“बाबूजी…”
एक स्त्री की दीनहीन आवाज ने मेरा ध्यान खींचा था। बेचारी ने पैसेंजर सीट से कचरा निकालकर दरवाजे की तरफ बढ़ा दिया था और काँख से सरकते करीब साल भर के बच्चे को सम्हालने की गरज से जरा और उचका लिया था।
रेलगाड़ी में भीख माँगने का यह नया चलन है। पहले किसी कपड़े या झाडू से पैसेंजर की सीट के नीचे का कचरा बुहारेंगे< फिर खड़ा होकर झट हाथ फैला देंगे। और तो और मौका पाते ही यही लोग पैसेंजर के सामान पर हाथ भी फेर देते हैं। सामान चोरी का विचार आते ही भीतर का गुस्सा नथुनों पर फड़कने लगा।
“कुछ काम-धाम क्यों नहीं करती। ऐसे कितने दिन चलेगा?”
मैंने उसके फैले हाथों में जोरदार प्रश्न थमा दिया।
“अभी बच्चा छोटा है न बाबूजी।”
कहकर एक बार और उसने काँख से सरकते बच्चे को सम्हाला।
दृष्टि बच्चे पर पड़ने पर मेरे तेवर थोड़े ढीले हुए।
“और पति क्या करता है?”
उसके खाली हाथों में मैंने एक और प्रश्न थमा दिया।
“उसका पैर टूटा है न बाबूजी। वह चल फिर नहीं सकता। इसीलिए तो मुझे…।” वाक्य का अंत होते तक आवाज एकदम मद्धम हो गई थी।
किसी की जेब से पैसा निकालना सरल नहीं होता। उसके लिए कुछ न कुछ नखरे करने पड़ते हैं। मेरे जैसे कितने लोग इनसे ऐसे सवाल करते होंगे। ऐसे प्रश्नों के लिए ये पूरी तरह प्रशिक्षित हैं।
मुझे उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ।
“तुम्हारा घर कहाँ है?”
“वार्ड नंबर 9 ….”
संयोग से उसने जो पता बताया, न केवल वह परिचित था, बल्कि उस मोहल्ले से मेरा पुराना संबंध भी था।
उस मोहल्ले में बाँस के बर्तन बनाने वाले लोग रहते हैं। उनमें से काफी लोगों को जानता भी हूँ। वे मेरे घर बास लेने आया करते। बंजर पड़ी जमीन पर यूँ ही बाँस के कुछ पौधे रोपे दिए गए थे। उन्हीं से उगे बाँसों से कुछ घर के काम आ जाते और जो शेष बचते उन्हें बाँस की टोकरी वगैरह बनाने वाले ये लोग ले जाते।
कोई विशेष मोल-भाव नहीं होता था। वे जो देते वही रख लेते थे। हाँ, जब बाँस की टोकरी वगैरह बेचने के लिए ये लोग आते तब भी बहुत मोल-भाव नहीं होता था। अक्सर टोकरी बेचने महिलाएँ आतीं । वे कहतीं, “किसानिन के खेत के बाँस के बर्तन हैं, जउन दै देहैं, हम रख लेब।” इसके मोहल्ले के घरों से हमारे ऐसे ही रिश्ते थे।
इसका परिवार बाँस का काम करता है या नहीं यह पक्का करने के लिए मैने पूछा-“तो तुम लोग बाँस के बर्तन क्यों नहीं बनाते? यह तो घर बैठे का काम है।”
“अब बाँस की टोकरी खरीदता कौन है बाबूजी!”कहकर उसने अपने फैलाए हाथ न केवल सिकोड़ लिए ; बल्कि निराश हो उसने अपना सिर भी दूसरी ओर फेर लिया। शायद उसे विश्वास हो चला था कि मैं सिर्फ़ उसका समय खराब कर रहा हूँ।
उसकी बातों से मुझे ध्यान आया बीते कुछ वर्षों से ये लोग बाँस लेने नहीं आते। इसकी वजह शायद बाँस के बर्तनों की बिक्री का न होना है। पहले की तरह ये लोग अब घर-घर जाकर बाँस की बनी टोकरी नहीं बेचते। कुछ लोग बनाते हैं, जिसे जरूरत होती है वे उनके घर से ही खरीद ले जाते हैं। प्लास्टिक का जमाना आ गया है। ऐसे में बाँस और मिट्टी के बने बर्तनों की जगह प्लास्टिक ने ले ली है। इस प्लास्टिक ने ही इनके कामधंधे को चौपट किया है। ऐसे कितने ही कुटीर उद्योग बर्बाद हो गए और मजबूरी में परिवारों को नया काम करना पड़ा जिसमें उन्हें कई प्रकार की परेशानी होती होगी। पूँजी के अभाव और अनुभव की कमी के कारण न तो ये कोई दुकान धंधा कर सकते हैं और न ही इनके पास खेत होते हैं ; जिनसे ये अपना पेट पाल सकें। ऐसे में इन्हें या तो दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ती है या ट्रेनों में अलग-अलग बहानों से भीख माँगनी पड़ती है।
मैंने अपनी जेब में हाथ डाला ,तो जो नोट हाथ लगा वही उसे सौंप दिया।
उसने मुझे आश्चर्य की दृष्टि से देखा।
“रख लो।” कहकर मैंने जताने की कोशिश की कि मैंने तुम्हें भीख नहीं दी है; बल्कि तुम्हारी मदद की है तो उसने भी सकुचाकर वह नोट रख लिया।
“एक बार पति का पैर ठीक हो जाए, तो यह काम छोड़ दूँगी बाबूजी।”
चलते-चलते उसने मुझे आश्वस्त किया <तो लगा जैसे न केवल वर्षों से विस्थापित रिश्ता फिर जीवित हो उठा है, बल्कि उसका विस्थापित हो चुका रोजगार भी।
-0-सुरेन्द्र कुमार पटेल
ब्यौहारी, जिला-शहडोल:मध्यप्रदेश ईमेल: surendra sanju.02@gmail.com