Quantcast
Channel: लघुकथा
Viewing all 2447 articles
Browse latest View live

अंकगणित

$
0
0

साढे बारह बजे युवाओं की भीड़ का हुजूम परीक्षा हॉल से बाहर निकला, तभी मास्टरी की सरकारी नौकरी हेतु परीक्षा हॉल से निकले दो प्रतियोगियों के बीच बातचीत चल पड़ी।

“कितने बने?”

“अठासी, और आपके?”

“अठासी ही! पास होने के लिए पचहत्तर ही चाहिए  डेढ़ सौ मे,”

“बधाई हो, हमें तो नब्बे चाहिए?”

दोनों के बीच निराशा और चुप्पी का सनाका खिंच गया।

“कोई बात नहीं, इस बार न सही अगली बार!”

“आपको सरकारी मास्टरी मुबारक हो।”

और “मुर्झाया हुए अठासी अंक वाला”, “मुस्कुराते हुए अठासी अंक वाले” को अलविदा कहकर आगे बढ़ गया।

-0-


लघुकथा आकार और प्रकार ;अशोक भाटिया

$
0
0

लघुकथा आकार और प्रकार ;अशोक भाटिया

अनुज्ञा बुक्स
1/10206,लेन नं. 1E,वेस्ट गोरख पार्क,
शाहदरा ,दिल्ली–110032
फोन..93508-09192

अविश्वास की गंध

$
0
0

रामप्यारी झाड़ू-पोछा करके बर्तन माँजने बैठी ही थी। तभी कमरे में से मालकिन निकल कर आई, “ऐ रामप्यारी, ये बादाम लेती जाना।”

वह चौंक पड़ी, “बादाम !”

इतना बरस हो गया काम करते, जब देखो मलकिन पिस्ता-मूँगफली खा-खा कर छिलका डस्टविन में भरती जाती हैं। भूले से भी ना कहतीं कभी कि ले रामपियारी, थोड़ी-सी मूँगफली ही खा ले।  

सिर घुमाकर उसने बादाम की थैली पर एक नजर डाली।

 हूँ…अच्छा! तभी हम कहें कि आज रामपियारी से इतना परेम काहे को जागा है। पल भर में ही उसकी जासूसी आँखों ने सारी जाँच- पड़ताल भी कर ली। बादाम  घुन चुके थे।

“चच्च! बताओ, इतने सारे बादाम … !”

“तो बता, ले जाएगी न? देख, अपने मुनुआ को खिला देना। बादाम खाने से दिमाग तेज हो जाता है।”

“अरे मलकिन, ये आप अपने बंटी को ही खिला देना। हम गरीबन का दिमाग बादाम खाए से नाहीं, धोखा खई-खई के ही तेज हो जावत है।”

-0-

लघुकथा का स्वरूप

$
0
0

वर्तमान समय में आम नागरिक को जीवनयापन के लिए भारी  जद्दोजहद का सामना करना पड़ रहा है। नाटक और भारी भरकम उपन्यासों से नहीं जुड़ पाने के कारणों में यह एक महत्वपूर्ण कारण है। कहानी एक ऐसी विधा है जो डेढ़ -दो हजार शब्दों में, भाग-दौड़ की दिनचर्या वाले पाठक को मानसिक संतुष्टि दे जाती है। लेकिन रोजगार के लिए ‘बस’ और ‘लोकल’ में की जानेवाली घंटों की भीड़-भरी आवाजाही, दूरदर्शन और मोबाइल जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम कहानी के पाठक को भी पत्र-पत्रिकाओं से दूर ले जाने लगे। तब क्या किया जाए! साहित्य की भूख कैसे मिटे? अस्सी के दशक में मराठी में ‘चारोळी’(चार-लाइनें) का चलन इसी भूख को मिटाने का एक प्रयास रहा। पॉकेट-साइज के सैकड़ों ‘चारोळी-संग्रह’ छपे और उन्होंने मुंबई की लोकल में सफर करनेवाले साहित्य-प्रेमी यात्रियों की जेब में अपनी जगह बना ली। हमारी ‘चार लाइना’ और ‘मुक्तक’ भी  पाठकों को साहित्य-संतुष्टि प्रदान करने का एक प्रयास है,ऐसा कहना अनुचित न होगा।

            ‘लघुकथा’ यह विधा-गत नाम भले न प्राप्त हुआ हो पर लघुकथा तब से ही विद्यमान थी ,जब से कथा या कहानी अस्तित्व में है। दादी जल्दी में हों तो  ‘कछुआ और खरगोश’ वाली कहानी  ‘लघुकथा’ (अथवा लघुकहानी)का रूप ले लेती थी और झट समाप्त हो जाया करती थी। दादी फुर्सत में हैं और मुन्ना को नींद भी नहीं आ रही है तो दादी की सर्जना- शक्ति सक्रिय होकर उसी कहानी को इतना लंबाती थी कि उसकी अगली किश्त अगले दिन सुननी पड़ती थी। विस्तार देने के लिए कछुआ और खरगोश की दौड़ में आनेवाली बाधाएं यथा; बारिश, रास्ते में पड़नेवाला दरिया, नदी, रास्ता रोककर अपना भक्ष्य बनाने को तत्पर  भेड़िया आदि -यह सब दादी की कल्पना शक्ति पर निर्भर करता था। सत्तर के दशक तक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, लंबी कहानियों की भरमार हुआ करती थीं। लघुकथा ‘कहानीकार’ या ‘तारिका’ समान किसी पत्रिका के पृष्ठ पर यदा-कदा नजर आ जाया करतीं। लेकिन अस्सी का दशक आरंभ होते ही लघुकथा ने पूरे जोशोखरोश के साथ साहित्यिक पटल पर अपना स्थान बनाना शुरू किया। अखबारों के साप्ताहिक परिशिष्ट, पत्रिकाओं के नियमित अंकों में लघुकथाएँ ‘फीलर’ के रूप में नहीं अपितु साहित्य की सम्मानित विधा के रूप में स्थान पाने लगीं। सारिका, तारिका, दीपशिखा, साहित्य निर्झर आदि पत्रिकाओं के लघुकथा-विशेषांक प्रकाशित हुए और दशक की समाप्ति तक अनेक लघुकथाकारों के संग्रह भी निकले। इस प्रकार लघुकथा ने साहित्य-जगत में अपना स्थान मुकम्मल कर लिया।

            लघुकथा के तत्त्व, उसका स्वरूप परिभाषित किया गया जिसका सार- संक्षेप यही कि लघुकथा है तो कथा ही, पर उसका स्वरूप लघु हो। उसमें कथानक को ‘कहानी’ बनानेवाला विस्तार न हो। ऊपर ‘नानी की कहानी’ में उल्लिखित बाधाएं, उनका वर्णन, पात्रों द्वारा उनका निराकरण आदि विस्तार की  गुंजायश नहीं होती लघुकथा में पर  कथानक तो होता ही है। बल्कि लघुकथा में कथानक तेजी से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है और पाठक  को एक सम्पूर्ण कहानी पढ़ने की संतुष्टि दे जाता है। अधिक स्पष्ट करना हो तो मैं यह कहना चाहूंगा कि कहानी अगर तलवार है तो लघुकथा खंजर है। खंजर में तलवार के सारे तत्त्व मौजूद होते हैं, सिवा आकार के।

 मैं पिछले पचास वर्षों  से  लघुकथाएँ पढ़ रहा हूँ ,अर्थात मेरा लेखन आरंभ नहीं हुआ था, तब से । नई पत्र-पत्रिका आयी कि सबसे पहले उसमें लघुकथा खोजता था। समयाभाव तो एक कारण था ही पर लघुकथा के प्रति आकर्षण का एक और महत्त्वपूर्ण कारण था। कम शब्दों में एक संपूर्ण रचना पढ़ने का समाधान ।

        पढ़ी हुई सैंकड़ों लघुकथाओं में से किन्हीं दो का उल्लेख करने की बात आई तो सबसे पहले याद आई, खलील जिब्रान की (सुकेश साहनी द्वारा अनूदित) लघुकथा ‘पवित्र नगर’ यह एक बेहतरीन लघुकथा है। नपे -तुले शब्दों में, पात्रों के संवाद के माध्यम से, प्रभावशाली ढंग से लेखक ने लघुकथा को अंजाम दिया है।  नोट करने लायक बात यह है कि अगला एकेक वाक्य कहानी की नई परत खोलता जाता है। शहर के सारे निवासियों के केवल एक आंख और एक हाथ थे। निवासी धर्मग्रंथों का पालन करने वाले। शहर के एक स्थान पर लगे हुए शिलालेख के अनुसार दाहिनी आँख अपराध करे तो उसे बाहर निकाल फेंको क्योंकि जीते जी सशरीर नरक झेलने से बेहतर है कि एक अंग नष्ट हो जाए। यदि दाहिना हाथ अपराध करे तो उसे काटकर अलग कर दो। सारे शहरवासियों के एक हाथ और एक आंख से वंचित होने का अर्थ है, शहर के किसी भी व्यक्ति का पवित्र न होना। बच्चे चूँकि शिलालेख को पढ़कर समझ नहीं सकते इस कारण उनकी दोनों आंखें और हाथ सलामत हैं। बच्चे अबोध होते हैं। यह भी हो सकता है कि उन्होंने कोई अपराध न किया हो ! पर यह कहने की बजाए लेखक का यह कहना कि ‘वे अभी इस शिलालेख को पढ़ और समझ नहीं सकते’ से स्पष्ट होता है कि वे भी निरपराध नहीं हैं।  कहानी के अंत में ‘मैं तुरंत ही उस पवित्र नगर से निकल भागा’, यह प्रतिपादित करने के लिए काफी है कि ऐसा कोई नहीं है जिसने अपराध न किया हो। और ऐसे लोग जहाँ  रहते हैं उस शहर को  लेखक ने नाम दिया है, ‘पवित्र नगर !’  

 दूसरी लघुकथा है, बलराम अग्रवाल की ‘नागपूजा’। यह लघुकथा मैंने आज से कोई तीस वर्ष पूर्व पढ़ी थी। मोहन अनंत सागर के संपादन में एक लघुकथा संग्रह निकला था, ‘यथार्थ’, उसमें। बलराम अग्रवाल यशस्वी लघुकथाकार तथा लघुकथा-समीक्षक हैं। लघुकथा को संपूर्ण विधा के रूप में स्थापित करने के लिए जिन रचनाकारों का योगदान रहा है, उनमें वे महत्त्वपूर्ण हैं। ‘नागपूजा’ में ‘सेक्रेटरी’ को वासना का शिकार बनाने के लिए लालायित  ‘साहब’ पर जबरदस्त कटाक्ष किया गया है। सेक्रेटरी अनूठा तरीका अपनाती है। वह क्रिश्चियन है। पड़ोस के हिंदू परिवार से उसे नागपंचमी पर नागपूजा के प्रभाव की जानकारी मिलती है। वह साहब को ग्लास भर  दूध पिलाकर कहती है, ‘आज का दिन अगर नाग दूध एक्सेप्ट कर लेता है तो साल भर के लिए उसके डसने का डेंजर खत्म हो जाता है।’ साहब ने दूध पी लिया है। ‘यू एक्सेप्टेड द मिल्क …थैंक  यू। हमको पूरा साल के लिए रोज-रोज का वरी से फ्री कर दिया।’

-0-

पवित्र नगर

मैं यह देखकर हैरान रह गया कि नगर के सब निवासियों के केवल एक हाथ और एक आँख थी। मैंने मन ही मन में कहा, ‘पवित्र नगर के नागरिक …एक हाथ और एक  आँख वाले ?’

मैंने देखा, वे भी आश्चर्य में डूबे हुए थे और मेरे दो हाथ, दो आँखों को किसी अजूबे की तरह देखे जा रहे थे। जब वे मेरे बारे में आपस में बातचीत कर रहे थे तो मैंने पूछा, ‘‘क्या यह वही पवित्र नगर है जहाँ के निवासी धर्मग्रंथों का अक्षरश: पालन करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं?’’

उन्होंने कहा, ‘‘हाँ , यह वही शहर है।’’

मैंने पूछा, ‘‘तुम लोगों की यह दशा कैसे हुई।  तुम लोगों के दाहिने हाथ  और दाहिनी आँख को क्या हुआ?”

वे सब एक दिशा में बढ़ते हुए बोले, आओ…खुद ही देख लो।’’

वे मुझे नगर के बीचों-बीच स्थित मंदिर में ले गए, जहाँ  हाथों और आँखों का ढेर लगा हुआ था। वे कटे हुए अंग निस्तेज और सूखे हुए थे।

मैंने कहा, ‘‘किस निर्दयी ने तुम्हारे साथ ऐसा सलूक किया है?”

सुनकर वे सब आपस में फुसफुसाने लगे और उनमें से एक बूढ़े आदमी ने आगे बढ़कर कहा, ‘‘यह हमने खुद ही किया है। ईश्वर के आदेश पर ही हमने अपने भीतर की बुराइयों पर विजय पाई है।’’

वह मुझे एक ऊँचे स्थान पर ले गया। बाकी लोग भी पीछे हो लिए। वहाँ  एक शिलालेख गड़ा हुआ था, मैंने पढ़ा-

‘‘अगर तुम्हारी दाहिनी आंख अपराध करें, तो उसे बाहर निकाल फेंको; क्योंकि जीते जी सशरीर नरक झेलने से बेहतर है कि एक अंग नष्ट हो जाए। यदि तुम्हारा दाहिना हाथ अपराध करे, तो उसे तत्काल काट फेंको क्योंकि इससे पूरा शरीर नरक में नहीं जाएगा।’’

मै सब कुछ समझ गया । मैंने उनसे पूछा, क्या तुम लोगों में कोई भी ऐसा नहीं जिसके दो हाथ और दो आंखें हों?’’

वे बोले, ‘‘कोई नहीं। केवल कुछ बच्चे हैं जो अभी इस शिलालेख को पढ़ और समझ सकते हैं।’’

जब हम उस मंदिर से बाहर आ गए तो मैं तुरंत ही उस पवित्र नगर से निकल भागा; क्योंकि मैं  कोई बच्चा नहीं था और उस शिलालेख  को अच्छी तरह  पढ़ सकता था।

-0-

नागपूजा

‘‘अ रे! ये…ये किस खुशी में भई?’’ सीट पर बैठते ही मेज पर एकदम उनके सामने सेक्रेटरी ने गर्मागर्म दूध भरा गिलास रखा तो वे आश्चर्य चकित होकर पूछ बैठे।  वे समझ गए कि उनकी बगलगीर न होने की स्थिति में उसकी जगह नई ‘सेक्रेटरी’ रख लेने की कल शाम की उनकी धमकी तेज असरदार सिद्ध हुई।

अन्य दिनों के विपरीत लड़की ने ‘मिनी- स्कर्ट’ के स्थान पर सुर्ख चौड़े बार्डरवाली लकदक सफेद साड़ी पहन रखी थी और बेहद खूबसूरत लग रही थी। नीची निगाहें करके दुग्ध-प्रस्तुति के माध्यम से काम-समर्पण के उसके सटीक संकेत को उन्होंने भाँपा और पुलककर गटा-गट सारा दूध चढ़ा गये।

‘‘हमारे पड़ोस में एक हिंदू-फैमिली रहता सर।’’ इस बीच उस क्रिश्चियन युवती ने उसकी मेज पर रोली-चावल युक्त एक प्लेट रखी और साड़ी  के पल्लू से बाकायदा अपना सिर ढांपकर अनामिका और अंगूठे की सहायता से साहब की ओर रोली के छींटे उछालती हुई बोली – ‘सवेरे उसने हमको बताया कि आज नाग- पंचमी है। आज का दिन सही प्रोसेस से नाग को पूजते और दूध पिलाते हैं, सर। यदि वह दूध को एक्सेप्ट कर लेता है तो पूरा साल उसके द्वारा डसने का ‘डेंजर’ खत्म हो जाता है।’’ तत्पश्चात वह बेहद सादगी से हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी और बोली- ‘‘यू एक्सेप्टेड द मिल्क सर, थैंक यू। पूरा साल के लिए रोज-रोज का वरी से फ्री कर दिया हमको। नेक्स्ट ईयर आपकी भरपेट सेवा करेगा हम।’’

साहब ने अपने माथे पर चू आए पसीने को पोंछने के लिए जेब से रूमाल निकाला ; लेकिन उस पवित्र लड़की की आंखों में छलक आए आँसुओं को वह देख न पाए।                

धर्मयुद्ध

$
0
0

मराठी से अनुवाद : उज्ज्वला केळकर

पाचवा पेग रिचवता रिचवता, विश्वनाथ पापडे थोडे गंभीर झाले। नशेत चूर होऊन दंगामस्ती करणं काही त्यांना शोभलं नसतं। ते काही साधे–सुधे, सामान्य माणसासारखे नव्हते। ते खूप महान–महान–महान होते। त्यांच्या एका हाकेसरशी हजारो कुत्री–मांजरी एकत्र जमत। आता ते रहमान साहेबांच्या पुढे होते। रहमान साहेबसुद्धा असे तसे नाहीत। आपल्या टोळीचे मुकूटमणी आहेत ते! त्यांच्याही एका हाकेसरशी किती तरी लोक जीवावर उद्वार व्हायला तथार होतात।

‘रहमान भाई–तुम्ही आला नसतात, तर मीच येणार होतो, एकदा बोलणं व्हायला हवंच होतं!

‘हे बघ भैय्या–अख्तरची बायको रजिया, तिच्यावर माझं मन बसंलय। पण गोष्ट पुढे जातच नाही। शौकतचा मुलगा सलीम, माइया कामगारांना भडकवतोय, त्यालाही ठिकाणी लावायचंय। नरूद्दिन–तो थेरडा त्याची जमीन तशीच पडलीय। त्यावर कब्जा करायची इच्छा आहे। फडालूने कमी व्याज घेऊन पसैसे देणं सुरू केलंय। त्याला लुटायचंय। अन्वर साहेबांचं फारच गुणागान करताहेत लोक, त्यांच्या चेहन्याचर थोडं काळं फासायचंय। इम्रानने नवीन दुकान उछलंय, त्याचा माइया धंद्यावर परिणाम झालाय। त्याच्या दुकानाला आग लावायचीय।’

‘रहमान भाई, मलाही असंच वाटतं। काही लोक मरतील। काही निराधार होतील, काही जमिनी तू घे, काही मी घेईन। रामप्रसादची मुलगी लीलाला पोरकी बनवून घरी आणायचंय। विक्रम जरा शिकला सवरला नाही, तर लागलाय लगेच माइया नोकरांना हक्काच्या गोष्टी शिकवायलां हा काटाही काढून टाकायचाय। आपलं राज्य चालू राहिलं पाहिजे ना? धर्मयुद्धाच्या आडूनच या सगळलया समस्या सुटू शकतील!

‘मग? बुधवारपासून दंगा सुरू करायचा? आता निधू? माइया माणसांना काम समजवायचीत!

‘माझी माणसंसुद्धा चांगली तयार आहेत।’

‘हं…हं…डुक्कर…..’

‘हं….धर्म संकटात आहे।’

‘संकटात आम्हीसुद्धा पडू शकतो।’

पल-पल

$
0
0

सुबह आठ बजेः

            विरार चर्चगेट लोकल ट्रेन में धक्का-मुक्की और शोर-शराबे के बीच वृद्ध मिस्टर अल्मेडा सारे डिब्बे में चॉकलेट बाँटकर शुभकामनाएँ बटोर रहे थे।

            उनका जन्मदिन मनाने वाले सहयात्री रोज विरार से चर्चगेट तक की यात्रा करते थे। नरेश ने अपना पार्कर पेन मिस्टर अल्मेडा की शर्ट की जेब में लगा दिया। बरसों पहले दुर्घटना में अपना परिवार खो चुके मिस्टर अल्मेडा की आँखों में आँसू भर आए। उन्होंने नरेश को गले से लगा लिया।

दोपहर बारह बजेः

            दफ्तर में नरेश के साथ काम करने वाली रीता प्रेगनेंट थी। नरेश ने जल्दी से अपनी फाइलें निपटाईं। ‘‘तुम्हें आराम की जरूरत है’’ बोलकर रीता का काम खुद करने बैठ गया।

शाम चार बजेः

            बॉस की बीबी शाम की शिफ्ट में काम करती थी, इसलिए बॉस के बच्चे छुट्टी के बाद ऑफिस आ  जाते थे। नरेश बच्चों को आइसक्रीम खिलाने ले गया और घुलमिलकर अगले रविवार चिड़ियाघर जाने का कार्यक्रम बना डाला।

रात आठ बजेः

            थक-हार कर नरेश घर लौटा। बूढ़े पिता की खाँसी की आवाज सुनकर उसने गालियों की बौछार कर दी। पत्नी ने खाना लगाया। ‘‘नमक कम है’’ कहकर खाना दीवार पर दे मारा। बच्चे कार्टून देखकर खिलखिला रहे थे। ‘‘कितना शोर मचाते हैं?’’ चिल्लाते हुए दो थप्पड़ बच्चों को लगाए। बच्चे सहमकर खामोश हो गए। पूर्ण शान्ति के साथ नरेश सोने चला गया।

-0-

प्रेम

$
0
0

शिकार से लौटते हुए मैं बगीचे के मध्य बने रास्ते पर चला जा रहा था, मेरा कुत्ता मुझसे आगे-आगे दौड़ा जा रहा था। अचानक उसने चौंककर अपने डग छोटे कर दिए और डग छोटे कर दिए और फिर दबे कदमों से चलने लगा, मानो उसने शिकार को सूँघ लिया हो। मैंने रास्ते के किनारे ध्यान से देखा। मेरी नजर गौरेया के उस बच्चे पर पड़ी जिसकी चोंच पीली और सिर रोंयेदार था। तेज हवा बगीचे के पेड़ों को झकझोर रही थी। बच्चा घोंसले से बाहर गिर गया था। और अपने नन्हें अर्द्धविकसित पंखों को फड़फड़ाते हुए असहाय-सा पड़ा था।

कुत्ता धीरे-धीरे उसके नजदीक पहुँच गया था। तभी समीप के पेड़ से एक काली छाती वाली बूढ़ी गौरेया कुत्ते के थूथन के एकदम आगे किसी पत्थर की तरह आ गिरी और दयनीय एवं हदयस्पर्शी चीं…चीं..चूँ…चूँ…चें…चें… के साथ कुत्ते के चमकते दाँतों वाले खुले जबड़े की दिशा में फड़फड़ाने लगीं।

वह बच्चे को बचाने के लिए झपटी थी और अपने फड़फड़ाते पंखों से उसे ढक- सा लिया था। लेकिन उसकी नन्हीं जान मारे डर के काँप रही थी, उसकी आवाज फट गई और स्वर बैठ गया था। उसने बच्चे की रक्षा के लिए खुद को मौत के मुँह में झोंक दिया था।

उसे कुत्ता कितना भयंकर जानवर नज़र आया होगा! फिर भी यह गौरेया अपनी ऊची सुरक्षित डाल पर बैठी न रह सकी। खुद को बचाए रखने की इच्छा से बड़ी ताकत ने उसे डाल से उतरने पर मजबूर कर दिया था।

मेरा टेजर रुक गया, पीछे हट गया….जैसे उसने भी इस ताकत को महसूस कर लिया था।

मैंने कुत्ते को जल्दी से वापस बुलाया और सम्मानपूर्वक पीछे हट गया। नहीं, हँसिए नहीं। मुझमें उस नन्हीं वीरांगना चिड़िया के प्रति, उसने प्रेम के आवेग के प्रति श्रद्धा ही उत्पन्न हुई।

मैंने सोचा-प्रेम,मृत्यु और मृत्यु के डर से, कहीं अधिक शक्तिशाली है। केवल प्रेम पर ही जीवन टिका हुआ है और आगे बढ़ रहा है।

-0-

बैसाखियों के पैर

$
0
0

लघुकथा विधा में  विशिष्ट स्थान रखने वाले भगीरथ परिहार का प्रथम लघुकथा संग्रह ‘पेट सबके हैं’ (1996) के बाद  दूसरा लघुकथा संग्रह‘ बैसाखियों के पैर’  इक्कीस वर्ष बाद प्रकाशित हुआ। इतने अन्तराल के बाद लघुकथा संग्रह आना लेखक के धैर्य, परिश्रम, साधना का परिचय करवाता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण इस संग्रह की महता स्वतः ही बढ़ जाती है।

धर्मनिरपेक्ष देश में साम्प्रदायिकता कब हिंसक रूप धारण कर लेती है, कुछ कहा नहीं जा सकता। एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए बड़ी उलझन की स्थिति बन जाती है। धर्म का काम जोड़ना है, मानवता की राह दिखाना है पर यहाँ तो इसकी आड़ मे दूसरा ही खेल खेला जा रहा है।

 नानक जी ने कहा था ‘धर्म को पकड़ो और धर्म को छोड़ दो’। उनके ऐसा कहने के पीछे लोगों द्वारा धर्म का अंधानुकण  ही रहा होगा।  आज भी हम वहीं खड़े हैं, धर्म की आड़ में फतवे जारी होते हैं। धर्म का सहारा लेकर हिंसा और आतंक फैलाया जाता है। लघुकथा ‘डर’ में दो लड़कियों पर तेजाब इसलिए फेंका जाता है कि वे बुरके में नहीं थी। विचारणीय विषय यह है कि सभ्यता के विकास के बावजूद हम उसी मध्यकाल में क्यों रहना चाहते हैं, जिसे इतिहास का अंधकार युग कहा जाता है।

‘धार्मिक होने की घोषणा’ लघुकथा में भी लगता है जब तक तथाकथित धर्म के लोग हिंसक  कार्य नहीं करते तब तक उनको धार्मिक होने का प्रमाण पत्र नही मिलता। लघुकथा आम आदमी से भी प्रश्न करती है कि हम कहा खड़े हैं। क्या हम प्रेम की ऐसी बौछारें कर पाते हैं ,जिससे इस नफरत की आग को बुझाया जा सके।

लघुकथा ‘आदमी की मौत’ में भी धर्म का मर्म समझे बिना  अंधानुकरण करने वालों की आँखें खोलती है। ‘आदमी की मौत’ संवेदनहीन होते समाज का जीवंत चित्रण है। कितने दुख की बात है कि रामायण का पाठ सुनने को तो समय हैं लेकिन ठंड एवं भूख से दम तोड़ते आदमी को बचाने का नही। वाह रे आदमी फिर क्या सीखा धार्मिक ग्रंथ रामायण से। दूसरा,  हम असहायों की सहायता स्वयं न करके ‘मदर टैरेसा’ की ओर  देखते हैं। लघुकथा की विशेषता यह है कि  उसमें ठंड से  एक आदमी की मौत होती दिखाई देती है बल्कि मौत हमारी इंसानियत की होती है। कथ्य को कथानक कैसे बनाया जाता है हमें यहाँ से सीखने की आवश्यकता है।

मनुष्य पता नहीं बंधन से इतना क्यों डरता है। जबकि बंधन का अपना महत्व है। नदी भी तभी बह पाती है जब उसके दो किनारे होते हैं। लघुकथा ‘ असीम आकाश’ में पात्र जो विवाह को बंधन मानता तो वहीं पिता उस बंधन की कितनी सुन्दर व्याख्या करता है-विवाह होना जीवन की महत्वपूर्ण और सुखद घटना है। सृष्टि के नियमों का पालन करना मजबूरी नहीं, आनंद प्रदान करता है।  विचारों से ओतप्रोत वाक्य गागर में सागर भरते प्रतीत होते हैं। लघुकथा के समाप्त होते ही पाठक के सोचने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। महत्त्वाकाक्षाएँ मन का चैन छीन लेती है।वास्तविक सुख से वंचित कर देती है।

‘बैसाखियों के पैर’ लघुकथा प्रतीकात्मक रूप में लिखी एक कालजयी रचना जान पड़ती है। यह बोध करवाती है कि बैसाखियां भले ही मनोकामना पूरी कर देे पर उसमें स्वाभिमान नहीं रहता। यदि हमें स्वाभिमान से जीना है तो बैसाखियों का सहारा छोड़ना होगा.. स्वाभालंभी बनना होगा। अपनी टांगों पर भरोसा रखना होगा, और वह भरोसा अपने गुणों ,आत्मविश्वास, दुढ़इच्छाशक्ति से आयेगा। संदेशात्मक लघुकथा।

लघुकथा ‘ब्ंादी जीवन’ में यह भाव निकल आता है कि प्रेम बोया नहीं जाता स्वयं अंकुरित होता है। प्रेम पर उम्र का कोई बंधन नहीं होता विवाह में भी प्रेेम है। लेखक इस धारणा को तोड़ता है कि प्रेम केवल युवावस्था में प्रेमी- प्रेमिका के बीच ही होता है। प्रेम मन के निश्छल भाव है और ये भाव कभी भी प्रकट किए जा सकते हैं।

 अति हर चीज की बुरी होती है। जहाँ प्रेम रिसे वहाँ रिश्ते होते हैं। और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ रिश्तेदार अतिथि बन जाते हैं। रिश्तेदार की अपेक्षा अतिथि के प्रति अपनत्व की भावना कम होती है। लघुकथा ‘अतिथि’ में यह भाव महसूस किया जा सकता है।

          गरीबी एक अभिशाप है। गरीबी मनुष्य को एक ऐसे मोड़ पर खड़ा देती है कि उसे जिंदगी और मौत में कोई फर्क नजर नहीं आता। वह अपने घर की बदतर हालात को देखकर यह सोचने को मजबूर हो जाता है कि यदि कोई मेरी मौत के बदले मेरी परिवार का पालन पोषण करने की गारंटी दे तो मैं मौत को गले लगा सकता हूं। लघुकथा ‘बलिदान’ मे अनेक व्यंग्य तीर निकलते हैं- राजा निर्दयी है,दरबारी चाटुकार है। उनमें यह सोचने की शक्ति  नहीं कि एक मां अपने बेटे की बलि से कैसे खुश होगी।

यह कैसी विडम्बना है कि कहने को सब इंसान बराबर। लेकिन एक इंसान दूसरे इंसान का मैला अपने सिर पर ढोने को मजबूर । यहाँ देश के विकास के नारे खोखले नजर आते हैं लघुकथा‘ चम्पा’ में। 

एक जगह काशीनाथ सिहं लिखते हैं- ‘मशाल जलाने से पहले माचिस की तीली जलानी पड़ती है।’ यह उक्ति लघुकथा ‘चुनौती’ में चरितार्थ होती दिखती है। यह बात शोषण की चक्की में पिसते दलितों को समझ आने लगी है। दलित कोई जाति विशेष के लोग नहीं बल्कि जिनका शोषण होता है वे सब दलित ही हैं। लघुकथा यह भी संकेत करती है  अन्याय करने वाला जितना दोषी है उतना ही दोषी अन्याय सहने वाला भी होता है। पात्र के मुख से यह कहलवाना ‘बिना लड़े तो इनके अभिमान श्रेष्ठता और उच्चता की गांठे टूटेगी भी नहीं। सम्मान पाना है तो लड़ना होगा।’ दलितों के पक्ष में खडी एक बेहतरीन लघुकथा है।

साहित्य अपने समय का दस्तावेज होता है। दलित अब विकास की राह पर कदम बढ़ा रहे हैं लेकिन सवर्णों की आँखें उनके विकास को  सहन नहीं कर पा रही है। लघुकथा‘ घणा मान सू बुलाया में ऐसे ही सवर्णों का मनोविश्लेषण करती है। लघुकथाकार को अपनी बोली प्यारी लगती है वह उसका मोह नहीं छोड़ पाए।

‘गुफाएँ प्रतीकात्मक शैली में लिखी बड़ी ही प्रेरणादायक लघुकथा है। यदि सपनों को पंख लगाने हैं, उन्हें साकार रूप देना है तो रहस्य और अंधेरे को बेपर्दा करना होगा। जीवन में दो ही रास्ते मिलते हैं एक बना बनाया और दूसरों निर्मित करना पड़ता है लेकिन उसके निर्माण में त्याग एवं समर्पण का होना आवश्यक है। उसके बाद जो आन्ंद मिलेगा,वह अकथनीय होगा।  लघुकथा में स्पष्ट है कि हमें गुफाओं को पार करना होगा। पार करने में जो खतरे आयेंगे उनका जौखिम तो उठाना पड़ेगा। अर्थात मंजिल पाने के लिए संघर्ष करना होगा । ऐसा करने पर  कृपा करते भगवान शिव मिलेंगे, प्रेम के रंगों से सजी अजंता अलोरा के चित्र मिलेंगे। यानि कष्टों के बाद सुख मिलेगा।

आज लड़कियां अपना दीपक स्वयं बन रही है, इसलिए हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है। वे रूढ़िवादी परम्पराओं की जंजीरे को अपने विवेक, आत्मविश्वास, दृढ़ इरादों से तोड़ रही है। इसका सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करती है लघुकथा‘सुनीता’। बालविवाह के मोड़ पर खड़ी हर लड़की की प्रेरणास्रोत बनती है सुनीता।

‘मेरी कहानी’ लघुकथा महिला सशक्तीकरण की सशक्त लघुकथा है। लघुकथा भारतीय समाज का यथार्थ चित्रण करती है- ‘यूँ तो भारतीय परिवार मां को पूजनीय मानते हैं लेकिन एकल मां को वह सम्मान नहीं मिलता जिसकी वे हकदार है।’ इसके बावजूद औरत पति के साथ न होने पर  भी अपनी बेटियों तथा स्वयं को  विकट परिस्थितियों से लड़ना सिखाती है।

देश में बेरोजगारी की समस्या इतनी भयंकर है कि युवको को अपने शौक दफन करने पड़ रहे हैं।  लघुकथा ‘प्रतिभा का विकास’ ऐसे ही युवकों के सपनों के दफन हाने की कथा है।

 ‘चीखें’ लघुकथा एक अलग तरह की लघुकथा जान पड़ती है। हम स्त्री के जिंदा जलने को गर्व का विषय कैसे बना सकते हैं। उसे इतिहास में महिमामंडित कैसे कर सकते हैं। कितने दुख की बात है कि हमें जलती हुई स्त्री की चीखें सुनाई नहीं देती। लघुकथा अतीत को वर्तमान से जोड़ देती है और आज भी  स्त्रियों के साथ वही दुर्व्यवहार। मेरे देश की संसद चुप हो जाती है। बहुत कुछ चिंतन मनन के लिए बाध्य करती हैं लघुकथा।

इन लघुकथाएँ के साथ-साथ ‘सपने में मां’ वात्सल्यी  माँ के दर्शन होते हैं,‘स्पर्टाकस का जन्म’ में कथा के अन्दर कथा का अदभुत रूप देखने को मिलेगा, ‘सुपारी’ लघुकथा पढ़कर दंग रह जायेंगे कि दूसरा का न्याय करने वाले न्यायाधीश गुंडों को सुपारी देकर न्याय पाता है। सभी लघुकथाएँ एक से बढकर एक।

          इन लघुकथाओं में भाषा शैली के अन्तर्गत सुन्दर उपमाएँ, बिम्ब, भावानुरूप शब्दावली सोने पे सुहागा बन जाती है। मुझे ये अनुभव की आँच पर पकी लघुकथाएँ लगती है क्योंकि इतने अंतराल के बाद लघुकथा संग्रह आना इस बात की गारंटी देता है।  मैं दावे से कह सकता हूं जो भी इन लघुकथाओं को पढ़ेगा वह बार-बार पढ़ेगा। मेरा विश्वास है यह संग्रह साहित्य जगत में विशेष ख्याति अर्जित करेगा इसी आशा के साथ लेखक को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।

   बैसाखियों के पैर( लघुकथा-सग्रह): भगीरथ परिहार, पृष्ठ: 162 , मूल्य: 280 ( पेपर बैक), प्रकाशक: एजूक्रिएशन पब्लिशिंग , आर-ज़ेड, सेक्टर-6, द्वारका , नई दिल्ली-110075


लघुकथा कलश -एक सम्पूर्ण पत्रिका

$
0
0

कलश शब्द ही उस पात्र का प्रतीक है ,जो सदा शुभ संकेत हेतु प्रयुक्त किया जाता है। जब यही शब्द लघुकथा के साथ जुड़ जाए ,तो यह सम्पूर्ण विधा के लिए शुभसंकेत का दावा करता प्रतीत होता है। दावा कितना सटीक है यह साबित करने हेतु ,जिस टूल का प्रयोग किया जाता है ,उसे ही साहित्य की दुनिया में आलोचना या समीक्षा कहते हैं।

विशेषांक ,अर्थात् किसी एक ही विषय, व्यक्ति, विधा या विचार को लेकर किया गया रचनात्मक प्रयोग है और उस प्रयोग को सफलता की कसौटी पर कसने का साधन है -समीक्षा, आलोचना, समालोचना। अपने कार्यों का आकलन किए बिना आगे बढ़ते रहना उत्तरोत्तर विकास को बाधित करता है, जबकि समीक्षात्मक विश्लेषण नए उत्साह के साथ अगली पायदान पर चढ़ने का मार्ग प्रशस्त करता है। किसी भी विशेषांक में उस विधा से सम्बन्धित सामग्री का समावेश होता है ,जबकि यदि वह महाविशेषांक हो ,तो उस विषय से संबंधित लगभग हर सामग्री की अपेक्षा की जाती है।

यहाँ हम बात कर रहे हैं श्री योगराज प्रभाकर व उनके संपादक मंडल के संपादन में प्रस्तुत महाविशेषांक लघुकथा-कलश की। पूर्व में प्रकाशित दो महाविशेषांकों के बाद यह तृतीय अंक है। संपादक मंडल ने तृतीय अंक का पाठकों व विधा के लेखकों द्वारा आकलन कराने का निर्णय लिया है, जो प्रशंसनीय है। वस्तुतः पाठक सबसे बड़ा आलोचक होता है ; किंतु समीक्षा एक पृथक विषय है। यहाँ लघुकथाकारों के लिए समीक्षा के पहलुओं को जानने, समझने व लिखने का एक उपयुक्त अवसर है।

राम स्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार -‘रचना यदि जीवन का अर्थ विस्तार करती है, तो आलोचक रचना का अर्थ विस्तार करता है। दूसरे शब्दों में जीवन के अंतर्द्वंद्व को देखने-परखने में आलोचना दीपक की भूमिका निभाती है।आलोचना रचनात्मक संकेतों को सामाजिक अनुभवों के आलोक में ‘डी-कोड’ करती है। इस तरह जहाँ रचनाकार की रचनाशीलता विराम लेती है ,वहीं से आलोचक का कार्य प्रारंभ होता है। आलोचना साहित्य का शास्त्र नहीं है बल्कि साहित्य का जीवन है जो बदलते सामाजिक सन्दर्भों में बार-बार रचा जाता है। इस प्रकार आलोचना परखे हुए को बार-बार परखती है और जीवन-सम्बन्धों के विकल्प की तलाश में साहित्य और आलोचना की सह-यात्रा जारी रहती है ।’ यह कहना समीचीन होगा कि आलोचना या समीक्षा का कार्य रचना या सम्पूर्ण कृति को सामाजिक सरोकारों, समय परिवर्तन के महत्त्व के साथ ही साहित्य के मानदंडों पर परखना होता है। इससे कृतिकार को उत्साह, विचारों की प्रौढ़ता, रचनात्मक विचारों और शिल्प एवं भाषा के परिमार्जन और परिवर्द्धन की प्रेरणा मिलती है, जबकि पाठक की बोध-वृत्ति का भी परिष्कार होता है|

महाविशेषांक में विधा से संबंधित सभी पूर्ववर्ती, वर्तमान व आगामी आयामों को समाहित करती सामग्री थोड़ी या अधिक मात्रा में उपलब्ध होनी ही चाहिए, जो इस अंक में भी है। लघुकथा कलश का तृतीय महाविशेषांक अनेक अर्थों में अनूठा है। ‘ए-फोर’ साइज़ का अंक, ग्लेज़्ड पेपर में छपा है। प्रिन्टेड अक्षरों का आकार ऐनक व ऐनकरहित दोनों प्रकार के पाठकों के लिए पढ़ना सुगम है। महाविशेषांक में पृष्ठों की संख्या 264 व मूल्य 300 रुपये है।

मुखपृष्ठ पर सुसज्जित उदात्त लहरों के साथ सागर, प्रकाशस्तंभ , नीला आसमान व पखेरू मिलजुल कर एक दास्तान सी कहते प्रतीत होते हैं। लघुकथा विधा रूपी सागर के विलोड़न से निकला कलश ही लघुकथा-कलश है।जिस प्रकार ऊपर आकाश व नीचे गहरा सागर हो ऐसे वीराने में प्रकाशस्तंभ ही मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है, उसी प्रकार उम्दा सामग्री से परिपूर्ण यह संकलन लघुकथाकारों के लिए प्रकाशस्तंभ की भूमिका निभाएगा, ऐसा मेरा मत है।

संपादकीय पर दृष्टिपात करें तो एक संपादक के कार्यों में विधा व विशेषांक की विशेषताएँ उद्धृत करने के साथ ही विधा के सम्बन्ध में हो रही सकारात्मक व नकारात्मक गतिविधियों से रूबरू कराना भी अपेक्षित होता है, अपने इस दायित्व का निर्वहन संपादक के तौर पर योगराज प्रभाकर ने बख़ूबी किया है। “सच कहूँ, सुन लेहुँ सबै” -में अधुना समय में लघुकथा को लेकर हो रही राजनीति से आहत मन की पीड़ा है तो वहीं समाधान भी प्रस्तुत किया गया है। विधा के प्रति समर्पित व्यक्ति को सब कुछ दरकिनार करते हुए अपने काम में गंभीरतापूर्वक संलग्न रहना होता है जिसमें वे सफल हैं। संपादकीय में विभिन्न विद्वानों के लघुकथा के कलेवर को लेकर प्रस्तुत विचार काबिले -गौर हैं। लघुकथा के दो बिंदुओं, कालखंड व चरमबिंदु यानी जिसे ‘पंचपंक्ति’ की अवधारणा पर अपने अमूल्य व विस्तृत विचार व्यक्त किए हैं। उनके अनुसार- लघुकथा रचना के मूल में एक बिंदु, एक क्षण होता है अर्थात् अर्जुन की भाँति एक लघुकथा का निशाना भी केवल मछली की आँख पर ही केन्द्रित रहना चाहिए। वहीं वे कहते हैं -अनेक लघुकथाएँ अपनी सटीक पंचपंक्ति के कारण चिरजीवी हो गई हैं। उन्होंने नवलेखकों को गुमराह न होने की सलाह भी दी है। संपादन का काम एक टीमवर्क होता है। उनकी टीम में समायोजित प्रत्येक व्यक्तित्व स्वयं में एक समर्थ लघुकथाकार है व विशेषांक का अवलोकन करते हुए अपने उद्देश्य के प्रति समर्पित व कर्मठ दिखाई पड़ता है।

किसी भी विधा के विकास के लिए उस पर समीक्षात्मक दृष्टिपात व विश्लेषणात्मक अध्ययन होना अतिआवश्यक है। इसी उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए नवोदित लघुकथाकार महेन्द्र कुमार व वरिष्ठ लघुकथाकार मुकेश शर्मा व कमल चोपड़ा की सात-सात लघुकथाओं की समीक्षा क्रमशः प्रसिद्ध लघुकथाकार व समीक्षक अशोक भाटिया, बी.एल आच्छा व रवि प्रभाकर द्वारा की गई है। इन लघुकथाओं की समीक्षा समीक्षात्मक बिंदुओं के अनेक आयाम खोलती है। महेन्द्र कुमार की लघुकथाएँ पृथक् पृथक् विषयों को लेकर बुनी गई हैं जो सामाजिक सरोकारों से गुम्फित हैं। लघुकथा का भविष्य ऐसे नवोदित लघुकथाकारों के हाथों में सुरक्षित रहेगा, ऐसी आशा बँधती है। अशोक भाटिया ने भी लिखा है कि ‘महेन्द्र जी की लघुकथाएँ पहली श्रेणी की सम्भावनाएँ लिये हुए हैं’, यह लघुकथा समाज के लिए हर्ष का विषय है ;क्योंकि ये ही लघुकथा के भविष्य के कर्णधार हैं।

वहीं बी.एल आच्छा के शब्दों में मुकेश शर्मा की लघुकथाएँ पुराने विषयों में भी नए कोण, नए परिदृश्य व नए ट्रीटमेंट तलाशती हैं। इस प्रकार ये नए लेखकों के लिए उत्कृष्ट उदाहरण हैं। मेरी दृष्टि में भी मुकेश शर्मा की लघुकथाएँ विचारों की गहराई लिए हुए हैं व सोचने को बाध्य करती हैं।

बकौल रवि प्रभाकर ‘कमल चोपड़ा जी का लेखन विकासोन्मुखी रहा है जिसमें मानवीय मूल्यों की जिजीविषा को ध्वस्त करने वाली व्यवस्था के प्रतिरोध और नए मूल्यों की स्थापना में सहायक स्वर की अनुगूँज है।’ यही एक लेखक से अपेक्षित भी होता है। रचना प्रक्रिया के दौरान लेखक को समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व व भूमिका का भान अवश्य होना चाहिए। यहाँ तीनों लघुकथाकारों ने अपने इस दायित्व को बख़ूबी निभाया है। रचनाओं का चयन प्रशंसनीय है।

आधारशिला के अंतर्गत पंजाबी लेखक स्व० जगदीश अरमानी को ‘लघुकथा कलश’ की ओर से श्रद्धांजलि स्वरूप उनकी दस लघुकथाओं का रवि प्रभाकर द्वारा किया अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। लघुकथाएँ अपने कलेवर में अनूठी हैं। आकार में लघु व सारगर्भित हैं।

अपने पूर्ववर्ती लघुकथाकारों को याद करना व पढ़ना सदैव लेखन के नए द्वार खोलता है। लघुकथा कलश के इस अंक में दस दिवंगत लघुकथाकारों के योगदान को याद करते हुए उनकी एक-एक लघुकथा दी गई है। इन लघुकथाकारों में शामिल हैं- अमरनाथ चौधरी अब्ज़ की ‘स्वाभिमान’, कालीचरण प्रेमी की ”बदला’, कृष्ण कमलेश की ‘ठीक -ठाक’, मो० मोइनुद्दीन अतहर की ‘कुत्ते’, प्रेम सिंह बरनालवी की ‘नई राह’, रावी की ‘भिखारी और चोर’,विष्णु प्रभाकर की ‘ईश्वर का चेहरा’, श्याम सुंदर व्यास की ‘चाकर कुंडली’, सुगमचंद्र मुक्तेश की ‘वर्तमान’ व सुरेन्द्र मंथन की ‘कंधे पर बैठा आदमी’। सभी लघुकथाएँ अपने कलेवर व फ्लेवर में एक से बढ़कर एक हैं। चयनकर्ताओं को साधुवाद।

विशेषांक में 173 लघुकथाकारों की 301 लघुकथाएँ शामिल की गई हैं । वरिष्ठ व नवोदित लघुकथाकारों की मिलीजुली रचनाओं से समृद्ध विशेषांक संपादन- कौशल का उत्कृष्ट नमूना है। रचनाओं के चयन में बहुत सावधानी बरती गई है। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, स्त्री विमर्श, बाल मनोविज्ञान, वैचारिक , शैक्षिक, राष्ट्रीय मुद्दे, वाणिज्यिक मुद्दे, आतंकवाद, पर्यावरण व ग्लोबल समस्याओं जैसे विषय वैविध्य के दर्शन इस महाविशेषांक में होते हैं। कहते हैं न कि लघुकथा विसंगतियों की कोख से जन्म लेती है। हम इन लघुकथाओं में निहित व इंगित विसंगतियों के आलोक में चर्चा करेंगे।

हर हाथ में मोबाइल हमारे देश की तरक्क़ी को इंगित करता है ; किंतु साथ ही इसके कारण सभी अपने आप में व्यस्त हो गए हैं। एक घर में रहते हुए भी आपस में वार्तालाप से दूर होते जा रहे हैं। इसी बात का ख़ूबसूरती से ज़िक्र किया है अंजलि गुप्ता ‘सिफ़र’ ने अपनी लघुकथा ‘हैलो ज़िंदगी’ में। मोबाइल ने सैल्फी की भी लत डाली है, इसके कारण कई दुर्घटनाएँ तक हो जाती हैं, यही बताना चाहा है भुवनेश्वर चौरसिया ‘भुनेश’ ने अपनी लघुकथा ‘सुबह की तस्वीर’ में। यह भी एक विडंबना ही है कि कोई दुर्घटना घटने पर लोग उस व्यक्ति की मदद करने की अपेक्षा मोबाइल से वीडियो बनाने में जुट जाते हैं, इसी का ज़िक्र किया है रामकुमार आत्रेय जी ने अपनी लघुकथा ‘सलाम रिश्ता’ में।

पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार की कलई खोलती अखिलेश शर्मा की कथा है पॉकेटमार। उनके अनुसार पुलिस हो या जेबकतरा हैं तो दोनों ही पॉकेटमार अपने अपने तरीके से। पति पत्नी के रिश्ते में प्यार- भरी नोंक झोंक , रूठना-मनाना होता रहता है और शायद यह आपसी प्यार को और भी बढ़ाने में सहायक होता है, इस रिश्ते की ख़ूबसूरती को अजय गोयल ने दिखाने की सफल कोशिश की है। कथा ‘अबोला’ में एवं जानकी वाही ने लघुकथा ‘सावन की महक’ में। । मिन्नी मिश्रा की ‘अहम’ भी एकदूसरे के पूरक होने की तसदीक़ करती है। समाज की क्रूर सच्चाई है अंधविश्वास, जिसकी गिरफ़्त में अनपढ़ व पढ़े-लिखे सभी आ जाते हैं यह जानते हुए भी कि बुरे कर्म का नतीजा सदैव बुरा ही होता है। बात बलि की हो या भूत-पिशाचों की, इसी बुराई को समय रहते सकारात्मक मोड़ देते हुए अजय गोयल की कथा है’ बलि’ व अशोक भाटिया जी की हाथी। सिगरेट, शराब ड्रग्स वगैरह कैसे इनसान को अपने चक्रव्यूह में फाँस लेते हैं व इससे बाहर आने का रास्ता केवल आत्मनियंत्रण ही है ,इसी बात को बख़ूबी दर्शाया है अनघा जोगलेकर ने अपनी रचना ‘चक्रव्यूह’ में।

स्त्री विमर्श एक ऐसा विषय है जिस पर बहुत कुछ लिखा जाता रहा है। इस अंक में भी अपराजिता अनामिका की लघुकथा ‘सर्कस की शेरनी’ व ‘बदतमीज़’, अर्चना मिश्र की ‘अनकहा समझौता’, किशनलाल जी की ‘क्षमा’ व ‘इज्ज़त’, कुमार नरेंद्र जी की ‘विवाह की उम्र’ पठनीय हैं। वहीं एक महिला का आत्मबल बढ़ाने में एक पति की कोशिश देवेन्द्र सोनी की लघुकथा ‘आत्मबल’ में की गई है। प्रेरणा गुप्ता की लघुकथा ‘उड़ान बाकी है’ व मनोरमा जैन ‘पाखी’ की लघुकथा ‘ज्वार’ अच्छी संदेशप्रद कथा है जो घरेलू हिंसा से त्रस्त महिलाओं को हौसला देती है। मीनाक्षी शर्मा ‘लहर’ की लघुकथा ‘आड़ा वक़्त’ एक बेटी को शिक्षा, नौकरी, आत्मविश्वास… दहेज़ में देना चाहती है ताकि वह स्वाभिमान से जी सके।
बेटियों को समाज में आज भी बोझ समझा जाता है । स्थिति में परिवर्तन हो रहे हैं, किंतु कछुआ गति से। ऐसे में बेटियों को ही हिम्मत दिखानी होगी, अपने लिए राह ख़ुद ही बनानी होगी। इस बात को कई लघुकथाओं मसलन- अल्पना हर्ष की ‘आत्मबल’, आशा शैली की ‘कुछ नहीं बदला’, कुसुम शर्मा नीमच की ‘एक पाती’ में व्यक्त किया गया है। कन्या भ्रूणहत्या भी बेटियों के खिलाफ मानसिकता के कारण ही है। तारिक़ असलम ‘तस्नीम’ ने कामवाली बाई व मालकिन के संवादों द्वारा यही जताने की कोशिश की है। दिव्या शर्मा ने भी भ्रूण हत्या के कारण भविष्य में लड़कियों की घटती संख्या पर चिंता व्यक्त की है अपनी लघुकथा ‘दुर्लभ प्रजाति’ में। बेटा पैदा करने में पत्नी की जान को ख़तरा सोचते परेशान पति को पत्नी का जवाब- ‘अगर मेरी कोख में लड़की होती तो भी हमेशा की तरह लड़की को ही बलि चढ़ना पड़ता’- एक करारा व्यंग्यात्मक किंतु मार्मिक उत्तर है ‘आख़िर औरत ही’ लघुकथा में जो लिखी है धर्मपाल साहिल ने। कन्याभ्रूण हत्याओं के कारण संख्या अनुपात में जो अंतर आया है इसका नतीजा लघुकथा ‘द्रौपदी’ की पात्र द्रौपदी जैसा हो सकता है जिसे पाँच पतियों की पत्नी बनना पड़ता है, यह बता रही हैं भारती कुमारी। इसी क्रम में बेटियों के लिए चलाई जा रही अनेक योजनाओं में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे को बेटी बचाओ, बेटा पढ़ाओ की सलाह दे रहे हैं मनोज कर्ण अपनी लघुकथा ‘बढ़ती लकीरें’ में ,ताकि शिक्षित होकर बेटे दूसरे की बेटी का सम्मान करें। सतीश राज पुष्करणा की लघुकथा ‘सवेरा’ भी बेटे-बेटी के अंतर को दिखाती है किंतु बेटे द्वारा ही उसके पिता को सबक़ मिलता है व सकारात्मक मोड़ लेते हुए कथा का समापन होता है।

संवेदनहीनता समाज में किस कदर हावी हो रही है कि एक मजबूर लड़की के चीख़ने पर दरवाज़ा न खोलने वाले लोग कुत्ते के रोने की आवाज़ पर घरों से बाहर निकल आते हैं- इस बात को सिद्ध करती है सुकेश साहनी की लघुकथा ‘श्वान विलाप’। वहीं मरती संवेदनाओं के युग में भी कहीं-कहीं यह ज़िंदा होने का आभास करा ही देती है और मस्तक सम्मान से झुक जाता है। इस अंक में भी अशोक कुमार की कथा ‘श्रेष्ठ कृति’ ख़ूबसूरत है। ज्योति शर्मा की ‘सबके बप्पा’ भी ध्यान खींचती है वहीं

सृजन और विनाश का दौर अपनी गति से आता-जाता रहता है। विनाश जहाँ दुख का कारण बनता है वहीं सृजन आंतरिक ख़ुशी का अहसास कराता है, अशोक भाटिया की लघुकथा इसी भाव को इंगित करती है। माँ एक ठंडी फुहार का नाम है जो अंत तक भी अपने बच्चों की चिंता में घुलती जाती है। बुरी बलाओं से बचाने की कोशिश में लगी रहती है। अशोक भाटिया अपनी लघुकथा ‘ज़िंदगी के साथ’ में इस तथ्य को बख़ूबी व्यक्त करते हैं। भगीरथ परिहार की लघुकथा ‘सपने में माँ’ मृत्यु के उपरांत भी अपने पुत्र का मार्गदर्शन करती है। भटके हुए नौजवानों को सही राह पर लाने की हिम्मत व जज़्बा हर किसी में नहीं होता। अशोक वर्मा की लघुकथा ‘फ़ैसला’ ऐसा ही कठोर फ़ैसला करवाती है एक बहन से अपने भाई को पुलिस से पकड़वाकर। कहते हैं क्रांति के लिए किसी एक को तो शुरुआत करनी ही होती है, फिर उसी से प्रेरणा प्राप्त कर अन्य भी साथ हो लेते हैं। यही बात साबित होती है आभा सिंह की लघुकथा ‘क्रांति’ में। एक ही वस्तु किसी के विचार में बुरी व दूसरे के लिए रोज़ी का साधन है बताती है आभा सिंह की लघुकथा ‘दृष्टिकोण’। अर्चना राय की ‘आईना’, अमरेंद्र सुमन की ‘पिकनिक’, विजयानंद विजय की ‘खुलती गाँठें’, उमेश महादोषी की ‘समय का तीसरा बिंदु’, नीरज सुधांशु की ‘इंटरव्यू’, सतीशराज पुष्करणा की ‘माँ’ कुणाल शर्मा की ‘कुर्बानी’ व ‘स्वेटर’, कुमार गौरव की ‘तेरा मेरा’, नवीन कुमार साह की ‘ईमानदारी’, नीता राठौड़ की ‘मासूम सवाल’, पंकज शर्मा की ‘बापू का जन्मदिन’, बालमनोविज्ञान को बख़ूबी प्रदर्शित करती हैं। आज की बेलगाम पीढ़ी के हालात आशा शैली ने व्यक्त किए हैं अपनी लघुकथा ‘बैल की जून’ में। ग़रीब का भी स्वाभिमान होता है यह साबित करती है आशा शर्मा की लघुकथा’ चमक’।

