पहले मैं लघुकथाओं को कोई विशेष महत्त्व नहीं देता था–उन्हें
मैं ‘दोयम दर्ज़े का साहित्य’ मानता था, या कहूँ साहित्य मानता ही न था–बोध कथा, नीति
कथा, अखबारी रिपोर्टिंग,हास्य–व्यंग्य चुटकुले की श्रेणी में उन्हें रखता था। सोचता
था इनके रचनाकार ‘दोयम श्रेणी के रचनाकार होते हैं या रचनाकार होते ही नहीं। उनकी दृष्टि
सीमित होती है, क्षमता स्वल्प। स्वल्प क्षमता स्वल्प। स्वल्प क्षमता और सीमित दृष्टि
वाले रचनाकार ही इस क्षेत्र में जाने–अनजाने प्रवेश पा लेते हैं और इस विधा का इस्तेमाल
अपनी स्वल्प सर्जनात्मक ऊर्जा के प्रवाह–प्रकटन के लिए गाहे–बगाहे करते हैं। रचनाकार
द्वारा इस विधा का चुनाव ही यह घोषित कर देता है। कि रचनाकार अपनी सामर्थ्य से पूर्ण
परिचित है, उसके पास सृजनात्मक ऊर्जा या दृष्टि का अभाव है–वह काव्य, नाटक, उपन्यास,
कहानी, ललित निबंध जैसे उत्तम कोटि के साहित्य की संरचना करने में असमर्थ है इसीलिए
वह निराश हताश पराजित–पराभूत मन से सर्वाधिक सुगम विधा लघुकथा को चुनता है। लघुकथा
का रचनाकार वह श्रद्धा, सम्मान, वह पद–प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर पाता जो कवि, नाटककार
उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार सामान्यत: समाज में, साहित्य में, सभी जनों के बीच
प्राप्त कर लेता है।
पत्र–पत्रिकाओं में मैं लघुकथाओं को अंतिम स्थिति में ही
पढ़ता था। जब सब कुछ खतम हो जाता और पढ़ने को और कुछ नहीं रहता तब आधे–अधूरे मन से,
बल्कि मजबूरी से विवश हो लघुकथाओं को पढ़ना शुरू करता था। उनमें कभी–कभी कुछ चमत्कृत
कर देने वाली किसी–किसी की लघुकथाएँ भी होती थीं। ज्यादातर लघुकथाएँ हास्य–व्यंग्य
या चुटकुले की कोटि की होती या अखबारी खबर या रिपोटिंग की कोटि की–जो जुगनू की क्षणिक
रुग्ण रोशनी की तरह विस्मृति के अंधकूप में सदा के लिए लुप्त हो जातीं। ज्यादातर लघुकथाएँ
मनमानस पर कोई स्थायी भाव या टिकाऊ प्रभाव पैदा ही न कर पातीं और सहज ही विस्मृत हो
जातीं। हाँ, उन्हीं में कुछ ऐसी भी लघुकथाएँ मिलतीं जिनसे अंतर उद्भासित हो उठता, चेतना
झंकृत हो उठती, अंतरात्मा व्यथित–आंदोलित हो जाती और सच्ची सृजनात्कता के जीवन्त सहवास
की रसोपलब्धि हो जाती। तब सोचता कि लघुकथा एक सशक्त सृंजनात्मक विधा हो सकती है–श्रेष्ठ
रचनाकार के हाथों में पड़ या सृजनात्मकता के समुत्कर्ष–संप्रवाह में प्रवाहित हो लघुकथा
श्रेष्ठ सृजनात्मकता की संवाहिका बन सकती है। लघुकथाओं की यदि एक ओर कटु कठोर, रुक्ष
शुष्क सीमा रेखाएँ हैं तो दूसरी ओर उनकी मृदुल मधुर मोहन मनहर संभावनाएँ भी हैं–वे
भी कविता, कहानी, ललित निबंध के निकट आ सकती हैं– उनमें भी काव्य की भाव–सघनता, आनुभूतिक
तीव्रता, कहानी का सरस सार सूत्रात्मक प्रवाह, ललित निबंध का सम्मोहन व लालिल्य ऊर्जा
व चैतन्य का समुत्कर्ष आ सकता है। कुछ लघुकथाओं से गुज़रते हुए मुझे अहसास हुआ, आभास
मिला कि लघुकथाओं में अपार संभावनाएँ छिपी है जिसका सम्यक् शोधन–संधान, दोहन–मंथन सशक्त,
प्राणवान व अनुभव सिद्ध सृजनाकार ही कर पाएगा।
तो अब जब डॉ0 सतीशराज पुष्करणा के चलते लघुकथाओं के सिद्धांत
व प्रयोग में ,उसकी सर्जना–समीक्षण में रुचि गहरी होती गई है तो लघुकथाओं के प्रति
मेरी आद्य आशाहीन उदासीनता आसवती–प्रकाशवती अभिरुचि में तब्दील होती जा रही है।
अब मैं देख रहा हूँ कि लघुकथा विधा के रूप में यदि जीवंत
सशक्त नहीं हो पा रही है ,तो यह उस विधा का दोष नहीं है या, उसकी आकारगत सीमा का दोष
नहीं है. यह उसका Native Defect या disadvantage , यह दोष है, उसके सर्जक का, उसके
रचनाकार का, उसके प्रणेता का, विधाता का। रचनाकार का अंतर यदि सूखा है, रसहीन–अनुर्वर
रश्मि–शून्य है तो उसकी रचना कैसे भरपूर होगी, उसकी सर्जना कैसे शक्तिशाली जीवन्त होगी,
सरस रसदार होगी? तो दोष सिर्फ़ रचनाकार का है, केवल रचनाकार का है। रचनाकार अपने को
श्रेष्ठ रचना के योग्य बना नहीं पाता–वह वांछित पात्रता का अर्जन नहीं करता–वह वेदना
के ताप में तपता नहीं, साधना की आँच में पकता नहीं, वह सृजनात्मकता की गंगा में नहाता
नहीं, उसका अंतर उद्भासित नहीं होता, उसे जीवन की ऊँचाई, गहराई–विस्तार के दर्शन नहीं
होते, उसे जीवन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म तरंगों कंपनों से मुठभेड़ नहीं होती,जीवन की अनेक
अमृत रूप छवियाँ अनदेखी रह जाती है, जीवन के अनेक वर्ण गंध अनाघ्रात अस्पृष्ट रह
जाते हैं, जीवन के अनेक गीत संगीत, जीवन की अनेक राग–रागिनियाँ, जीवन के अनेक छंद–लय
ताल, स्वर ,सुर, तान, ध्वनि अजात अलक्षित, अश्रुत–अश्रव्य रह जाते है, जीवन का अनंत
वैभव कोष अछूता रह जाता है, अनेक रसरासायन अननुभूत–अनास्वादित। जीवन की विविधामयी बहुरंगमयी
पुस्तक के अनेक पृष्ठ अनपढ़े अनदेखे–अनबूझे रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में वह क्या खाक
रचना कर पाएगा, वह क्या खाक सर्जना कर पाएगा?
