1-ममता
गेट खोलकर भीतर घुसते हुए रमा देवी को देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। रमा का चेहरा सूखकर छुहारा हो गया था। केश बिखरे हुए थे। कपड़े भी मैले लग रहे थे। रमा का यह रूप देखकर श्यामा का दिल दहल उठा। एक कुर्सी बगल में खिसकाते हुए श्यामा ने रमा से बैठने के लिए कहा।
‘‘यहाँ नहीं, भीतर चलो ना!’’ कहती हुई रमा बिना प्रतीक्षा किए भीतर घुस गई।

ड्राइंग रूम में बैठते हुए श्यामा ने पूछा, ‘‘बाहर तो इतनी अच्छी गुनगुनी धूप थी…..फिर तुमने भीतर बैठना पसंद क्यों किया, रमा?’’
‘‘अरे! न्हीं जानती हो! बहू देख लेती न।’’ रमा ने कातर स्वर में कहा।
‘‘बहू देख लेती तो क्या कर लेती? तुम्हें घर से निकाल देती क्या? तुम इतना क्यों डरती हो रमा?’’
‘‘डरने की बात नहीं है। वह झूठ–मूठ का बखेड़ा कर देगी। कहती है, दूसरों के यहाँ जाने से आदमी की इज्जत घट जाती है।’’
‘‘अच्छा! तो फिर वह क्यों घूमती है? खैर कहा! कैसे आई हो? आजकल तो तुम घर से बाहर निकलती ही नहीं! सूरत भी तो देखो! क्या बना रखी है।’’
‘‘सूरत और सीरत की बात मत करो बहन! अब तो जिंदगी पहाड़–सी लगती है। एक–एक पल मौत की प्रतीक्षा में काट रही हूँ।’’ रमा ने आंचल से आँखें पोंछते हुए कहा।
‘अरे! अब तो तुम्हारा घर भरा–पूरा है। पतोहू है, पोते–पोतियाँ हैं, फिर दुख किस बात का है?’’ श्यामा ने पूछा।
रमा कुछ नहीं बोली। चुप रही। पैर के अँगूठे से फर्श कुरेदती रही। उसको चुप देख श्यामा ने टोका, ‘‘क्या बेटा भी कभी कुछ नहीं पूछता?’’
‘‘वो तो दिन भर ऑफिस में रहता है। शाम को घर आता है, थका–हारा। उस समय में क्या अपना दुखड़ा उससे कहूँ….नाहक परेशान होगा। रमा ने कहा।’’
‘‘इसमें परेशानी की क्या बात है? यह तो उसका कर्त्तव्य है। घर में बूढ़ी माँ है। उसकी जरूरतें क्या है, इसकी खोज–खबर लेना। क्या बेटे का काम नहीं है? लगता है इधर तुमको खो खाने–पीने में भी टोटा हो रहा है?’’
श्यामा की बातों से रमा के भीतर दबा हुआ आक्रोश एकाएक फूट पड़ा, ‘‘क्या बताऊँ! जानती हो इतनी ठंडक में मैं नीचे जमीन पर सोती हूँ। आज कई दिन हो गए खाना खाए। बेटे–बहू ने पूछा तक नहीं।’’
‘‘क्या जमाना है! अरे बहू तो दूसरे की बेटी है। बेटा तो अपना जाया है। नौ महीने पेट में पाला। भला वह इतना कठोर कैसे हो गया। क्या उसे नहीं लगता उसके बेटे भी इसके साथ ऐसा ही सलूक करेंगे?’’