पर्यावरण को नुकसान पहुँचाकर आधुनिक होते शहर सोचने को मजबूर करते हैं ऊषा भदौरिया की लघुकथा ‘ढांचा’ में। गोविंद शर्मा जी की ‘वायरस’ भी चमगादड़ के माध्यम से यही बात कहती है। पंकज शर्मा की कथा ‘गूँगा’ पेड़ों के काटे जाने पर चिंता व्यक्त करती है। बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘अकेला कब गिरता है पेड़’ पेड़ों के गिराए जाने से होने वाले नुकसान से अवगत कराती है। परंपराओं को तोड़ना, वर्जनाओं को तोड़ना कोई आसान काम नहीं है, निर्णय लेने में बहुत कष्ट भी होता है, इसी ऊहापोह को ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश ने दिखाने का प्रयत्न किया है अपनी लघुकथा ‘परंपरा’ में। जयराम कुमार सत्यार्थी भी इसी भाव को व्यक्त करते हुए ससुर को बहू से मुखाग्नि दिलवाते हैं अपनी लघुकथा’ मुखाग्नि कौन देगा’ में।

राजनीति में समय के साथ बदलाव आए हैं । जनता को लुभाने के हथकंडे बदल रहे हैं, इस बात को साबित करती है कनक हरलालका की लघुकथा ‘सड़क और पुल’, राजनीतिज्ञों का भ्रष्टाचार मामूली अपराध है व ग़रीब का अपराध अक्षम्य, दर्शाती है घनश्याम अग्रवाल की लघुकथा ‘हम सब चोर हैं’ वहीं राजनीति में मौक़ापरस्ती प्रताप सिंह सोढ़ी की लघुकथा ‘परिवर्तन’ में बख़ूबी उभर कर आई है। वहीं वोटरों को लुभाने की राजनीति का कच्चा चिठ्ठा पेश करती है योगेन्द्रनाथ शुक्ल की लघुकथा ‘परोपकार का भूत’। अपनी दूसरी लघुकथा ‘आंकड़े’ में भी उन्होंने वास्तविकता से कोसों दूर आँकड़ों का खेल कैसे खेला जाता है बताने का प्रयत्न किया है।

बड़ों की कही बातें बचपन में समझ न आएँ पर बड़े होने पर उन्हीं बातों के अर्थ समझ में आने लगते हैं यह बताया है कमलेश भारतीय ने ‘चौराहे का दीया’ व ‘…और ‘मैं नाम लिख देता हूँ’ में।

वृद्धावस्था की समस्याएँ , एकाकीपन बहुत गंभीर रूप धारण करता जा रहा है। कुँवर प्रेमिल की लघुकथा ऐसी परिस्थिति से मुक़ाबला करने का विश्वास जगाती प्रतीत होती है वहीं माँ-पिता के प्रति कर्तव्य निभाने में कथनी व करनी में अंतर को दर्शाती जयकिशन सब्बरवाल की कथा ‘भाषण’ व ‘पिता जी’ हैं। एकाकीपन को घर भी महसूस करता है पर एकाकीपन को मिलजुल कर मिटाया भी जा सकता है ये बता रही हैं तनु श्रीवास्तव अपनी लघुकथा ‘बल्ले-बल्ले ‘ में। तारिक़ असलम ‘तस्नीम की लघुकथा ‘माँ ‘ भी इसी विषय को लेकर है। दीपक गिरकर ने अपनी कथा ‘जीवनभर का सूतक’ के माध्यम से माँ पिता की वृद्धाश्रम में मृत्यु होने पर सदा के लिए सूतक लग जाना बताकर ऐसे बेटे को पुण्य कार्यों से भी विरत कर दिया है। अपने माँ बाप से दूरी बनाकर वृद्धाश्रम में जाने का दिखावा करते लोगों के मुँह पर करारा तमाचा है रजनीश दीक्षित की लघुकथा ‘आईना’। राजकमल सक्सेना की लघुकथा ‘फटा नोट’ में शंकरलाल स्वयं की तुलना उस फटे नोट से करता है जो हर जगह दुत्कारे जाने के बाद मंदिर में स्थान पाता है जैसे वह अपने बेटों से दुत्कारे जाने के बाद वृद्धाश्रम में। वृद्धावस्था में अपनी ही संतान द्वारा दुत्कारे जाने का दर्द बयान हुआ है विरेंद्र वीर मेहता की लघुकथा ‘आख़िरी घड़ियाँ’ में।

ज़िंदगी से जुड़ी अनेक लघुकथाओं में कृष्णलता यादव की ‘ज़िंदगी ज़िंदाबाद’ व ‘तर्क से परे’ अच्छी हैं। इसी क्रम में प्रतीकात्मक शैली में लिखी चंद्रेश कुमार छतलानी की दो लघुकथाएँ ‘एक बिखरता टुकड़ा’ व ‘प्रयास तो करो’ प्रभावित करती हैं। दिखावा या सच आपसी रिश्तों में समझना कभी-कभी बहुत मुश्किल होता है, ऐसा ही कुछ जगदीश राय कुलरियाँ ने व्यक्त किया है अपनी लघुकथा ‘रिश्तों का सच’ में, सास-बहू के रिश्तों जैसे पुराने विषय पर काफी लिखा जाता रहा है, उसी पर सकारात्मक पुट देते हुए क़लम चलाई है दिलबाग सिंह ‘विर्क’ ने लघुकथा ‘ताली’ में। किराए की कोख के व्यापार जैसे समसामयिक विषय को उठाया है धर्मपाल साहिल ने अपनी कथा ‘व्यापार’ में। रामकुमार घोटड़ ने कथा ‘बदलता चोला’ में किराए की कोख लेने वालों के कृत्य को पक्षीवत् बताया है। जैसे कोयल अपने अंडे कौए के घोंसले में रख देती है व बच्चे पैदा होने के बाद लेकर फुर्र हो जाती है। मधुदीप की लघुकथा ‘हथियार’ आज के सच को प्रदर्शित करती है। मज़दूर या ग़रीब के हक़ में आवाज़ उठाना जैसे अपराध हो गया है। माधव नागदा की लघुकथा ‘पुरानी फाइल’ सदियों से ऊँची जाति वालों के शोषण के प्रति निम्न जाति वालों के आक्रोश को प्रदर्शित करती है। मच्छरों की अपने अस्तित्व को बचाने व बाज़ार के हित साधने की कवायद में बाज़ार की तिकड़मबाज़ी भले ही इनसान का नुकसान हो को मुद्दा बनाकर लिखी गई संकेतात्मक लघुकथा है मार्टिन जॉन की ‘ऑपरेशन क्लीन’। मनुष्य केवल शरीर से ही नहीं विचारों से भी विकलांग(टुंटा) होता है संवादों के माध्यम से जताने का प्रयत्न किया है मृणाल आशुतोष ने अपनी कथा ‘टंगटुट्टा’ में।

योगराज प्रभाकर जी की लघुकथा ‘एक अफ़गानी की डायरी’, डायरी शैली में लिखी लघुकथा का उदाहरण है। अफ़गानिस्तान के पिछले चालीस वर्षों से बिगड़ते हालात के दौर दिसंबर-1979 से जनवरी-2019 (यानी आज तक) डायरी के माध्यम से लघुकथा में ढाला गया है। शांति की आशा अब भी धूमिल नहीं हुई है बल्कि किसी चमत्कार की आस में आज तक ज़िंदा है। वहीं उनकी दूसरी कथा ‘जम्बूद्वीपे भारतखंडे’ हुनर का अभाव व बेरोज़गारी के कारण अपराधी बनते युवाओं का दर्द बयान करती है।

कुतर्कों द्वारा अपने किए ग़लत काम को सही ठहराने की कोशिश कैसे की जाती है यह बताया है राजेन्द्र वामन काटदरे ने लघुकथा ‘उपवास’ में। इन्सानियत के नाते किसी की जान बचाना सबसे बड़ी इबादत है यही सबक़ सिखाने की कोशिश की है रामयतन यादव ने अपनी लघुकथा ‘सच्ची इबादत’ में। जगह घर में हो न हो दिल में होनी चाहिए, इस पते की बात को लघुकथा ‘स्नेह -पाश’ से साबित किया है रूप देवगुण जी ने। आज के समय में अख़बार भे अपना स्वार्थ देखकर खबरें प्रकाशित करते हैं यही मुद्दा उठाया है रेणुका चितकारा ने लघुकथा ‘क़लम और बोटी’ में। किसी के साथ कितनी ही दुखद घटना हुई हो , रेप हुआ हो या कुछ और चैनल वालों को केवल खबरों को सनसनी की तरह पेश करने से मतलब होता है न कि पीड़ित की फिक्र, यही बात साबित की है संदीप तोमर ने लघुकथा ‘ख़बर की ख़बर’ में। सविता इंदर गुप्ता भी पीछे नहीं हैं, उन्होंने न्यूज़ चैनल वालों की संवेदनहीनता को मार्मिकता के साथ उकेरा है अपनी लघुकथा ‘ब्लैक होल’ में। माँ डाँट ले , फटकार ले फिर भी वह बच्चों के लिए सबसे अच्छी माँ होती है, सतीशराज पुष्करणा ने अपनी लघुकथा ‘माँ’ के माध्यम से यही समझाया है। दूसरे से ईमानदारी की अपेक्षा से पहले ख़ुद ईमानदार होना भी ज़रूरी है का संदेश दिया है सीमा जैन ने लघुकथा ‘दोतरफ़ा जाँच’ में। शोषित और शोषक की दास्तान बख़ूबी बयान की है सुकेश साहनी ने लघुकथा ‘कुआँ खोदने वाला’ में। जोड़-तोड़ कर घटिया सामग्री को भी साहित्य समाज में स्थान दिला देना जैसी प्रवृत्ति को बख़ूबी उजागर किया है सुभाष नीरव ने अपनी लघुकथा ‘काला समय’ में। जहाँ माँ का सम्मान होता है वहीं ईश्वर का वास होता है, समझा रहे हैं त्रिलोक सिंह ठकुरेला लघुकथा ‘अंतर्ध्यान’ में। माता-पिता के प्रति बच्चों की उदासीनता होते हुए भी फिर भी माता-पिता का प्यार कम नहीं होता, अपनी दूसरी लघुकथा ‘पिताजी’ में जताने का प्रयत्न किया है त्रिलोक सिंह ठकुरेला ने। इस प्रकार उपर्युक्त लघुकथाओं में अनेक विसंगतियों की ओर इशारा किया गया है। यह पड़ाव इस विशेषांक की धुरी है।

कई पृष्ठों के अंत में बोल्ड अक्षरों में विद्वानों की उक्तियाँ सहज ही ध्यान आकर्षित करती हैं व ज्ञानवर्धक व मार्गदर्शक हैं। अगले पड़ाव में आलेखों की श्रृंखला में विभिन्न विषयों को संजोते नौ आलेख हैं।

प्रथम आलेख – कल्पना भट्ट द्वारा प्रस्तुत आलेख ‘हिंदी लघुकथा में ‘पिता’ पात्र का चरित्र चित्रण’ पठनीय है। शास्त्रों में पिता की परिभाषा व चाणक्य द्वारा पिता के पाँच प्रकार यथा-जन्म देने वाला, शिक्षा देने वाला, यग्योपवीत आदि संस्कार , अन्न देने वाला और भय से बचाने वाला बताए गए हैं का बख़ूबी वर्णन किया है। आलेख में उनका परिश्रम झलकता है। वे रामेश्वर कांबोज हिमांशु की अति प्रसिद्ध लघुकथा ‘ऊँचाई’, बलराम अग्रवाल की ‘कुंडली’, कृष्णा भटनागर की ‘सौदा नन्ही श्वासों का’, सुभाष नीरव की ‘अपने अपने हेतु’, जगदीश कश्यप की ‘ताड़ का वृक्ष’, डॉ. सतीषराज पुषकरणा की ‘उजाले की ओर’ श्याम सुंदर अग्रवाल की ‘बँटवारे का अधिकार’, कमल चोपड़ा की ‘इच्छा’ व सुकेश साहनी की लघुकथा ‘बैल’ इत्यादि लघुकथाओं के माध्यम से समाज, घर-परिवार में पिता की भूमिका को उद्धृत करने में सफल हुई हैं। उन्होंने स्वीकार किया है कि चाहते हुए भी वे अन्य अनेक लघुकथाएँ स्थानाभाव के कारण शामिल नहीं कर पाई हैं किंतु मेरा ऐसा मत है कि जब भी किसी आलेख में लघुकथाओं को उदाहरणस्वरूप लिया जाए ,तो काफी समय पूर्व लिखी गई लघुकथाओं के साथ ही आज लिखी जा रही लघुकथाओं को भी शामिल किया जाना चाहिए। समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। आज पिता का व्यवहार पिता से अधिक मित्र- सा दिखाई पड़ता है, आपसी व्यवहार में बहुत तबदीली आई है। समय के साथ परिवर्तित समाज को प्रतिबिंबित करता लेखन अधिक सार्थक कहलाता है जिसे आलेख में भी उद्धृत किया जाना चाहिए।

द्वितीय आलेख- प्रो० रूप देवगुण के अनुसार ‘शीर्षक लघुकथा का तोरण अर्थात् मुख्य द्वार होता है। ‘ शीर्षक रचना भी एक कौशल है। इसी तथ्य को सिद्ध करता डॉ. ध्रुव कुमार का आलेख ‘लघुकथा को श्रेष्ठ बनाने में शीर्षक की भूमिका’ अतिमहत्वपूर्ण है। यूँ तो सभी विधाओं में शीर्षक का महत्त्व होता है ; किन्तु लघुकथा विधा में शीर्षक की भूमिका अनकहे को शब्द प्रदान करती है। उन्होंने कई उदाहरणों की मदद से शीर्षक की महत्ता को दर्शाने का सफल प्रयास किया है।

तृतीय आलेख- ‘लघुकथा रचना-विधान और आलोचना के प्रतिमान’ आलेख में निशान्तर ने लघुकथा के तत्वों का उल्लेख किया है साथ ही कुछ उदाहरणों के माध्यम से समीक्षात्मक बिंदुओं जैसे-कथ्य, कथानक, शीर्षक, आकारगत लघुता, संप्रेषण इत्यादि को मद्देनज़र रखते हुए प्रकाश डाला है।

चतुर्थ आलेख- समय के साथ लघुकथा के विषय, कथ्य, भाषा में भी परिवर्तन हुए हैं ,जो लाज़िमी हैं व परंपरा के विकास का सकारात्मक चिह्न है – इस तथ्य को सिद्ध करता डॉ. पुरुषोत्तम दुबे का आलेख ‘ लघुकथा कितनी पारम्परिक कितनी आधुनिक’ अत्यंत महत्वपूर्ण है।

पंचम आलेख- डॉ. रामकुमार घोटड़ ने अपने आलेख ‘ द्वितीय हिंदी लघुकथा-काल’ में १९२१ से १९५० के बीच लिखी गई प्रमुख कथाकारों की लघुकथाओं की पड़ताल की है।

षष्ठ आलेख- भाषा भावाभिव्यक्ति का साधन है, मानव व विचारशक्ति के विकास का आधार, सभ्यता व संस्कृति की पहचान है साथ ही ग्यान प्राप्ति का प्रमुख साधन है। इस दृष्टि से साहित्य का मूल आधार भी भाषा ही है। भाषा मानव के भाव, विचार, अनुभव को सुरक्षित रखती है। साहित्य में भाषा के महत्व को दर्शाता व विभिन्न भाषिक प्रयोगों की पड़ताल करता रामेश्वर कांबोज हिमांशु का आलेख समझ के नए द्वार खोलता है। ‘लघुकथा की भाषा सहज ग्राह्य, सरल व पात्रानुकूल होनी चाहिए। आंचलिक शब्दों या वाक्यों का प्रयोग रचना में चार चाँद लगा देता है। अपने आलेख में रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ कहते हैं कि पात्र, पात्र की मनःस्थिति, परिवेश, स्तर, परिस्थिति, बहुत सारे ऐसे कारक हैं जो भाषा का निर्धारण करते हैं। किसी भी कथा की मूल शक्ति है उसकी संप्रेषण- शक्ति है। उसे ये शक्ति भाषा की त्वरा से मिलती है। समय के साथ भाषा में आए बदलाव को अपनाना भी अत्यावश्यक है। यह सिद्ध करने के लिए उन्होंने अनेक लघुकथाओं को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया है। ईश्वर चंद्र के अनुसार भी-‘जिन रचनाओं के कथ्य मारक होते हैं, उनकी भाषा भी तेज़तर्रार और चुटीली होती है। लघुकथा में कथा और भाषा दोनों प्रवाहमय होने चाहिए। प्रवाहमयी भाषा पाठक को कथा की अन्विति तक पहुंचाती है। भाषा के संदर्भ में यह आलेख लघुकथाकारों के लिए मार्गदर्शक साबित होगा।

सप्तम आलेख- वीरेन्द्र भारद्वाज ने खलील जिब्रान की लघुकथाओं में मानवतावाद की पड़ताल की है। उन्होंने सुकेश साहनी द्वारा अनूदित खलील जिब्रान की लघुकथाओं – आमंत्रण, लुकाछिपी, पीड़ा के बाद, विज्ञापन, आज़ादी, लीडर, वज्रपात, भाई-भाई, गोल्डन बैल्ट व ग़ुलामी के माध्यम से यही निचोड़ निकाला है कि महान साहित्यकार खलील जिब्रान अपनी इन रचनाओं के माध्यम से हर प्रकार से आदमी को सिर्फ़ आदमी बनाना चाहते हैं। बेबाकी से उद्धृत करते वे इन रचनाओं को लघुकथा न मानते हुए सूक्तियों की संज्ञा से नवाज़ते हैं साथ ही अनुवादक सुकेश साहनी से क्षमासहित रचनाओं में वस्तुदोष व व्याकरणिक दोष की ओर भी इंगित करते हैं।

अष्टम आलेख- डॉ० सतीशराज पुष्करणा दशकों से लघुकथा के विकास के साक्षी रहे हैं । उन्होंने लघुकथा के इतिहास में झाँकने व अनेक जानकारियाँ जुटाने का श्रम किया है, अपने अनेक आलेखों में लघुकथा विषयक अनेक तथ्य उद्घाटित किए हैं। हिंदी लघुकथा- अतीत एवं विकास में भी उन्होंने अनेक संस्मरणों के साथ ही लघुकथा के प्रारंभ से आज तक की विकास यात्रा का उल्लेख किया है। उन्होंने कई शोध किए व यह जानकारी लोगों तक पहुँचाई। ऐसे समर्पित कथाकार डॉ० सतीशराज पुष्करणा साधुवाद के पात्र हैं।

नवम आलेख- साहित्य में राजेन्द्र यादव का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है ; किंतु लघुकथा विधा में वे उतना प्रभावशाली लेखन नहीं कर पाए। ख़ुद उन्हीं के शब्दों में-“मैंने पाँच- सात लघुकथाएँ लिखी हैं। मुझे लगा, यह विधा बहुत कठिन है, मैं नहीं लिख पाऊँगा । लेकिन चुटकुले लिख सकता हूँ, जिनको मैं लघुकथा नहीं मानता, क्योंकि लघुकथा में लेखक मूल स्वर पकड़ता है। बड़ी कहानी को संक्षिप्त करके लिखना लघुकथा नहीं है।” इस नवें आलेख में सुकेश साहनी ने राजेन्द्र यादव की कतिपय लघुकथाओं जैसे- ‘अपने पार’, ‘सिद्धांत’, ‘सज़ा या सम्मान’, ‘पहला झूठ’ व ‘हनीमून’ की गहन पड़ताल की है। इस दौरान उन्होंने अधिकतर लघुकथाओं को लघुकथा के पैमाने पर कमज़ोर ही पाया है। इससे सिद्ध होता है कि लघुकथा लिखना आसान नहीं है।

लघुकथा कलश का अंक भले ही हिंदी लघुकथाओं को समर्पित है किंतु अन्य भाषाओं में किस प्रकार की लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं यह जानना भी अतिआवश्यक है। इसी क्रम में इस अंक में ‘जय गोर्खाली’ के अंतर्गत नेपाली व ‘सिंधुधारा’ के अंतर्गत सिंधी लघुकथाओं को स्थान दिया गया है। नेपाली लघुकथाओं का संकलन आलोक कुमार सातपुते व अनुवाद एकदेव अधिकारी ने किया है। इस खंड में सात लघुकथाओं का समावेश है। ‘सोचो वैसा नहीं होता जीवन’-ऋषि तिवारी, ‘संस्कृति’-एकदेव अधिकारी, ‘इनसान जैसा’- कुमार काफ्ले, ‘शिक्षा’- जीवन दाहाल, ‘दोगला’- रामहरि पौड्याल, ‘ऊँगली’- लक्ष्मण अर्याल, ‘स्वच्छता अभियान’- लीलाराज दाहाल। इन लघुकथाओं को पढ़ते हुए महसूस हुआ कि कथ्य के तल पर ये लघुकथाएँ प्रभावित करती हैं। अभी और गंभीरतापूर्वक काम होना अपेक्षित है। लेखकों का प्रयास सराहनीय है।

सिंधुधारा कॉलम के अंतर्गत डॉ. हूंदराज बलवाणी द्वारा संकलित दस लघुकथाएँ अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब हैं। इसमें शामिल हैं- ‘टेप-रिकॉर्डर’-अमर जलील, ‘तोड़-फोड़’- घन्श्याम सागर, ‘बेताल की कथा’- जयंत रेलवाणी, ‘महान नेता का शव’- जीवत गोगिया ‘ज्योत’, ‘हुक्का-पानी’- मोतीलाल जोतवाणी, ‘पहचान’- राम भागचंदानी, ‘इनपुट-आउटपुट’- रीटा शहाणी, ‘बदबू’- लखमी खिलाणी, ‘भटकाव’-वासुदेव सिंधु भारती, ‘ज़मीउ पर’- हूंदराज बलवाणी की लघुकथाएँ। सभी दस लघुकथाएँ कथ्य में परिपक्व व पैमानों पर खरी उतरती हैं। संकलनकर्ता का चयन प्रशंसनीय है। सिंधी भाषा में लघुकथा विधा को लेकर गंभीरता प्रतीत होती है। इन्हें शामिल करने से अन्य भाषाओं के लेखन से रूबरू होने का अवसर मिला जिसके लिए संपादकीय टीम व चयनकर्ता बधाई के पात्र हैं।

श्रद्धा सुमन कॉलम के अंतर्गत प्रभारी सुरिंदर कैले व अनुवादक योगराज प्रभाकर द्वारा पंजाबी की दस लघुकथाएँ प्रस्तुत की गई हैं। ‘दोराहे पर’- अजमेर सिंह औलख, ‘ये और वो’ –करतार सिंह दुग्गल, ‘एहसास’- गुरमेल महाहड़, ‘शून्य’ – जगदीश अरमानी, ‘फाँसी पर लटके गीत’ – दर्शन मितवा, ‘स्वाभिमान’- राजिन्दर कौर वन्ता, ‘पागल’- रामसरूप अणखी, ‘ज़िंदगी’ –रोशन फूलवी, ‘भेड़ें’- शरण मक्कड़, ‘संदेश’- सतवंत कैंथ। इन लघुकथाओं से गुज़रते हुए यह अहसास होता है कि पंजाबी में लघुकथा ने बहुत लम्बी दूरी तय कर ली है । ये अन्य भाषाओं के लिए भी प्रेरणा स्वरूप हैं। कथ्य, संप्रेषण, भाषा, शीर्षक इत्यादि के तल पर सभी लघुकथाएँ प्रभावशाली हैं। हमारा भी उन सभी को सादर नमन।

साक्षात्कार के खंड में डॉ०लता अग्रवाल की वरिष्ठ लघुकथाकार सतीश राठी से विस्तृत बातचीत प्रस्तुत की गई है। उनके अनुसार नई व पुरानी पीढ़ी अर्थात् वरिष्ठों का अनुभव व नवोदितों का उत्साह व ऊर्जा मिलकर ही इस रचना संस्कार को आगे लेकर जा सकते हैं। उन्होंने आज की लघुकथाओं में सांकेतिकता की कमी पर चिंता जताई है। अन्य विधाओं से कैसे अलग है का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा है- “लघुकथा समय, समाज, देश, काल, स्थितियों, वृत्तियों,प्रवृत्तियों, प्रकृति, स्वभाव, सब पर सूक्ष्म दृष्टि, चिंतन कर पूर्ण कथातत्व के साथ, बारीक बुनाई का शिल्प लेकर पाठक के समक्ष प्रस्तुत होती है।” अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों से परिपूर्ण यह साक्षात्कार संग्रहणीय है।

इसी क्रम में वरिष्ठ लघुकथाकार कमल चोपड़ा से सीमा जैन की बातचीत है। उन्होंने डॉ. कमल चोपड़ा के लेखकीय जीवन, रचनाधर्मिता, पसंदीदा रचनाओं पर विस्तार से बात की है। डॉ. कमल चोपड़ा ने आज के समय में अपनी ज़िम्मेदारियों को समझने की ताकीद भी की है।अगले पड़ाव पर सम्मिलित है जगदीश राय कुलरियाँ के साथ डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति की बातचीत। लघुकथा की स्थिति, विकास, समस्याएँ , पंजाबी लघुकथा की स्थिति, विषयों के चयन को लेकर पूछे गए अनेक प्रश्नों के बहुत सधे व सटीक उत्तर दिए हैं। उनकी स्वयं की लघुकथा यात्रा, मिन्नी पत्रिका का अब तक का सफर, पुस्तकें व सम्मानों का ज़िक्र भी प्रेरणाप्रद है।

महाविशेषांक में लघुकथा विधा में प्रकाशित कई पुस्तकों पर समीक्षात्मक आलेख भी प्रस्तुत किए गए हैं। इनमें ‘लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य’- लेखक रामेश्वर कांबोज ‘हिमांशु’ पर समीक्षात्मक आलेख लिखा है डॉ० कविता भट्ट ने। लघुकथा संग्रह ‘आँगन से राजपथ’ –पवित्रा अग्रवाल की समीक्षा की है माधव नागदा ने। रेखांकन के माध्यम से लघुकथाओं की अभिव्यक्ति करता अनूठा लघुकथा सप्तक है ‘कृति –आकृति- इस पर समीक्षा लिखी है दीपक गिरकर ने। वहीं दिव्यांगों के जीवट को दिखाती लघुकथाओं के राजकुमार निजात द्वारा संपादित संकलन की समीक्षा की है दिलबाग सिंह विर्क ने। स्नेह गोस्वामी के संग्रह ‘वह जो नहीं कहा’ से परिचय कराया है डॉ. रामेश्वर द्विवेदी ने। नवल सिंह द्वारा रचित लघुकथा संग्रह ‘ शूल से सवाल’ पर गहन निगाह डाली है ग्यान प्रकाश ‘पीयूष’ ने। इन पुस्तकों का विवरण यह दर्शाता है कि लघुकथा विधा में संपादित व एकल संग्रह निरंतर प्रकाशित हो रहे हैं जो विधा के त्वरित विकास की ओर इंगित करता है।

प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन सिरसा पर डॉ० शील कौशिक की विस्तृत रिपोर्ट प्रशंसनीय है। लघुकथा में हो रहे कार्यों, लघुकथा पाठ , समीक्षा व पुरस्कार वितरण जैसे आयोजन लघुकथा के लिए आवश्यक तो हैं ही, गौरव के पल भी हैं। पूना में आयोजित एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी लघुकथा के विविध आयाम, पटना में लेख्य-मंजूषा और अमन स्टूडियो के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित लघुकथा कार्यशाला की संक्षिप्त रपट विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे विधा से संबंधित कार्यक्रमों से रूबरू कराते हैं।

अंतिम इनर पृष्ठ पर द्वितीय लघुकथा कलश के अंक को सौ में से सौ अंक देते हुए डॉ. पुरुषोत्तम दुबे ने अपनी पाठकीय व समीक्षकीय प्रतिक्रिया दी है। यह उत्साहजनक है। समग्रता में देखें तो यह महाविशेषांक अनूठा है। लघुकथा कलश उत्तरोत्तर प्रगति पथ पर अग्रसर रहे व यह यात्रा अनवरत जारी रहे यही शुभकामना है।

लघुकथा कलश (अर्ध वार्षिक )-जनवरी-जून-2019( तृतीय महाविशेषांक),सम्पादक: योगराज प्रभाकर ,पृष्ठ-264,मूल्य-300/, सम्पादकीय कार्यालय-‘ऊषा विला’53, रॉयल एन्ल्वेव, डीलवाला पटियाला-147002(पंजाब), हिन्दी, नेपाली,पंजाबीऔर सिन्धी के 213  लघुकथाकार, साक्षात्कार-3,समीक्षाएँ-6,आलेख -9
-0-डॉ. नीरज सुधांशु,आर्य नगर, नई बस्ती,बिजनौर-246701
मो 9412713640

शहर और आँखें

$
0
0

दिल्ली: वह ट्रेन में मिला था मुझे। वह किसी बड़ी कम्पनी का बड़ा आदमी था। कद लम्बा और गोरा था, और आँखें छोटी और भेदती हुईं। वह ऊपर से नीचे तक देख रहा था मुझे और चश्मे के अन्दर उसकी आँखें और छोटी होती जा रही थीं। वह दिल्ली जा रहा था। मैं डर रहा था, उसके लिए…कि कहीं वे आँखें बन्द न हो जाएँ।

            वह दिल्ली उतरा। मैं भी दिल्ली उतरा। वह लोगों से घिर गया था, मैं अकेला था। लोग उसे हाथों-हाथ ले रहे थे, और मैं फिर डर गया था, उसके लिए….कहीं वह अपने पैरों पर खड़ा होना ही न भूल जाए….जाते जाते जब उसने मेरी तरफ देखा, तो वह एक बड़ी सी कार में था, और मैं बस स्टैंड पर। मैं ठीक से नहीं कह सकता कि उसकी आँखें उस वक्त कैसी थीं?