रचना और सृजन के लिए बड़ी लंबी तैयारी और साधना
की ज़रूरत पड़ती है, बड़ी तपस्या और तपन की जरूरत पड़ती है–ग्रीष्म की दारुण तपन के
बाद ही सर्जना की सावनी समां बेधती है–सर्जन का पावन सावन सम्पूर्ण हर्षोंल्लास समेत
सर्जक के अन्तराकाश में समवतीर्ण हो उठता है।
उपनिषद् के ॠषि,महात्मा बुद्ध, कन्फ्यूशियस, ताओ लाओत्से,
ईसप, ईसा मसीह, ख़लील जिब्रान, मुल्ला नसरुद्दीन, मुल्ला दाउद, रामकृष्ण परमहंस आदि
यदि लघुकथा जैसी चीजों के माध्यम से अपने तेज, ऊर्जा और चैतन्य का सर्वोत्तम दिग्दर्शन
करा पाए तो इसका श्रेय किसको जाता है? निश्चय ही उनके सर्जनात्मक ऊर्जस्वी तेजस्वी
व्यक्तित्व को, उनके तप स्वाध्याय, उनके साधना–संधान को। तेजस्विता ऊर्जस्विता ऐसा
पारस पत्थर है जो लोहे को भी सोना बना देता है, बूँद में सिंधु भर देता है, कलियों
में बसंत खिला देता है, लघु में विराट् समाहित कर देता है, कण में असीम,क्षण में अनन्त,
दूर्वादल में विराटवन का समावेश, कतिपय सिक्ता कणों में विशाल मरुभूमि के दर्शन, प्रस्तर
खंडों में विंध्य–हिमाचल के रूप गौरव प्रतिष्ठित करा देता है–तो व्यक्तित्व के तेजस्वी
संप्रभाव से सर्जना शाश्वतोपलब्धि कर लेता है, विस्मरण के अंध खोह को पार कर शाश्वत
आलोक–लोक में संप्रतिष्ठ हो जाते हैं।
आज यदि लघुकथा दोयम दर्ज़े की साहित्यिक विधा
या शैली मानी जाती है, तो निश्चित रूप से दोष लघुकथा में लगे रचनाकारों–सर्जको का है।
वे यदि तेज सम्प्राप्त करें, ऊर्जा हासिल करें, चैतन्य की सिद्धि करें तो निश्चय ही
यह विधा भी उसी तरह संप्रतिष्ठ होगी जैसी कोई अन्य साहित्यिक विधा। तो अंतत: सिद्ध
हो जाता है कि विधा का कोई दोष नहीं, दोष है प्रयोगकर्ता का। दोहा–चौपाई जैसा छन्द
जिस सम्मोहक समुत्कर्ष पर समासीन हुआ उसका सारा श्रेय तुलसी के महातपी, महातेजस्वी
व्यक्तित्व को जाता है, उनकी सुदीर्घ एवं लक्ष्योन्मुखी साधना को जाता है। बिहारी के
दोहे जितने तेजोदीप्त होते उतने अन्यों के दोहे तेजतर्रार नहीं होते, निराला ने मुक्त
छंद को जो जीवंत लयात्मकता, बिम्ब वैभव, भावोदात्य दिया, वह किसी दूसरे से संभव न हुआ।
अंग्रेजी में शेक्सपियर ने ‘सोनेट’ को जो नमनीयता, लोच,
प्राणों का जो सहज प्रवाह दिया, कीट्स ने ‘ओड’ को जो निबिड़ सघनता व काव्य वैभव दिया,
पोप ने ‘हीरोइक काप्लेट’ को जो समुत्कर्षण, तेजोदीप्ति, परिष्कृति दी, वाल्ट
हिटमैन ने ‘फ़्रीवर्स’ ‘जो काव्य संपदा, भावावेग समर्पित किया वह किसी दूसरे रचनाकार
कलाकार से संभव न हो सका। तो बाण वही है पर राम के हाथों वह राम बाण बन जाता है, अस्त्र
वही है पर शिव के हाथों वह पाशुपतास्त्र और ब्रह्मास्त्र बन जाता है।
तो आज जरूरत है व्यक्तित्व–वर्धन की, संवर्धन की, तेज अर्जन
की, ऊर्जा–संग्रहण व चैतन्य–संवहन की। तभी लघुकथा विधा में अमित संभावनाएँ उदित हो
सकती हैं, विराट शक्ति समाहित हो सकती है, अणु बम, नाइट्रोजन बम, हाइड्रोजन बम की शक्ति
आ सकती है। वैसी स्थिति में लघुकथाएँ साहित्य की शाश्वत निधि, कालजयी सारस्वत संसिद्धि
हो सकती है।
लघुकथा आज के युग की महती आवश्यकता हो सकती है। जब जीवन
ज्यादा व्यस्त–विकट,कर्मसंकुल, जब जीवन नाना प्रकार के घात–प्रतिघातों से आहत–प्रत्याहत,
नाना प्रकार के प्रहारों से क्षत–विक्षत, क्लांत–विपन्न होता जा रहा है। नाना प्रकार
की दौड़–धूप भागम–भाग,आपाधापी, कशमकश व जद्दोजहद से जीर्ण–शीर्ण, उद्विग्न–खिन्न होता
जा रहा है तब हम लघुकथाओं के माध्यम से उस जीवन–मरू को नखलिस्तान प्रदान कर सकते हैं।
जीवन के नैराश्यनिशीथ में आशा के दीप व आस्था के संदीप जला सकते हैं। भ्रम–भ्रांति
के घनघोर जंगल में चांदनी खिला सकते हैं, दिशाहीनता के आकाश में ध्रुवतारा दिखा सकते
हैं, जीवन के श्मशान में संजीवनी ला सकते हैं, लघुकथाओं के माध्यम से तंत्रों–मंत्रों–यंत्रों
की रचना कर जीवन को भूत–प्रेत–पिशाचों से यानी संपूर्ण प्रेत बाधा से मुक्ति दिला सकते
हैं। लघुकथाओं के माध्यम से कीटाणु नाशकों का निर्माण कर जीवन को कीटाणुओं से मुक्ति
दिला सकते हैं, लड़खड़ाते जीवन को लघुकथा का टॉनिक पिला उसे सरपट दौड़ा सकते हैं यानी
लघुकथा के माध्यम से हम हर तरह का Pain killer, Healing balm
,Syrup,Tablet,Capsule ,Injectionबना सकते हैं यहाँ तक कि Surgery को विकसित कर अवांछित
अंग को काट सकते हैं ,पुरातन अंग को हटाकर नवीन अंग का प्रत्यारोपण कर सकते हैं यानी
लघुकथा को Physocian व Surgeon दोनों रूपों में इस्तेमाल कर सकते हैं –जीवन को सर्वथा
स्वस्थ ,कीटाणुमुक्त ,रोगमुक्त नीरोग बनाने के लिए ।
जीवन को स्वस्थ–रोगमुक्त, जीवन को गतिशील प्रवहमान, जीवन
को विवर्धित पुष्ट समृद्ध बनाना ही तो सर्जना का अंतिम लक्ष्य है, उसकी चरम चाहना है
और नवीनतम आधुनिकतम साहित्यिक विधा के रूप में लघुकथाएँ सारे काम बखूबी कर सकती हैं
बशर्तें कि लघुकथाकार पहले स्वयं तपने के लिए तैयार हो जाएँ। वृह्त् सिद्धि के लिए
वृहत साधना की जरूरत पड़ती है। अपने सृजन को सर्वतोभावेन संपूर्णत: समग्रत: सशक्त बलवान,
वीर्यवान, तेजस्वी–ऊर्जस्वी बनाने के लिए सुदीर्घ साधना की जरूरत पड़ेगी–अपने को हिमालयी
या भावभूतिक (भवभूतिक) धैर्य के साथ तपाना होगा तभी लघुकथा एक सशक्त रोगनाशक जीवनदायिनी
विधा के रूप में प्रयुक्त हो सकेगी अन्यथा इसके अभाव में लघुकथा का निर्जीव, निष्प्राण,
निस्पंद होना, उसका रुग्ण अल्पायु होना बिलकुल सहज स्वाभाविक है, बिल्कुल न्यायसंगत,
औचित्यपूर्ण।
लघुकथाओं के मूल्यांकन–क्रम में कुछ लघुकथाओं
का रसास्वादन :
अपने इस प्रारम्भिक प्राक्कथन के बाद अब मैं आज की कुछ लघुकथाओं
का अवलोकन–आस्वादन–मूल्यांकन करना चाहूँगा। मैं कोई पेशेवर समीक्षक–आलोचक नहीं, कोई
सिद्ध सर्जक भी नहीं, कोई अधिकारिक सूत्रदाता या कोई सर्व–संप्रभुता संपन्न, सिद्धांतदाता
भी नहीं। मैं तो केवल एक जिज्ञासु बौद्धिक हूँ, सत्य का संधाता, साहित्य–रस–रसिक–रसज्ञ,
जीवन–रस खोजी मर्मज्ञ। जहाँ–जहाँ जीवन पाता हूँ, जीवन की ऊष्मा, जीवन का ओज, जीवन की
ऊर्जा, जीवन का तप तेज, जीवन का सृजन सौंदर्य, जीवन का मोहन माधुर्य, यानी जहाँ जिधर
जीवन के बहु आलोक वैभव के दर्शन होते हैं, वहाँ उधर ही सम्मोहित आकर्षित हो दौड़ पड़ता
हूँ, इसलिए साहित्य और सर्जना, संगीत और साधना,शोधन और संधान मुझे प्रिय हैं, उन में
