‘ऐ ताँगे वाले! ताँगा खाली है क्या ? ‘
‘कहाँ जाना है आपको ?‘
‘मदनगंज….,
‘नीम गंज की सवारी है बीबी जी, वह…सामने पान की दुकान पर……..‘
तो पुलिया तक ही छोड़ देना । क्या लोगे ?
‘साठ पैसे‘
असमंजस में पड़ गयी वह । आधा मील के करीब ही होगी वह पुलिया, साठ पैसे अधिक लगे फिर भी स्वीकृति में सिर हिलाती ताँगे में बैठ गई ।
पास की दुकान से सवारी के आते ही ताँगा चल पड़ा । पुलिया पार आकर ही रूका । उतरकर वह पाँच मिनट तक पर्स टटोलती रही फिर बोली ‘चालीस पैसे ही हैं बाबा, और खुल्ले नहीं हैं‘।
उँगलियों के बीच अठन्नी दबाकर छुपाने की क्रिया जितनी तेज़ हुई उतनी ही स्पष्ट हो उठी निकृष्ट मानसिकता ।
चालीस पैसे लेकर घोडे़ को चाबुक से हाँकता हुआ ताँगे वाला ज़ोर से हँस दिया ‘कोई बात नहीं सरकार । बीस पैसे का महल बना लेना‘।
.0.
↧
बादशाह
↧