            पटना: वह फिर मिला था दिल्ली स्टेशन पर। वह पटना जा रहा था। मैं भी पटना जा रहा था। उसने देखा था मेरी तरफ। उसने कुछ कहा था। पहले की तुलना में इस बार उसकी आँखें कुछ बड़ी थीं। वह पटना में उतर गया। मैं भी पटना में उतर गया। वह चला गया। मैं भी चला गया।

मुजफ्फरपुर: वह पटना बस स्टैंड पर फिर मिला। वह मुजफ्फरपुर जा रहा था। मैं भी मुजफ्फरपुर जा रहा था।

            ‘‘आप भी मुजफ्फरपुर जा रहे हैं?’’ उसने पूछा और पूछते हुए उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा!

            ‘‘जी हाँ’’, मैं चौंक गया।

            ‘‘कहाँ रहते हैं?’’ उसने पूछा। मैंने बताया।

            ‘‘अच्छा ऽ!….मैं भी तो वहीं रहता हूँ।’’

            मैंने नहीं बताया कि मैं जानता था कि वह वहीं रहता है, जहाँ मैं रहता हूँ।

            वह अब बोल रहा था। मैं सुन रहा था। मुजफ्फरपुर आया और वह उतरा। मैं भी उतर गया। उसने इधर-उधर देखा, अपना सामान नीचे रखा…और उसने अँगड़ाई लेते हुए एक लम्बी साँस ली, फिर मुड़कर मेरी तरफ देखा उसने। मैं आश्चर्य से देखता रहा उसकी तरफ…..उसकी आँखें पूरी की पूरी खुल गई थीं!…वह मुस्कुराया मेरी तरफ देखकर। मैं न मुस्कुरा सका, वह कुछ कहना चाह रहा था, पर मैं अपने रास्ते जाने के लिए मुड़ गया था। मैं डरा हुआ था!…मुझे डर था वह फिर कभी मुजफ्फरपुर से दिल्ली जाते वक्त मिल जाएगा और उसकी आँखें फिर छोटी होती चली जाएँगी-दिल्ली पहुँचते-पहुँचते।

-0-

अपनी ही आग में

$
0
0

भाईचारे का युग था। सब मेल-मिलाप और प्यार-प्रेम से रहते। हुनरमन्द औजारों तक को इस अपनत्व से हाथ में लेते और काम को इस श्रद्धा से करते कि पूजा कर रहे हों। वह जुलाहा बड़े जतन और प्रेम से बुनता था कपड़ा। शब्द गुनगुनाते हुए पहले वह ताना बुनता फिर इस कौशल से बुन देता बाना, कि न ताना दिखता न बाना। दिखता तो बस कपड़ा। दोनों मिलकर बन जाते कपड़ा। बात भी कपड़े की होती। ताने और बाने का अलग से जिक्र तक न होता। कई बार ताना अलग रंग का होता, बाना अलग रंग का, लेकिन कपड़े में ताने का रंग दिखता, न बाने का। दिखता तो बस कपड़े का रंग, जो हालाँकि कुछ-कुछ बाने के रंग-सा, मगर पूरी तरह किसी-सा न होकर कपड़े के रंग जैसा होता। प्यार-मुहब्बत से रहने वालों की ताने-बाने से तुलना की जाती, ‘‘उन्हें देखो, कैसे ताने-बाने की तरह रहते हैं।’’

            एक दिन, लेकिन अनहोनी हुई। हालाँकि था तो यह अप्रत्याशित, लेकिन हुआ कि ताना और बाना झगड़ पड़े उस दिन। दोनों गुस्से में तमतमाए हुए और एक दूसरे के प्राण लेने का आतुर। जुलाहा जा चुका था। बीच-बचाव करने को कोई था नहीं। झगड़ा बढ़ता ही गया और आवेश के एक पागल पल में बाने ने ताने के वहाँ आग लगा दी, जहाँ कि बाना अभी बुना नहीं गया था। लपटों में घिर गया ताना तो खुश हुआ बाना। लेकिन बहुत थोड़़ी देर । जल्द ही आग आगे बढ़ी और बाना भी अपनी ही आग में जलकर खाक हो गया।

            सुबह जुलाहा आया। गहरे अफसोस के साथ उसने उन दोनों की इकट्ठी पड़ी मुट्ठी भर राख को देखा। वह गमगीन था कि हमेशा साथ रहने वाले आपस ही में लड़ मरे थे। यह गहरा सदमा था उसके लिए। देर तक निर्जीव सा बैठा रहा जुलाहा। आखिर उसने खुद को गम से उबारा। उसने फिर से ताना कसा और बाना बुनने लगा।

-0-

श्रेष्ठ लघुकथाओं से गुज़रते हुए

$
0
0

पहले मैं लघुकथाओं को कोई विशेष महत्त्व नहीं देता था–उन्हें मैं ‘दोयम दर्ज़े का साहित्य’ मानता था, या कहूँ साहित्य मानता ही न था–बोध कथा, नीति कथा, अखबारी रिपोर्टिंग,हास्य–व्यंग्य चुटकुले की श्रेणी में उन्हें रखता था। सोचता था इनके रचनाकार ‘दोयम श्रेणी के रचनाकार होते हैं या रचनाकार होते ही नहीं। उनकी दृष्टि सीमित होती है, क्षमता स्वल्प। स्वल्प क्षमता स्वल्प। स्वल्प क्षमता और सीमित दृष्टि वाले रचनाकार ही इस क्षेत्र में जाने–अनजाने प्रवेश पा लेते हैं और इस विधा का इस्तेमाल अपनी स्वल्प सर्जनात्मक ऊर्जा के प्रवाह–प्रकटन के लिए गाहे–बगाहे करते हैं। रचनाकार द्वारा इस विधा का चुनाव ही यह घोषित कर देता है। कि रचनाकार अपनी सामर्थ्य से पूर्ण परिचित है, उसके पास सृजनात्मक ऊर्जा या दृष्टि का अभाव है–वह काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, ललित निबंध जैसे उत्तम कोटि के साहित्य की संरचना करने में असमर्थ है इसीलिए वह निराश हताश पराजित–पराभूत मन से सर्वाधिक सुगम विधा लघुकथा को चुनता है। लघुकथा का रचनाकार वह श्रद्धा, सम्मान, वह पद–प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर पाता जो कवि, नाटककार उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार सामान्यत: समाज में, साहित्य में, सभी जनों के बीच प्राप्त कर लेता है।

पत्र–पत्रिकाओं में मैं लघुकथाओं को अंतिम स्थिति में ही पढ़ता था। जब सब कुछ खतम हो जाता और पढ़ने को और कुछ नहीं रहता तब आधे–अधूरे मन से, बल्कि मजबूरी से विवश हो लघुकथाओं को पढ़ना शुरू करता था। उनमें कभी–कभी कुछ चमत्कृत कर देने वाली किसी–किसी की लघुकथाएँ भी होती थीं। ज्यादातर लघुकथाएँ हास्य–व्यंग्य या चुटकुले की कोटि की होती या अखबारी खबर या रिपोटिंग की कोटि की–जो जुगनू की क्षणिक रुग्ण रोशनी की तरह विस्मृति के अंधकूप में सदा के लिए लुप्त हो जातीं। ज्यादातर लघुकथाएँ मनमानस पर कोई स्थायी भाव या टिकाऊ प्रभाव पैदा ही न कर पातीं और सहज ही विस्मृत हो जातीं। हाँ, उन्हीं में कुछ ऐसी भी लघुकथाएँ मिलतीं जिनसे अंतर उद्भासित हो उठता, चेतना झंकृत हो उठती, अंतरात्मा व्यथित–आंदोलित हो जाती और सच्ची सृजनात्कता के जीवन्त सहवास की रसोपलब्धि हो जाती। तब सोचता कि लघुकथा एक सशक्त सृंजनात्मक विधा हो सकती है–श्रेष्ठ रचनाकार के हाथों में पड़ या सृजनात्मकता के समुत्कर्ष–संप्रवाह में प्रवाहित हो लघुकथा श्रेष्ठ सृजनात्मकता की संवाहिका बन सकती है। लघुकथाओं की यदि एक ओर कटु कठोर, रुक्ष शुष्क सीमा रेखाएँ हैं तो दूसरी ओर उनकी मृदुल मधुर मोहन मनहर संभावनाएँ भी हैं–वे भी कविता, कहानी, ललित निबंध के निकट आ सकती हैं– उनमें भी काव्य की भाव–सघनता, आनुभूतिक तीव्रता, कहानी का सरस सार सूत्रात्मक प्रवाह, ललित निबंध का सम्मोहन व लालिल्य ऊर्जा व चैतन्य का समुत्कर्ष आ सकता है। कुछ लघुकथाओं से गुज़रते हुए मुझे अहसास हुआ, आभास मिला कि लघुकथाओं में अपार संभावनाएँ छिपी है जिसका सम्यक् शोधन–संधान, दोहन–मंथन सशक्त, प्राणवान व अनुभव सिद्ध सृजनाकार ही कर पाएगा।

तो अब जब डॉ0 सतीशराज पुष्करणा के चलते लघुकथाओं के सिद्धांत व प्रयोग में ,उसकी सर्जना–समीक्षण में रुचि गहरी होती गई है तो लघुकथाओं के प्रति मेरी आद्य आशाहीन उदासीनता आसवती–प्रकाशवती अभिरुचि में तब्दील होती जा रही है।

अब मैं देख रहा हूँ कि लघुकथा विधा के रूप में यदि जीवंत सशक्त नहीं हो पा रही है ,तो यह उस विधा का दोष नहीं है या, उसकी आकारगत सीमा का दोष नहीं है. यह उसका Native Defect या disadvantage , यह दोष है, उसके सर्जक का, उसके रचनाकार का, उसके प्रणेता का, विधाता का। रचनाकार का अंतर यदि सूखा है, रसहीन–अनुर्वर रश्मि–शून्य है तो उसकी रचना कैसे भरपूर होगी, उसकी सर्जना कैसे शक्तिशाली जीवन्त होगी, सरस रसदार होगी? तो दोष सिर्फ़ रचनाकार का है, केवल रचनाकार का है। रचनाकार अपने को श्रेष्ठ रचना के योग्य बना नहीं पाता–वह वांछित पात्रता का अर्जन नहीं करता–वह वेदना के ताप में तपता नहीं, साधना की आँच में पकता नहीं, वह सृजनात्मकता की गंगा में नहाता नहीं, उसका अंतर उद्भासित नहीं होता, उसे जीवन की ऊँचाई, गहराई–विस्तार के दर्शन नहीं होते, उसे जीवन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म तरंगों कंपनों से मुठभेड़ नहीं होती,जीवन की अनेक अमृत रूप छवियाँ अनदेखी रह जाती है, जीवन के अनेक वर्ण गंध अनाघ्रात अस्पृष्ट रह जाते हैं, जीवन के अनेक गीत संगीत, जीवन की अनेक राग–रागिनियाँ, जीवन के अनेक छंद–लय ताल, स्वर ,सुर, तान, ध्वनि अजात अलक्षित, अश्रुत–अश्रव्य रह जाते है, जीवन का अनंत वैभव कोष अछूता रह जाता है, अनेक रसरासायन अननुभूत–अनास्वादित। जीवन की विविधामयी बहुरंगमयी पुस्तक के अनेक पृष्ठ अनपढ़े अनदेखे–अनबूझे रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में वह क्या खाक रचना कर पाएगा, वह क्या खाक सर्जना कर पाएगा?

रचना और सृजन के लिए बड़ी लंबी तैयारी और साधना की ज़रूरत पड़ती है, बड़ी तपस्या और तपन की जरूरत पड़ती है–ग्रीष्म की दारुण तपन के बाद ही सर्जना की सावनी समां बेधती है–सर्जन का पावन सावन सम्पूर्ण हर्षोंल्लास समेत सर्जक के अन्तराकाश में समवतीर्ण हो उठता है।

उपनिषद् के ॠषि,महात्मा बुद्ध, कन्फ्यूशियस, ताओ लाओत्से, ईसप, ईसा मसीह, ख़लील जिब्रान, मुल्ला नसरुद्दीन, मुल्ला दाउद, रामकृष्ण परमहंस आदि यदि लघुकथा जैसी चीजों के माध्यम से अपने तेज, ऊर्जा और चैतन्य का सर्वोत्तम दिग्दर्शन करा पाए तो इसका श्रेय किसको जाता है? निश्चय ही उनके सर्जनात्मक ऊर्जस्वी तेजस्वी व्यक्तित्व को, उनके तप स्वाध्याय, उनके साधना–संधान को। तेजस्विता ऊर्जस्विता ऐसा पारस पत्थर है जो लोहे को भी सोना बना देता है, बूँद में सिंधु भर देता है, कलियों में बसंत खिला देता है, लघु में विराट् समाहित कर देता है, कण में असीम,क्षण में अनन्त, दूर्वादल में विराटवन का समावेश, कतिपय सिक्ता कणों में विशाल मरुभूमि के दर्शन, प्रस्तर खंडों में विंध्य–हिमाचल के रूप गौरव प्रतिष्ठित करा देता है–तो व्यक्तित्व के तेजस्वी संप्रभाव से सर्जना शाश्वतोपलब्धि कर लेता है, विस्मरण के अंध खोह को पार कर शाश्वत आलोक–लोक में संप्रतिष्ठ हो जाते हैं।

आज यदि लघुकथा दोयम दर्ज़े की साहित्यिक विधा या शैली मानी जाती है, तो निश्चित रूप से दोष लघुकथा में लगे रचनाकारों–सर्जको का है। वे यदि तेज सम्प्राप्त करें, ऊर्जा हासिल करें, चैतन्य की सिद्धि करें तो निश्चय ही यह विधा भी उसी तरह संप्रतिष्ठ होगी जैसी कोई अन्य साहित्यिक विधा। तो अंतत: सिद्ध हो जाता है कि विधा का कोई दोष नहीं, दोष है प्रयोगकर्ता का। दोहा–चौपाई जैसा छन्द जिस सम्मोहक समुत्कर्ष पर समासीन हुआ उसका सारा श्रेय तुलसी के महातपी, महातेजस्वी व्यक्तित्व को जाता है, उनकी सुदीर्घ एवं लक्ष्योन्मुखी साधना को जाता है। बिहारी के दोहे जितने तेजोदीप्त होते उतने अन्यों के दोहे तेजतर्रार नहीं होते, निराला ने मुक्त छंद को जो जीवंत लयात्मकता, बिम्ब वैभव, भावोदात्य दिया, वह किसी दूसरे से संभव न हुआ।

अंग्रेजी में शेक्सपियर ने ‘सोनेट’ को जो नमनीयता, लोच, प्राणों का जो सहज प्रवाह दिया, कीट्स ने ‘ओड’ को जो निबिड़ सघनता व काव्य वैभव दिया, पोप ने ‘हीरोइक काप्लेट’ को जो समुत्कर्षण, तेजोदीप्ति, परिष्कृति दी, वाल्ट हिटमैन ने ‘फ़्रीवर्स’ ‘जो काव्य संपदा, भावावेग समर्पित किया वह किसी दूसरे रचनाकार कलाकार से संभव न हो सका। तो बाण वही है पर राम के हाथों वह राम बाण बन जाता है, अस्त्र वही है पर शिव के हाथों वह पाशुपतास्त्र और ब्रह्मास्त्र बन जाता है।

तो आज जरूरत है व्यक्तित्व–वर्धन की, संवर्धन की, तेज अर्जन की, ऊर्जा–संग्रहण व चैतन्य–संवहन की। तभी लघुकथा विधा में अमित संभावनाएँ उदित हो सकती हैं, विराट शक्ति समाहित हो सकती है, अणु बम, नाइट्रोजन बम, हाइड्रोजन बम की शक्ति आ सकती है। वैसी स्थिति में लघुकथाएँ साहित्य की शाश्वत निधि, कालजयी सारस्वत संसिद्धि हो सकती है।

लघुकथा आज के युग की महती आवश्यकता हो सकती है। जब जीवन ज्यादा व्यस्त–विकट,कर्मसंकुल, जब जीवन नाना प्रकार के घात–प्रतिघातों से आहत–प्रत्याहत, नाना प्रकार के प्रहारों से क्षत–विक्षत, क्लांत–विपन्न होता जा रहा है। नाना प्रकार की दौड़–धूप भागम–भाग,आपाधापी, कशमकश व जद्दोजहद से जीर्ण–शीर्ण, उद्विग्न–खिन्न होता जा रहा है तब हम लघुकथाओं के माध्यम से उस जीवन–मरू को नखलिस्तान प्रदान कर सकते हैं। जीवन के नैराश्यनिशीथ में आशा के दीप व आस्था के संदीप जला सकते हैं। भ्रम–भ्रांति के घनघोर जंगल में चांदनी खिला सकते हैं, दिशाहीनता के आकाश में ध्रुवतारा दिखा सकते हैं, जीवन के श्मशान में संजीवनी ला सकते हैं, लघुकथाओं के माध्यम से तंत्रों–मंत्रों–यंत्रों की रचना कर जीवन को भूत–प्रेत–पिशाचों से यानी संपूर्ण प्रेत बाधा से मुक्ति दिला सकते हैं। लघुकथाओं के माध्यम से कीटाणु नाशकों का निर्माण कर जीवन को कीटाणुओं से मुक्ति दिला सकते हैं, लड़खड़ाते जीवन को लघुकथा का टॉनिक पिला उसे सरपट दौड़ा सकते हैं यानी लघुकथा के माध्यम से हम हर तरह का Pain killer, Healing balm ,Syrup,Tablet,Capsule ,Injectionबना सकते हैं यहाँ तक कि Surgery को विकसित कर अवांछित अंग को काट सकते हैं ,पुरातन अंग को हटाकर नवीन अंग का प्रत्यारोपण कर सकते हैं यानी लघुकथा को Physocian व Surgeon दोनों रूपों में इस्तेमाल कर सकते हैं –जीवन को सर्वथा स्वस्थ ,कीटाणुमुक्त ,रोगमुक्त नीरोग बनाने के लिए ।

जीवन को स्वस्थ–रोगमुक्त, जीवन को गतिशील प्रवहमान, जीवन को विवर्धित पुष्ट समृद्ध बनाना ही तो सर्जना का अंतिम लक्ष्य है, उसकी चरम चाहना है और नवीनतम आधुनिकतम साहित्यिक विधा के रूप में लघुकथाएँ सारे काम बखूबी कर सकती हैं बशर्तें कि लघुकथाकार पहले स्वयं तपने के लिए तैयार हो जाएँ। वृह्त् सिद्धि के लिए वृहत साधना की जरूरत पड़ती है। अपने सृजन को सर्वतोभावेन संपूर्णत: समग्रत: सशक्त बलवान, वीर्यवान, तेजस्वी–ऊर्जस्वी बनाने के लिए सुदीर्घ साधना की जरूरत पड़ेगी–अपने को हिमालयी या भावभूतिक (भवभूतिक) धैर्य के साथ तपाना होगा तभी लघुकथा एक सशक्त रोगनाशक जीवनदायिनी विधा के रूप में प्रयुक्त हो सकेगी अन्यथा इसके अभाव में लघुकथा का निर्जीव, निष्प्राण, निस्पंद होना, उसका रुग्ण अल्पायु होना बिलकुल सहज स्वाभाविक है, बिल्कुल न्यायसंगत, औचित्यपूर्ण।

लघुकथाओं के मूल्यांकन–क्रम में कुछ लघुकथाओं का रसास्वादन :

अपने इस प्रारम्भिक प्राक्कथन के बाद अब मैं आज की कुछ लघुकथाओं का अवलोकन–आस्वादन–मूल्यांकन करना चाहूँगा। मैं कोई पेशेवर समीक्षक–आलोचक नहीं, कोई सिद्ध सर्जक भी नहीं, कोई अधिकारिक सूत्रदाता या कोई सर्व–संप्रभुता संपन्न, सिद्धांतदाता भी नहीं। मैं तो केवल एक जिज्ञासु बौद्धिक हूँ, सत्य का संधाता, साहित्य–रस–रसिक–रसज्ञ, जीवन–रस खोजी मर्मज्ञ। जहाँ–जहाँ जीवन पाता हूँ, जीवन की ऊष्मा, जीवन का ओज, जीवन की ऊर्जा, जीवन का तप तेज, जीवन का सृजन सौंदर्य, जीवन का मोहन माधुर्य, यानी जहाँ जिधर जीवन के बहु आलोक वैभव के दर्शन होते हैं, वहाँ उधर ही सम्मोहित आकर्षित हो दौड़ पड़ता हूँ, इसलिए साहित्य और सर्जना, संगीत और साधना,शोधन और संधान मुझे प्रिय हैं, उन में मेरा मन रमता है, आनन्दित–आह्लादित होता है।

जहाँ जीवन है, जहाँ जीवन का अमित वैभव–प्रवाह है, वहीं साहित्य है, सर्जना है, संगीत है, सृष्टि है–साहित्य का महत्त्व भी उसी अनुपात से है जिस अनुपात से वहाँ जीवन तरंगित, स्पंदित, लहरायित, तरंगायित, सृजनोद्यत,प्रवहमान है। मैं साहित्य को सर्जना की दृष्टि से, जीवन को सृष्टि के रूप में देखता हूँ। यदि इस दृष्टि से साहित्य सर्जना खरी उतर गई तो निश्चय ही वह स्वागतयोग्य है, अभिनंदनीय है अन्यथा केवल शब्दों के जोड़–तोड़ या भाषा की बनावट से साहित्य का स्वर्गिक सुमन नहीं खिलता, सर्जना का अमृत मधु तैयार नहीं होता।

मैं इन लघुकथाओं को सर्जना की दृष्टि से देखूँगा–रचना की दृष्टि से स्वादित मूल्यांकित करूँगा।

दर्पण

अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’

पहली रचना ‘दर्पण है और रचनाकार अमरनाथ चौधरी ‘अब्ज’। रचना बड़ी छोटी है–प्राय: सूत्रात्मक–लघुकथा की सामान्य काया से भी छोटी, निहायत संक्षिप्त। सिर्फ़ दो ईटों का संवाद है, एक प्रश्न, एक प्रश्न एक उत्तर–बस रचना पूरी। पर इस संक्षिप्ति में ही पूरी बात कह दी गई है, पूरा कथ्य समावेशित कर दिया गया है, पूरा भाव समा गया है। भाव गहरा है, सार्वभौमिक–सार्वकालिक है। रचना का यह प्रधान गुण है–शाश्वतता का उपस्थापन–जीवन के सारभूत तत्वों का संस्थापन–इस मानी में अपने नपे–तुले शब्दों, अपनी सटीक संवादशैली, अपनी शाश्वत भाव धारा व सहज संप्रेषणीयता के कारण यह रचना आकर्षित करती है, एक विशिष्ट पद की अधिकारिणी बन जाती है, त्याग–तपस्या की अंधकुक्षि से ही दृश्यमान ऐश्वर्य के फूल खिलते हैं, वृक्ष अदृश्य धरती से ही रसदोहन कर अमृत फल–फूल देता है–नींव की अदृश्य ईंट के बल पर ही भव्य अट्टालिका खड़ी होती है, उसी के बल पर ऊँची मीनारें और गुम्बदें शोभा पाती हैं, इतराती–इठलाती हैं इस बेहतरीन कथा को यदि शिल्प की कुछ और अधिक स्थिर बनावट व सृजनात्मक ऊर्जा–प्रेरणा का कुछ गहनतर गंभीरता संस्पर्श प्राप्त होता तो रचना प्रथम कोटि की हो सकती थी पर अपनी वर्तमान स्थिति में वह दोयम दर्ज़े की ही रह गई।

निर्णायक कदम

चन्द्रभूषण सिंह ‘चन्द्र’

दूसरी रचना ‘निर्णायक कदम’ के रचनाकार चन्द्रभूषण सिंह ‘चन्द्र’ हैं। यह रचना कर्ज में डूबे देवचरण के दुख दर्द की कहानी है। उसकी मन:स्थिति, उसके अंतर्मथन का जीवंन अंकन किया गया है। संवेदना का जागरण प्रारंभ से ही हो जाता है और उसकी धारा अंत तक प्रवहमान रहती है–बल्कि अंत में तो अत्यधिक गहन गंभीर होकर चरम स्थिति प्राप्त कर लेती है। संवेदना के बाहुल्य,संवेदना के संचार व गहराई से इस रचना में काव्य के कुछ गुण,गीत की कुछ विशेषता आ जाते हैं। एक गहन कारुण्य का भाव जाग्रत हो जाता है, असहायता की एक गहरी अनुभूति होती है। रचना में शाश्वतता के गुण वर्तमान हैं। शीर्षक भी ठीक ही कहा जाएगा पर इससे भी ज्यादा तीखा ध्वन्यात्मक व्यंग्यात्मक शीर्षक चुना जा सकता था जो भावानुरूप तथा ज्यादा मर्मस्पर्शी हो रेखा को छू सकता था। रचना उच्च द्वितीय श्रेणी में रखी जा सकती है–प्रथम श्रेणी को भी छू सकती है।

भारत

परस दासोत

तीसरी रचना का शीर्षक ‘भारत’ है और रचनाकार पारस दासोत। ऐसे भारत एक साधनहीन, दीनहीन मलिन स्कूली छात्र का नाम है पर ‘भारत’ अपने देश का भी भार ढो सकता है इसका सांकेतिक व प्रतीकात्मक अर्थ भी लगाया जा सकता है जो संभवत: रचनाकार का भी इष्ट अभीष्ट हो सकता है। वैसे रचना कोई बहुत प्रभावोत्पादक नहीं है पर जिस भाव या विचार का यह संवहन संप्रेषण करती है वह निश्चित रूप से अत्यन्त मूल्यवान है, कीमती है। कथ्य मूल्यवान है, संदेश कीमती है। किसी भी उपलब्धि के लिए गरीबी बाधक नहीं हो सकती। प्रतिभा की विजय, मेधा का विस्फोट गरीबी में भी संभव है, बल्कि ज्यादा संभव है। सम्पन्नता व समृद्धि जीवन में सतही खुशहाली ला सकती है, पर जीवन की गहरी सच्चाई से साक्षात्कार के लिए विपन्नता का वरदान आवश्यक हो जाता है। प्रतीकार्थ में कहा जा सकता है कि भारत सर्वाधिक साधनहीन व विपन्न होते हुए भी जीवन की दौड़ में सर्वथा विजयी होता है, संस्कृति के क्षेत्र में सर्वदा स्वर्णपदक प्राप्त करता है। रचना में सृजनात्मक रस मिठास की कमी खटकती है इसलिए इसे द्वितीय कोटि में ही स्थान मिल पाएगा।

माँ

प्रबोध कुमार गोविल

चौथी लघुकथा ‘माँ’ शीर्षक से प्रस्तुत है रचनाकार है, प्रबोधकुमार गोविल। प्रबोध कुमार गोविल की यह रचना मानव के सनातन भावों में सबसे विराट भाव–मातृत्व भाव का बड़ा ही तीखा अंकन करती है। अंतिम अंश तो बड़ा ही हृदयभावक,मर्मस्पर्शी है। मातृत्व- भाव की विशाल उदारता से ओत–प्रोत पाठक भी मातृत्व के उस रस विस्तार में ममतामयी मां केअपार रस पारावार में तरंगायित होने लगता है, डूबने–उतराने, ऊभ–चूभ होने लगता है–एक अजीब अकथनीय सौंदर्य मिठास, ममत्व–माधुर्य से भर उठता है। सचमुच मातृत्व जीवन का सर्वाधिक सुंदर रूप है, भाव है। मातृत्व मानवता की उत्कृष्टतम दिव्यतम छवि है जो देवत्व को छू लेती है, ईश्वर को स्पर्शित करती है। मातृत्व एक पूर्ण रस, पूर्ण रसास्वादन है, इस भाव के उदित होते ही, इस महाभाव के अवतरित–प्रसरित–विस्तरित होते ही जीवन के सारे अभाव, कष्ट–क्लेश, वेदना–व्यथा काफूर हो जाते हैं और मानव दीनता में भी पूर्ण समृद्धि की अनुभूति करने लगता है। रचना हर तरह से अच्छी बन पड़ी है। इसमें साहित्य के शाश्वत आकर्षण–सम्मोहन विद्यमान हैं–शाश्वत अपील के अमृत अंश है जो अच्छी रचना की पहली व अंतिम शर्त हो सकती है। सार्वभौमिक सत्य को कथ्य बनाकर उसे संवेदना की धीमी स्थिर आंच में पकाकर गोविल ने रचना को जीवनदायी मधुर पेय के रूप में उपस्थित कर दिया है। रचना निश्चित रूप से प्रथम कोटि की है।