मेरा मन रमता है, आनन्दित–आह्लादित होता है।
जहाँ जीवन है, जहाँ जीवन का अमित वैभव–प्रवाह है, वहीं साहित्य
है, सर्जना है, संगीत है, सृष्टि है–साहित्य का महत्त्व भी उसी अनुपात से है जिस अनुपात
से वहाँ जीवन तरंगित, स्पंदित, लहरायित, तरंगायित, सृजनोद्यत,प्रवहमान है। मैं साहित्य
को सर्जना की दृष्टि से, जीवन को सृष्टि के रूप में देखता हूँ। यदि इस दृष्टि से साहित्य
सर्जना खरी उतर गई तो निश्चय ही वह स्वागतयोग्य है, अभिनंदनीय है अन्यथा केवल शब्दों
के जोड़–तोड़ या भाषा की बनावट से साहित्य का स्वर्गिक सुमन नहीं खिलता, सर्जना का
अमृत मधु तैयार नहीं होता।
मैं इन लघुकथाओं को सर्जना की दृष्टि से देखूँगा–रचना की
दृष्टि से स्वादित मूल्यांकित करूँगा।
दर्पण
अमरनाथ
चौधरी ‘अब्ज’
पहली रचना ‘दर्पण है और रचनाकार अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’। रचना
बड़ी छोटी है–प्राय: सूत्रात्मक–लघुकथा की सामान्य काया से भी छोटी, निहायत संक्षिप्त।
सिर्फ़ दो ईटों का संवाद है, एक प्रश्न, एक प्रश्न एक उत्तर–बस रचना पूरी। पर इस संक्षिप्ति
में ही पूरी बात कह दी गई है, पूरा कथ्य समावेशित कर दिया गया है, पूरा भाव समा गया
है। भाव गहरा है, सार्वभौमिक–सार्वकालिक है। रचना का यह प्रधान गुण है–शाश्वतता का
उपस्थापन–जीवन के सारभूत तत्वों का संस्थापन–इस मानी में अपने नपे–तुले शब्दों, अपनी
सटीक संवादशैली, अपनी शाश्वत भाव धारा व सहज संप्रेषणीयता के कारण यह रचना आकर्षित
करती है, एक विशिष्ट पद की अधिकारिणी बन जाती है, त्याग–तपस्या की अंधकुक्षि से ही
दृश्यमान ऐश्वर्य के फूल खिलते हैं, वृक्ष अदृश्य धरती से ही रसदोहन कर अमृत फल–फूल
देता है–नींव की अदृश्य ईंट के बल पर ही भव्य अट्टालिका खड़ी होती है, उसी के बल पर
ऊँची मीनारें और गुम्बदें शोभा पाती हैं, इतराती–इठलाती हैं इस बेहतरीन कथा को यदि
शिल्प की कुछ और अधिक स्थिर बनावट व सृजनात्मक ऊर्जा–प्रेरणा का कुछ गहनतर गंभीरता
संस्पर्श प्राप्त होता तो रचना प्रथम कोटि की हो सकती थी पर अपनी वर्तमान स्थिति में
वह दोयम दर्ज़े की ही रह गई।
निर्णायक
कदम
चन्द्रभूषण
सिंह ‘चन्द्र’
दूसरी रचना ‘निर्णायक कदम’ के रचनाकार चन्द्रभूषण सिंह
‘चन्द्र’ हैं। यह रचना कर्ज में डूबे देवचरण के दुख दर्द की कहानी है। उसकी मन:स्थिति,
उसके अंतर्मथन का जीवंन अंकन किया गया है। संवेदना का जागरण प्रारंभ से ही हो जाता
है और उसकी धारा अंत तक प्रवहमान रहती है–बल्कि अंत में तो अत्यधिक गहन गंभीर होकर
चरम स्थिति प्राप्त कर लेती है। संवेदना के बाहुल्य,संवेदना के संचार व गहराई से इस
रचना में काव्य के कुछ गुण,गीत की कुछ विशेषता आ जाते हैं। एक गहन कारुण्य का भाव जाग्रत
हो जाता है, असहायता की एक गहरी अनुभूति होती है। रचना में शाश्वतता के गुण वर्तमान
हैं। शीर्षक भी ठीक ही कहा जाएगा पर इससे भी ज्यादा तीखा ध्वन्यात्मक व्यंग्यात्मक
शीर्षक चुना जा सकता था जो भावानुरूप तथा ज्यादा मर्मस्पर्शी हो रेखा को छू सकता था।
रचना उच्च द्वितीय श्रेणी में रखी जा सकती है–प्रथम श्रेणी को भी छू सकती है।
भारत
परस
दासोत
तीसरी रचना का शीर्षक ‘भारत’ है और रचनाकार पारस दासोत।
ऐसे भारत एक साधनहीन, दीनहीन मलिन स्कूली छात्र का नाम है पर ‘भारत’ अपने देश का भी
भार ढो सकता है इसका सांकेतिक व प्रतीकात्मक अर्थ भी लगाया जा सकता है जो संभवत: रचनाकार
का भी इष्ट अभीष्ट हो सकता है। वैसे रचना कोई बहुत प्रभावोत्पादक नहीं है पर जिस भाव
या विचार का यह संवहन संप्रेषण करती है वह निश्चित रूप से अत्यन्त मूल्यवान है, कीमती
है। कथ्य मूल्यवान है, संदेश कीमती है। किसी भी उपलब्धि के लिए गरीबी बाधक नहीं हो
सकती। प्रतिभा की विजय, मेधा का विस्फोट गरीबी में भी संभव है, बल्कि ज्यादा संभव है।
सम्पन्नता व समृद्धि जीवन में सतही खुशहाली ला सकती है, पर जीवन की गहरी सच्चाई से
साक्षात्कार के लिए विपन्नता का वरदान आवश्यक हो जाता है। प्रतीकार्थ में कहा जा सकता
है कि भारत सर्वाधिक साधनहीन व विपन्न होते हुए भी जीवन की दौड़ में सर्वथा विजयी होता
है, संस्कृति के क्षेत्र में सर्वदा स्वर्णपदक प्राप्त करता है। रचना में सृजनात्मक
रस मिठास की कमी खटकती है इसलिए इसे द्वितीय कोटि में ही स्थान मिल पाएगा।
माँ
प्रबोध
कुमार गोविल
चौथी लघुकथा ‘माँ’ शीर्षक से प्रस्तुत है रचनाकार है, प्रबोधकुमार
गोविल। प्रबोध कुमार गोविल की यह रचना मानव के सनातन भावों में सबसे विराट भाव–मातृत्व
भाव का बड़ा ही तीखा अंकन करती है। अंतिम अंश तो बड़ा ही हृदयभावक,मर्मस्पर्शी है।
मातृत्व- भाव की विशाल उदारता से ओत–प्रोत पाठक भी मातृत्व के उस रस विस्तार में ममतामयी
मां केअपार रस पारावार में तरंगायित होने लगता है, डूबने–उतराने, ऊभ–चूभ होने लगता
है–एक अजीब अकथनीय सौंदर्य मिठास, ममत्व–माधुर्य से भर उठता है। सचमुच मातृत्व जीवन
का सर्वाधिक सुंदर रूप है, भाव है। मातृत्व मानवता की उत्कृष्टतम दिव्यतम छवि है जो
देवत्व को छू लेती है, ईश्वर को स्पर्शित करती है। मातृत्व एक पूर्ण रस, पूर्ण रसास्वादन
है, इस भाव के उदित होते ही, इस महाभाव के अवतरित–प्रसरित–विस्तरित होते ही जीवन के
सारे अभाव, कष्ट–क्लेश, वेदना–व्यथा काफूर हो जाते हैं और मानव दीनता में भी पूर्ण
समृद्धि की अनुभूति करने लगता है। रचना हर तरह से अच्छी बन पड़ी है। इसमें साहित्य
के शाश्वत आकर्षण–सम्मोहन विद्यमान हैं–शाश्वत अपील के अमृत अंश है जो अच्छी रचना की
पहली व अंतिम शर्त हो सकती है। सार्वभौमिक सत्य को कथ्य बनाकर उसे संवेदना की धीमी
स्थिर आंच में पकाकर गोविल ने रचना को जीवनदायी मधुर पेय के रूप में उपस्थित कर दिया
है। रचना निश्चित रूप से प्रथम कोटि की है।
धमकी
रामयतन
प्रसाद यादव
पाँचवी रचना रामयतन प्रसाद यादव की ‘धमकी’ है। रचनाकार ने
दहेज प्रथा की दारुण विभीषिकाओं से करुणा–विगलित हो इस रचना की रचना की है। कम से कम
शब्दों में सारी स्थिति, घटना व पात्रों का यथार्थ परक प्रभावशाली जीवन अंकन करके रचनाकार
ने पाठकों को भी उस स्थिति–अनुभूति में अनायास सम्मिलित कर लिया है और उस स्थिति से
उत्पन्न विवशता का, कारुण्य का आस्वादक बना दिया है। दहेज के चलते, अपनी बच्ची के भविष्य
की सुरक्षा के लिए गरीब साधनहीन रिक्शा चालक दम्पत्ति ब्लडबैंक में अपना खून बेचने
