रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार के लिए चयनित ‘बलि और अन्य लघुकथाओं’ के लेखक मुकेश वर्मा का नाम हममें से बहुतों के लिए नया होगा, मगर वे उम्र, अनुभव, रचनात्मक कल्पनाशीलता और परिपक्वता के लिहाज से नए नहीं हैं। हो सकता है कि उन्होंने लिखने की शुरूआत देर से की हो या अपने अत्यंत संकोची स्वभाव के कारण (जो अफसरों को शोभा नहीं देता) लघुकथाओं को छपवाने में अतिरिक्त विलंब किया हो, इसलिए वे अभी तक हमारे लिए नए बने रहे हों, मगर पचपन साल के इस कथाकार ने लगभग चुटकुलों में तब्दील की जा चुकी लघुकथाओं को मेरी समझ से एक नई सार्थकता दी है और यही बात इन लघुकथाओं का चयन पुरस्कार के लिए करते समय मेरे लिए प्रमुख रही, हालांकि मुकेश वर्मा ने सिर्फ़ लघुकथाएं नहीं लिखी हैं। उनकी कहानियों का संग्रह आ गया है और उम्मीद है कि उनकी लघुकथाओं का संग्रह भी जल्दी ही आएगा।
‘साक्षात्कार‘ के फरवरी, 2000 के अंक में प्रकाशित उनकी सभी सात लघुकथाएँ मेरी नजर में महत्त्वपूर्ण हैं। इसलिए मैंने इन सभी को एक साथ पुरस्कृत करने का फैसला किया था, मगर मेरे मित्र महेश दर्पण ने, जो आप जानते हैं कि इस पुरस्कार योजना के कर्णधारों मे से हैं, इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया कि इस पुरस्कार के नियमों के अंतर्गत सिर्फ़ एक कहानी को ही पुरस्कृत किया जा सकता है, इसलिए हमने मिलजुलकर यह रास्ता निकाला कि ‘बलि’ लघुकथा को केंद्र में रखकर बाकी लघुकथाओं के साथ अन्याय होगा और साथ ही पाठक उनकी लघुकथाओं के अत्यंत अनपेक्षित रूप से सर्जनात्मक और वैविध्यपूर्ण संसार से शायद अपरिचित रह जाएँ। वैसे भी हमारे संस्कार लघुकथाओं के बारे में इतने रूढ़ हो चुके हैं कि हमें एक लघुकथा, चाहे उसके सौ शब्द चार हजार शब्दों से ज्यादा बड़ी और सार्थक दुनिया रच देते हों, अपने आप में इतनी संपूर्ण नहीं लगती कि उसे अपेक्षया बड़े आकार की ढेरों कहानियों से योग्य मानें।
मुकेश वर्मा की इन लघुकथाओं को पढ़ते ही यह बात तुरंत ध्यान में आती है कि वह हमारे लिए नए भले हों, मगर नौसिखिए नहीं हैं। वह उनमें नहीं हैं, जिनके नौसिखिएपन से भी कभी कुछ सार्थक निकल आता है और लोग उसकी वाह–वाह कर बैठते हैं। मुकेश वर्मा ने बाकायदा परिपक्व ढंग से लघुकथा–कला को अर्जित किया है और उसमें अपनी लीक खुद बनाई है। इसलिए मुकेश को इस पुरस्कार के योग्य मानते हुए एक ऐसे कथाकार को सम्मानित करने का गौरव भी हमें मिल रहा है, जिसे उसकी रचनाशीलता के बूते पर वैसे तो कई साल पहले ही पहचान लिया जाना चाहिए था, मगर राजनीति और तिकड़मों से भरी साहित्य की दुनिया में यह सहज कहाँ संभव था, खासकर तब, जबकि रचनाकार अत्यंत संकोची भी हो।
मुकेश वर्मा अपनी इन लघुकथाओं के छोटे–से आकार में किसी घटना का चुस्ती से बयान करके कोई निश्चित नैतिक या राजनीतिक संदेश देने की कोशिश नहीं करते, जो कि अर्से से छोटी लघुकथाओं का स्वभाव रहा है। इसकी बजाय वह एक मार्मिक अनुभव को उसकी पूरी संभावनाओं के साथ, लगभग एक पहुँचे हुए कवि की–सी कुशलता के साथ उकेरते हैं, लेकिन वे अनुभव की मार्मिकता को भाषाई काव्यात्मकता के विकल प्रदर्शन के जरिए हासिल नहीं करते, बल्कि अनुभव की अपनी काव्यात्मकता से प्राप्त करते हैं। इसलिए उनके वाक्य जहाँ सीधे,सरल,संक्षिप्त हैं, वहीं उनका अनुभवों को पकड़ने का तरीका विलक्षण और सद्यन है। इस कारण उनकी लघुकथाओं में ऐसी कसावट आ गई है कि उसमें न एक शब्द कम है, न एक ज्यादा है। न शब्दों का विस्फार है, न अत्यंत संकोचन । उनकी छोटी लघुकथा ‘प्लेटफार्म से लौटते हुए‘ इस बात की गवाही देती है। इसमें घटना कुल जमा इतनी–सी है कि एक पिता रेलवे स्टेशन पर अपने बेटे को छोड़ने आया है और वह उदास तथा थका हुआ लौटता है। इस साधारण–सी संक्षिप्त घटना में लघुकथा को सरल–छोटे वाक्यों के जरिए जिस तरह बुना गया है, उससे शायद पहली बार इतने कम शब्दों में हम अतिरिक्त भावुक हुए बिना बार–बार होनेवाले इस तरह के अनुभव की मार्मिकता तक पहुँचते हैं। इस अनुभव को काव्यात्मक अनुशासन की समझ के बिना नहीं पक़ड़ा जा सकता था। हालांकि मुकेश वर्मा खुद कविता लिखते हैं, ऐसी सूचना शायद किसी को नहीं है। इस कहानी का पिता अचानक अपने पिता में बदलने लगता है और अपने तथा अपने पिता के बीच घटे ऐसे ही अनेक अनुभवों की दुनिया में चला जाता है और उसे तब पहली बार यह अहसास होता है कि उसके पिता भी उसे रेलवे स्टेशन पर छोड़कर एकदम घर लौट नहीं जाते थे, वे बेटे को छोड़ने की थकान से भरकर पत्थर की बेंच पर बैठ जाते थे और अपनी कमजोर आँखों से जाती हुई ट्रेन के आखिरी डिब्बे को अंत तक और इस तरह देखने की कोशिश करते थे कि जैसे यह उनकी जिंदगी का आखिरी डिब्बा हो। इस छोटी–सी लघुकथा में अतीत की आवाजाही है, मगर अतीत प्रेम का रोग नहीं है, जो हिंदुत्व के इन हिंसक दिनों में हमारे लेखकों–आलोचकों में भी अकसर तरह–तरह के रूपों में जाग जाता है। जहाँ अतीत का इस्तेमाल उस अनुभव की सामान्यता को उन क्षणों में पकड़ने के लिए किया गया है, जब उससे गुजरा जा रहा है और यह बताया जा रहा है कि पिता–पुत्र के बीच के अनुभवों की दुनिया में कुछ अहसास ऐसे हैं, जो समय के साथ भी नहीं बदलते और ऐसा शायद उनके अपने बेटे के साथ भी होगा। लेकिन यह थकान, यह उदासी कितनी जरूरी है, कितनी मानवीय और स्वाभाविक है।
इस तरह के छोटे–छोटे अनुभवों के मर्म को पकड़ना साधारण काम नहीं है। इसके लिए भाषा का असाधारण कौशल और संयम तो चाहिए ही,मगर साथ ही ऐसे अनुभवों को पकड़ने की सूक्ष्म दृष्टि और संवेदना भी चाहिए, वरना ऐसी कोशिश बहुत फूहड़ बन जा सकती है। इसी कुशलता और संयम से उन्होंने लगभग इसी तरह के एक और भी अनुभव का दर्ज किया है, ‘कांच पर छाप की तरह स्थिर’ लघुकथा में। लेकिन लगभग एक–सा अनुभव होते हुए भी कोई दोहराव नहीं है, बल्कि इसमें बीच में पत्नी भी है और इस कहानी में उस सामान की एक दिलचस्प सूची है, जो वह अपने बेटे के लिए लेकर जा रही है और वह अपने आपमें एक कहानी है। इस सामान को ले जाने की तैयारी और जाते समय की पत्नी की व्यग्रता अनुभव की कुछ और परतों को खोलती है। ‘जाला’ नामक लघुकथा में तो जैसे कोई घटना ही नहीं है, दृश्य भर है। एक मकड़ी है, जो शाम के समय जाला बुन रही है और वहीं एक मजदूर लड़का है, जो पराए घर का कचरा बटोर रहा है। इतने सूक्ष्म अनुभवों को आपस में जोड़कर उनमें एक अर्थ की रचना कोई कुशल–समर्थ कवि ही कर सकता है, सामान्यत: कथाकार नहीं, लकिन मुकेश वर्मा ने इसे कहानी की शर्तों पर ही संभव किया है। हालांकि कहानी में इस तरह का काम करना अभी भी प्राय: अपराध की श्रेणी में ही आता है।