धमकी

रामयतन प्रसाद यादव

पाँचवी रचना रामयतन प्रसाद यादव की ‘धमकी’ है। रचनाकार ने दहेज प्रथा की दारुण विभीषिकाओं से करुणा–विगलित हो इस रचना की रचना की है। कम से कम शब्दों में सारी स्थिति, घटना व पात्रों का यथार्थ परक प्रभावशाली जीवन अंकन करके रचनाकार ने पाठकों को भी उस स्थिति–अनुभूति में अनायास सम्मिलित कर लिया है और उस स्थिति से उत्पन्न विवशता का, कारुण्य का आस्वादक बना दिया है। दहेज के चलते, अपनी बच्ची के भविष्य की सुरक्षा के लिए गरीब साधनहीन रिक्शा चालक दम्पत्ति ब्लडबैंक में अपना खून बेचने को बाध्य–विवश हो जाते हैं। इस तरह दहेज का राक्षस, दामाद की लिप्सा–लोलुपता, लड़की के माता पिता से खून की मांग करता है, उन्हें आंशिक शहादत के लिए मजबूर कर देता है। आज दहेज की बलिवेदी पर कितने मूल्यवान जीवनों की क्रूरतापूर्वक कुर्बानी हो रही है–इस मर्मवेधी तथ्य को रचनाकार ने बड़ी सघन व तीव्र संवेदन–शीलता से उजागर किया है फिर भी रचना प्रथम कोटि की नहीं बन पड़ी है, सृजनात्मक ऊर्जा या प्रेरणा का वेग व प्रवाह उतना गहन व तेज नहीं हो पाया है इसलिए इसे निश्चित रूप से द्वितीय कोटि में स्थान मिलेगा।

अपना देश

सत्यनारायण नाटे

सत्यनारायण नाटे की लघुकथा ‘अपना देश’ गरीबी और दुर्गन्ध का एक प्रभावशाली चित्र उपस्थित करती है। यह बेबसी व लाचारी का सशक्त चित्रण प्रस्तुत करती है। एक भिखमंगे के माध्यम से रचनाकार ने पूरे देश के कलेवर को रोगमय, व्रणमय दिखाया है–दुर्गन्धभरा, पीव देता। बीमारी लाइलाज है जबतक शरीर चले तब तक चले–असहायावस्था के दारुण्य का संवेद्य चित्रण स्थिति को, कथ्य को, भाव को सुसंप्रेष्य बना देता है। इस लघुकथा के शीर्षक से बहुतों का मतभेद हो सकता है –आखिरकार यह शीर्षक देकर रचनाकार ने क्या कहना चाहा है, बहुत स्पष्ट नहीं होता। बात है भिखमंगे की और शीर्षक है ‘अपना देश’ । कहीं भिखमंगा ही तो अपना देश नहीं है? क्या भिखमंगा सांकेतिक अर्थ देता है? बात बहुत कुछ समझ में नहीं आती। सृजनात्मक दृष्टि से रचना बहुत प्रभावशाली नहीं बन पाती। इसलिए इसे द्वितीय कोटि में ही रखा जा सकता है।

वापसी

सुकेश साहनी

सुकेश साहनी की लघुकथा ‘वापसी’ एक बहुत सुन्दर,बहुत उत्कृष्ट रचना है। सृजनात्मक का समस्त सुषमा–सौरभ इस सर्जना में समाहित है, समाविष्ट है। ‘वापसी’ शीर्षक भी बड़ा सटीक है, बड़ा उपयुक्त–ईमानदारी की वापसी (Good Sence), चरित्र–सिद्धान्त–आदर्शों की वापसी, विवेक–वैभव की वापसी।

एक अभियंता की अतीत ईमानदारी से उसकी वर्तमान बेईमानी की तुलना की गई है–उसके दोनों रूपों–भावों की पुष्टि की गई है–इससे उत्पन्न जो अंतर्मथन, उद्वेलन, आत्म–ग्लानि है वह बड़ी सुंदरता से, साहित्यिकता से, मर्मस्पर्शता से प्रस्तुत किया गया है। आदर्श और यथार्थ के केन्द्र को, सदाचार और भ्रष्टाचार के अन्तर्द्वन्द्व को बड़ी खूबी से, बड़े प्रभावशाली ढंग से रखा गया है। वर्तमान के स्खलन या पतन में अपने गौरवशाली अतीत का स्मरण विवेक के उदय का, चैतन्य के विस्फोट का कारण बनता है। अतीत की विरुदावली पथभ्रष्ट मानव को पुन: मार्ग पर लाने का उपक्रम करती है–पटरी से गिरी गाड़ी फिर पटरी पर आ जाती है और वांछित दिशा में सर्व–शक्ति से दौड़ने लगती है। कभी–कभी जीवन की कोई साधारण घटना या अनुभव ही जीवन में ऐतिहासिक मोड़ Turning pointया सिद्ध होता है। जीवन का रूपान्तरण–भावान्तरण–कायाकल्प हो जाता है– Ressurrection जीवन पुन: उज्जीवित हो उठता है अपने संपूर्ण भाव–वैभव के साथ। आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण, आत्मग्लानि व पश्चात्ताप से मानव जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन, चमत्कारित तब्दीलियाँ उपस्थित हो जाती है।

ईमानदारी के प्रत्यावर्तन की यह कहानी, सदाचरण की वापसी की यह कथा, आदर्शों के पुनरागमन व पुनर्स्थापन का यह आख्यान घोर नैराश्यांधकार में सहसा सूर्योदय की संभावना का संधान कर लेती है जिससे जीवन का दैन्य–नैराश्य, जीवन की दिग्भ्रांति और मूल्यभ्रष्टता और आशा और विश्वास आस्था व मूल्यबोध में परिवर्तित हो जाती है। यह रचना सर्वतोभावेन तृप्तिकर है, तुष्टिदायिनी है। रचना के महत् उद्देश्य की सत्पूर्ति करती यह रचना, सृजनात्मकता के स्वच्छ सौरभ–सुवास से संग्रथित यह सर्जना वस्तुत: उत्कृष्ट पदाधिकारिणी है। निश्चय ही यह प्रथम कोटि में उच्च स्थान की अधिकारिणी है।

पोस्टर

अखिलेन्द्र पाल सिंह

अखिलेन्द्र पाल सिंह की ‘पोस्टर’ शीर्षक लघुकथा एक गरीब बंधुआ मजदूर की और एक ज़मीदार या क्रुद्ध सामंत की मानसिकता को बड़े जीवन्त, सशक्त व प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती है। बीस सूत्री कार्यक्रम के पोस्टर को देखकर मज़दूर के दिमाग में भावी स्वर्णिम सपनों के द्वार अचानक खुल जाते हैं–वह सपनों से आकान्त स्वप्नलोक में विचरण करता अपने वर्तमान दु:ख–दैन्य–दारिद्रय को पूर्णत: बिसर जाता है जब तक कि सामंतवादी आक्रोश का क्रूर डंडा उसके सर पर दनादन गिरकर उसे लहूलुहान नहीं कर देता। उसके सपने चूर–चूर हो जाते हैं–उसका कल्पित घरौंदा धराशाई हो जाता है, उसका काल्पनिक स्वर्ग ध्वस्त हो जाता है। स्वर्ग के फूलों के सिंहासन पर समासीन मज़बूर नरक के खौलते तेल के कड़ाह में डाल दिया जाता है–उसका अंतर हाहाकार–चीत्कार से भर उठता है, उसके मन में उठे अनगिनत प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं, भविष्य का दरवाजा बंद–सा लगता है, वर्तमान की कष्टकारा से मुक्ति असंभव लगती है और वह अपने वर्तमान से, अपनी नियति से, स्थिति–परिस्थिति से समझौता कर पुन: अपनी बेबसी, लाचारी का यातना भरा अभिशप्त जीवन–क्रम चुपचाप दूर बिखरे कथित–विपन्न मन से शुरू कर देता है। मजदूर के अंतर में उठे भावों के ज्वारभाटे को, उसकी क्षणिक स्वर्णिम स्वप्निल स्वर्गिक अनुभूति और फिर उसकी स्थायी लम्बायमान नारकीय जीवन की यातना को, उसकी पीड़ा–कथा को रचनाकार ने बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। रचना काफी अच्छी बन पड़ी है।

सुकेश साहनी, अखिलेन्द्र पाल सिंह, सुबोध कुमार गोविल की लघुकथाओं को देखकर लगता है कि श्रेष्ठ सृजनात्मकता के संप्रभाव में पड़कर लघुकथा भी सर्जना के समुत्कर्ष को सहज ही सम्प्राप्त कर लेती है और दीर्घायु, प्रभावकारी एवं श्रेष्ठ रचना सुखदायी बन जाती है।

फिसलन

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘फिसलन’ वर्तमान मानव जीवन के चारित्रिक विघटन व विखंडन की कहानी बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करती है। हम जो कई स्तरों पर जीने के लिए विवश हो गए हैं या कहा जाए कि हम या तो अपनी आंतरिक कमज़ोरी या परिस्थिति के दबाव से जो विभिन्न धरातलों पर जीने के अभ्यासी,Double think ,double do –उसी का मर्मस्पर्शी अंकन इस लघुकथा में प्रस्तुत है। शराब की बुराई पर भीषण भाषण देने वाला,शराब की हानियों पर लंबी चौड़ी वक्तृता देने वाला, शराबखोरी के दुष्प्रभावों पर बड़ा ही प्रभावशाली प्रवचन देने वाला व्यक्तित्व (महेश तिवारी) स्वयं शराब पीकर नशे में चूर अपना होश हवास खोकर नाली में कर्दम कीच में लोट रहा है–मंच पर शराबखोरी के विरुद्ध ज़ोरदार भाषण और मंच के बाद स्वयं शराबखोरी। क्या ही विडंबना, विसंगति, विद्रूपता? इस विडंबना, इस दारुण स्थिति को रचनाकार ने बड़ी जीवंत–सशक्त वाणी दी है जिससे यह विडंबनात्मक स्थिति, उसकी दारुणता जीवंत हो पाठक के मनमानस की अभिभूत कर देते हैं और अपना अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं। रचना प्रथम कोटि की है।

मेरी का प्रतीक

जमाल अहमद वस्तवी

 ‘मेरी का प्रतीक’ शीर्षक से लिखी जमाल अहमद वस्तवी की लघुकथा गरीबों के जीवन की दर्दनाक दास्तान प्रस्तुत करती है, दारिद्र्यपूर्ण साधनहीनता का मर्मवेधी कारुणिक आख्यान। गरीबी में ही उदारता के सुमन खिलते हैं, विपन्न्ता में ही मानवीय भावों के सुवास प्रस्फुटित होते हैं और साधन–सम्पन्नता व समृद्धि में स्वार्थपरायणता के, संकीर्णता के कीड़े रेंगने लगते हैं, स्वार्थपरता की जोंकें पैदा हो जाती हैं। सम्पन्नता और विपन्नता के इस विषम–विरोधी भावप्रभाव को, संस्कार और मानसिकता को रचनाकार ने बड़े कौशल से, बड़ी सृजनात्मक समृद्धि के साथ प्रस्तुत किया है।

दूसरों की सेवा–सहायता करनेवाली गरीब औरत को जब स्वयं सहायता की ज़रूरत पड़ती है तो सभी कन्नी काट लेते हैं–वह निरी अकेली, निपट असहाय रह जाती है–अकेले अपनी विकट स्थिति का अपार धीरता के साथ सामना करती है–अपार क्षमाशीलता के साथ। एक प्रकार से मातृत्व–भावना से ओतप्रोत होकर नारी जाति को ही मेरी के रूप में देखने वाली रचनाकार की यह दृष्टि वास्तव में बड़ी सूक्ष्म, बड़ी उदार है–वह मेरी जो मसीहा की माँ थी, वह मेरी जिसकी कुक्षि से मानवता का संरक्षक, इंसानियत का मुक्तिदाता पैदा हुआ था।

मूल्यवान गंभीर कथ्य और सुन्दर सटीक साहित्यिक शीर्षक इस लघुकथा को साहित्य में स्थायी स्थान दिलाने के लिए विवश करते हैं। इस तरह की लघुकथाएँ यदि लिखी जाने लगी तो निश्चय ही लघुकथा के आलोचकों का मुँह बंद हो जाएगा और यह विधा एक सशक्त विधा के रूप में गौरवमान, पद–प्रतिष्ठा अर्जित कर सकेगी। रचना प्रथम कोटि में उच्च पद की अधिकारिणी है।

संरक्षक

कुलदीप जैन

कुलदीप जैन की लघुकथा ‘सरंक्षक’ भी बड़ी सशक्त रचना है–स्थायी सृजानात्मक सौरभ से सुरभित समृद्ध। इस लघुकथा में प्यार व सहानुभूति की संजीवनी शक्ति का मार्मिक रहस्योद्घाटन किया गया है। निराश हताश जीवन के घटाटोप घनघोर अंधकार में प्यार–सहानुभूति के मात्र दो शब्द या उसकी मौन मुखर अभिव्यक्ति प्रकाश की ज्योतिष्मता विद्युन्नाभा की तरह तेजोद्दीप्त व भास्वर हो जाती है। जीवन में टूटे हुए सब तरह से बिखरे–विखंडित निराश–हताश प्राणी को प्यार–आत्मीयता–सहानुभूति का स्वल्प संस्पर्श एक सुप्रभावी, एक जीवनदायी रसरसायन , एक स्वास्थ्यवर्धक , एक कष्टहर क्लांतिहर वेदना निग्रहरस। कम से कम शब्दों में पूरी पृष्ठभूमि का, पूरी मानसिकता व पूरी स्थिति–परिस्थिति–मन:स्थिति का सुप्रभावी सुअंकन सर्जना की सिद्धि है, रचनाकार का वैभव वैशिष्ट्य है–बधाई। रचना शाश्वतभाव से, मानवगरिमा से, मानवजीवन की खुशबू से ओतप्रोत है।

अपना अक्स

राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’

राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’ की लघुकथा ‘अपना अक्स’ अभाव की पीड़ा का,दैन्य की दुरवस्था को, विपन्नता की स्थिति में उपजे हुए सहानुभूति के भाव को उजागर करती है। दैन्य की दु:स्थिति दोनों को पारस्परिक स्नेह–सूत्र में आबद्ध कर देती है–दो अजनबी विपन्न आपस में अचानक मैत्री भाव विकसित कर लेते है–कहते हैं– आपत्ति में, संकट में निहायत अजनबी भी अपने हो जाते हैं, विपत्ति में बेगाने भी अपने आत्मीय बन जाते हैं। इसी भाव का संवहन यह लघुकथा करती नज़र आती है। जो स्वयं दु:खी को अच्छी तरह समझ सकता है–जाके पैर न फटे बेवाई सो क्या जाने पीर पराई’। दु:ख में संवेदना का विस्तार होता है, हृदय का प्रसार, भावना का विस्तार। संताप और अभाव की आंच में ही प्रेम–सहानुभूति का, करुणा–कारुण्य का अमृत–गाढ़ा तैयार होता है।

स्वयं अभाव की पीड़ा झेलता हुआ, बेरोज़गारी की मार से क्षतविक्षत नायक ही विपन्न–बुभुक्षित बालक की पीड़ा व दीनता का एहसास ज्यादा गहराई व तलखी से कर सकता है। रचना अच्छी बन पड़ी है–दिल को छूने की सामथ्र्य है इसमें। कोटि द्वितीय।

स्टॉपेज

राजकुमार ‘निजात’

राजकुमार ‘निजात’ की लघुकथा ‘स्टॉपेज’ मानवीय संवेदनहीनता व भावशून्यता की एक प्रखर झांकी प्रस्तुत करती है। समाज की आँखों में विपन्न वृद्ध साधनहीन का कोई महत्त्व नहीं, भलमनसाहत की कोई पूछ नहीं। हानि पहुँचाने की सामथ्र्य से भावना रखने वाले सम्पन्न युवक सर्वाधिक महत्त्व के अधिकारी बन जाते हैं। विवश लाचार बूढ़ा बार–बार भिन्नाता रहा पर बस नहीं रुकी–ड्राइवर को ज़रा भी दया या करुणा नहीं आई पर जवान सम्पन्न लोगों के संकेत मात्र से बस रुक गई। ड्राइवर उनके महत्त्व से अभिभूत था। इस दर्दनाक भावनाहीन स्थिति व मानसिकता को किंचित् प्रभावशाली ढंग से बेनकाब किया गया है इस लघुकथा में। पाठकों के हृदय में इन लाचारों के प्रति, असहायों–विपन्नों के प्रति एक हमदर्दी का भाव जागृत किया गया है।

हालाँकि रचना बहुत उच्च कोटि की नहीं बन पाई है फिर भी सफल, सार्थक एवं सोद्देश्य है। तात्कालिकता से ग्रसित न होकर साहित्य के सनातन तत्वों से सृजित–निर्मित है यह। इसकी अपील भी शाश्वत मानवता की है। कोटि द्वितीय।

प्रायश्चित

महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’

महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’ की लघुकथा ‘प्रायश्चित’ में रचनाकार ने अपनी स्वाभाविक संवेदनशीलता व सूक्ष्म ग्राहिका शक्ति से मानव जीवन के एक सहज मनोहारी रूप का, एक दिव्यभावापन्न छवि–छटा का कौशलपूर्ण अंकन करना चाहा है। प्रौढ़ पिता बराबर असहज हो जाता है पर बालक बराबर सहज ही बना रहता है उसमें यदि कुछ छल–छद्म, आक्रोश–रोष, आवेश–आवेग आता है तो पर्वती नदी की बाढ़ के पानी की तरह तुरन्त बह जाता है और बालक पुन: अपने सहज स्वभाव में संकलित हो, सहज स्नेह की प्रेमिल मूर्ति बन जाता है। शिशुत्व में संतत्व समाहित है या फिर मातृत्व! इसीलिए बालक देवदूत होता है और उसकी सृष्टि,स्वर्ग–सृष्टि। प्रस्तुत रचना में प्रौढ़ पिता क्रोधांध हो अपने बालक–पुत्र को खूब पीटता हे पर वही बालक कुछ ही क्षणों बाद अपने समस्त निश्छल प्रेम–प्रवाह के साथ, अपनी समस्त स्नेह–सुधा के लिए पिता के पास पहुँचता है और उन्हें विस्मय–विमुग्ध, भावविभोर कर उनकी अन्तर्सत्ता में एक गहरी क्रान्ति का, एक दिव्य रूपातंरण का माध्यम, मसीहा बन जाता है। पिता बालक पुत्र के सहज स्नेह की अविरल अखंड सुधा–धार में स्नान कर कृतकृत्य हो जाता है–स्नेहाप्लावित, स्नेहाक्रान्त, स्नेहाभिभूत हो बच्चे को गले लगा लेता है और उस पर अपना स्नेह–वर्षण करने लगता है। शिशु की निश्छल स्नेह धार ने पिता को स्नेह–सक्रिय बना दिया है। बालक पुत्र के इस स्नेहाप्लावन को तथा प्रौढ़ पिता पर पड़े उसके अमृत प्रभाव को रचनाकार ने बड़ी कुशलता से आँका है। मानव जीवन के इस सहज शाश्वत सत्य को पुन एक बार परिचित–प्रतिष्ठित कराने के लिए रचनाकार हमारी बधाई का हकदार तो हो ही जाता है, अनन्त मानव जीवन से संबंधित ऐसे शाश्वत विषय लघुकथा की सम्पूर्ण सृजनात्मक क्षमता को भी सिद्ध कर देते हैं। रचना प्रथम कोटि की है।

एहसास

माधव नागदा

माधव नागदा की लघुकथा ‘एहसास’ भी शिशु के सहज स्वच्छ निश्छल स्नेह से संबंध रखती है। शिशु सदैव उदार मन का होता है–प्रेम, सहानुभूति, सद्भाव से भरा। इसका एक और उदाहरण प्रस्तुत है इस रचना में। महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’ और नागदा की लघुकथाओं में बहुत कुछ साम्य लक्षित है। दोनों रचनाएँ शिशुत्व का गौरव–गायन करती हैं। एक में क्रोधी पिता पराजित होता है अपने बाल–पुत्र की खूबसूरत खुशबूदार इंसानियत से, उसके देवसुलभ प्रेम–सहानुभूति के विस्तार से। दोनों रचनाएँ इंसानियत की खुशबू से सरोबार हैं, दोनों बच्चों के स्वच्छ निश्छल प्रेम की विजयगाथा, प्रेम की सर्वजयिता को उद्भासित करती हुई। ऐसी लघुकथाएँ निश्चित रूप से इस विधा का गौरव वर्णन करती हैं और पाठकों में यह आश्वस्ति जगाती हैं कि लघुकथा विधा में श्रेष्ठ रचना संभव है यानी इस विधा में भी शाश्वत विषयवस्तु का निर्वाह बड़े कलात्मक कौशल व सृजनात्मक शिल्प के साथ किया जा सकता है बशर्ते कि रचनाकार की अन्तर्सत्ता उस विषय वस्तु की मूल संवेदना–धारा में काफी देर तक डूबी हो, उसकी सूक्ष्म अन्तदृ‍र्ष्टि काफी विकसित हो तथा भाषा की संस्कार–चेतना उसके प्राणों में रमण करती हो। प्रथम कोटि।

श्रम

महावीर जैन

महावीर जैन की लघुकथा ‘श्रम’ में एक नई ज़मीन एक नए ढंग से तोड़ी गई है जिसमें बहुत कुछ चमत्कार जैसा उत्पन्न हो गया है। सामान्य चिंतन से परे जाकर कुछ चमत्कारिक चिंतन प्रस्तुत किया गया हैं इस नव्य चिन्तन ने श्रम की मर्यादा तो स्थापित कर ही दी है, जीवन में कर्मठता को, जिजीविषा को नव गरिमा प्रदान की है। इस नव चिंतन ने बुज़दिली और कायरपन, ‘फेटलिन्स’ और भाग्यवाद, निष्क्रियता और अकर्मण्यता के मुँह पर करारा तमाचा मारा है, उस पर जबर्दस्त, आक्रमण, ज़ोरदार प्रहार, ज़बर्दस्त ‘बम्बार्डमेण्ट’ किया है। वस्तुत: यह रचना जिजीविषा का दुन्दभी–नाद है, जीवन का गायन है, जिजीविषा की ऋचा है, जी्वनेच्छा की गति है, कर्मण्यता का उपनिषद्। रचनाकार ने अपनी सू़क्ष्म अभिनव दृष्टि व अपने पारंगत कौशल से दोनों पात्रों को अमर बना दिया है–रद्दी अखबार बेचने वाले को और उसे खरीदने वाले को। अखबार खरीदने वाला नवयुग का बैतालिक बन जाता है,। अपनी अनुभव सिद्ध प्रौढ़ लेखनी के बल पर रचनाकार ने दोनों पात्रों को कम ही समय में, कुछ ही शब्दों के साथ पूरी जीवंतता व स्फूर्ति प्रदान कर उन्हें अविस्मरणीय बना दिया है। उनकी प्रभावकारी अमिट छाप पाठक के मनमानस पर पड़ जाती है और उनकी आंतरिक स्फूर्ति के विद्युत्कण से पाठक भी अभिभूत हो जाता है–जो विषयवस्तु है, जो दृष्टि विचार, उसे जिस ढंग से प्रस्तुत किया गया है वह रचना के सहज सौन्दर्य को हृदयंयम कराते हुए अपनी विधा का गौरवोद्घोष भी करता है। रचना प्रथम कोटि की मानी जाएगी।

अपना घर

धीरेन्द्र शर्मा

धीरेन्द्र शर्मा की लघुकथा ‘अपना घर’ में बेघरबारों की भौतिक व मानसिक स्थिति का कारुणिक मर्मान्तक उद्घाटन किया गया है। गरीबी में आकंठ डूबे मज़दूरों की जीवन–व्यापी विवशता, लाचारी, का मर्मवेधी अंकन किया गया है। जो वर्ग समाज की सेवा में लगा है, जिसका जीवन ही समाज की समृद्धि के लिए समर्पित है, इन चारों की व्यथा–कथा बड़े ही मार्मिक ढंग से अंकित है इस रचना में। उन्हें न खाने को भरपेट अन्न मिलता है, न तन ढकने को वस्त्र और न ही प्राकृतिक प्रकोप से बचने के लिए घर ही। लानत है ऐसे शोषक समाज को, ऐसी समाज व्यवस्था को, ऐसी हुकूमत,शासन–प्रशासन को। यह रचना मानव जाति की सारी सभ्यता–संस्कृति–शिक्षकों–सम्पन्नों–सबकी मर्यादा को मिट्टी में मिला देती है–हमारी सारी सामाजिक अट्टालिका एकबारगी ध्वस्त हो जाती है–रचना में एक तरह से कलात्मकता के गुण हैं, इसमें अमिट विध्वंस की विस्फोटक सामग्री संचित है।

पाठक की चेतना तिलमिला उठती है, उसकी हृत्तंत्री झनझना उठती है, उसके भाव आघूर्णित होने लगते हैं। गोली से मरते हुए मज़दूर की यह उक्ति–‘‘साहब, मैं एक गरीब मज़दूर हूँ और मेरा कोई अपना घर नहीं है,’’ कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण असहज लगते हुए भी हमारी व्यवस्था पर, हमारी संस्कृति और समृद्धि पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं, बल्कि ऐसा कहूँ कि हमारी सामाजिक विद्रूपता पर भीषण अट्टहास करते हैं।

शिल्प में शैथिल्य के बावजूद रचना में इतनी ऊर्जा है कि वह लक्ष्य वेधन कर ही लेती है अपनी प्रबल प्राणवत्ता प्रमाणित करती हुई। रचना द्वितीय कोटि में उच्च स्थान की अधिकारिणी है।

खोया हुआ आदमी

रमेश बतरा

रमेश बतरा की लघुकथा ‘खोया हुआ आदती’ एक बहुत ही सूक्ष्म धरातल पर संप्रतिष्ठित होकर लघुकथा के रूप में एक निहायत श्रेष्ठ रचना प्रस्तुत करती है। ऐसे सूक्ष्म भाव को लघुकथा के कलेवर में अँटा देना, उसकी प्रकृति में फिट कर देना रचनाकार की एक चमत्कारिक सिद्धि है। सामान्यत: लघुकथाओं में ऐसे प्रयोग देखने को नहीं मिलते। अत: बतरा की लघुकथा के विषय को देख कर विस्मयविमूढ़ हो जाना पड़ता है। औपनिषदिक दृष्टि या सत्य को उन्होंने आज की लघुकथा के कलेवर में ढालने का सफल प्रयास किया है। विश्वब्रह्माण्ड में जो कुछ भी घटित हो रहा है उससे हम सूक्ष्म रूप से प्रभावित होते रहते हैं–जो कुछ भी हो रहा है उससे हम किसी न किसी रूप में जुड़े रहत हैं। अन्तदृ‍र्ष्टि के विकसित होने पर ऐसा महसूस होने लगता है कि हम ही विश्वब विश्वब्रह्माण्ड में प्रसार पा रहे हैं या फिर विश्वब्रह्माण्ड सिमटकर हमीं में समाहित हो गया है तो लघुविराट का यह महा मिलन, अणुमन व भूमांगन का यह परस्पर विलयन औपनिषदिक ऋषियों की चिरवांछित खोज ही नहीं है, उनकी जीवन–व्यापी साधना की सिद्धि भी है।

आंतरिक उद्भासन के क्षणों में हम ऐसा महसूस करने लगते हैं–कि बा सृष्टि से हमारा गहरा जुड़ाव है, अभिन्न नाता है। इस सृष्टि में किसी का दु:ख–दैन्य मेरा दु:ख–दैन्य बन जाता है, किसी का हर्ष–उल्लास मेरा हर्ष–उल्लास और इसी तरह किसी का मरण, मेरा मरण। हर जनम में मैं ही जनमता रहा हूँ और हर मरण में मैं ही मरता हूँ–यहाँ मेरे सिवाय किसी दूसरे का अस्तित्व ही कहाँ है? ‘अहंब्रह्मस्मि’, ‘सोहमस्मि’ आदि आर्ष अनुभूतियों की सारसत्ता इस रचना में समाहित हो गई है। वस्तुत: यह रचना सामान्य पाठक की समझ के परे की चीज हो जाती है और यदि पाठक गहरे में जाकर इसकी सच्चाई को समझ ले, इसकी दृष्टि को आत्मसात कर ले, इसकी रोशनी से रोशन हो जाए, इसकी आलोकदीप्ति से दीप्ति भास्वर हो जाए तब तो उसे जीवन में एक प्रकाश मिल गया, एक दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई। समीक्ष्य लघुकथाओं में यह रचना सर्वाधिक सूक्ष्म व गहन–गूढ़ है। आर्ष अनुभूतियों को वाणी देती हुई यह रचना औपनिषदिक आख्यान की कोटि में आ जाती है जिसका चिरन्तन महत्त्व है, जिसकी शाश्वत वस्तु व ऐसी रचना के लिए बतरा जी को मेरी हार्दिक बधाई। मेरे ख्याल से यह सर्वश्रेष्ठ रचना है।