को बाध्य–विवश हो जाते हैं। इस तरह दहेज का राक्षस, दामाद की लिप्सा–लोलुपता, लड़की
के माता पिता से खून की मांग करता है, उन्हें आंशिक शहादत के लिए मजबूर कर देता है।
आज दहेज की बलिवेदी पर कितने मूल्यवान जीवनों की क्रूरतापूर्वक कुर्बानी हो रही है–इस
मर्मवेधी तथ्य को रचनाकार ने बड़ी सघन व तीव्र संवेदन–शीलता से उजागर किया है फिर भी
रचना प्रथम कोटि की नहीं बन पड़ी है, सृजनात्मक ऊर्जा या प्रेरणा का वेग व प्रवाह उतना
गहन व तेज नहीं हो पाया है इसलिए इसे निश्चित रूप से द्वितीय कोटि में स्थान मिलेगा।
अपना
देश
सत्यनारायण
नाटे
सत्यनारायण नाटे की लघुकथा ‘अपना देश’ गरीबी और दुर्गन्ध
का एक प्रभावशाली चित्र उपस्थित करती है। यह बेबसी व लाचारी का सशक्त चित्रण प्रस्तुत
करती है। एक भिखमंगे के माध्यम से रचनाकार ने पूरे देश के कलेवर को रोगमय, व्रणमय दिखाया
है–दुर्गन्धभरा, पीव देता। बीमारी लाइलाज है जबतक शरीर चले तब तक चले–असहायावस्था के
दारुण्य का संवेद्य चित्रण स्थिति को, कथ्य को, भाव को सुसंप्रेष्य बना देता है। इस
लघुकथा के शीर्षक से बहुतों का मतभेद हो सकता है –आखिरकार यह शीर्षक देकर रचनाकार ने
क्या कहना चाहा है, बहुत स्पष्ट नहीं होता। बात है भिखमंगे की और शीर्षक है ‘अपना देश’
। कहीं भिखमंगा ही तो अपना देश नहीं है? क्या भिखमंगा सांकेतिक अर्थ देता है? बात बहुत
कुछ समझ में नहीं आती। सृजनात्मक दृष्टि से रचना बहुत प्रभावशाली नहीं बन पाती। इसलिए
इसे द्वितीय कोटि में ही रखा जा सकता है।
वापसी
सुकेश
साहनी
सुकेश साहनी की लघुकथा ‘वापसी’ एक बहुत सुन्दर,बहुत उत्कृष्ट
रचना है। सृजनात्मक का समस्त सुषमा–सौरभ इस सर्जना में समाहित है, समाविष्ट है। ‘वापसी’
शीर्षक भी बड़ा सटीक है, बड़ा उपयुक्त–ईमानदारी की वापसी (Good Sence), चरित्र–सिद्धान्त–आदर्शों
की वापसी, विवेक–वैभव की वापसी।
एक अभियंता की अतीत ईमानदारी से उसकी वर्तमान बेईमानी की
तुलना की गई है–उसके दोनों रूपों–भावों की पुष्टि की गई है–इससे उत्पन्न जो अंतर्मथन,
उद्वेलन, आत्म–ग्लानि है वह बड़ी सुंदरता से, साहित्यिकता से, मर्मस्पर्शता से प्रस्तुत
किया गया है। आदर्श और यथार्थ के केन्द्र को, सदाचार और भ्रष्टाचार के अन्तर्द्वन्द्व
को बड़ी खूबी से, बड़े प्रभावशाली ढंग से रखा गया है। वर्तमान के स्खलन या पतन में
अपने गौरवशाली अतीत का स्मरण विवेक के उदय का, चैतन्य के विस्फोट का कारण बनता है।
अतीत की विरुदावली पथभ्रष्ट मानव को पुन: मार्ग पर लाने का उपक्रम करती है–पटरी से
गिरी गाड़ी फिर पटरी पर आ जाती है और वांछित दिशा में सर्व–शक्ति से दौड़ने लगती है।
कभी–कभी जीवन की कोई साधारण घटना या अनुभव ही जीवन में ऐतिहासिक मोड़ Turning
pointया सिद्ध होता है। जीवन का रूपान्तरण–भावान्तरण–कायाकल्प हो जाता है–
Ressurrection जीवन पुन: उज्जीवित हो उठता है अपने संपूर्ण भाव–वैभव के साथ। आत्म निरीक्षण,
आत्म परीक्षण, आत्मग्लानि व पश्चात्ताप से मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन, चमत्कारित
तब्दीलियाँ उपस्थित हो जाती है।
ईमानदारी के प्रत्यावर्तन की यह कहानी, सदाचरण की वापसी
की यह कथा, आदर्शों के पुनरागमन व पुनर्स्थापन का यह आख्यान घोर नैराश्यांधकार में
सहसा सूर्योदय की संभावना का संधान कर लेती है जिससे जीवन का दैन्य–नैराश्य, जीवन की
दिग्भ्रांति और मूल्यभ्रष्टता और आशा और विश्वास आस्था व मूल्यबोध में परिवर्तित हो
जाती है। यह रचना सर्वतोभावेन तृप्तिकर है, तुष्टिदायिनी है। रचना के महत् उद्देश्य
की सत्पूर्ति करती यह रचना, सृजनात्मकता के स्वच्छ सौरभ–सुवास से संग्रथित यह सर्जना
वस्तुत: उत्कृष्ट पदाधिकारिणी है। निश्चय ही यह प्रथम कोटि में उच्च स्थान की अधिकारिणी
है।
पोस्टर
अखिलेन्द्र
पाल सिंह
अखिलेन्द्र पाल सिंह की ‘पोस्टर’ शीर्षक लघुकथा एक गरीब
बंधुआ मजदूर की और एक ज़मीदार या क्रुद्ध सामंत की मानसिकता को बड़े जीवन्त, सशक्त
व प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती है। बीस सूत्री कार्यक्रम के पोस्टर को देखकर मज़दूर
के दिमाग में भावी स्वर्णिम सपनों के द्वार अचानक खुल जाते हैं–वह सपनों से आकान्त
स्वप्नलोक में विचरण करता अपने वर्तमान दु:ख–दैन्य–दारिद्रय को पूर्णत: बिसर जाता है
जब तक कि सामंतवादी आक्रोश का क्रूर डंडा उसके सर पर दनादन गिरकर उसे लहूलुहान नहीं
कर देता। उसके सपने चूर–चूर हो जाते हैं–उसका कल्पित घरौंदा धराशाई हो जाता है, उसका
काल्पनिक स्वर्ग ध्वस्त हो जाता है। स्वर्ग के फूलों के सिंहासन पर समासीन मज़बूर नरक
के खौलते तेल के कड़ाह में डाल दिया जाता है–उसका अंतर हाहाकार–चीत्कार से भर उठता
है, उसके मन में उठे अनगिनत प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं, भविष्य का दरवाजा बंद–सा
लगता है, वर्तमान की कष्टकारा से मुक्ति असंभव लगती है और वह अपने वर्तमान से, अपनी
नियति से, स्थिति–परिस्थिति से समझौता कर पुन: अपनी बेबसी, लाचारी का यातना भरा अभिशप्त
जीवन–क्रम चुपचाप दूर बिखरे कथित–विपन्न मन से शुरू कर देता है। मजदूर के अंतर में
उठे भावों के ज्वारभाटे को, उसकी क्षणिक स्वर्णिम स्वप्निल स्वर्गिक अनुभूति और फिर
उसकी स्थायी लम्बायमान नारकीय जीवन की यातना को, उसकी पीड़ा–कथा को रचनाकार ने बड़े
मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। रचना काफी अच्छी बन पड़ी है।
सुकेश साहनी, अखिलेन्द्र पाल सिंह, सुबोध कुमार गोविल की
लघुकथाओं को देखकर लगता है कि श्रेष्ठ सृजनात्मकता के संप्रभाव में पड़कर लघुकथा भी
सर्जना के समुत्कर्ष को सहज ही सम्प्राप्त कर लेती है और दीर्घायु, प्रभावकारी एवं
श्रेष्ठ रचना सुखदायी बन जाती है।
फिसलन
रामेश्वर
काम्बोज ‘हिमांशु’
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘फिसलन’ वर्तमान मानव
जीवन के चारित्रिक विघटन व विखंडन की कहानी बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करती है।
हम जो कई स्तरों पर जीने के लिए विवश हो गए हैं या कहा जाए कि हम या तो अपनी आंतरिक
कमज़ोरी या परिस्थिति के दबाव से जो विभिन्न धरातलों पर जीने के अभ्यासी,Double
think ,double do –उसी का मर्मस्पर्शी अंकन इस लघुकथा में प्रस्तुत है। शराब की बुराई
पर भीषण भाषण देने वाला,शराब की हानियों पर लंबी चौड़ी वक्तृता देने वाला, शराबखोरी