जिस ‘बलि’ लघुकथा का पुरस्कार के संदर्भ में विशेष उल्लेख है, वह इन लघुकथाओं में विशिष्ट इसलिए है कि उसमें अनुभव की मार्मिकता को एक तरल–सरल वातावरण में पकड़ने की कोशिश करने की बजाय उसकी हिंसा के बीच पकड़ा गया है। यह लघुकथा अब दस बरस के हो चुके एक बच्चे कुमार के जीवन के उस दिन के बारे में है, जब वह महज तीन दिन का था और मौत के कगार पर था और लघुकथा के ‘मैं’ के भाई–भाभी, भतीजी और उसके पति के हाथ–पैर फूल गए थे, क्योंकि तुरंत इंदौर ले जाने पर ही उसकी जान बच सकती थी। मगर उस दिन भयंकर बारिश और तूफान होने से मुश्किलें ज्यादा बढ़ गई थीं। इंदौर के लिए कार रवाना होती है। कार के अंदर बैठे पाँच लोगों के मन में बच्चे के बचने के बारे में भय और आशंकाएँ हैं तथा बाहर का माहौल उसे बढ़ा रहा है। मगर इसी बीच उस कार से एक कुत्ता कुचल जाता है और किंकियाते हुए मर जाता है। उसके मरने की परवाह किसी भी तरह उन्हें नहीं है, जिनका स्वयं का बच्चा जीने–मरने के बीच झूल रहा है। सि।र्फ़ ड्राइवर दुखी और उदास है। कहानी के ‘मैं’ के बड़े भाई तो कुत्ते की उस मौत से प्रसन्न हो जाते हैं, क्योंकि उनका अंधविश्वास है कि ईश्वर ने उसके प्राण लेकर इस बच्चे के प्राण बचा दिए हैं। इस घटना के बाद खास तौर से वह बच्चे के जीवन के बारे में निश्चिंत हो जाते हैं। उसके बाद उनके अंदर से बच्चे की जान बचाने के लिए जल्दी से डॉक्टर के पास पहुँचने की विकलता भी खत्म हो जाती है और कितना विचित्र है कि कुत्ते की बलि के अंधविश्वास को मजबूत करते हुए वह बच्चा भी संयोग से जी जाता है, हालांकि कथाकार कहीं यह कहता हुआ नहीं लगता कि उस बच्चे का जीना इस बलि के कारण संभव हुआ है। यह कहानी एक तरह से मध्यवर्गीय आत्मलिप्तता, अंधविश्वास और हिंसा के प्रतिकार की कथा है। यह कथा उस मरने वाले कुत्ते और उसके लिए हमदर्दी रखनेवाले ड्राइवर के साथ खड़ी होती है, उनके साथ नहीं, जिनकी चिंता को लेकर यह शुरू होती है। यह कहानी शुरू से बच्चे की जान बचाने के प्रयासों की कठिनाइयों और विकलतापूर्ण स्थिति की कहानी लगती है, लेकिन वह अंतत: कहीं और पहुँच जाती है, जहाँ उस बच्चे की जान बचना पाठक की चिंता का विषय नहीं रह जाता।
‘प्रतिदिन अकसर’ मुकेश वर्मा की एक और विरल लघुकथा है, जिसमें लघुकथा का पात्र अपनी रौ में सोचता कुछ और है और वास्तव में होता जाता उसके विपरीत है। इसी अंतर्विरोध के समझ में न जाने की गुत्थी को सामने रखते हुए यह कहानी आरंभ होती है। यह अपने भूतपूर्व मातहत कर्मचारी के बेटे को कृपावश नौकरी देने के बदले उसके अफसर द्वारा अपनी प्रकट इच्छा के विरुद्ध दारू की एक बोतल को स्वीकार कर लेने के अपराधबोध से पैदा लघुकथा है, जो अंतत: पलटा खाती है। उस अफसर ने कभी किसी का काम कराने के बदले दारू की बोतल लाने के इस दुस्साहस के लिए उसे दुत्कारेगा, मगर उसके दुख–तकलीफें सुनकर और उसके लड़के को नौकरी देने की जरूरत को देखते हुए दारू का ब्रांड पसंद आने पर यह अफसर बोतल को स्वीकार कर लेता है। एक तरह से इस स्वीकार करने में उसके बेटे को नौकरी देने का आश्वासन छुपा हुआ है। यहाँ दारू स्वीकार करना अपने भूतपूर्व मातहत के साथ विनम्र और मानवीय व्यवहार में बदल जाता है, भ्रष्टाचार की एक हरकत के रूप में नहीं। यह लघुकथा उस दुविधापूर्ण स्थिति की लघुकथा बन जाती है, जब एक मानवीय परिस्थिति आपसे आपके सामान्य आचरण के विपरीत व्यवहार करा ले जाती है। छोटी कथा हमारे समय का फार्म है। उसके साथ इस तरह कल्पनापूर्ण और परिपक्व व्यवहार करने के लिए, जीवन की सूक्ष्मताओं और विकटताओं को उनकी पूरी मार्मिकता के साथ व्यंजित करने के लिए मुकेश वर्मा साधुवाद के पात्र हैं ।