ड्राइंग रूम

डॉ0 सतीशराज पुष्करणा

सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘ ड्राइंग रूम बड़े ही सूक्ष्म भाव से सम्बन्धित है–अपनी विषय वस्तु का निर्वाह उन्होंने पैनी शिल्प–प्रविधि से बखूबी किया है। उनकी प्रौढ़ शिल्पकला ने कुछ ही क्षणों में कुछ ही शब्दों के माध्यम से एक ऐसी स्थिति का जीवंत अंकन कर दिया है जो स्थिति अपनी प्रभावशीलता में दूरगामिनी है।

यह रचना ममता के आगमन,ममत्व के आप्लावन से संबंधित है–इसका सम्बन्ध वात्सल्य के प्रस्फुटन, वात्सल्य के प्रसरण–विस्तरण से है। प्रेम–प्रीति, माया–ममता, स्नेह–सहानुभूति, ममत्व–वात्सल्य मनुष्य के जीवन में या जिसे हम जड़ जगत कहते हैं उसमें भी एक रस वैभव, एक चमक–ज्योति, एक सिहरन– कंपन एक कौंध–कांति, एक चेतना–संचेतना, एक हिलोर–हलचल, एक स्पंदन–स्फूर्ति, एक वेग–आवेग, एक भाव–अनुभाव पैदा कर देता है। वात्सल्य के प्रवाह से निर्जीव भी स्पंदित–स्फूर्त हो उठते हैं! फिर वात्सल्य प्रवाह के अवरुद्ध होने या वात्सल्य के सूखने या लोप होते ही निर्जीव तो पुन: निर्जीवता प्राप्त कर ही लेता है, सजीव भी निर्जीवता की स्थिति महसूस करने लगता है। तो यह है वात्सल्य रस की महिमा, प्रेम प्रीति–प्यार ममत्व–अपनत्व का चमत्कार, उसका करतब–कौशल, उसकी लब्धि–सिद्धि। इस सनातन सत्य को, इस सत्य सनातन सूक्ष्म भाव को पुष्करणा जी ने अपनी शैल्पिक क्षमता के माध्यम से जीवन्त–प्राणवन्त बनाकर पाठकों के मन–मस्तिष्क में संप्रतिष्ठ कर दिया है। पर शीर्षक से मुझे मतभेद है–एक तो अंगरेजी शीर्षक मुझे यों ही पसन्द नहीं–कभी वैसी बात हो तो, स्थिति हो तो दिया भी जा सकता है पर यहाँ तो वैसी स्थिति भी नहीं है। ड्राइंग रूम शीर्षक से ड्राइंग रूम ही महत्त्वपूर्ण हो उठता है जबकि प्रमुख है वात्सल्य भाव,वात्सल्य भाव का चमत्कारिक प्रभाव। ऐसी दिव्य भावापन्न रचना का शीर्षक ‘ड्राइंगरूम’ कम से कम मुझे तो बहुत खटकता है, अधूरा अपूर्ण लगता है। ‘ममता की महिमा’ या ‘वात्सल्य के वैभव’ जैसा कुछ शीर्षक हो सकता था, रचनाकार स्वयं इस पर विचार करेंगे। रचना प्रथम कोटि की है।

बोहनी

चित्रा मुद्गल

चित्रा मुद्गल की लघुकथा ‘बोहनी’ एक ऐसी स्थिति का अंकन करती है जिसमें कोई दानकर्ता या दानकर्तृ किसी भिखारी के लिए विशेष रूप से सुखदायी हो जाता है। दान की वह जो शुरूआत करता है वह दिन भर के लिए फलदायी सिद्ध होती है। एक भिखारी और एक दाता के संवाद क्रम में यही तथ्य उभारा गया है।

सब मिलाकर रचना कोई विशिष्ट नहीं बन पाई है। रचना कच्ची लगती है–रस परिपाक नहीं हो पाया है–अत: इसमें सृजनात्मक रस वैभव का सर्वथा अभाव लगता है। रचना बिलकुल साधारण लगती है और बिलकुल सामान्य कोटि में रखने लायक है।

सहानुभूति

अशोक भाटिया

अशोक भाटिया की लघुकथा ‘सहानुभूति’ हमें महेन्द्र सिंह ‘उत्साही’ की ‘प्रायश्चित’ माधव नागदा की ‘एहसास’ सतीशराज पुष्करणा की ‘ ड्राइंग रूम’ की याद दिलाती है। यह रचना, जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, सहानुभूति से संबंध रखती है। सहानुभूति जीवन की एक विशिष्ट वैभव–विभूति है, शुष्क जीवन में भी रस घोल देती है, सहानुभूति की फुहार से सूखे बिरवे भी लहलहा उठते हैं, सूखी फसल भी हरी–भरी हो जाती है। प्रेम–प्रीति सहानुभूति पाषाणी धरती में भी सरस रसनिर्झर सृजित कर देती है–मरुभूमि में भी गंगा–अवतरण घटित हो जाता है।

एक बूढ़े भिखारी को अन्य दाताओं से रुपए पैसे मिले पर उसे आत्मिक तृप्ति प्राप्त न हुई। आत्मिक तृप्ति उस व्यक्ति से प्राप्त हुई जो उसे बड़े प्यार से बुलाकर अपने साथ भोजन कराने लगा। आत्मीयता का, अपनत्व का यह आप्लावन–प्रसार, सहानुभूति का यह गंग–प्रवाह भिखारी को भरा–पूरा, हरा–भरा, हर प्रकार से तृप्त छोड़ गया–उसे जीवन की सम्पूर्ण तृप्ति मिली। जीवन का सबरस प्राप्त हुआ। तो सहानुभूति की महिमा अकथ, अनिर्वच, अजय है।’ संसार की सारी सुख समृद्धि सहानुभूति का स्थान नहीं ले सकती। सहानुभूति के रस वैभव, इसके रसप्रसार को रचनाकार ने बड़े कौशल, बड़ी सुदक्षता व आत्मीयता से हृदयंगम कराया है। रचना मर्मस्पर्शिनी बन पड़ी है। रचना के अंतिम दृश्य के रसास्वादन से, उसकी स्वर्गिक मिठास–सुवास से हम सभी पाठक आपादमस्तक भीग जाते हैं, आह्लादित आलोकित हो उठते हैं।

उपकृत

जगदीश कश्यप

जगदीश कश्यप की लघुकथा ‘उपकृत’ निखालिस ज़मीदारी सामंती संस्कार व मानसिकता और निखालिस खानदानी सेवक व मज़दूर के संस्कार व मानसिकता का अंतर उद्घाटित–उद्भासित करती है। सेवक मज़दूर जमींदार या सामंत की जी–जान से सेवा करता है, उसकी तृप्ति के लिए हर तरह का कष्ट सहन कर उसका सारा जुगाड़ करता है, उसके ऐश–आराम व मौजमस्ती की जरूरी बातों की सम्पूर्ति के लिए ज़मींदार की एक हल्की–सी मीठी मुस्कान, या एक ही प्रशंसात्मक शब्द या संकेत मज़दूर के लिए अष्टसिद्धि, नवनिधि से भी ज्यादा मूल्यवान महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

ज़मींदारी मानसिकता और मज़दूर की मानसिकता का यह अंतर यद्यपि बड़ी जीवंत स्थिति को पैदा कर, जीवंत पात्रों के जीवंत संवादों के माध्यम से उजागर किया गया है–रचना की शारीरिक स्फूर्ति काबिले- तारीफ है, विश्वसनीय है–संक्रामक है पर आंतरिक प्राणवत्ता लृप्त प्राय है। सच्चे सृजन की स्थायी मर्म–स्पर्शिता व उसकी सुदीर्घ महाप्राणता इस रचना से गायब है। जाहिर है कि रचना पिछली रचना की भांति सामान्य द्वितीय कोटि की होकर रह गई है।

अंतिम बात

हिन्दी के नवस्थापित एवं सुस्थापित कुछ लघु कथाकारों की एक–एक प्रतिनिधि रचना से गुजरना मेरे लिए एक वैविध्य–पूर्ण आनंददायक अनुभूति रही है। इस कथाओं के माध्यम से मैंने जीवन के विभिन्न रूपों के दर्शन किए हैं, जीवन के अनेक पक्षों–पहलुओं से परिचित हुआ हूँ, जीवन की अनेक स्थितियों–भावों घटनाओं,पात्रों से मुलाकात कर सका हूँ, जीवन के अनेक अनुभूतियों–दृष्टियों से मुठभेड़ हुई है, जीवन के अनेक स्तरीय, बहुधरातलीय सत्यों से साक्षात्कार कर सका हूँ और जीवन के अनेक रसों के आस्वादन से समृद्ध हुआ हूँ। जीवन के वैविध्यपूर्ण वैभव के बीच, सर्जना की ईद धनुषी सौंदर्य–सुषमा के बीच दो क्षण गुज़ार लेना अपनी आंतरिकता को, अपनी अन्तर्सत्ता का भाव समृद्ध करना है, अपनी दृष्टि को उदार–व्यापक, अपनी अंतर्दृष्टि को सूक्ष्म गहरा बनाना। इन विभिन्न सौंदर्य सरोवरों, सुषमा–सरिताओं, सौरभ–सागरों के बीच से गुजरते हुए निश्चित रूप से मुझे अच्छा लगा है और अपने को एक तरह से अभ्यंतर समृद्ध महसूस कर पाया हूँ। इसके लिए मैं इन रचनाकारों का हृदय से धन्यवाद करता हूँ।

मैं लघुकथाओं का कोई प्रशंसक नहीं रहा हूँ– हाँ, रचना के रूप में आस्वादक ज़रूर रहा हूँ पर उसकी आकार आकृति और उसकी अधिकांशत: सतही सर्जनात्मकता के कारण मेरी उसमें कोई विशेष रुचि जागृत न हो पाई, न ही मैंने लघुकथा को कोई विशेष महत्त्व ही दिया। पर सतीश जी के सान्निध्य में आने पर, इनके आत्मीयतापूर्ण सम्मोहक सृजनात्मक समर्पित व्यक्तित्व के सुप्रभाव से मैं धीरे–धीरे इस विधा में रुचि लेने लगा और इसकी सीमा सामथ्र्य–संभावनाओं पर गहराई से विचार करने लगा–इस क्रम में सतीश जी ने लघुकथा से संबंधित विविध महत्त्वपूर्ण मूल्यवान सामग्री देकर मुझे महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उस सारी सामग्री के अध्ययन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि यह विधा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और इसकी महत्ता, मूल्यवत्ता समय के साथ–साथ बढ़ती ही जाएगी। गागर में सागर भरने का काम लघुकथा का होगा, छोटी–सी टिकिया या कैप्सूल में जीवन रस संचित करने का काम लघुकथाकार का होगा। अब तो यह रचनाकार की क्षमता–सामर्थ्य पर निर्भर करता है कि वह लघुकथा को ढिबरी बनाए या दीपक लालटेन बनावे या पैट्रोमैक्स, मरकरी बनाए या वेपर लैंप, तारा बनाए या चंदा। यदि लघुकथा यह सब नहीं कर पाती है तो दोष लघुकथा का नहीं रचनाकार का है।

इस तरह इस निष्कर्ष पर मैं पहले ही पहुँच चुका था पर इन लघुकथाओं के बीच से गुजरते हुए मेरा यह निष्कर्ष और भी प्रबल–पुष्ट दृढ़–पक्व हुआ है। अब देखिए, इन सभी रचनाकारों ने लघुकथा विधा को अपनाया है पर इनमें भी तीन या चार कोटि की रचनाएँ हो गई हैं। कुछ तो ऐसी हैं जो प्रथम कोटि की हैं, जो सर्जना की सारी शर्तों को पूरा करती है और अपनी स्थायी प्रभावशीलता में किसी भी साहित्यिक कृति, किसी भी श्रेष्ठ कविता, कहानी से टक्कर ले सकती हैं। इनमें इन लघुकथाओं का नाम लिया जा सकता है–

1. खोया हुआ आदमी, 2.वापसी, 3. प्रायश्चित, 4.माँ, 5. मेरी का प्रतीक, 6. ड्राइंग रूम, 7. संरक्षक, 8. एहसास, 9, .श्रम, 10.सहानुभूति, 11. फिसलन, 12. संरक्षक।

मैं यहाँ साफ कहना चाहता हूँ कि मैंने इन रचनाओं की कोटियाँ कोई अचूक तराजू पर तौलकर नहीं तय की हैं, पढ़ते वक्त जिन रचनाओं का जैसा प्रभाव मेरे मनमस्तिष्क पर पड़ा उसी के अनुसार ये कोटियाँ तय हुई हैं–इसमें परिवर्तन की काफी गुंजाइश हैं हो सकता है कहीं–कहीं पर ठीक से समझने या मूल्यांकन करने में भी कुछ कमी रह गई हो–हो सकता है मूल्यांकन–क्रम में मेरी अपनी मन:स्थिति की भी आंशिक भूमिका हो या हो सकता है मेरी अपनी ही दृष्टि किसी दृष्टि से दोषपूर्ण होतो इन सारे किंतु परन्तु, इन सारे अगर–मगर को लेते हुए मैंने इन्हें कोटिबद्ध या श्रेणी बद्ध करने की कोशिश की है। मैं चाहूँगा कि सर्जक या समीक्षक या सुधी पाठक मेरी मूल्यांकनदृष्टि का दोष बतला कर अपने दोष निवारण में मेरी सहायता करें क्योंकि हमारी सबकी, जो साहित्य स्वादन, सर्जन–समीक्षण से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं–उन सबका अंतिम ध्येय यही है–अपूर्णता से पूर्णता की ओर यात्रा, दोषपूर्णता से दोष–राहित्य या निर्दोषता की ओर अधिगमन–अभियान। रचनाकार को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि उसकी रचना सर्वथा निर्दोष है और न ही समीक्षक को यह भ्रम पालना चाहिए कि उसकी समीक्षण–दृष्टि सर्वप्रकारेण सर्वतोभावेन दोषरहित है, पूर्णता प्राप्त है।‘मुनीनाञ्च मतिभ्रम:’ मुनियों–देवताओं को भी मति भ्रम हो जाता है तो ‘का कथ मनुष्याणाम्’ तो साधारण मनुष्य का क्या कहना! मगर कि हम अधूरेपन से बराबर पूरेपन की ओर अग्रसर होते रहें–उसी में हमारे, आपके, सबके जीवन की सार्थकता है और सर्जना–समीक्षण से जुड़े हम सबों का तो एक विशेष दायित्व ही बनता है इस मानी में।

इन्हीं शब्दों के साथ अब मैं आप लोगों से अपनी पूरी बात, अपने दिल की बात कहकर विदा ले रहा हूँ और अंत में भी इन सभी लघुकथाकारों एवं सतीश राज पुष्करणा को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ, आप सबों ने मिलकर मुझे इतना सब कुछ देखने–परखने जानने–सुनने–कहने का मौका दिया। आप फिर मुझे ऐसा मौका देंगे इसी आशा के साथ विदा लेता हूँ ।

लघुकथांक और सम्मान

$
0
0

डॉ. कमल चोपड़ा द्वारा संपादित संरचना-11, हिन्दी चेतना का आगामी अंक 21 वीं सदी के ऊर्जावान् लघुकथाकारों पर केन्द्रित।

‘कुमुद’ साहित्य शिरोमणि सम्मान 2019 सुकेश साहनी को।

बरेली। साहित्यकार ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’ स्मृति-सम्मान समिति के तत्त्वावधान में रोटरी भवन, बरेली पर आयोजित कार्यक्रम के अंतर्गत हिंदी साहित्य और मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित ‘कुमुद’ जी पर उनके समकालीन साहित्यकारों एवं समाजसेवियों के विचार, काव्य-पाठ व सम्मान समारोह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार श्री रमेश विकट जी ने की।मुख्य अतिथि रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट गवर्नर एवं अंतर्राष्ट्रीय कायस्थ परिवार के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री किशोर कटरू जी रहे ।विषिष्ट अतिथिगण साहित्यकार डॉ. महेश मधुकर , जे.सी. पालीवाल एवं रणधीर प्रसाद गौड़ ‘धीर’ रहे।कार्यक्रम में साहित्यिक एवं सामाजिक क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्यो के लिए साहित्यकार सुकेश साहनी को ‘कुमुद’ साहित्य शिरोमणि सम्मान प्रदान किया गया।, मुरादाबाद से आए सुप्रसिद्ध कवि श्री रामवीर सिंह ‘वीर’ को ‘कुमुद’ साहित्य शिखर प्रदान किया गया।
‘कुमुद’ जी के कृतित्व एवं व्यक्तित्व पर डॉ. महेश मधुकर जी, हरिशंकर सक्सेना जी, श्री जे.सी. पालीवाल,डॉ. चैतन्य चेतन जी एवं डॉ. नितिन सेठी जी आदि ने प्रकाश डालते हुए कहा कि ‘कुमुद’ जी तत्कालीन समाज की सभी समस्याओं उसके सभी पक्षों को छूने वाले समर्थ रचनाकार कहलाते हैं।बाल्यकाल से ही अपनी सरलता, सहजता एवं यथार्थवाद की सुरभि से जन-जन के मन को सुरभित करते रहे । उनके व्यक्तित्व की सहजता व सरलता उनके गीतों में परिलक्षित है।अपने कृतित्व एवं व्यक्तित्व में एकरूपता रखने वाले कुमुद जी अपने साहित्य के साथ- साथ नगर के साहित्यकारों को एकजुट रखने के लिए भी सदैव स्मरणीय रहेंगे।
उपमेंद्र सक्सेना,संस्थापक@ सचिव ,साहित्यकार ज्ञान स्वरूप ‘कुमुद’ स्मृति- सम्मान समिति, बरेली

रचना ही रचनाकार की पहचान

$
0
0

लगभग तीन दशकों से इस विधा से मेरा गहरा जुड़ाव रहा है । इस अंतराल में सृजन और अध्ययन के क्रम में अपने पूर्ववर्तियों , समकालीनों( अशोक भाटिया , बलराम अग्रवाल , सुकेश साहनी , रामेश्वर काम्बोज , जगदीश कश्यप , भागीरथ, श्याम सुन्दर अग्रवाल , अशोक जैन , सुभाष नीरव , कमल चोपड़ा , स्व.विक्रम सोनी आदि) की कई ऐसी लघुकथाएँ पढने को मिली हैं ,जो मेरी स्मृति में जीवन्त हैं और आने वाले वक़्त में भी बदस्तूर जीवित रहेंगी।कहने की ज़रूरत नहीं कि नए-पुराने लघुकथा सर्जकों ने इस स्तम्भ में उपर्युक्त वरिष्ठों की लघुकथाओं का ख़ूब ज़िक्र किया है और अपनी अपनी  पसंदगी की वजहों से हमें रू-ब-रू करवाया है । इस क्रम में , हाल-फ़िलहाल में विभिन्न कलेवर में सृजनात्मक ‘धमक’ के साथ इस शेत्र में अवतरित हुए उन नवागतों का उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा; जिनका रचनाकर्म असीम संभावनाओं से परिपूर्ण है और हमारी आशान्वितताको पुख्ता ज़मीन मुहैया करवा रही है । इनकी भी लघुकथाएँ हमारी स्मृति-पटल पर जगह बनाने में कामयाब हो रही है । निश्चय ही यह इस विधा के लिए शुभ संकेत है ।

   सच तो यह है कि अपनी पसंदीदा लघुकथाओं की ‘सुकून देने वाली भीड़’ से किन्हीं दो लघुकथाओं का निष्पक्ष और पूरी ईमानदारी के साथ चुनाव करना कभी –कभार दुविधा की स्थिति उत्पन्न कर देती है । फिर भी ‘रचनाएँ बोलती हैं’ ,  ‘रचना ही रचनाकार की पहचान है’ , बकौल सुकेश साहनी ‘…..उत्कृष्ट रचनाएँ बहुत दूर तथा बहुत देर तक हमारे साथ चलती हैं’ – इन्ही विचारों को ध्यान में रखते हुए जिन दो लघुकथाओं का अपनी पसंद के कारणों का उल्लेख करना चाहूंगा , वे हैं—‘और हाथी रो रहा था’(अनवर शमीम ) , ‘एक ठेला स्वप्न’ (चित्तरंजन गोप )

अनवर शमीम हमारे समकालीन हैं । भले ही वे वर्तमान काव्य परिदृश्य के सशक्त और चर्चित हस्ताक्षर हैं , लेकिन दोनों विधाओं (कविता और लघुकथा ) को साधने में सक्षम और पारंगत हैं । उनकी भी कई उम्दा लघुकथाएँ शीर्षस्थ पत्र –पत्रिकाओं में बाइज्ज़त जगह बनाने में कामयाब रही हैं। जब वे लघुकथा विधा को गंभीरतापूर्वक और पूरी तन्मयता के साथ साधने में संलिप्त थेउसी दौर की ही यह लघुकथा है जो अखिल भारतीय कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता ,2006 में पुरस्कृत हुई थी ।

‘और हाथी रो रहा था’ संवेदनाओं में सनी-पगी अंतस को केवल स्पर्श करने वाली ही नहीं वरन उसे भेदने , झकझोरने वाली विधाकी शास्त्रीयता पर खरी उतरी हुई रचना है । अपने मासूम और अबोध पुत्र की मामूली सी इच्छा पूरी न करने में असमर्थ , लाचार, असहाय पिता की कारुणिक , हृदयविदारक रुदन है यह रचना । प्रतिरोध और प्रतिकार के निमित्त आयोजित होने वाले जलसों , आन्दोलनों, जुलूसों से उत्पन्न होने वाली आमजनों की परेशानियों , दिक्कतों और प्रतिकूल प्रभावों का कच्चा चिटठा है यह रचना । आर्थिक विपिन्नता , घोर अभाव जैसे कारकों से उपजी विवशता , अक्षमता की हौलनाक दास्तान है यह रचना जो हमारी आँखों को भिगोते हुए रूह को भी भिगोती है । एक सामान्य सा कथानक को सुगठित भाषा , पात्रानुकूल कथोपकथन, शिल्पकी बारीक बुनावट , रचाव की कसावट , बोधगम्य वाक्य –संयोजन, प्रतीकात्मक किन्तु संप्रेषणीय शीर्षक का सर्तकता औरसजगता से उपयोग कर किसी रचना में प्रभावोत्पादकता कैसे पैदा किया जा सकता है , इसका अन्यतम उदाहरण है यह लघुकथा । रचना की प्रस्तुति में ऐसी सजगता बरती गई है कि कथानक का कोई हिस्सा ग़ैर ज़रूरी नहीं लगता और न ऊब पैदा करता है । प्रवाहमयी भाषा के साथ इसकी पठनीयता का भी पूरा ख्याल रखा गया है । यह लेखक का कथावाचन की कुशलता का परिचायक है ।

   कथा का सार यही है कि छात्र आन्दोलन की वजह से इलाके का जन-जीवन ठप्प है । रमजानी उस इलाके का एक दिहाड़ी मजदूर है जो बंद के कारण काम पर नहीं जा पाया है । उदासी की हालत में अपनी झोंपड़ी में लेटा हुआ है । उसी समय झोंपड़ी के बाहर कोई हाथीवाला आता है । रमजानी का बेटा हाथी की पीठ पर बैठने के लिए उससे पैसे की मांग करता है । वह पैसे देने में असमर्थता जताता है ; लेकिन उसका बेटा पैसे देने की बाल-सुलभ ज़िद पर अड़ा रहता है । बेटे की इस ज़िद सेरमजानी खिसिया जाता है और गुस्से में बेटे को बुरी तरह डांट-डपट देता है । हाथीवाला के चले जाने के बाद बाप-बेटा झोंपड़ी में समा जाते हैं । इच्छा पूरी न होने पर बेटा बेहद उदास और मायूस है । बेटे की उदासी उसके क्रोध की अग्नि में पानी की छिडकाव का काम करती है और वह व्यथित होकर तिलमिला जाता है । बेटे को तात्कालिक ख़ुशी देने के लिए रमजानी खुद हाथी बनकर अपनी पीठ पर उसे बिठाकर झोंपड़ी के अन्दर ही चक्कर काटता रहता है। हाथी बना बाप की पीठ पर बैठकर बेटा अपनी ख़ुशी मिश्रित किलकारियों से झोंपड़ी को गूंजयमान कर रहा था लेकिन रमजानी अपनी रुदन से झोंपड़ी को भिगो रहा था ।

   नवागतों की लघुकथाओं में से जिस लघुकथा ने मुझ पर अच्छा-खासा प्रभाव डाला है , वह है चित्तरंजन गोप की ‘एक ठेला स्वप्न’ ( जागरण/ पुनर्नवा के 15 अगस्त ,16 अंक में प्रकाशित ) चित्तरंजन गोप नयी सदी के पूर्वार्द्ध में‘धमक’ के साथ अवतरित होने वाला नाम है । चित्तरंजन‘थोक’ में नहीं लिखते । कम लिखते हैं । लेकिन ठोंक-बजाकर लिखते हैं । यही वजह है कि इनकी तमाम लघुकथाएँ स्थापित मानकों पर खरी उतरती है  । प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनके लेखन का भरपूर सम्मान और स्वागत होता है ।

 ‘एक ठेला स्वप्न’ सियासत, सियासतदां और हुकूमत के स्याह पक्ष को उजागर करने वाली सशक्त  रचना है ।आज़ादी के बाद से सपने, सब्जबाग दिखाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज भी बदस्तूर जारी है । बेशुमार ख़्वाबों का ताबीर में तब्दील होने के लम्बे इंतज़ार में आमजन की त्रासदी और उससे उपजी विडम्बनाओं , विसंगतियों से साक्षात्कार कराने वाली रचना है –‘एक ठेलास्वप्न’ । यद्यपि कथानक प्रतीकात्मक शैली में बड़े सलीके से प्रस्तुत हुआ है । लेकिन चित्तरंजन की यह शैली कथ्य को दुरूह नहीं करती । यहां दुर्बोधतता की कोई जगह नहीं । बोधगम्य और संप्रेषणीय प्रतीक का प्रयोग रचना को जीवंत बनाकर प्रभावोत्पादकता सृजित करता है । कहा जाता है कि लघुकथा में थोड़ा कहा और ज़्यादा अनकहा होना चाहिए । मगर शर्त यह है कि ये अनकहा पूरी तरह से संप्रेषित होकर पाठकों के मर्म को स्पर्श कर ले । इस मानक पर इसे परख कर देखें तो प्रतीकात्मक शैली में लिखी गई यह एक उत्कृष्ट रचना है ।

    मूलभूत सुविधाओं से वंचित आश्वासनों ,प्रलोभनों,वादों के सुनहरे भ्रमजाल में फँसे आमजन के बीच तिजारती मंसूबों को अमलीजामा पहनाने के इरादे से मोहताजियों की बस्ती में किस्म-किस्म के सपनों  को ठेले में सजाकर पहुंचा ठेलेवाला और माइक में तिजारती घोषणा करने वाला साथी उन हुक्मरानों की भूमिका में हैं जो ‘सपनों और भूख ‘ की राजनीति करते हुए सिर्फ और सिर्फ छलनेका ‘काम’ किया है ।सच तो यह है कि इस रचना में प्रतीकात्मकता और भावात्मकता का सुखद और जायकेदार सम्मिश्रण है । अगर कहा जाय कि यह लघुकथा उपयुक्त प्रतीक- योजना , प्रभावकारी कथा-भाषा , जीवंत दृश्य-संयोजन वाली उत्कृष्ट कथा-रचना है तो गलत नहीं होगा ।

-0-

1-और हाथी रो रहा था

छात्र संघ के आव्हान पर शहर पूरी तरह बंद था । सड़कों पर पुलिस की गश्ती गाड़ियों के अलावा हाकिम-हुक्का और गिने-चुने अति विशिष्ट लोगों की गाड़ियाँ दौड़-भाग रही थीं। बंद समर्थक छात्रों की टोलियाँ अपनी इस सफलता पर इठला रही थीं। रोज कमाने-खाने वाले उदास चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थीं।

    जन –जीवन पूरी तरह ठप्प था ।

  दिहाड़ीमजदूर रमजानी चूडा-गुड़ खाकरअपनी झोंपड़ी में ज़मीन पर लेटा ऊपर देख रहा था । खपरैल छत से छनकार धूप के छोटे-छोटे टुकड़े उसके बदन पर यहां-वहां पड़ रहे थे । थोड़ी देर बाद धूप का एक नटखट नन्हा सा टुकड़ा उसकी बायीं आँख पर आ गिरा ,तो उसकी शरारत से बचने के लिए उसने करवट बदल ली । नींद में कुछ अच्छे ख्वाब देखने की सोच ही रहा था कि तभी मुन्नू दौड़ता हुआ अन्दर आया और उसे झिंझोड़ते हुए बोला , “ अब्बा,हाथी वाला आया है ।’

“अरे, आया है तो हम का करें ? जा, जाके देख ।” वह बगैर पलटे  ही  झुँझलाया।

“अब्बा, हम भी हाथी पर बैठेंगे , पैसा दो ।”

“पैसा नहीं है बाप ।” वह खिसियाया हुआ उठ बैठा और मुन्नू के आगे अपने झलंग कुरते की फटी जेबें उलट दीं ।

“ नां$$, आँ…नां , हम हाथी पर बैठेंगे , पैसा दो अब्बा , पैसा दो न ।” मुन्नू ने जिद्दी बच्चे की तरह ठुनकना शुरू कर दिया । उसकी इस हरकत पर रमजानी को गुस्सा आ गया । उसने मुन्नू का हाथ पकड़ा और लगभग घसीटता हुआ उसे दरवाजे पर ला खड़ा किया , “हाथी देख ले ई जनम में , ऊ जनम में बैठ लेना …समझा। खाने का ठिकाने नहीं है और हथिए पर चढ़ेगा साला … चुपचाप हिंये पर खड़ा रहो नई तो बतिसिए झाड़ देंगे अभी …” गुस्से में काँपता हुआ वह अन्दर आ गया ।

   मुन्नू अपने बाप का तेवर देखकर सहम गया था और गुम-सुम सा अपने दरवाजे के पास से मस्त हाथी को देखता रहा था एक टक । कॉलोनी के साफ़-सुथरे बच्चे हाथी की पीठ पर बैठे चहक रहे थे । उनके मां-बाप की आँखें भी चमक रही थी ।

   थोड़ी देर बाद हाथी चला गया । तमाम साफ़-सुथरे बच्चे थोड़ी देर तक दूसरे खेलों में मस्त रहे फिर अपने-अपने ठिकाने के हो लिए ।

  सड़क सुनसान थी और भोजन का समय था ।

मुन्नू सुनसान सड़क को निहारते-निहारते थक गया तो हारकर झोंपड़ी के अन्दर आ गया । रमजानी अब भी दीवार की ओर मुँह करके लेटा –पड़ा था। मुन्नू चुपचाप दीवार से टेक लगाकर बैठ गया और कच्चे फर्श पर बेमतलब आड़ी-तिरछी लकीरें खींचने लगा । रमजानी ने हौले से पलटकर देखा , अपने बेटे को इस तरह इतना उदास बैठा देखकर उसे गहरी चोट लगी । वह तिलमिला गया । किसी तरह वह अपनी जगह से उठा और हाथी बनकर झूमता –झामता अचानक मुन्नू के एकदम सामने आ गया । उदास मुन्नू उसे हाथी बना देखकर खिल उठा और चिड़िया की तरह फुदकता हुआ उसकी पीठ पर बैठकर चहकने लगा , “ चल मेरे हाथी पटना चल , चल मेरे हाथी दिल्ली चल, ज़ल्दी चल , ज़ल्दी चल …चल मेरे हाथी ।”

  हाथी मुन्नू को पीठ पर बिठाए झोंपड़ी के अन्दर चक्कर काट रहा था । मुन्नू के होंठों पर हंसी थी और हाथी रो रहा था ।***

-0-

2-एक ठेला स्वप्न

आज ठूँस –ठूँसकर खाना खा लिया था ,इसलिए पलंग पर लेट गया था। लेटे-लेटे खिड़की से बाहर का नज़ारादेखने लगा

  एक फेरीवाला आया था । वह एक बड़े ठेले पर एक ठेला स्वप्न  लाया था। उसकासाथी माइक पर घोषणा कर रहा था , “ले लो , ले लो  अच्छे –अच्छे स्वप्न ले लो ! चौबीस घंटे पानी- बिजली का स्वप्न । हर घर में ए.सी का स्वप्न । घर –घर मोटर कार का स्वप्न ।…..ले लो भाई ,ले लो !”