के दुष्प्रभावों पर बड़ा ही प्रभावशाली प्रवचन देने वाला व्यक्तित्व (महेश तिवारी)
स्वयं शराब पीकर नशे में चूर अपना होश हवास खोकर नाली में कर्दम कीच में लोट रहा है–मंच
पर शराबखोरी के विरुद्ध ज़ोरदार भाषण और मंच के बाद स्वयं शराबखोरी। क्या ही विडंबना,
विसंगति, विद्रूपता? इस विडंबना, इस दारुण स्थिति को रचनाकार ने बड़ी जीवंत–सशक्त वाणी
दी है जिससे यह विडंबनात्मक स्थिति, उसकी दारुणता जीवंत हो पाठक के मनमानस की अभिभूत
कर देते हैं और अपना अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं। रचना प्रथम कोटि की है।
मेरी
का प्रतीक
जमाल
अहमद वस्तवी
‘मेरी का प्रतीक’
शीर्षक से लिखी जमाल अहमद वस्तवी की लघुकथा गरीबों के जीवन की दर्दनाक दास्तान प्रस्तुत
करती है, दारिद्र्यपूर्ण साधनहीनता का मर्मवेधी कारुणिक आख्यान। गरीबी में ही उदारता
के सुमन खिलते हैं, विपन्न्ता में ही मानवीय भावों के सुवास प्रस्फुटित होते हैं और
साधन–सम्पन्नता व समृद्धि में स्वार्थपरायणता के, संकीर्णता के कीड़े रेंगने लगते हैं,
स्वार्थपरता की जोंकें पैदा हो जाती हैं। सम्पन्नता और विपन्नता के इस विषम–विरोधी
भावप्रभाव को, संस्कार और मानसिकता को रचनाकार ने बड़े कौशल से, बड़ी सृजनात्मक समृद्धि
के साथ प्रस्तुत किया है।
दूसरों की सेवा–सहायता करनेवाली गरीब औरत को जब स्वयं सहायता
की ज़रूरत पड़ती है तो सभी कन्नी काट लेते हैं–वह निरी अकेली, निपट असहाय रह जाती है–अकेले
अपनी विकट स्थिति का अपार धीरता के साथ सामना करती है–अपार क्षमाशीलता के साथ। एक प्रकार
से मातृत्व–भावना से ओतप्रोत होकर नारी जाति को ही मेरी के रूप में देखने वाली रचनाकार
की यह दृष्टि वास्तव में बड़ी सूक्ष्म, बड़ी उदार है–वह मेरी जो मसीहा की माँ थी, वह
मेरी जिसकी कुक्षि से मानवता का संरक्षक, इंसानियत का मुक्तिदाता पैदा हुआ था।
मूल्यवान गंभीर कथ्य और सुन्दर सटीक साहित्यिक शीर्षक इस
लघुकथा को साहित्य में स्थायी स्थान दिलाने के लिए विवश करते हैं। इस तरह की लघुकथाएँ
यदि लिखी जाने लगी तो निश्चय ही लघुकथा के आलोचकों का मुँह बंद हो जाएगा और यह विधा
एक सशक्त विधा के रूप में गौरवमान, पद–प्रतिष्ठा अर्जित कर सकेगी। रचना प्रथम कोटि
में उच्च पद की अधिकारिणी है।
संरक्षक
कुलदीप
जैन
कुलदीप जैन की लघुकथा ‘सरंक्षक’ भी बड़ी सशक्त रचना है–स्थायी
सृजानात्मक सौरभ से सुरभित समृद्ध। इस लघुकथा में प्यार व सहानुभूति की संजीवनी शक्ति
का मार्मिक रहस्योद्घाटन किया गया है। निराश हताश जीवन के घटाटोप घनघोर अंधकार में
प्यार–सहानुभूति के मात्र दो शब्द या उसकी मौन मुखर अभिव्यक्ति प्रकाश की ज्योतिष्मता
विद्युन्नाभा की तरह तेजोद्दीप्त व भास्वर हो जाती है। जीवन में टूटे हुए सब तरह से
बिखरे–विखंडित निराश–हताश प्राणी को प्यार–आत्मीयता–सहानुभूति का स्वल्प संस्पर्श एक
सुप्रभावी, एक जीवनदायी रसरसायन , एक स्वास्थ्यवर्धक , एक कष्टहर क्लांतिहर वेदना निग्रहरस।
कम से कम शब्दों में पूरी पृष्ठभूमि का, पूरी मानसिकता व पूरी स्थिति–परिस्थिति–मन:स्थिति
का सुप्रभावी सुअंकन सर्जना की सिद्धि है, रचनाकार का वैभव वैशिष्ट्य है–बधाई। रचना
शाश्वतभाव से, मानवगरिमा से, मानवजीवन की खुशबू से ओतप्रोत है।
अपना
अक्स
राजेन्द्र
मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’
राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’ की लघुकथा ‘अपना अक्स’ अभाव
की पीड़ा का,दैन्य की दुरवस्था को, विपन्नता की स्थिति में उपजे हुए सहानुभूति के भाव
को उजागर करती है। दैन्य की दु:स्थिति दोनों को पारस्परिक स्नेह–सूत्र में आबद्ध कर
देती है–दो अजनबी विपन्न आपस में अचानक मैत्री भाव विकसित कर लेते है–कहते हैं– आपत्ति
में, संकट में निहायत अजनबी भी अपने हो जाते हैं, विपत्ति में बेगाने भी अपने आत्मीय
बन जाते हैं। इसी भाव का संवहन यह लघुकथा करती नज़र आती है। जो स्वयं दु:खी को अच्छी
तरह समझ सकता है–जाके पैर न फटे बेवाई सो क्या जाने पीर पराई’। दु:ख में संवेदना का
विस्तार होता है, हृदय का प्रसार, भावना का विस्तार। संताप और अभाव की आंच में ही प्रेम–सहानुभूति
का, करुणा–कारुण्य का अमृत–गाढ़ा तैयार होता है।
स्वयं अभाव की पीड़ा झेलता हुआ, बेरोज़गारी की मार से क्षतविक्षत
नायक ही विपन्न–बुभुक्षित बालक की पीड़ा व दीनता का एहसास ज्यादा गहराई व तलखी से कर
सकता है। रचना अच्छी बन पड़ी है–दिल को छूने की सामथ्र्य है इसमें। कोटि द्वितीय।
स्टॉपेज
राजकुमार
‘निजात’
राजकुमार ‘निजात’ की लघुकथा ‘स्टॉपेज’ मानवीय संवेदनहीनता
व भावशून्यता की एक प्रखर झांकी प्रस्तुत करती है। समाज की आँखों में विपन्न वृद्ध
साधनहीन का कोई महत्त्व नहीं, भलमनसाहत की कोई पूछ नहीं। हानि पहुँचाने की सामथ्र्य
से भावना रखने वाले सम्पन्न युवक सर्वाधिक महत्त्व के अधिकारी बन जाते हैं। विवश लाचार
बूढ़ा बार–बार भिन्नाता रहा पर बस नहीं रुकी–ड्राइवर को ज़रा भी दया या करुणा नहीं
आई पर जवान सम्पन्न लोगों के संकेत मात्र से बस रुक गई। ड्राइवर उनके महत्त्व से अभिभूत
था। इस दर्दनाक भावनाहीन स्थिति व मानसिकता को किंचित् प्रभावशाली ढंग से बेनकाब किया
गया है इस लघुकथा में। पाठकों के हृदय में इन लाचारों के प्रति, असहायों–विपन्नों के
प्रति एक हमदर्दी का भाव जागृत किया गया है।
हालाँकि रचना बहुत उच्च कोटि की नहीं बन पाई है फिर भी सफल,
सार्थक एवं सोद्देश्य है। तात्कालिकता से ग्रसित न होकर साहित्य के सनातन तत्वों से
सृजित–निर्मित है यह। इसकी अपील भी शाश्वत मानवता की है। कोटि द्वितीय।
प्रायश्चित
महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’
महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’ की लघुकथा ‘प्रायश्चित’ में रचनाकार
ने अपनी स्वाभाविक संवेदनशीलता व सूक्ष्म ग्राहिका शक्ति से मानव जीवन के एक सहज मनोहारी
रूप का, एक दिव्यभावापन्न छवि–छटा का कौशलपूर्ण अंकन करना चाहा है। प्रौढ़ पिता बराबर
असहज हो जाता है पर बालक बराबर सहज ही बना रहता है उसमें यदि कुछ छल–छद्म, आक्रोश–रोष,
आवेश–आवेग आता है तो पर्वती नदी की बाढ़ के पानी की तरह तुरन्त बह जाता है और बालक
पुन: अपने सहज स्वभाव में संकलित हो, सहज स्नेह की प्रेमिल मूर्ति बन जाता है। शिशुत्व
