्वयं और नए गिटार को सम्हालने में बड़ी परेशानी हो रही थी।

सौभाग्यवश दो स्टेशनों के बाद बैठने की जगह मिली। लोकल के शोर में एक सुर सुनाई पड़ा, ‘‘जो दे उसका भला ,जो न दे उसका भी भला…..’’ एक लंगड़ा भिखारी भीख माँगते निकला फिर दो बच्चे भीख माँगते निकले, फिर  एक औरत खीरा बेचती आई। एक चायवाला और उसके पीछे गुटका, तम्बाखू, पाउच वाले चिल्लाते निकले। किनारे की सीट पर साथ बैठे परेशान सज्जन बड़े ध्यान से इन्हें देख रहे थे, बोल पड़े–‘‘इतनी भीड़ में भी इन फेरी वालों, भिखारियों को जगह मिल ही जाती है। अभी मेरे ऊपर गर्म चाय गिरते गिरते बची है। आजकल तो छोटे–छोटे बच्चे भी भीख माँग रहे है।

तभी एक लड़की छोटे से लड़के को गोद में उठाए भीख माँगते गुजरी। उनके कटे–फटे कपड़े उनका परिचय करा रहे थे। दूसरे सहयात्री ने कहा–‘‘ये देखिए भावी भिखारी। पता नहीं इनके माँ–बाप पैदा क्यों करते हैं?’’

विगत छह माह से मैं भी इस रूट पर चल रहा हूँ परन्तु मैंने इन बच्चों को पहले भीख मांगते कभी नहीं देखा था। पहले सहयात्री ने कहा–‘‘अरे परसो जिस भिखारिन की ट्रेन से कटकर मौत हुई थी ये उसी के बच्चे है!’’

अब छोटे बच्चों के भीख माँगने के कारण ने अजीब सी खामोशी की शक्ल ले ली। सभी फेरीवालों, भिखारियों की तरह उस लड़की ने भी बच्चे को गोद में उठाए कई चक्कर लगाए। मैंने ध्यान दिया उसकी नजरें मुझ पर रुकती थी। ट्रेन चली जा रही थी, लोकल का अंतिम पड़ाव और मेरा गंतव्य आने में अब कुछ ही समय बचा था।

बिखरे बाल और उदास चेहरा ओढ़े, फटी हुई किसी स्कूल की ड्रेस में बच्चे गोद में उठाए वो लड़की अब मेरे ठीक सामने थी। मैंने पाया कि इस बार वो ना केवल मेरी ओर देख रही थी बल्कि उसने अपना हाथ भी आगे बढ़ा रखा था। मुझे अपनी ओर देखते वो बोली–‘‘आज मेरे भाई का जन्मदिन है।’’ अमूमन मेरी जेब में चाकलेट पड़ी रहती है  ।मैंने गोद में रखा गिटार किनारे रख कर जेब टटोली दो चाकलेट निकाल कर उसे दी। छोटा बच्चा किलकारी मारता उन पर झपटा, परन्तु बच्ची की उँगली फिर भी मेरी तरफ थी। अब तक इस अजीब सी स्थिति ने सभी यात्रियों का ध्यानाकर्षण कर लिया था। कुछ उन्हें गालियाँ देकर वहाँ से जाने को कहने लगे।

इसके पहले कि मैं कुछ समझूँ उसने कहा–‘‘आज मेरे भाई का जन्मदिन है…’’ मैं प्रश्नवाचक चिह्न- सा उसे ताक रहा था। वह लड़की फिर बोली–‘‘आज मेरे भाई का जन्मदिन है। हैप्पी बर्थ डे बजा दो ना….’’ लोकल अपनी रोज की रफ्तार में थी। मैंने केस से अपना नया गिटार बाहर निकाला और हैप्पी बर्थ डे टू यू बजाने लगा। छोटा बच्चा गोद से उतर कर नाचने लगा। सहयात्री आश्चर्य में थे। लड़की की आँखों में अद्भुत चमक थी। ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू यू’’ बजाते पहली बार मेरी आँखें नम थी।

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