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लघुकथा-पठन

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वस्तुतः साहित्य में यह एक स्वाभाविक सी बात है कि जब कोई लेखक अपने अतिरिक्त किसी और का साहित्य पढ़ता है तो उसके द्वारा साहित्य-पठन के समय, उसकी दृष्टि सहज ही एक पाठक के साथ लेखकीय रूप में परिवर्तित हो जाती है। इसको इस तरह भी कहा जा सकता है कि लेखक पढ़ते समय केवल रचना के भाव पक्ष पर ही स्थिर न रहकर, रचना को उसके साहित्यिक स्तर पर भी मापने का कार्य करता है। यहाँ यह बात भी ग़ौरतलब है कि कोई भी साहित्यकार पाठक पहले होता है; लेखक बाद में, क्योंकि लेखन की प्रथम कड़ी पठन या अभ्यास ही कही जा सकती है।

जहाँ तक मैं स्वयं अपने पाठन के बारे में कहूँ, तो इसका प्रारंभ बाल्यावस्था से ही हो गया था, लेकिन साहित्य को सही से ग्रहण करना और विशेषकर लघुकथा-पठन शायद जीवन के दूसरे पड़ाव में आकर ही हुआ था। तब से अब तक पढ़ी गई लघुकथाओं में से कई लघुकथाएँ अलग-अलग कारणों से मुझे आकर्षित भी करती रही हैं। ऐसी लघुकथाओं में मुझे हमेशा से ही भूख, गरीबी और भ्रष्टाचार विषय की रचनाएँ सदैव प्रिय रही हैं। 

आज मैं ‘अपनी पसंद’ के अंतर्गत ‘भूख’ और ‘भ्रष्टाचार’ से ही जुड़ी दो रचनाओं को यहाँ, अपने दृष्टिकोण के साथ रखना चाहूँगा जो हमेशा ही मुझे आकर्षित करती रही हैं।

अपनी अपनी भूख  (विषय – भूख)

लघुकथा साहित्य में भूख विषय पर अपने अपने ढंग से बहुत सी कालजयी कथाएँ कही गई हैं, जिनमें प्रत्येक कथा भूख या भूख से त्रस्त पात्र को अपने नजरिए से प्रस्तुत करती है। ऐसी ही श्रेष्ठ रचनाओं के बीच से मेरी दृष्टि हमेशा ही एक लघुकथा पर जा टिकती है जिसका नाम है, ‘अपनी अपनी भूख’। योगराज प्रभाकर जी द्वारा रचित यह लघुकथा मुझे इसके ‘कथ्य’ के लिए विशेष तौर से आकर्षित करती रही है। रचना लेखक की भूमिका के साथ प्रारंभ होती है और संवादों के जरिये आगे बढ़ती है। और कथ्य के मुख्य भाव को रहस्य बनाते हुए अंत में उद्घाटित करती है।

लघुकथा ‘अपनी अपनी भूख’ एक धनी परिवार के बच्चे की कथा है, जिसे भूख न लगने की शिकायत के चलते चिकित्सक को दिखाया जाता है। परिवार में उसकी इस स्थिति के लिए चिंता व्याप्त हो जाती है और प्रयासों के बाद भी चिंता समाप्त नहीं होती। इस स्थिति को देखकर परिवार की नौकरानी भी असंमजस की भावना में जानना चाहती हैं कि बच्चे को क्या हुआ? और वास्तविकता जानकर वह अनायास ही आश्चर्यचकित हो जाती है और प्रतिक्रिया में उसके मुँह से यही निकलता है कि, ‘मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी।’ और रचना समाप्त हो जाती है।

रचना का यह अनकहा और भूख को एक बीमारी की तरह ‘ट्रीट’ किया जाना इस लघुकथा का एक अद्भुत पक्ष है। यह एक विसंगतिजनक तथ्य ही है कि जहाँ धनवान लोगों में भूख का न लगना एक चिंता का विषय बन जाता है वहीं एक निर्धन परिवार में भूख लगना ही अपने आप में बड़ी चिंता है। इसी विशेष तथ्य को कथा का आधार और अंत में अनकहे का पंच वाक्य बनाया गया है। ‘बच्चों के सिर पर हाथ फिरवाने’ यानि बच्चे के लिए भूख न लगने की दुआ माँगती नौकरानी के शब्द भूख की पराकाष्ठा को दर्शाने में सहज ही सक्षम और पाठक को झिंझोड़ने के लिए काफी हैं।