में संतत्व समाहित है या फिर मातृत्व! इसीलिए बालक देवदूत होता है और उसकी सृष्टि,स्वर्ग–सृष्टि।
प्रस्तुत रचना में प्रौढ़ पिता क्रोधांध हो अपने बालक–पुत्र को खूब पीटता हे पर वही
बालक कुछ ही क्षणों बाद अपने समस्त निश्छल प्रेम–प्रवाह के साथ, अपनी समस्त स्नेह–सुधा
के लिए पिता के पास पहुँचता है और उन्हें विस्मय–विमुग्ध, भावविभोर कर उनकी अन्तर्सत्ता
में एक गहरी क्रान्ति का, एक दिव्य रूपातंरण का माध्यम, मसीहा बन जाता है। पिता बालक
पुत्र के सहज स्नेह की अविरल अखंड सुधा–धार में स्नान कर कृतकृत्य हो जाता है–स्नेहाप्लावित,
स्नेहाक्रान्त, स्नेहाभिभूत हो बच्चे को गले लगा लेता है और उस पर अपना स्नेह–वर्षण
करने लगता है। शिशु की निश्छल स्नेह धार ने पिता को स्नेह–सक्रिय बना दिया है। बालक
पुत्र के इस स्नेहाप्लावन को तथा प्रौढ़ पिता पर पड़े उसके अमृत प्रभाव को रचनाकार
ने बड़ी कुशलता से आँका है। मानव जीवन के इस सहज शाश्वत सत्य को पुन एक बार परिचित–प्रतिष्ठित
कराने के लिए रचनाकार हमारी बधाई का हकदार तो हो ही जाता है, अनन्त मानव जीवन से संबंधित
ऐसे शाश्वत विषय लघुकथा की सम्पूर्ण सृजनात्मक क्षमता को भी सिद्ध कर देते हैं। रचना
प्रथम कोटि की है।
एहसास
माधव
नागदा
माधव नागदा की लघुकथा ‘एहसास’ भी शिशु के सहज स्वच्छ निश्छल
स्नेह से संबंध रखती है। शिशु सदैव उदार मन का होता है–प्रेम, सहानुभूति, सद्भाव से
भरा। इसका एक और उदाहरण प्रस्तुत है इस रचना में। महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’ और नागदा
की लघुकथाओं में बहुत कुछ साम्य लक्षित है। दोनों रचनाएँ शिशुत्व का गौरव–गायन करती
हैं। एक में क्रोधी पिता पराजित होता है अपने बाल–पुत्र की खूबसूरत खुशबूदार इंसानियत
से, उसके देवसुलभ प्रेम–सहानुभूति के विस्तार से। दोनों रचनाएँ इंसानियत की खुशबू से
सरोबार हैं, दोनों बच्चों के स्वच्छ निश्छल प्रेम की विजयगाथा, प्रेम की सर्वजयिता
को उद्भासित करती हुई। ऐसी लघुकथाएँ निश्चित रूप से इस विधा का गौरव वर्णन करती हैं
और पाठकों में यह आश्वस्ति जगाती हैं कि लघुकथा विधा में श्रेष्ठ रचना संभव है यानी
इस विधा में भी शाश्वत विषयवस्तु का निर्वाह बड़े कलात्मक कौशल व सृजनात्मक शिल्प के
साथ किया जा सकता है बशर्ते कि रचनाकार की अन्तर्सत्ता उस विषय वस्तु की मूल संवेदना–धारा
में काफी देर तक डूबी हो, उसकी सूक्ष्म अन्तदृर्ष्टि काफी विकसित हो तथा भाषा की संस्कार–चेतना
उसके प्राणों में रमण करती हो। प्रथम कोटि।
श्रम
महावीर
जैन
महावीर जैन की लघुकथा ‘श्रम’ में एक नई ज़मीन एक नए ढंग
से तोड़ी गई है जिसमें बहुत कुछ चमत्कार जैसा उत्पन्न हो गया है। सामान्य चिंतन से
परे जाकर कुछ चमत्कारिक चिंतन प्रस्तुत किया गया हैं इस नव्य चिन्तन ने श्रम की मर्यादा
तो स्थापित कर ही दी है, जीवन में कर्मठता को, जिजीविषा को नव गरिमा प्रदान की है।
इस नव चिंतन ने बुज़दिली और कायरपन, ‘फेटलिन्स’ और भाग्यवाद, निष्क्रियता और अकर्मण्यता
के मुँह पर करारा तमाचा मारा है, उस पर जबर्दस्त, आक्रमण, ज़ोरदार प्रहार, ज़बर्दस्त
‘बम्बार्डमेण्ट’ किया है। वस्तुत: यह रचना जिजीविषा का दुन्दभी–नाद है, जीवन का गायन
है, जिजीविषा की ऋचा है, जी्वनेच्छा की गति है, कर्मण्यता का उपनिषद्। रचनाकार ने अपनी
सू़क्ष्म अभिनव दृष्टि व अपने पारंगत कौशल से दोनों पात्रों को अमर बना दिया है–रद्दी
अखबार बेचने वाले को और उसे खरीदने वाले को। अखबार खरीदने वाला नवयुग का बैतालिक बन
जाता है,। अपनी अनुभव सिद्ध प्रौढ़ लेखनी के बल पर रचनाकार ने दोनों पात्रों को कम
ही समय में, कुछ ही शब्दों के साथ पूरी जीवंतता व स्फूर्ति प्रदान कर उन्हें अविस्मरणीय
बना दिया है। उनकी प्रभावकारी अमिट छाप पाठक के मनमानस पर पड़ जाती है और उनकी आंतरिक
स्फूर्ति के विद्युत्कण से पाठक भी अभिभूत हो जाता है–जो विषयवस्तु है, जो दृष्टि विचार,
उसे जिस ढंग से प्रस्तुत किया गया है वह रचना के सहज सौन्दर्य को हृदयंयम कराते हुए
अपनी विधा का गौरवोद्घोष भी करता है। रचना प्रथम कोटि की मानी जाएगी।
अपना
घर
धीरेन्द्र
शर्मा
धीरेन्द्र शर्मा की लघुकथा ‘अपना घर’ में बेघरबारों की भौतिक
व मानसिक स्थिति का कारुणिक मर्मान्तक उद्घाटन किया गया है। गरीबी में आकंठ डूबे मज़दूरों
की जीवन–व्यापी विवशता, लाचारी, का मर्मवेधी अंकन किया गया है। जो वर्ग समाज की सेवा
में लगा है, जिसका जीवन ही समाज की समृद्धि के लिए समर्पित है, इन चारों की व्यथा–कथा
बड़े ही मार्मिक ढंग से अंकित है इस रचना में। उन्हें न खाने को भरपेट अन्न मिलता है,
न तन ढकने को वस्त्र और न ही प्राकृतिक प्रकोप से बचने के लिए घर ही। लानत है ऐसे शोषक
समाज को, ऐसी समाज व्यवस्था को, ऐसी हुकूमत,शासन–प्रशासन को। यह रचना मानव जाति की
सारी सभ्यता–संस्कृति–शिक्षकों–सम्पन्नों–सबकी मर्यादा को मिट्टी में मिला देती है–हमारी
सारी सामाजिक अट्टालिका एकबारगी ध्वस्त हो जाती है–रचना में एक तरह से कलात्मकता के
गुण हैं, इसमें अमिट विध्वंस की विस्फोटक सामग्री संचित है।
पाठक की चेतना तिलमिला उठती है, उसकी हृत्तंत्री झनझना उठती
है, उसके भाव आघूर्णित होने लगते हैं। गोली से मरते हुए मज़दूर की यह उक्ति–‘‘साहब,
मैं एक गरीब मज़दूर हूँ और मेरा कोई अपना घर नहीं है,’’ कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण असहज लगते
हुए भी हमारी व्यवस्था पर, हमारी संस्कृति और समृद्धि पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं,
बल्कि ऐसा कहूँ कि हमारी सामाजिक विद्रूपता पर भीषण अट्टहास करते हैं।
शिल्प में शैथिल्य के बावजूद रचना में इतनी ऊर्जा है कि
वह लक्ष्य वेधन कर ही लेती है अपनी प्रबल प्राणवत्ता प्रमाणित करती हुई। रचना द्वितीय
कोटि में उच्च स्थान की अधिकारिणी है।
खोया
हुआ आदमी
रमेश
बतरा
रमेश बतरा की लघुकथा ‘खोया हुआ आदती’ एक बहुत ही सूक्ष्म
धरातल पर संप्रतिष्ठित होकर लघुकथा के रूप में एक निहायत श्रेष्ठ रचना प्रस्तुत करती
है। ऐसे सूक्ष्म भाव को लघुकथा के कलेवर में अँटा देना, उसकी प्रकृति में फिट कर देना
रचनाकार की एक चमत्कारिक सिद्धि है। सामान्यत: लघुकथाओं में ऐसे प्रयोग देखने को नहीं
मिलते। अत: बतरा की लघुकथा के विषय को देख कर विस्मयविमूढ़ हो जाना पड़ता है। औपनिषदिक