रमा ने श्यामा के मुँह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘नहीं! बहन ऐसी बद्दुआ मत दो। उसकी खुशी में ही मेरी खुशी है। आखिर में तो माँ हूँ न।’’
श्यामा चुपचाप रमा के चेहरे में अपना चेहरा ढूँढ रही थी।
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2-औकात
पद के मद में आकंठ डूबे श्यामसुंदर दास ने कभी किसी को तरजीह नहीं दी। सबको एक ही लाठी से हांकते रहे। क्या घर, क्या बाहर सब जगह एक ही जैसा व्यवहार। चाहे वो मातहत कर्मचारी हो या पदाधिकारी या दोस्त, सबको वे अपनी रियाया से ज्यादा महत्त्व नहीं देते थे। कोई कुछ कहता या सुझाप देता तो उसे डांट देते और कहते–‘‘तुमको समझ में नहीं आता है तो चुप रहा करो। जाओ! खाओ–पीओ और मौज करो। यह तो मेरे प्रताप का फल है, भोगो।’’ और हो–हो कर के हँस देते। सारे के सारे लोग हाँ में हाँ मिलाते रहते।
एक बार उनकी सल्लनत को थोड़ा सा झटका लगा। उन्होंने अपने सिक्योरिटी आॅफिसर को पीकदान उठाने का इशारा किया, किंतु उसने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। वह चुपचाप अपने मातहतों को हिदायतें देता रहा। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच रहा था। सामने बैठे एक उच्च पदाधिकारी ने आगे बढ़कर पीकदान बढ़ा दिया।
‘‘ ऐ मिस्टर! आपको कुछ बुझाता–वुझाता है कि नहीं? तू कइसे कंपीट कर गया जी? ’’ कहते हुए उन्होंने उस अधिकारी को डाँटा।
‘‘मैंने कुछ समझा नहीं।’’ उसने उत्तर दिया।
‘‘लगता है, तुमको सब कुछ समझाना पड़ेगा।’’ उनकी त्योरियाँ चढ़ गई थीं।
सामने खड़े उच्चधिकारी ने नव–नियुक्त सिक्योरिटी ऑफिसर को समझाना चाहा। उसकी लल्लो–चप्पो वाली बातों पर वह बिदक उठा। उसने संयत स्वर में कहा, ‘‘ माइंड योर ओन बिजनेस प्लीज!’’
‘‘ऐ सक्सेरिया साहब, अभी इसको यहाँ का बिजनेस रूल नहीं मालूम है। जब समझ जाएगा तब सब ठीक हो जाएगा। नया खून है न!’’ कहते हुए उन्होंने पान की पीक पिच्च से उगल दी।
‘ऐ मिस्टर! जरा थरमस इधर बढ़ाइए तो।’’
उनकी बातों पर ध्यान न देते हुए वह चुपचाप खड़ा रहा। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गय। तमक कर बोले,‘‘अरे! आप ही से कह रहा हूँ। आप बहरे–वहरे नहीं नूँ हैं?’’
इस बार सिक्योरिटी ऑफिसर के चेहरे का रंग बदला। उसने थोड़ी–सी तल्ख आवाज में कहा, ‘‘मैं सिक्योरिटी ऑफिसर हूँ। चपरासी नहीं हूँ। मैं अपनी ड्यूटी कर रहा हूँ।’’
‘‘लगता है, आप हमें जानते नहीं हैं।’’कहते हुए उनका चेहरा तमतमा उठा।
‘‘जानता हूँ। अच्छी तरह पहचानता हूँ। इसलिए कि आपका सिक्योरिटी ऑॅफिसर हूँ।’’ उसने दृढ़तापूर्वक कहा।
उसकी दृढ़–इच्छाशक्ति के सामने वे निरुत्तर थे। चुपचाप उठकर भीतर कमरे में चले गए। बाहर सन्नाटा पसर गया था।
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3-रूढ़ियाँ
सुमित्रा अपने ड्रांइग–रूम में अकेली बैठी हुई समय काटने के लिए टी.वी. खोलकर बैठी हुई थी। पति के कार्यालय जाने के बाद तो समूचे घर में वह अकेली रह जाती है। समय काटना मुश्किल हो जाता है। अब घर उसे सूना–सूना सा लगता है। आखिर वो क्या करे? अब तो लोग मुहाँ–मुँही पीठ पीछे उल्टी–सीधी बातें भी करने लगे हैं। यही सब सोचते हुए वह उदासी के भँवर में डूब–उतरा रही थी।
‘‘आंटी। आंटी आप किधर है?’’ कहते हुए सन्नी ने उनके ड्रांइग–रूम में प्रवेश किया।
‘‘आओ सन्नी बेटे। आओ। कहते हुए सुमित्रा ने उसे गोद में उठा लिया। सन्नी को गोद में बैठाने पर उसे अजब का अनुभव होता है। उसे एक प्रकार की तृप्ति मिलती है। वह चाहती है, सन्नी घंटों उसकी गोद में इसी तरह बैठा रहे।’’