माजना  (विषय – भ्रष्टाचार)

भ्रष्टाचार के बिंदु पर लघुकथा साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है, लेकिन कुछ लघुकथाएँ  इस विषय को इतने अलग ढंग से सामने रखती हैं कि स्वत: ही पाठक की स्मृति में स्थान बना लेती हैं। वैसे तो भ्रष्टाचार के बिंदु पर लघुकथा ‘दीमक’ (सुकेश साहनी) एक ऐसी लघुकथा है जिसमें ‘सरकारी दफ्तरों’ की रिकॉर्ड व्यवस्था और भ्रष्टाचार को बड़े ही तीखे भाव के साथ ‘दीमक’ से जोड़ा जाना सीधे मन की गहराई में जा कर लगता है, लेकिन आज मैं यहाँ माधव नागदा जी की लघुकथा ‘माजना‘ की बात करूँगा जिसे मैंने करीब दो वर्ष पूर्व पढ़ा था।

कथ्य लेखक की भूमिका के साथ पूरी तरह से संवाद शैली में ही रचा गया है, जिसकी भाषा भी पूर्णतयः पात्रों के अनुरूप रचने का प्रयास हुआ है।

माजना कथा है एक ऐसे ईमानदार लेखाकार की, जिसे भ्रष्टाचार के सामने न झुकने और अपनी ईमानदारी के चलते अनगिनित बार ट्रांसफर किया गया है। इस नई जगह पर भी, ‘साहब’ के जरिये येन केन परकेन इस बात का प्रयास किया जाता है कि वह फर्जी बिल आदि पर अपनी स्वीकृति दे दे, लेकिन वह (लेखाकार) हर बात का दो टूक उत्तर देता है। 

‘माजना’ जो वस्तुतः मेवाड़ी शब्द है जिसे ‘लखण’ भी कहा जाता है, अर्थात लक्षण। (इसकी मारक शक्ति के चलते ही इसे उपयोग किया गया है) रचना में इसके जरिए व्यक्ति के संस्कारों पर चोट की गई है। यह लघुकथा कथ्य और विषय के स्तर पर भले ही चिरपरिचित लगती है लेकिन इसका ट्रीटमेंट बिलकुल अलग है और रचना के अंत में ईमानदार कथा नायक केवल अपने पर (और कहीं देखा जाए तो ईमानदार प्रवर्ति के पूरे वर्ग पर) लगे आरोपों का उत्तर ही नहीं देता बल्कि आरोपकर्ता को ईमानदार और ईमानदारी की समाज में व्याप्त दुर्दशा होने का उत्तरदायित्व भी ठहराता है। और यही अंत कि ”मेरे जैसे लोग क्यों भुगत रहे हैं, बताऊं? क्योंकि ऊपर से नीचे तक तुम्हारे माजने के लोग भरे पड़े हैं। समझे।” लघुकथा को एक सार्थक अर्थ भी दे जाता है।

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01 अपनी अपनी भूख  – योगराज प्रभाकर 

पिछले कई दिनों से घर में एक अजीब सी हलचल थी। कभी नन्हे दीपू को डॉक्टर के पास ले जाया जाता तो कभी डॉक्टर उसे देखने घर आ जाता। दीपू स्कूल भी नहीं जा रहा था। घर के सभी सदस्यों के चेहरों से ख़ुशी अचानक गायब हो गई थी। घर की नौकरानी इस सब को चुपचाप देखती रहती। कई बार उसने पूछना भी चाहा किन्तु दबंग स्वाभाव मालकिन से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई। आज जब फिर दीपू को डॉक्टर के पास ले वापिस घर लाया गया तो मालकिन की आँखों में आँसू थे।

रसोई घर के सामने से गुज़र रही मालकिन से नौकरानी ने हिम्मत जुटा कर पूछ ही लिया:

“बीबी जी! क्या हुआ है छोटे बाबू को ?”