दृष्टि या सत्य को उन्होंने आज की लघुकथा के कलेवर में ढालने का सफल प्रयास किया है।
विश्वब्रह्माण्ड में जो कुछ भी घटित हो रहा है उससे हम सूक्ष्म रूप से प्रभावित होते
रहते हैं–जो कुछ भी हो रहा है उससे हम किसी न किसी रूप में जुड़े रहत हैं। अन्तदृर्ष्टि
के विकसित होने पर ऐसा महसूस होने लगता है कि हम ही विश्वब विश्वब्रह्माण्ड में प्रसार
पा रहे हैं या फिर विश्वब्रह्माण्ड सिमटकर हमीं में समाहित हो गया है तो लघुविराट का
यह महा मिलन, अणुमन व भूमांगन का यह परस्पर विलयन औपनिषदिक ऋषियों की चिरवांछित खोज
ही नहीं है, उनकी जीवन–व्यापी साधना की सिद्धि भी है।
आंतरिक उद्भासन के क्षणों में हम ऐसा महसूस करने लगते हैं–कि
बा सृष्टि से हमारा गहरा जुड़ाव है, अभिन्न नाता है। इस सृष्टि में किसी का दु:ख–दैन्य
मेरा दु:ख–दैन्य बन जाता है, किसी का हर्ष–उल्लास मेरा हर्ष–उल्लास और इसी तरह किसी
का मरण, मेरा मरण। हर जनम में मैं ही जनमता रहा हूँ और हर मरण में मैं ही मरता हूँ–यहाँ
मेरे सिवाय किसी दूसरे का अस्तित्व ही कहाँ है? ‘अहंब्रह्मस्मि’, ‘सोहमस्मि’ आदि आर्ष
अनुभूतियों की सारसत्ता इस रचना में समाहित हो गई है। वस्तुत: यह रचना सामान्य पाठक
की समझ के परे की चीज हो जाती है और यदि पाठक गहरे में जाकर इसकी सच्चाई को समझ ले,
इसकी दृष्टि को आत्मसात कर ले, इसकी रोशनी से रोशन हो जाए, इसकी आलोकदीप्ति से दीप्ति
भास्वर हो जाए तब तो उसे जीवन में एक प्रकाश मिल गया, एक दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई।
समीक्ष्य लघुकथाओं में यह रचना सर्वाधिक सूक्ष्म व गहन–गूढ़ है। आर्ष अनुभूतियों को
वाणी देती हुई यह रचना औपनिषदिक आख्यान की कोटि में आ जाती है जिसका चिरन्तन महत्त्व
है, जिसकी शाश्वत वस्तु व ऐसी रचना के लिए बतरा जी को मेरी हार्दिक बधाई। मेरे ख्याल
से यह सर्वश्रेष्ठ रचना है।
ड्राइंग
रूम
डॉ0
सतीशराज पुष्करणा
सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘ ड्राइंग रूम बड़े ही सूक्ष्म
भाव से सम्बन्धित है–अपनी विषय वस्तु का निर्वाह उन्होंने पैनी शिल्प–प्रविधि से बखूबी
किया है। उनकी प्रौढ़ शिल्पकला ने कुछ ही क्षणों में कुछ ही शब्दों के माध्यम से एक
ऐसी स्थिति का जीवंत अंकन कर दिया है जो स्थिति अपनी प्रभावशीलता में दूरगामिनी है।
यह रचना ममता के आगमन,ममत्व के आप्लावन से संबंधित है–इसका
सम्बन्ध वात्सल्य के प्रस्फुटन, वात्सल्य के प्रसरण–विस्तरण से है। प्रेम–प्रीति, माया–ममता,
स्नेह–सहानुभूति, ममत्व–वात्सल्य मनुष्य के जीवन में या जिसे हम जड़ जगत कहते हैं उसमें
भी एक रस वैभव, एक चमक–ज्योति, एक सिहरन– कंपन एक कौंध–कांति, एक चेतना–संचेतना, एक
हिलोर–हलचल, एक स्पंदन–स्फूर्ति, एक वेग–आवेग, एक भाव–अनुभाव पैदा कर देता है। वात्सल्य
के प्रवाह से निर्जीव भी स्पंदित–स्फूर्त हो उठते हैं! फिर वात्सल्य प्रवाह के अवरुद्ध
होने या वात्सल्य के सूखने या लोप होते ही निर्जीव तो पुन: निर्जीवता प्राप्त कर ही
लेता है, सजीव भी निर्जीवता की स्थिति महसूस करने लगता है। तो यह है वात्सल्य रस की
महिमा, प्रेम प्रीति–प्यार ममत्व–अपनत्व का चमत्कार, उसका करतब–कौशल, उसकी लब्धि–सिद्धि।
इस सनातन सत्य को, इस सत्य सनातन सूक्ष्म भाव को पुष्करणा जी ने अपनी शैल्पिक क्षमता
के माध्यम से जीवन्त–प्राणवन्त बनाकर पाठकों के मन–मस्तिष्क में संप्रतिष्ठ कर दिया
है। पर शीर्षक से मुझे मतभेद है–एक तो अंगरेजी शीर्षक मुझे यों ही पसन्द नहीं–कभी वैसी
बात हो तो, स्थिति हो तो दिया भी जा सकता है पर यहाँ तो वैसी स्थिति भी नहीं है। ड्राइंग
रूम शीर्षक से ड्राइंग रूम ही महत्त्वपूर्ण हो उठता है जबकि प्रमुख है वात्सल्य भाव,वात्सल्य
भाव का चमत्कारिक प्रभाव। ऐसी दिव्य भावापन्न रचना का शीर्षक ‘ड्राइंगरूम’ कम से कम
मुझे तो बहुत खटकता है, अधूरा अपूर्ण लगता है। ‘ममता की महिमा’ या ‘वात्सल्य के वैभव’
जैसा कुछ शीर्षक हो सकता था, रचनाकार स्वयं इस पर विचार करेंगे। रचना प्रथम कोटि की
है।
बोहनी
चित्रा
मुद्गल
चित्रा मुद्गल की लघुकथा ‘बोहनी’ एक ऐसी स्थिति का अंकन
करती है जिसमें कोई दानकर्ता या दानकर्तृ किसी भिखारी के लिए विशेष रूप से सुखदायी
हो जाता है। दान की वह जो शुरूआत करता है वह दिन भर के लिए फलदायी सिद्ध होती है। एक
भिखारी और एक दाता के संवाद क्रम में यही तथ्य उभारा गया है।
सब मिलाकर रचना कोई विशिष्ट नहीं बन पाई है। रचना कच्ची
लगती है–रस परिपाक नहीं हो पाया है–अत: इसमें सृजनात्मक रस वैभव का सर्वथा अभाव लगता
है। रचना बिलकुल साधारण लगती है और बिलकुल सामान्य कोटि में रखने लायक है।
सहानुभूति
अशोक
भाटिया
अशोक भाटिया की लघुकथा ‘सहानुभूति’ हमें महेन्द्र सिंह
‘उत्साही’ की ‘प्रायश्चित’ माधव नागदा की ‘एहसास’ सतीशराज पुष्करणा की ‘ ड्राइंग रूम’
की याद दिलाती है। यह रचना, जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, सहानुभूति से संबंध रखती
है। सहानुभूति जीवन की एक विशिष्ट वैभव–विभूति है, शुष्क जीवन में भी रस घोल देती है,
सहानुभूति की फुहार से सूखे बिरवे भी लहलहा उठते हैं, सूखी फसल भी हरी–भरी हो जाती
है। प्रेम–प्रीति सहानुभूति पाषाणी धरती में भी सरस रसनिर्झर सृजित कर देती है–मरुभूमि
में भी गंगा–अवतरण घटित हो जाता है।
एक बूढ़े भिखारी को अन्य दाताओं से रुपए पैसे मिले पर उसे
आत्मिक तृप्ति प्राप्त न हुई। आत्मिक तृप्ति उस व्यक्ति से प्राप्त हुई जो उसे बड़े
प्यार से बुलाकर अपने साथ भोजन कराने लगा। आत्मीयता का, अपनत्व का यह आप्लावन–प्रसार,
सहानुभूति का यह गंग–प्रवाह भिखारी को भरा–पूरा, हरा–भरा, हर प्रकार से तृप्त छोड़
गया–उसे जीवन की सम्पूर्ण तृप्ति मिली। जीवन का सबरस प्राप्त हुआ। तो सहानुभूति की
महिमा अकथ, अनिर्वच, अजय है।’ संसार की सारी सुख समृद्धि सहानुभूति का स्थान नहीं ले
सकती। सहानुभूति के रस वैभव, इसके रसप्रसार को रचनाकार ने बड़े कौशल, बड़ी सुदक्षता
व आत्मीयता से हृदयंगम कराया है। रचना मर्मस्पर्शिनी बन पड़ी है। रचना के अंतिम दृश्य
के रसास्वादन से, उसकी स्वर्गिक मिठास–सुवास से हम सभी पाठक आपादमस्तक भीग जाते हैं,
आह्लादित आलोकित हो उठते हैं।
उपकृत
जगदीश
कश्यप
जगदीश कश्यप की लघुकथा ‘उपकृत’ निखालिस ज़मीदारी सामंती
संस्कार व मानसिकता और निखालिस खानदानी सेवक व मज़दूर के संस्कार व मानसिकता का अंतर