‘‘आंटी, आंटी। आप बहुत अच्छी हैं। आप मुझे टाफियाँ देती हैं। खिलौनों से खेलने देती हैं। मेरी मम्मी बहुत गंदी है।’’
‘‘सन्नी बेटे। ऐसी बातें नहीं बोलते। मम्मी कभी गंदी नहीं होती। अच्छा तुम बैठकर टी.वी. देखो। मैं तुम्हें टॉफी देती हूँ। कहकर सुमित्रा भीतर चली गई।’’
सन्नी टॉफी खाते हुए सुमित्रा के साथ घुल–मिलकर खेल रहा था। दोनों अपने–अपने में खोए हुए थे। सन्नी खेलने में मस्त था और सुमित्रा उसके सान्निध्य के सुख में डूबी हुई थी।
‘‘सन्नी।’’ की कर्कश आवाज से दोनों का ध्यान टूटा। सुमित्रा ने देखा सन्नी की दादी मां लपकती हुई लॉन पार कर बरामदे में खड़ी चिल्ला रही थी। सन्नी सहमा हुआ उसका आँचल पकड़कर खड़ा था।
‘‘आइए ना माँ जी, बैठिए। सन्नी यहीं खेल रहा है। मैं चाय लाती हूँ।’’
‘‘नहीं बहू। फिर कभी आऊँगी तो बैठूँगी।’’ कहते हुए उन्होंने सन्नी का कान पकड़ा और उसे घसीटने लगी।
सुमित्रा चुपचाप खड़ी सन्नी को जाते हुए देख रही थी। उसके कानों में सन्नी की दादी मां की बातें गूंज रही थीं–‘‘खुद तो बाँझ बहिला ठहरी। किस्मत में तो बच्चा लेकर आई नहीं। दूसरों के बच्चों से लाड़ लड़ाने। सुबह–सुबह इसका तो मुँह भी नहीं देखना चाहिए। पता नहीं डायन ने सन्नी पर कौन–सा जादू टोना कर दिया है कि पलक झपकते ही वह उसके पास पहुँच जाता है। समझ में नहीं आता।’’
‘‘मालकिन।’’ महरी की आवाज में सुमित्रा का ध्यान टूटा। आँचल से आँखों में छलक आए आँसुओं को पोंछते हुए संभली। सारा घर उसे काटने लगा था।
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4-शुरुआत
बस्ती में श्मशानी सन्नाटा पसरा हुआ था। चारों तरफ जले–अधजले सामान का ढेर लगा था। कहीं–कहीं छोटे–मोटे पशुओं के कंकाल भी नजर आ रहे थे। गाँव के लोगों ने पूरी रात गाँव के बाहर बरगद और पीपल के नीचे बने चबूतरे पर गुजार दी थी। बोझिल पलकों से नींद काफूर हो चुकी थी। सारे लोग भविष्य की चिंता में डूबे हुए सूनी आँखों से एक–दूसरे को देख रहे थे, चुपचाप, बेजुबान। वे अपने उजड़े चमन को निहार रहे थे।
गाडि़यों के काफिले रुकने से श्मशानी बस्ती के मुरदों में कुछ जान आ गई थी। फिर दुग्ध–धवल वस्त्रों में नेताजी के साथ–साथ उनके समर्थकों की भीड़ भी उतरी। पीछे–पीछे पत्रकारों एवं छायाकारों की फौज भी थी।
बस्ती से उठती चिरायन गंध और वस्तुओं के जलने की गंध से बचने के लिए नेताजी ने रुमाल से नाक बंद कर बस्ती वालों की तरफ मुखातिब होते हुए उन्होंने उन लोगों को अपने पास बुलाने का संकेत दिया। छायाकारों के कैमरे चालू हो गए थे। पत्रकार खोजी नजरों से घटना के भीतर की घटना को तलाशन में जुटे हए थे।
अर्जुन अलग–थलग खड़ा इन सारी बातों को देख रहा था। बस्ती का मुखिया नेताजी के पास चला गया था। नेताजी उसे सांत्वना दे रहे थे। अपने समर्थकों के माध्यम से सब लोगों को आर्थिक सहायता देने के लिए कह रहे थे। अर्जुन को लग रहा था वे फिर एक बार उजड़ने के लिए अभिशप्त हो रहे हैं। यह खेल तो वह कई वर्षों से देख रहा है। वह भीतर से बेचैन था। काका को उसने कितना समझाया था, किंतु काका लगता है फिर नेता की बातों में आ गए। नेता के समर्थक लोगों को पंक्तिबद्ध कर रहे थे। उससे रहा नहीं गया। उसने चबूतरे पर चढ़कर होंक लगाई–‘‘काका।’’ और चुपचाप दूसरी ओर मुड़ गया। सारे लोग उसके पीछे चल पड़े। काका भी मन मारे उसी ओर बढ़ गए।
नेताजी स्तब्ध समर्थकों के साथ जली हुई चिरायन गंध के बीच खड़े थे।
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