एक तो वैसे ही किसी का आना-जाना नहीं, ऊपर से परिवार का लॉक-डाउन में गाँव में फँस जाना। खान साहब के साथ समय बिताने रह गई तो कोरी तन्हाई।
रोज़-रोज़ ख़बरों में एक ही दृश्य छाया हुआ था। कतारें, लम्बी कतारें। मजदूर और बस मजदूर । जन्म-भूमि से दूर दराज़ इलाकों में फँसे मजदूर। रोटी-पानी जैसी बुनियादी ज़रूरतों से महरूम मजदूर। चींटियों के से रेले बहते दिन-रात चलना और बस चलना। चींटियों की तरह ही मामूली समझ लिए गए मजदूर। परिवार, छोटे-छोटे मासूम बच्चे। भूख से बिलखते बच्चे। भूख से मरते लोग। मरती इंसानियत। अनकही अनगिनत दास्तानें। उफ्फ!
घरबन्दी से उकताए खान साहब के पास कोरोना काल काटने का टेलीविजन और मोबाइल फोन ही ज़रिया है। फोरवर्डेड मैसेज पढ़कर ऊब जाते तो टेलीविजन पर ख़बरें चला लेते। पर चैन कहाँ?
ज़ेहन के बिल में यादों की चींटियाँ दिन-रात अविरल अथक चलती रहती। काटती रहती। सड़कों पर चलने वाले अनगिनत पाँव उनके हो जाते। तिहत्तर साल पुराने घाव हरे हो जाते। अस्सी बरस की उम्र में भी कुछ भी तो नहीं भूले। पाँव जो उस वक़्त चलते-चलते छिल गए थे, ताउम्र शोलों पर चलने का अहसास देते रहे।
सदमे से बुत बनी अम्मी के दुपट्टे का कोना पकड़े चलते हुए नहीं जान पाए कि उनका कसूर क्या था? किससे पूछते? क़िस्मत उजड़ने वाले का कसूर कभी नहीं बताती। पर जहाँ अनगिनत हाथ उजाड़ने वाले थे वहीं कई हाथ निवाला देने वाले भी थे। लोग अपनों से तो बिछुड़े थे, पर कभी किसी ने भूखा न सोने दिया। पर आज तो बच्चे भूख से मर रहे हैं। इंसानियत कितने पायदान नीचे उतर आई है। खान साहब की सोच के सातों आसमान गर्दिश में डूब जाते। घबराकर टेलीविजन बंद कर देते। काश ज़ेहन का कोई बटन बनाया होता ख़ुदा ने, उसे भी स्विच ऑफ़ कर पाते।