   देखते-देखते कॉलोनी वालों की भीड़ लग गई । औरत –मर्द, जवान –बूढ़े सब ठेले के चारों तरफ जमा हो गए । माइक पर घोषणा जारी थी , “ले लो भाईयों , ले लो ! बेटे –बेटियोंको अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का स्वप्न । उन्हें डॉक्टर –इंजीनियर बनाने का स्वप्न । आइ.ए.एस – आइ. पी.एस बनाने का स्वप्न । हजारों तरह के स्वप्न हैं। अच्छे-अच्छे स्वप्नहैं। ले लो भाईयों , ले लो !”

  माइक की आवाज़ बगल के आदिवासी गाँव  चौड़ाईनाला तक पहुँच रही थी । आदिवासी महिला-पुरुष का एक झुंड दौड़ा-दौड़ा आया । वे ठेले से कुछ दूरी पर खड़े हो गए । एकबूढ़ा जो लाठी के सहारे चल रहा था , सामने आया । उसने फेरीवाले से पूछा , “भूखल लोकेकेर*** खातिर किछु स्वप्न होय कि बाबू ?”(भूखे लोगों के लिए कोई स्वप्न है ?)

 “नहीं।” फेरीवाले ने कहा , “भूखे लोगों के लिए भोजन के दो-चार स्वप्न हैं जो काफी नीचे दबे पड़े हैं ।अगली बार जब आऊंगा ऊपर करके लाऊंगा । तब तक इंतज़ार कीजिए।”

  “इंतजार करैत –करैत त आज उनसत्तर बछर (69) उम्र भैय गेले । आर कते… ?” कहते-कहते बूढ़े को खांसी आ गई और खांसते-खांसते वह अपने झुंड के पास चला गया । कॉलोनी वाले अपनी –अपनी पसंद के स्वप्न खरीद रहे थे । हो-हुल्लड़ , हंसी-ठहाका भी चल रहा था । आदिवासियों ने कुछ देर तक इस नज़ारे को खड़े-खड़े देखा और अपने गांव की ओर चल दिए।

-0-अपर बेनियासोल , पो. आद्रा, जि. पुरुलिया, पश्चिम बंगाल 723121 , mo. 9800940477

Email: martin29john@gmail.com

लघुकथाएँ

$
0
0

1-एंटी वायरस

“मैम आपको स्टेशन तक छोड़ दूँ? वो अपनी मनपसंद दोस्त और कॅलीग से बोला”-“रोज छोड़ता हूँ, आदत हो गई है, मुझे परेशानी नहीं होती।आपकी लोकल जाने के बाद, मैं पैदल इसी रास्ते रूम पर निकल जाऊँगा मैम।”

“नहीं,आज रहने दो, खुद ही चली जाऊँगी। आज भी कंम्प्यूटर पर काम करते हुए देर हो गई।  वोही कल वाला वक्त ही हो गया।”

दोनों के बीच कुछ देर चुप्पी छाई रही। आज पुनः उसने कॉफी साथ पीने का आग्रह किया।

“कॉफी कब पिएँगे साथ मैम, रोज देर हो जाती है।”

“देखेंगे जब रिलैक्स्ड होंगे, तब साथ बैठेंगे ।” मैडम फिर टाल गईं थीं। वो अपनी फाइलें और डेटा बचाने की चिंता करतीं। आजकल कब अनजान वायरस कंप्यूटर पर अटैककर सब फाइलें उड़ा दे -।

“अब सिक्स मंथ हो गए रोज आते-आते। नौकरी अच्छी है और पेमेंट भी। मैं छोडूँगा नहीं, हरगिज नहीं।

क्या?

“ये-जॉब – मैम ।” वो कुछ हकला सा गया।

“मुझे भी ये जॉब रास आ गया है ।”

फिर रुककर मैम का स्वर-“पर अब मुझे डर नहीं लगता।।”

मैडम की नजरें नीचे झुकी हुई थीं।

“मैम! किससे डर,कैसा डर? वो पूछ ही बैठा।

“तुमसे, बिल्कुल डर नहीं लगता अब ।”

हमउम्र मैम की आँखों  में लाल डोरों के साथ ‘एंटी वायरस’ भी काम करने लगा था। अब वे  दो कदम पीछे हटकर कम्प्यूटर के मापदंडों पर लड़के को कस रहीं थीं। अपने डेटा और फाइलों उन्होंने बड़ी खूबी से बचा लिया था।

-0-

2-क्रेजी

“सुनो! अपना अखिल बेटा  मनपसंद  लड़की से  शादी करना चाह रहा है। यानी प्रेम करता है उससे तो  लव मैरिज हीं करेगा न ।”

“कहाँ मिला वो उससे? “पति ने पत्नी से पूछगछ शुरू कर दी।

“उसने बताया है सब। एफ- बी- , अरे वही फेसबुक पर ।पहली बार में ही दोनों एक दूसरे को लाइक करने लगे थे। ।”

पति ने कटाक्ष किया –“गहरे- दोस्त? बिना देखे, जाने?

“अपना बेटा उसे पिछले सात महीनों से जानता है। दोनों को एक दूसरे से  प्यार हो गया है। अब वे गहरे दोस्त – ।”

“अच्छा –आ!” अचरज में पड़े पापा का स्वर। रिटायर्ड पापा का स्वर अविश्वास से भरा था।

“जब बेटा  खुुश है,तो हम भी खुश । आखिर हमें उसी के साथ रहना है ।” उन दोनों ने  खुद को बेटे के साथ एडजस्ट करने की ठान ली थी।

बस बेटे की उदासी वे नहीं देख सकते थे। शादी तो करनी ही थी।

वो सुबह ही पहुँच गई थी। किसी होटल में ठहरी थी। आज सारा दिन बेटा अपनी आभासी दुनिया की प्यारी दोस्त-प्रेमिका अब मंगेतर, के साथ शहर के तमाम मॉलों में घूमता रहा दोनों ने मूवी देखीी, लंच किया, शॉपिंग की और-ढेर सारी बातें। पर वो शाम को जब लौटा तो न जाने क्यों कुछ ऑफ मूड में था। घंटे भर बाद उसने स्वयं ही चुप्पी तोड़ी।

“माँ! वो वैसी नहीं,जैसा अब तक पेश आती रही ।”

“तुझे कैसे पता? इतनी जल्दी किसी को जज नहीं कर सकते। वक्त लगता है बेटा।”

“पापा! वो सिर्फ अपने लिए ही सोचती है ।”

अभी भी, रात-दिन फेसबुक पर हीं चैटिंग करती रही, उसका मानना है कि ‘एफबी’ का परिवार ही उसका असली परिवार है। वो क्रेजी है माँ, अपने आभासी जगत के दोस्तों के लिए _इसलिए  मेरे लिए भी वो हमेशा ऑन लाइन रहती — पहले तो मैं समझा था मेरे कारण -अब पता चला उसे नशा था,सोशल साइट पर सारे दिन व रात भर चैटिंग करने का। माँ! वो बीमार –कई युवाओं की तरह। बेटा ठगे जाने से सदमें में था।

उसे भी काउंसलिंग की जरूरत– ।”

माँ मन में मुस्कुरा दी-चलो जान बची और–। अगले दिन से एक सुकन्या की तलाश पुनः शुरू करना जो था!

-0-

3-पहली बारिश

पड़ोसी युगल को बारिश में भीगते-हँसते देऽ अपने कमरे की खिड़की के सहारे बैठी रेणु की सास मुँह ही मुँह में उन्हें बेशर्म, बेहया वगैरा न जाने क्या-क्या कहे जा रही थीं। घर के बरामदे में सुधांशु के साथ बैठी रेणु दूर से ही उस पड़ोसी युगल की मस्त जिंदगी का आनंद ले रही थी।

तभी गुड़िया ने ठुनकते हुए आकर मम्मी के कान में कुछ कहा।

पापा से पूछो। रेणु ने धीरे से जवाब दिया। यह सुनकर गुड़िया दोनों पैरों पर जोरों से ठुनक दी। कहा किसी से कुछ नहीं।

“सुनो, गुड़िया बारिश में नहाने को पूछ रही है। ठुनक के माध्यम से जाहिर होती उसकी मंशा भाँपकर रेणु ने पति से विनती-सी की ।”

“जाने दो, उसकी बात सुन सुधांशु ने तुरंत कहा,बारिश का थोड़ा आनंद उसे भी ले लेने दो ।”

पापा की सहमति पाते ही गुड़िया बरामदे के पार जा पहुँची।

इतने में, शायद सुधांशु की आवाज सुन, अपने कमरे से उठकर अम्मा वहाँ आ खड़ी हुईं। फटकार सुनाती हुई बोलीं“पहली बारिश है,बीमार पड़ जाओगी। सर्दी लगेगी, सो अलग। कॉपी-किताब निकाल लो और यहीं बैठकर नजारा लो बारिश का। चलो भीतर– ।”

लेकिन, कौन सुनता? गुड़िया तो हो गई-फुर्र! मस्त होने लगी बारिश में।

आखि़र सुधांशु बोले“जाओ रेणु! लिवा लाओ। रेणु का मन-मयूर नाच उठा यह सुनते ही। वह पल्लू सँभालती जा कूदी बारिश की फुहारों में। भीगती हुई बेटी को पकड़ने का हो गया नाटक शुरू। बेटी तो थी ही खेलने के मूड में, वो और दूर भाग गई।

“मैं लाता हूँ अम्मा”, यह देख सुधांशु ने कुर्सी से उठते हुए कहा और अम्मा का उत्तर सुने बगैर बरामदे से उतर नीचे की ओर दौड़ गए।

काफी देर तक बेटी अपने ममी-पापा को दौड़ा-दौड़ाकर छकाती रही। बेटे-बहू की चालाकी समझ, अम्मा दो पल वहीं ऽड़ी उन सब को देखती रहीं। पड़ोसी युगल की मस्ती को देखने से उपज रही कुछ देर पहले की बुदबुदाहट अब हल्की-सी मुस्कान में तब्दील हो चुकी थी। खिड़की का पर्दा एक ओर को सरकाकर वे तेजी से किचन की ओर मुड़ गईं–सब के लिए मसाला चाय बनाने और पकौड़ियाँ तलने को।

-0-

4-रिश्ता

श्रावन की पूनो आने में अभी वक्त था।सकीना आपा का पूरा परिवार रािऽयाँ बनाने में जुटा था। हमारे छोटे शहर में उसकी बनाई खूबसूरत राखियाँ खूब धूम मचातीं। हमेशा की तरह इस बार भी काफी बड़ा ऑडर मिला था। हालाँकि बाजार में प्रतिस्पर्धा कम न थी।

सकीना आपा बुखार से निढाल थीं। हालत बिगड़ी तो अस्पताल में जाँच के बाद भर्ती होना पड़ा। उन्हें खून चढ़ रहा था। डॉक्टर का कहना था कि जब तक प्लेटलेट्स सामान्य नहीं आ जाते उन्हें छुट्टी नहीं मिलेगी।अली मुंबई पढ़ने चला गया वर्ना वो सारी भाग-दौड़ कर लेता। सबके हाथ-पाँव फूल गए। ऐसे आड़े वत्तफ़ में बड़ी फूफी और उनकी बेटियाँ आगे आईं। दिन-रात एक करके ,कर्मठ अँगुलियाँ , मनमोहक स्नेहसूत्र बनाने के काम में  जुटी हुई थीं। सकीना आपा की सकुशल घर लौट आने की खुशी दोगुनी हो गई, जब फूफी ने गले लगाके राखियों का ऑर्डर पूरा कर लेने की सुखद ख़बर सुनाई।

लक्ष्मी स्टोर वाले अपना ऑडर उठाने आ पहुँचे थे। सकीना आपा ने देरी के लिए माफी माँगते हुए पहली राखीी उसकी कलाई पर बाँध दी। तभी मोबाइल बज उठा।

अली का फोन था। सकीना आपा बिस्तर पे बैठ गईं और मोबाइल कान से सटा अली को इधर के हाल बताने लगीं।

“मैं ठीक हूँ, राखियों का ऑर्डर फूफी ने पूरा किया, ख़ु़दा की रहमत – ।”

“तुझे कमरा मिला?

अभी दोस्तों के साथ कमरा शेयर कर रहा हूँ,अम्मी! मेरा नाम ही परेशानी का सबब –। वर्ना अब तक इतनी मुसीबत-कोई बात नहीं,मिलकर इकट्ठे रह लेंगे। राकेश के कमरे में चार लड़के रह रहे हैं, मैं भी शिफ्रट हो गया हूँ। फिक्र न करें, अपनी सेहत सँभालें अम्मी- ।”

सकीना दुपट्टे से आँखें पोंछने लगी तो राखियों के डिब्बों को थैलों में सजाते हुए लक्ष्मी स्टोर वाले के बेटे ने सवालों-भरी निगाहों से आपा को देखा।

वे बोल पड़ीं -बीमारी की कमजोरी से आँखें  बार-बार पनिया रहीं हैं मेरी -।

-0-


दया

$
0
0

आज रविवार है। भिखारियों के लिए त्योहार का दिन। आजकल ऐसे तो वे मंदिरों के किनारे जमे रहते हैं ; लेकिन उसके मुहल्ले के उदारतावादियों के कारण हर रविवार जरूर आते हैं यहाँ। 

राम हरि के द्वार से कई भिखारियों का दल मायूस लौट चुका था। एक बच्ची ने हाथ बढ़ाया

– बाबूजी, दस रुपये….।

– भाग, बदमाश कहीं की। तब से मना कर रहा हूँ। किसी को एक पैसा नहीं मिलेगा। 

– बाबूजी, बुढ़िया पर दया करो। कुछ खाने को दे….। 

– अब तुम आ मरी। जाओ आगे। नहीं है कुछ।…. ना जाने कहाँ से इतने भिखमंगे पैदा हो गए हैं। बुढ़िया !… खाने के लिए कुछ नहीं और बच्चे पैदा करेंगे चार-चार। 

 राम हरि बुदबुदाहट के साथ पेपर में डूब गए। 

– कुछ दे दो बाबूजी। एक अपंग भिखारी बैशाखी के सहारे खड़ा था। 

– धत्त! बदमाश! ….भाग। 

वह भी खाली हाथ गया। फिर एक आवाज़ सुन लगभग मारने के लिए उठे। अचानक ठिठके। वहाँ एक युवती साफ-सुथरी भिखारिन खड़ी थी। 

– भूख लगी है तुम्हें? उनका स्वर बदल गया। 

– जी, बाबूजी। 

– आओ…. अंदर आ जाओ।…. खाना खा लो। 

भूखी युवती खाने के लालच में घर के सन्नाटे में अंदर। 

 कुछ दिनों बाद उसकी गोद में भी एक बच्चा रहने लगा। अब दोनों माँ-बेटे भीख माँगते हैं। 

और अभी भी राम हरि कहने से नहीं चूकते

– खाने को कुछ नहीं…. बच्चे पैदा करेंगे साले। 

-0- 1 सी, डी ब्लॉक, सत्यभामा ग्रैंड, पुराने एस बी आई के पास, कुसई, डोरंडा, राँची, झारखण्ड -834002, ईमेल – anitarashmi2@gmail.com

7 लघुकथाएँ

$
0
0

कथाकार नन्दल हितैषी पुण्य स्मृति में

1-अकाल

आँगन के ऊपर से सुग्गों का एक झुण्ड चिंचियाता हुआ दाने-पानी की तलाश में गुजर रहा था।

….और वह पालतू सुग्गा पिंजड़े में कैद आँगन के एक कोने में, अपने सीमित दायरे में ही मस्त….दीन-दुनिया से बेखबर। एक चमचमाती कटोरी में पानी और दूसरी में कुछ भीगे दाने।

उड़ते हुए झुण्ड से एक सुग्गा छूटकर आँगन वाले सुग्गे के पास आया। पिंजड़े के चारों ओर छितराए चने के छिलकों और दानों से पहले पेट पूजा की और फिर उपदेशी हो उठा, ‘‘भाई! तुम इस पिंजड़े में कैद हो, देखो बाहर की दुनिया में कितनी आजादी है, कितना आनंद है।’’

पिंजड़े में कैद सुग्गा बोला, ‘‘क्या करूँ भाई? इस घर की खूसट मालकिन ने मुझे कैद कर रखा है। कभी पिंजड़े का दर खुला छोड़ती ही नहीं। मैंने कई बार अंदर से खोलने की कोशिश भी की, लेकिन अपनी ही जीभ ओर चोंच जख्मी हो गए।’’

बाहर वाला सुग्गा अब नेताओं की बोली बोलने लगा, ‘‘मुसीबत में घबराना नहीं चाहिए, हम देखेंगे, हमें देखना है, आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। तुम अंदर से कोशिश करो, मैं बाहर से ताकत लगाता हूँ।’’ और सचमुच दोनों ने पिंजड़े का दर कुछ ऊपर उठाने में सफलता पा ली। अंदर वाला सुग्गा आसानी से बाहर निकला, पंखों को फैलाकर अंगड़ाई ली और फिर बगैर पीछे देखे आसमान में फुर्र हो गया।

उपदेशी सुग्गा धीरे से पिंजड़े के अंदर दाखिल हुआ और खुद पिंजड़े का दर बंद कर दिया।

काफी देर तक वह सुग्गा मस्ती में इधर-उधर घूमता रहा और धिक्कारता रहा अपनी पिछली जिंदगी को….जब वह थककर चूर हो गया, तब उसे भूख-प्यास सता रही थी। जब उसने दाने-पानी के लिए निगाह दौड़ाई, सभी खेत-खलिहान उजड़े दिखे, नदी-नाले सूखे मिले। पेड़-पौधे ठंूठ हो रहे थे, दूर-दूर तक अनाज का एक दाना भी नहीं दिखा। चारों ओर अकाल का सन्नाटा सांय-सांय कर रहा था।

….वह सुग्गा फिर अपनी उसी खूसट मालकिन के घर की ओर मुड़ गया। आँगन में दूसरे कोने में पिंजड़ा अब भी रखा था, कटोरी दाने-पानी से अब भी भरी थी और वही सुग्गा जिसने उसे मुफ्त कराया था, अब पिंजड़े के अंदर आँखें बंद किए हुए किसी चिंतन में लीन था।

-0-

2-औरत

            गली के उस मोड़ पर अच्छी-खासी भीड़ लगी थी।सभी उचक-उचक कर मक्खियों से भिनभिनाते उस गंदे और खूनिल कपड़े में बंधे हुए लुजलुज टुकड़े को देख रहे थे।

            मैं दूध लेने जा रहा था, भीड़ देखकर वहीं ठिठक गया। वो कंडे पाथने वाली औरत हथलव दे-देकर शोर मचा रही थी, ‘‘इयार के साथेे सोवय माँ नाहीं लाज लाग, पइदा कइके बहाय गई। अरे राम चाही तव ओकर कोखिव अब जरि जाई’’….

            रांड, कुलटा, छिनाल आदि तमाम विश्लेषणों से कई औरतें हवा में शब्द उछाल रही थीं। कुछ लोग इस अमानवीय कर्म पर आश्चर्य कर रहे थे, तो कुछ छी-छी-छी, च….च…च…

            भीड़ लगातार बढ़ती जा रही थी, किसी ने कहा, ‘‘पुलिस में खबर कर देनी चाहिए।’’

            भीड़ से एक आवाज और उभरी, ‘‘आखिर में यह पाप है किसका?’’

            लोग बाग अपना-अपना गुंताड़ा भिड़ाने लगे। कंडे पाथने वाली उसी औरत ने अपने अनुभव और ज्ञान का फिर प्रदर्शन ऊँची आवाज में किया।

            ‘‘अरे अउर के कर होई, इ रमकलियय क धंधा आय, तबै मुहे करिखा पोति के ममाने भाग गई।’’

            लोग चटखारे ले-लेकर अपना-अपना मनोविकार उड़ेल रहे थे….मैं अब दूध लेने आगे बढ़ गया।

            दूध वाला बाल्टी में धारे छोड रहा था, अभ्यस्त हाथों से बीच-बीच में वह भी इस पाप के खिलाफ शब्द उछाल दिया करता था।

            दूध लेकर मुझे फिर उसी राह वापस आना पड़ा, लोगों का जमवाड़ा वैसे ही था, गुंताड़े अब भी लगाए जा रहे थे, कंडे पाथने वाली वही औरत भीड़ के केंद्र में थी।

            रमुआ जमादार के आते ही, भीड़ ने उसे चारों तरफ से घेर लिया। उसने फरूहे से उस टुकड़े को नाले से बाहर निकाला, और आहिस्ता से गांठों को खोला। एकाएक सभी अपना मुँह पिटा लिए। उस गंदे कपड़े के टुकड़े में एक अदद मोटी-सी मरी हुई मछली लिपटी थी।

            अब भीड़ छँटने लगी थी, मैं कंडे पाथने वाली उसी औरत की खोज कर रहा था, जो अब भीड़ से नदारद थी।

-0-

3-हम कहाँ

            वह अब भी लेटा हुआ किन्हीं विचारों में खोया था। घड़ी भी अपनी टिक-टिकाहट बिसर गई थी, लगता था, उसकी एंेठन इस सन्नाटे में ढीली हो गई है।

            सामने दीवार पर बल्ब के नीचे दो छिपकलियों से घिरा हुआ एक पतंगा अपने बचाव का असफल प्रयास कर रहा था।

            छिपकलियाँ सधे पाँव, चोरी-चोरी उसकी ओर बढ़ रही थीं। उसे कीड़े की स्थिति पर तरस आया, झटक से उठकर स्विच को ऑफ कर दिया, दूसरे ही पल पूरा कमरा अंधेरे के हवाले….

            वह फिर से यथास्थिति लेट गया और सोचने लगा हम कहाँ है?-प्रकाश में अंधेरे में, छिपकलियों में, या पतंगों में?

            इसी उधेड़-बुन में वह दबे पाँव उठा और एकाएक बल्ब को फिर से जला दिया।

            पतंगे के दो टुकड़े हो चुके थे, छिपकलियाँ झटके से उन्हें उदरस्थ कर रही थी।

-0-

4-पोस्टर वाला

नवंबर की सर्दीली रात, शहर में सोती–जागती बत्तियाँ। विश्वविद्यालय की घड़ी ने वक्त के हंडे पर बारह जोरदार खोटके मारे, आसपास का माहौल टनटना गया।

यूनिवर्सिटी रोड पर कुछ रिक्शे वाले रोटियाँ सेंक रहे थे। चौराहे की ओर मुड़ते ही सड़क उजली हो उठी। एक दस–बारह साल का लड़का दीवारों पा ‘सत्यम्–शिवम्–सुन्दरम्’ का पोस्टर चिपका रहा था, फुल साइज के बड़े–बड़े पोस्टर।

छोटी बाल्टी में काढ़े की तरह लेई और ढेर सारा पोस्टर….काफी फुर्ती में था बेचारा।

मैंने उसकी बीड़ी से अपनी सिगरेट जलाई, और यूं ही पूछ बैठा, ‘पोस्टर लगाने का क्या रेट है?’

‘‘पांच रुपया सैकड़ा’’ अपना काम चालू रखते हुए ही उसने संक्षिप्त–सा उार दिया। मैं उन पोस्टरों में नायिका के अद्र्धनग्न रूप में, सत्य शिव और सुंदर तवों की खोज रहा था। तहाए हुए ढेर से एक सारे पोस्टर।

उसे लगातार व्यस्त देखकर मैंने अंदाजन कुछ पोस्टर उठाए, और साधिकार साइकिल की कैरियर में लगाकर बस चलने ही वाला था।

‘‘अरे साहब! मलिक मुझे बोत मारेगा, रख दीजिए,’’ लेई की बाल्टी सरकाते हुए लड़के ने टोक दिया।

मेरी चोरी पकड़ी गई थी, झेंप मिटाता हुआ बोला–‘‘अरे यार कमरे में लगाना है। दो–चार ही तो लिए हैं, मालिक क्या गिनने आ रहा हॅै?’’