उद्घाटित–उद्भासित करती है। सेवक मज़दूर जमींदार या सामंत की जी–जान से सेवा करता है,
उसकी तृप्ति के लिए हर तरह का कष्ट सहन कर उसका सारा जुगाड़ करता है, उसके ऐश–आराम
व मौजमस्ती की जरूरी बातों की सम्पूर्ति के लिए ज़मींदार की एक हल्की–सी मीठी मुस्कान,
या एक ही प्रशंसात्मक शब्द या संकेत मज़दूर के लिए अष्टसिद्धि, नवनिधि से भी ज्यादा
मूल्यवान महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
ज़मींदारी मानसिकता और मज़दूर की मानसिकता का यह अंतर यद्यपि
बड़ी जीवंत स्थिति को पैदा कर, जीवंत पात्रों के जीवंत संवादों के माध्यम से उजागर
किया गया है–रचना की शारीरिक स्फूर्ति काबिले- तारीफ है, विश्वसनीय है–संक्रामक है
पर आंतरिक प्राणवत्ता लृप्त प्राय है। सच्चे सृजन की स्थायी मर्म–स्पर्शिता व उसकी
सुदीर्घ महाप्राणता इस रचना से गायब है। जाहिर है कि रचना पिछली रचना की भांति सामान्य
द्वितीय कोटि की होकर रह गई है।
अंतिम
बात
हिन्दी के नवस्थापित एवं सुस्थापित कुछ लघु कथाकारों की
एक–एक प्रतिनिधि रचना से गुजरना मेरे लिए एक वैविध्य–पूर्ण आनंददायक अनुभूति रही है।
इस कथाओं के माध्यम से मैंने जीवन के विभिन्न रूपों के दर्शन किए हैं, जीवन के अनेक
पक्षों–पहलुओं से परिचित हुआ हूँ, जीवन की अनेक स्थितियों–भावों घटनाओं,पात्रों से
मुलाकात कर सका हूँ, जीवन के अनेक अनुभूतियों–दृष्टियों से मुठभेड़ हुई है, जीवन के
अनेक स्तरीय, बहुधरातलीय सत्यों से साक्षात्कार कर सका हूँ और जीवन के अनेक रसों के
आस्वादन से समृद्ध हुआ हूँ। जीवन के वैविध्यपूर्ण वैभव के बीच, सर्जना की ईद धनुषी
सौंदर्य–सुषमा के बीच दो क्षण गुज़ार लेना अपनी आंतरिकता को, अपनी अन्तर्सत्ता का भाव
समृद्ध करना है, अपनी दृष्टि को उदार–व्यापक, अपनी अंतर्दृष्टि को सूक्ष्म गहरा बनाना।
इन विभिन्न सौंदर्य सरोवरों, सुषमा–सरिताओं, सौरभ–सागरों के बीच से गुजरते हुए निश्चित
रूप से मुझे अच्छा लगा है और अपने को एक तरह से अभ्यंतर समृद्ध महसूस कर पाया हूँ।
इसके लिए मैं इन रचनाकारों का हृदय से धन्यवाद करता हूँ।
मैं लघुकथाओं का कोई प्रशंसक नहीं रहा हूँ– हाँ, रचना के
रूप में आस्वादक ज़रूर रहा हूँ पर उसकी आकार आकृति और उसकी अधिकांशत: सतही सर्जनात्मकता
के कारण मेरी उसमें कोई विशेष रुचि जागृत न हो पाई, न ही मैंने लघुकथा को कोई विशेष
महत्त्व ही दिया। पर सतीश जी के सान्निध्य में आने पर, इनके आत्मीयतापूर्ण सम्मोहक
सृजनात्मक समर्पित व्यक्तित्व के सुप्रभाव से मैं धीरे–धीरे इस विधा में रुचि लेने
लगा और इसकी सीमा सामथ्र्य–संभावनाओं पर गहराई से विचार करने लगा–इस क्रम में सतीश
जी ने लघुकथा से संबंधित विविध महत्त्वपूर्ण मूल्यवान सामग्री देकर मुझे महत्त्वपूर्ण
योगदान दिया। उस सारी सामग्री के अध्ययन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यह
विधा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और इसकी महत्ता, मूल्यवत्ता समय के साथ–साथ बढ़ती ही जाएगी।
गागर में सागर भरने का काम लघुकथा का होगा, छोटी–सी टिकिया या कैप्सूल में जीवन रस
संचित करने का काम लघुकथाकार का होगा। अब तो यह रचनाकार की क्षमता–सामर्थ्य पर निर्भर
करता है कि वह लघुकथा को ढिबरी बनाए या दीपक लालटेन बनावे या पैट्रोमैक्स, मरकरी बनाए
या वेपर लैंप, तारा बनाए या चंदा। यदि लघुकथा यह सब नहीं कर पाती है तो दोष लघुकथा
का नहीं रचनाकार का है।
इस तरह इस निष्कर्ष पर मैं पहले ही पहुँच चुका था पर इन
लघुकथाओं के बीच से गुजरते हुए मेरा यह निष्कर्ष और भी प्रबल–पुष्ट दृढ़–पक्व हुआ है।
अब देखिए, इन सभी रचनाकारों ने लघुकथा विधा को अपनाया है पर इनमें भी तीन या चार कोटि
की रचनाएँ हो गई हैं। कुछ तो ऐसी हैं जो प्रथम कोटि की हैं, जो सर्जना की सारी शर्तों
को पूरा करती है और अपनी स्थायी प्रभावशीलता में किसी भी साहित्यिक कृति, किसी भी श्रेष्ठ
कविता, कहानी से टक्कर ले सकती हैं। इनमें इन लघुकथाओं का नाम लिया जा सकता है–
1. खोया हुआ आदमी, 2.वापसी, 3. प्रायश्चित,
4.माँ, 5. मेरी का प्रतीक, 6. ड्राइंग रूम, 7. संरक्षक, 8. एहसास, 9, .श्रम, 10.सहानुभूति,
11. फिसलन, 12. संरक्षक।
मैं यहाँ साफ कहना चाहता हूँ कि मैंने इन रचनाओं की कोटियाँ
कोई अचूक तराजू पर तौलकर नहीं तय की हैं, पढ़ते वक्त जिन रचनाओं का जैसा प्रभाव मेरे
मनमस्तिष्क पर पड़ा उसी के अनुसार ये कोटियाँ तय हुई हैं–इसमें परिवर्तन की काफी गुंजाइश
हैं हो सकता है कहीं–कहीं पर ठीक से समझने या मूल्यांकन करने में भी कुछ कमी रह गई
हो–हो सकता है मूल्यांकन–क्रम में मेरी अपनी मन:स्थिति की भी आंशिक भूमिका हो या हो
सकता है मेरी अपनी ही दृष्टि किसी दृष्टि से दोषपूर्ण होतो इन सारे किंतु परन्तु, इन
सारे अगर–मगर को लेते हुए मैंने इन्हें कोटिबद्ध या श्रेणी बद्ध करने की कोशिश की है।
मैं चाहूँगा कि सर्जक या समीक्षक या सुधी पाठक मेरी मूल्यांकनदृष्टि का दोष बतला कर
अपने दोष निवारण में मेरी सहायता करें क्योंकि हमारी सबकी, जो साहित्य स्वादन, सर्जन–समीक्षण
से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं–उन सबका अंतिम ध्येय यही है–अपूर्णता से पूर्णता
की ओर यात्रा, दोषपूर्णता से दोष–राहित्य या निर्दोषता की ओर अधिगमन–अभियान। रचनाकार
को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि उसकी रचना सर्वथा निर्दोष है और न ही समीक्षक को यह
भ्रम पालना चाहिए कि उसकी समीक्षण–दृष्टि सर्वप्रकारेण सर्वतोभावेन दोषरहित है, पूर्णता
प्राप्त है।‘मुनीनाञ्च मतिभ्रम:’ मुनियों–देवताओं को भी मति भ्रम हो जाता है तो ‘का
कथ मनुष्याणाम्’ तो साधारण मनुष्य का क्या कहना! मगर कि हम अधूरेपन से बराबर पूरेपन
की ओर अग्रसर होते रहें–उसी में हमारे, आपके, सबके जीवन की सार्थकता है और सर्जना–समीक्षण
से जुड़े हम सबों का तो एक विशेष दायित्व ही बनता है इस मानी में।
इन्हीं शब्दों के साथ अब मैं आप लोगों से अपनी पूरी बात,
अपने दिल की बात कहकर विदा ले रहा हूँ और अंत में भी इन सभी लघुकथाकारों एवं सतीश राज
पुष्करणा को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ, आप सबों ने मिलकर मुझे इतना सब कुछ देखने–परखने
जानने–सुनने–कहने का मौका दिया। आप फिर मुझे ऐसा मौका देंगे इसी आशा के साथ विदा लेता
हूँ ।