“देखती नहीं कितने दिनों से तबीयत ठीक नहीं है उसकी?” मालकिन ने बेहद रूखे स्वर में कहा।

“मगर हुआ क्या है उसको जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा?” 

“बहुत भयंकर रोग है!” एक गहरी सांस लेते हुए मालिकन ने कहा।

“हाय राम! कैसा भयंकर रोग बीबी जी?” नौकरानी पूछे बिना रह न सकी।

मालकिन ने अपने कमरे की तरफ मुड़ते हुए एक गहरी साँस लेते हुए उत्तर दिया: “उसको भूख नहीं लगती री।” 

मालकिन के जाते ही अपनी फटी हुई धोती से हाथ पोंछती हुई नौकरानी बुदबुदाई:  “मेरे बच्चों के सिर पर भी अपने बेटे का हाथ फिरवा दो बीबी जी।”

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02   माजना  – माधव नागदा

यहाँ भी रामबाबू से पहले उनकी ख्याति पहुँच गई।

“साहब बड़ा खड़ूस एकाउंटेट है। फर्जीवाड़े से सख्त नफरत है उसे।” पी.ए. ने आशंका प्रकट की।

“अच्छी तरह से जानता हूं। मैंने भी कच्ची गोटियाँ नहीं खेली हैं। साम,दाम, दण्ड, भेद सब आता है मुझे। ऐसी पटखनी दूंगा कि नानी याद आ जायेगी।” साहब ने जैसे अपने आप से कहा।

सारे फर्जी बिल अटक गये। नियम विरुद्ध निविदाएं खारिज हो गयीं। उन बिलों का भुगतान भी रुक गया जो प्रथमदृष्टया सही लग रहे थे परन्तु माल स्टाक रजिस्टर में नहीं चढ़ा था। अगर चढ़ भी गया तो माल नदारद। साहब ने पहले तो प्रेम से समझाया। रामबाबू शीघ्र ही ताड़ गये कि साहब का प्रेम भी बिलों की तरह फर्जी है। दिल की बातों के साथ बिल की बातों का भला क्या मेल! फिर साहब ने प्रलोभन दिया कि फिफ्टी-फिफ्टी।  लाखों के वारे न्यारे हो जायेंगे और किसी को कानों कान खबर नहीं लगेगी। इससे भी बात बनते न देख साहब ने धमकाया कि मंत्री जी से कहकर दूर गड्ढे में ट्रांसफर करवा दूंगा।जिंदगी भर सड़ते रहोगे।”

“पहले से ही दूर हूँ। और ट्रांसफर की धमकियों से डरने वाला नहीं हूँ। बहुत हो चुके हैं। दस साल की नौकरी में बीस। समझे जनाब।”

“जा,जा। बहुत देखे हैं तेरे जैसे समझाने वाले। बड़े-बड़े मंत्री बहती गंगा में नहा रहे हैं और तू ईमानदार की पूंछड़ी बना फिर रहा है। इसी माजने से भुगत रहा है। ढंग का झोंपड़ा तक नहीं बना पाया। आज यहाँ तो कल वहाँ। सोने के कड़े पहना देगी सरकार। किसी दिन लपेटे में आ गया तो सस्पेंड हो जायेगा सस्पेंड।”

सुना है ईमानदार आदमी बहुत डरपोक होता है। परन्तु रामबाबू चेम्बर से निकलते-निकलते वापस पलटे। दोनों हाथ टेबल पर टिकाये। फिर साहब की आँखों में ऑंखें डालकर बोले,”मेरे जैसे लोग क्यों भुगत रहे हैं, बताऊँ? क्योंकि ऊपर से नीचे तक तुम्हारे माजने के लोग भरे पड़े हैं। समझे?”

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विरेंदर ‘वीर’ मेहता

 v.mehta67@gmail.com


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