‘‘बाबू जी कम–से–कम तीस पोस्टर लिया है आपने,’’ सीढ़ी को सीधा करते हुए उसी अनमनेपन से उार दिया उस छोकरे ने।

‘‘अबे! दिमाग खराब है क्या? ले गिन के देख ले, और चुराए गए पोस्टरों को ताव से फेंक दिया उसके सामने।’’

‘‘रही हमारी आपकी शर्त बाबूजी।’’ सहजता और आत्मविश्वास के साथ उसने मेरे द्वारा फेंके गए बिखरे पोस्टरों को तहाना शुरू किया और वहीं मुझे दिखाकर गिनना शुरू कर दिया।

एक,दो,तीन चार….छब्बीस,सााइस, अट्ठाइस, घा तेरे की, दो कम पड़ गया, उसने बाल्टी के नीचे दबे पोस्टरों से दो पोस्टर और निकाला। तीस पूरा करके मेरी साइकिल के कैरियर में खुद ही लगा दिया। औश्र उसी लापरवाही से बाल्टी, सीढ़ी और पोस्टरों को उठाकर नुक्कड़ पर चाय वाले की दुकान पर चला गया। गोया वह हार गया था और पलायन कर गया।

मुझे अपना किरदार बेहद ओछा लग रहा था, मुँह पिटा कर मैं कमरे में वापस आ गया।

-0-

5-अपना हाथ

पौ फटते ही किसान अपने बड़े बेटे के साथ खेत की ओर गया। फसल पक कर तैयार हो गई थी। उसने अपने बेटै से कहा, ‘‘बस अब फसल पक गई है, कल गांव वालों की मदद से कटवा लेनी है।’’ और दोनों घर की ओर वापस चले गए।

खेत के बीच में ही सारस के दो बच्चों ने भी किसान की वार्तालाप सुनी और चिंतित हो गए। शाम को जब चुग्गा करके उनके माँ –बाप वापस आए तो उन्होंने कल ही खेत कट जाने की बात से अवगत करा दिया। सारस ने अपनी पत्नी और बच्चों को आश्वस्त किया–‘‘आराम से पड़े रहो, चिंता करने की कोई बात नहीं है’’….और बात आई गई हो गई।

चार–पाँच दिन बाद किसान फिर अपने बेटे के साथ खेत पर आया, पकी हुई फसल हिचकोले खा रही थी, उसने फिर अपने बेटे से कहा, ‘‘अब फसल पूरी तरह पक गई है, बस अब एक–दो दिन में ही गाँव वालों की मदद से कटवा ही लेनी है।’’

और अपने बेटे के साथ वह फिर उन्हीं पगडंडियों से वापस चला गया। सारस के बच्चों ने पूरी बात सुन ही रखी थी, स्वाभाविक रूप से वे चितिंत भी हुए और शाम को फिर उन्होंने माँ–बाप से, एक–दो दिन में खेत कट जाने की बात कही।

इस बार भी माँ और बच्चे चितिंत हो गए। सारस ने उसी गंभीरता से फिर आश्वस्त किया, ‘‘चिन्ता करने की कोई बात नहीं है, आराम से पड़े रहो, अभी खेत कटने से रहा।’’

….और बात फिर आई–गई हो गई।

लगभग चार–पाँच दिन बाद किसान फिर अपने बेटे के साथ खेत पर आया। अब पकी हुई फसल अपना रंग बदलने लगी थी। अब तक उसे कटकर खलिहान में दाँवरी के लिए डाल देना था।

उसने अपने बेटे से कहा, ‘अब कल हम दोनों खुद ही अपना खेत काटेंगे,’’ और बाप बेटे फिर घर की ओर रवाना।

शाम को बच्चों ने किसान के वार्तालाप से फिर अपने माँ–बाप को अवगत कराया कि आज किसान कह रहा था, ‘‘कल वह खुद ही अपना खेत काटेगा।’’

सारस ने कहा, ‘‘बस अब कल ही पौ फटने से पूर्व ही यह डेरा छोड़ देना है, कल निश्चय ही यह खेत कट जाएगा।’’

-0-

6-व्यंजन

शाम होते ही बंबई की रंगीनियाँ गहरी उठी, ‘परेल’ स्थित ‘ए’ ग्रेड के ‘होटल एंड बार’ से सेठिया संस्थान का एक युवा लड़खड़ाते कदम से बाहर निकला, दरबान ने गेट खोला और सेल्यूट किया।

युवक होटल के सामने खड़ी अपनी फिएट तक आया, बेचैनी के कारण ‘स्टेयरिंग’ पर बैठकर तुरंत फिर बाहर निकल पड़ा और वहीं सड़क परही कै करने लगा। होटल केअंदर का खाया–पिया सब बाहर…उसी दरबान ने शीशे के जार में पानी पेश किया, युवक ने मुंह धोया, दो–चार कुल्ली किया और आँखों पर पानी के छींटे मारे। निश्चय ही अब वह कुछ राहत की साँस ले रहा था, पहले से काफी बेहतर।

युवक ने जेब से किसी महंगी सिगरेट का पैकेट निकाला, एक सिगरेट दरबान को थमाई, अपनी सिगरेट सुलगाते हुए अपनी झेंप मिटाई–

‘‘आज कुछ ज्यादा हो गई।’’

मुस्कराते हुए कार में दाखिल हुआ और कारों की आपाधापी में उड़न–छू हो लिया।

एक भिखारी उधर से गुजरा, खिचड़ीनुमा कै को देखकर उसकी आँखों में एक अजीब किस्म की चमक उभरी।

वह वहीं बैठकर बड़े इत्मीनान से छितराये व्यंजन को चटकारे लेकर खाने लगा, और देखते–ही देखते चावल का एक–एक दाना ठूँस लिया अपने पेट में।

होटल में भीड़, लगातार बढ़ती ही जा रही थी, कारों का ताँता काफी लंबा हो गया था….वह भिखारी भी भीड़ में कहीं गुम हो गया।

-0-

7-पेट की पट्टी

कामदारों के बीच वह औरों की तुलना में कम उमर की थी, लेकिन थी साँवली और तीखी। घुटनों तक मैली–कुचैली धोती, कमर में किसी पुराने कपड़े का फेंटा, सिर पर सधाए हुए कुछ ईंटों का बोझा….फिर भी उसकी चाल में, कुछ अधिक ही फुर्ती रहती।

कारीगर, कन्नी और वसूली अंदाज से चलाते, जब भी वह अपनी पारी पर आती–जाती उसे छेड़ने से बाज न आते।

‘‘जल्दी–जल्दी हाथ बटा लो, छुट्टी होने में बस आध घंटे की कसर है’’- बेलदार ने सुगनी की ओर मुस्कराते हुए शब्द उछाले।

सुगनी अपनी कमर का फेंटा पेट खलाकर कसने लगी, स्तन तनिक हिले और थिर हो गए, वह ईंटों का बोझा फिर से तहाने लगी।

अबकी बार उस अधेड़ मिश्री ने छेड़ते हुए कहा, ‘‘तू तौ जनौ बुढ़ाय गई? देखो त फेंटा कसे हैं, कमर दरद करत होई का सुगनी?’’

‘‘अरे दादा! ज्वानी में तुमरा माँ झा ढील हुआ होई, ई फेंटा आई इया पेटे में पट्टी, ईका हम जियादा जानत हन’’

सगुनी ने नहले पर दहला मारा और आगे बढ़ गई।

-0-

इम्तिहान

$
0
0

मैं एक नौकर हूँ,लेकिन मेरे पास करने को कोई काम नहीं है, मैं दब्बू हूँ और अपने आपको आगे लाने के लिए जोर नहीं मारता, लेकिन यह मेरी बेकारी का केवल एक कारण है, यह भी संभव है कि इसका मेरी बेकारी से कोई लेना–देना ही न हो, बहरहाल ,मुख्य कारण यह है कि मुझे खिदमत के लिए बुलाया ही नहीं जाता, दूसरों को बुलाया गया है फिर भी उन्होंने मुझसे अधिक कोशिश नहीं की है, दरअसल शायद उन्हें बुलाए जाने की इच्छा भी महसूस नहीं हुई है, जबकि मुझे,कम से कम कुछेक बार तो, यह बहुत तेज महसूस हुई है।

इसीलिए मैं नौकरों के कमरे में गुदड़ी पर पड़ा रहता हूँ, छत की कडि़यों को ताकता हूँ, सो जाता हूँ,जागता हूँ और फिर तुरंत ही फिर से सो जाता हूँ,कभी–कभी मैं शराबखाने की ओर निकल जाता हूँ जहां खट्टी बियर मिलती है,कभी–कभी तो मैंने चिढ़कर गिलास उंडेल दिया है, लेकिन मैं फिर वहाँ पहुँच जाता हूँ,मुझे वहाँ बैठना अच्छा लगता है क्योंकि बंद छोटी खिड़की के पीछे से, देख लिए जाने की संभावना से मुक्त,मैं उस पार अपने मकान की खिड़कियों को देख सकता हूँ। यह बात नहीं कि वहाँ बहुत कुछ देखने को मिलता है, जहाँ तक मेरी जानकारी है केवल गलियारों की खिड़कियाँ सड़क की ओर खुलती हैं, और यही नहीं मुख्य रिहायश की ओर जाने वाले गलियारों की खिड़कियाँ भी सड़क की ओर नहीं खुलतीं। संभव है मैं गलती पर हूँ, लेकिन किसी ने, बिना मेरे पूछे,एक बार ऐसा ही बताया था, और इस मकान के सामने वाले हिस्से को देखने से इस बात की पुष्टि होती है। बहुत कम मौकों पर ही ये खिड़कियाँ खोली जाती हैं, और जब भी खुलती हैं इन्हें खोलने वाला एक नौकर हेाता है, जो जंगले पर झुककर थोड़ी देर को नीचे झाँक भी सकता है। इसलिए यह बात सामने आती है कि ये वे गलियारे हैं जहां उसे हैरत में नहीं डाला जा सकता,सच बात तो यह है कि मेरा इन नौकरों से कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं है; जो ऊपरी मंजिल पर स्थायी नौकरी में हैं, वे कहीं और सोते हैं, मेरे कमरे में नहीं।

एक बार जब मैं शराबखाने में पहुँचा ,तो एक ग्राहक उस जगह बैठा हुआ था, जहाँ से मैं जायजा लिया करता था। मुझे उसे पास से देखने की हिम्मत नहीं हुई और मैं दरवाजे में मुड़कर जाने ही वाला था, लेकिन उस ग्राहक ने मुझे बुला लिया, और यह पता चला कि वह भी एक नौकर था जिसे एक बार पहले मैं कहीं देख चुका था, लेकिन मैंने उससे बात नहीं की थी। ‘‘तुम भागना चाहते हो? बैठ जाओ और कुछ पियो। पैसे मैं दूँगा,’’ इसलिए मैं बैठ गया। उसने मुझसे कई सवाल किए, लेकिन मैं जवाब नहीं दे पाया, दरअसल तो मुझे उसके सवाल ही समझ नहीं आए। इसलिए मैंने कहा: ‘‘शायद अब आपको इस बात का अफसोस हो रहा होगा कि आपने मुझे क्यों बुलाया, इसलिए मेरा चलना ठीक रहेगा,’’ और मैं उठने लगा। लेकिन उसने मेज के ऊपर से अपना हाथ बढ़ाया और मुझे बिठा दिया। ‘‘रुको,’’ वह बोला, ‘‘यह तो केवल इम्तिहान था। जो सवालों का जवाब नहीं देता, समझो वह इम्तिहान में कामयाब हो गया।’’

सर्वाधिक लोकप्रिय विधा

$
0
0

      लघुकथा अपने आकार और कथ्य वैशिष्ट्य के कारण आज साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधाओं में से एक है। आधुनिक जीवनशैली की प्रतिबद्धताओं से साम्य के कारण लघुकथा ने जहाँ आम आदमी, विशेषकर युवाओं में साहित्य के प्रति घटते रुझान को कम किया है, वहीं डिजिटल मीडिया के प्रति लोगों में बढ़ते आकर्षण ने इस विधा की लोकप्रियता को नई ऊँचाइयाँ दी हैं। जैसा कि ज्ञात है कि लघुकथा किसी घटना का संक्षिप्त ब्यौरा मात्र न होकर उत्कृष्ट रचनात्मकता को अपने आप में समेटे एक विशिष्ट अभिव्यक्ति होती है, जिसमे तीर जैसी भेदने और गोली जैसी धँसने की क्षमता होती है। समाज की नब्ज़ टटोलती किसी घटना के तथ्य और कथ्य की रचनात्मक एकात्मता से लघुकथा के रूप में उपजी अभिव्यक्ति कई बार बरसों तक मस्तिष्क में कौंधती प्रतीत होती है। अपनी पसंद की ऐसी ही जिन दो लघुकथाओं की आज मै चर्चा करूँगी ,वे दोनों ही साहित्यिक पत्रिका कथादेश द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित हो चुकी हैं। पहली लघुकथा है सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और व्यंग्यकार श्री उर्मिल कुमार थपलियाल की ‘गेट-मीटिंग’ और दूसरी नवोदित लेखिका मानवी वहाणे की ‘स्त्रीवादी पुरुष’।

उर्मिल कुमार थपलियाल व्यंग्य-विधा के प्रख्यात हस्ताक्षर हैं। उनकी शैली ही उनका परिचय है। छोटे-छोटे वाक्यों से अभिव्यक्त बड़ी-बडी बातें। चुटीलापन ऐसा जो बड़ी से बड़ी समस्या में भी मुस्कुराने की गुंजाइश पैदा कर दे! पंच ऐसी जगह अवस्थित जो सीधे व्यवस्था के मुँह पर पड़ते प्रतीत होते हैं। नौटंकी, श्री थपलियाल जिसके पर्याय बन चुके हैं, समेत सभी साहित्यिक विधाओं में श्री थपलियाल की रचनाएँ , पैनी अभिव्यक्ति के यह अवयव प्रचुरता से  समेटे, अपने आप को भीड़ से साफ़ अलग कर देती हैं।

 ‘गेट-मीटिंग’ नामक लघुकथा में अभिव्यक्ति के उपरोक्त अवयव बेहद खूबसूरती से गुँथे हैं। मजदूर अपनी माँगों को लेकर आन्दोलन पर हैं; मगर अतीत के अपने प्राप्य पर मायूस हैं,उदासीन हैं है,अनमने हैं और इसीलिए आज आयोजित गेट-मीटिंग उनके लिए औपचारिकता मात्र है। वे परिवर्तन के आकांक्षी हैं ;इसलिए गेट-मीटिंग में क्रांति का प्रतीक उनका यूनियन लीडर जब उनसे मुखातिब होता है ,तो उनकी सुप्त आशाएँ मुखरित हो उठती हैं। लीडर उनसे पूछता है कि तुम्हारे पास राशन है? मजदूर कहते हैं नहीं, कपड़े है? मजदूर कहते हैं नहीं ,घर है? मजदूर कहते हैं नहीं,पैसे हैं? मजदूर कहते हैं नहीं,माचिस है? मजदूर ‘हाँ’ में जवाब देते है। उनकी दयनीय हालत देख लीडर पूछता है कि तुम ऐसी व्यवस्था को इस माचिस से जला क्यों नही देते? जवाब आता है कि माचिस तो है, मगर तीलियाँ नही है। मजदूरों का यह जवाब अपने आप में समूची व्यवस्था को आग लगाने की क्षमता रखता है। यह पंच, व्यवस्था के मुँह पर पड़कर उसे टेढ़ा करने की क्षमता रखता है । लघुकथा का अंतिम डायलॉग मजदूरों और श्रमिक-आंदोलनों और ट्रेड यूनियनों की वास्तविक स्थिति को बयाँ करते हुए उनकी सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगाता है। मजदूरों के बल पर किए गए आंदोलनों का हासिल, श्रमिकों के हाथ में तीली राहित माचिस क्यों है? लघुकथा यह सोचने पर मजबूर करती है कि मजदूरों के हिस्से की तीलियाँ और उनमे लगा बारूद आखिर कौन और कहाँ ले जाता है? मजदूरों की इस स्थिति का ज़िम्मेदार कौन है? यह प्रश्न लघुकथा को अतीव मार्मिकता प्रदान कर उसे पाठकों के अन्तस में सदा कौंधने वाले शीर्ष पायदान पर स्थापित करता है। व्यापक अर्थों में यह लघुकथा तमाम कल्याणकारी उपक्रमों पर भी कटाक्ष मानी जा सकती है, जिनमे लाभार्थी, तथाकथित लाभ प्राप्त कर भी शोषित ही रह जाता है। लघुकथा पढ़कर धूमिल की कालजयी रचना ‘रोटी और संसद’ की पंक्तियाँ सहसा याद आ जाती है-

“मैं पूछता हूँ –

‘यह तीसरा आदमी कौन है?’

मेरे देश की संसद मौन है।”

लघुकथा में कथ्य का विकास और भाषा शैली आकर्षक है। अतिसूक्ष्म वाक्यों के अर्थ-घनत्व विस्मित करते हैं। व्यवस्था से, किसी इन्कलाब से मजदूरों के मोहभंग का सूक्ष्मदर्शी चित्रण लघुकथा को बेजोड़ बनाता है। मेरी पसन्द की दूसरी लघुकथा नवोदित लघुकथाकार मानसी वहाणे की ‘स्त्रीवादी-पुरुष’ है। ‘स्त्रीवाद’ स्त्री की उन परिस्थितियों को बदलने की बात करता है, जिनके कारण उन्हें पुरुषों के समान अधिकार नहीं मिल पाते । स्त्रीवाद, स्त्री को स्त्री-सुलभ गुण छोड़कर, बदल जाने की वकालत नहीं करता; बल्कि परिस्थितियों के बदलाव से औरत को स्वतन्त्र निर्णय लेने के अधिकार देने की बात करता है। भारतीय समाज में जहाँ एक ओर कुछ स्त्रियों द्वारा नारी स्वतंत्रता को ऐसे पारिभाषित किया जा रहा है, मानो स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता मात्र हो, वहीं कई बार पुरुष समाज भी लैंगिक सोच के दायरे से बाहर न निकलते हुए, स्त्री को देह मानने की मानसिकता से अब तक उबर नहीं पाया है।‘स्त्रीवादी-पुरुष’ ऐसी ही पृष्ठभूमि को रेखांकित करती एक बेहतरीन लघुकथा है।

एक स्त्री और पुरुष, मात्र दो पात्रों के बीच संक्षिप्त सम्वाद समस्त स्त्री-मुक्ति आन्दोलन की ‘दिशा और दशा’ को दर्शाते प्रतीत होते है। संवादों के तानेबाने में केवल प्रश्नोत्तर गुँथे  हैं। पुरुष पात्र पूछता है, “आपको पता है, यह सिंदूर, व्रत-उपवास गुलामी की निशानी है!” स्त्री पात्र का उत्तर ‘हाँ’ में है। पुरुष पात्र पूछता है, स्त्री देह वर्षों से पुरुषों की  गुलाम रही है, पर अपनी देह पर के स्त्री का खुद का अधिकार होना चाहिए और उसे वर्जिनिटी के बन्धनों से आज़ाद होना चाहिए।” स्त्री पात्र का उत्तर ‘हाँ’ में है । इस पर पुरुष पात्र स्त्री से कहता है- “कल मुझसे मिलो एक स्वतंत्र औरत की जिंदगी जीने के लिए।” स्त्री के मना करने पर कि यह सब उसे पसन्द नहीं, पुरुष पूछता है कि क्या आप आज़ाद नही होना चाहती ? स्त्री कहती है – “यह मै  स्वयं तय करूँगी” पुरुष का गुस्सा फूट पड़ता है और वह कहता है – “आप गुलाम हैं. और गुलाम ही बनी रहेंगी!”  

लघुकथा सामाजिक यथार्थ को उजागर करती है। स्त्री के लिए स्थापित परम्परागत मूल्यों से एक स्त्री का विचलन भले ही स्त्रीवादी आन्दोलन के तहत गुलामी से बाहर निकलना हो, पर  समाज द्वारा यह विचलन अभी केवल सतही तौर पर स्वीकार्य है, विशेष रूप से पुरुष समाज द्वारा ‘ऐसी स्त्री’ को उच्छृंखल एवं सर्वसुलभ मान लिया जाता है। कुछ ऐसी ही मान्यता के चलते लघुकथा में पुरुष पात्र, स्त्री पात्र से आज़ाद स्त्री के रूप में मिलने का प्रस्ताव रख देता है। स्त्री द्वारा मना करने पर यानी आत्मनिर्णय लेने पर पुरुष का अहम परम्परागत रूप से तार-तार हो जाता है और वह गुस्से में कह उठता है, “आप गुलाम हैं और गुलाम ही बनी रहेंगी!” । आज़ादी क्या है और ग़ुलामी क्या है? यह कौन तय करेगा? लघुकथा स्त्रीवादी आन्दोलन का सच दर्शाती है। पूर्णतया स्त्रीवादी पुरुष पात्र होने के बावजूद उसके द्वारा स्त्री के आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार नहीं कर पाना बताता है की स्त्री-मुक्ति की मंजिल फिलहाल काफी दूर है। 
(1)
गेट-मीटिंग/ उर्मिल कुमार थपलियाल

हमेशा की तरह की गेटमीटिंग थी। बैठे हुए मजदूरों के चेहरे पर एक औपचारिकता थी। शिथिल, क्लांत और बासी–तिबासी। आज बाहर से यूनियन के एक जुझारू नेता आने वाले थे। वे आए । चेहरे पर ही क्रांति की चमक थी। मजदूरों ने तालियों से उनका स्वागत किया। मजदूरों की दशा देखकर वे पहले द्रवित और फिर क्रोध में हो गए । लम्बा–चौड़ा भाषण न देकर वे सीधे प्वाइंट पर आ गए ।
उन्होंने चीखकर पूछा-क्या तुम्हारे घर में राशन है?
सभी मजदूर मायूसी में बोले-नहीं ।
नेता- रहने को घर है?
सब-नहीं ।
नेता-पहनने को कपड़ा है?
सब-नहीं ।
नेता- कुछ पैसा वैसा है?
सब-नहीं
नेता-तुम्हारे पास माचिस है?
सब- हाँ, है ।
नेता-तो जला क्यूँ नहीं डालते इस व्यवस्था को । अभी इसी वक्त।
सब-माचिस में तीलियाँ नहीं हैं ।
(2)
स्त्रीवादी पुरुष/मानवी वहाणे


आपको पता है, यह सिंदूर गुलामी की निशानी है!”
“हम्म ठीक है।”
“आपको पता है, यह व्रत-उपवास गुलामी की निशानी है!”
“जी सही है।”
“आपको पता है, स्त्राी देह वर्षों से पुरुषों की गुलाम रही है.”
“हाँ, यह तो है।”
“अपनी देह पर केवल आपका अधिकार होना चाहिए.”
“हाँ सच!”
“आपको वर्जिनिटी जैसे बंधनों से आजाद होना चाहिए.”
“हाँ, इसके चक्कर में हमने बहुत भुगता है!”
“तो कल मिलिए न।”
“जी, क्यों?”
“एक स्वतंत्र औरत की जिंदगी जीने के लिए…”
“जी… आप गलत समझ रहे हैं… मुझे यह सब पसंद नहीं।”
“तो क्या आप आजाद नहीं. होना चाहतीं?”
“जी लेकिन यह तो मैं तय करूँगी न…”
“क्या बकवास है! आप गुलाम हैं और गुलाम ही बनी रहेंगी!”

मीनू खरे,स्टेशन हेड,आकाशवाणी,बरेली मोबाइल : 7017770395

लघुकथा में शीर्षक का महत्त्व

$
0
0

दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक नाम होता है, उसकी पहचान। इसी तरह से प्रत्येक साहित्यिक कृति का भी अपना एक नाम होता है, उसका शीर्षक। अकसर कहा जाता है कि नाम में क्या पड़ा है। अगर रामचंद का नाम लेखराज हो तथा सोहन लाल का रमेश कुमार तो कुछ फर्क नहीं पड़ता। असल बात तो गुणों की होती है। किसी भिखारी का नाम करोड़ी मल तथा सेठ का नाम फकीरचंद हो सकता है।

क्या साहित्यिक कृति के सम्बन्ध  में भी ऐसा कहा जा सकता है? मेरा उत्तर है–नहीं। हाँ, किसी उपन्यास अथवा महाकाव्य के नामकरण के समय अधिक कठिनाई पेश नहीं आती। इन साहित्यिक कृतियों के शीर्षक रचना पर अधिक प्रभाव नहीं डालते। वास्तविक प्रभाव तो रचना का ही होता है। फिर भी शीर्षक रचना के मूल भाव के विपरीत नहीं हो सकता। कहानी का शीर्षक भी रचना के अनुरूप ही होता है, यद्यपि शीर्षक में किए गए थोड़े बदलाव से रचना की प्रभावोत्पादकता में अधिक फर्क नही पड़ता। परंतु इस सम्बन्ध  में लघुकथा की स्थिति भिन्न है। प्रभावोत्पादकता के संदर्भ में लघुकथा का शीर्षक बहुत अंतर डाल सकता है। परंतु फिर भी अनेक लघुकथा लेखक रचना के शीर्षक की ओर अधिक ध्यान नहीं देते। बहुत कम समीक्षकों ने लघुकथा में शीर्षक के महत्त्व की ओर ध्यान दिलाया है।

क्योंकि लघुकथा छोटे आकार की साहित्यिक विधा है, इसलिए इसमें शीर्षक का महत्त्व अधिक हो जाता है। हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि लघुकथा की बुनावट बहुत ही कसी हुई होनी चाहिए तथा इसमें एक भी शब्द ऐसा नहीं होना चाहिए जिसे रचना से हटाया जा सके। तब हम लघुकथा के शीर्षक को गैर-महत्त्वपूर्ण कैसे मान सकते हैं? डॉ. सतीश दुबे के अनुसार–‘शीर्षक लघुकथा के प्रभाव को बढ़ाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है तथा लघुकथा का नब्बे प्रतिशत कथागत संदेश शीर्षक में ही छिपा होता है।’ जब शीर्षक इतना ही महत्त्वपूर्ण है तो इसके बारे में गंभीरता से विचार-विमर्श होना चाहिए।

लघुकथा का शीर्षक कैसा होना चाहिए, इस पर बहुत विचार-विमर्श की आवश्यकता है। इस आलेख का मुख्य उद्देश्य इस विषय की ओर लेखकों एवं समीक्षकों का ध्यान आकर्षित करना है। मेरे विचार में लघुकथा के शीर्षक का चुनाव करते समय निम्नलिखित कुछ बातों की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए—

शीर्षक आकर्षक हो—शिक्षित माता-पिता अपने बच्चे का नामकरण करते समय उसे कभी भी टींडू, कद्दू, भिंडी, तोता, बंदर जैसे बेहूदा नाम देना पसंद नहीं करते। वे अपने बच्चे का नाम मनमोहक-सा रखना चाहते हैं ताकि सुनने वाले को वह प्यारा लगे, बच्चे के प्रति दूसरों के मन में अच्छे विचार उत्पन्न हों। रचना में भी पाठक ने सबसे पहले शीर्षक को ही पढ़ना होता है। इसलिए शीर्षक में पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता होनी चाहिए। मन को प्रभावित करने वाला शीर्षक ही पाठक को रचना पढ़ने के लिए बाध्य करता है। ‘चुप्पी के बोल’, ‘काली धूप’, ‘ठंडी रजाई’, ‘रोटी की ताकत’, ‘बिन शीशों वाला चश्मा’, ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’, ‘विष-बीज’, ‘जब द्रोपदी नंगी नहीं हुई’ इत्यादि आकर्षक शीर्षक कहे जा सकते हैं।

शीर्षक कथ्य अनुरूप हो— लघुकथा का शीर्षक रचना के कथ्य के अनुरूप ही होना चाहिए। शीर्षक कथ्य के अनुरूप न हो तो रचना अपने मूल भाव को पाठक तक ठीक से संप्रेषित नही कर पाती। शीर्षक से रचना के कथा-कहानी विधा से संबंधित होने का भी पता चलना चाहिए। शीर्षक पढ़कर पाठक को ऐसा न लगे कि यह किसी अन्य विधा से संबंधित रचना है। ‘विज्ञान के चमत्कार’, ‘परिवार नियोजन’, ‘आर्थिक असमानता’, ‘देश के निर्माता’ तथा ‘सक्षम महिला-एक पहल’ जैसे शीर्षक कथा-साहित्य के लिए उपयुक्त नहीं कहे जा सकते।

शीर्षक कथ्य को उजागर न करता हो— केवल वही लघुकथा पाठक को बाँध कर रख सकती है जो उसे साहित्यिक आनंद प्रदान करे। जो उसके मन में रचना को आगे पढ़ने के लिए उत्सुकता पैदा करे। प्रत्येक पंक्ति को पढ़ने के पश्चात–‘आगे क्या होगा?’ जानने की जिज्ञासा बनी रहनी चाहिए। अगर रचना का समापन बिंदु अथवा कथ्य शीर्षक से ही उजागर हो जाए तो रचना में पाठक की दिलचस्पी का कम हो जाना स्वाभाविक है। पाठक ऐसी रचना को पढ़ना पसंद नहीं करता। ‘खेत को खाती बाड़‘, ‘ढोल की खुली पोल’, ‘चोर की दाढी में तिनका’, बच्चे पैदा करने वाली मशीन’, ‘पर-पीड़ा में सुख’, ‘इश्क न पूछे जात’ तथा ‘कथनी-करनी’ जैसे शीर्षक रचना के कथ्य को पहले ही उजागर कर देते हैं। ऐसी रचनाओं को पढ़ने के प्रति पाठक उदासीन हो जाता है।

शीर्षक अस्पष्ट न हो— अकसर नए लेखक व कुछ सूझ-बूझ वाले रचनाकार भी लघुकथा को शीर्षक देते समय बहुत सोच-विचार नहीं करते। वे अकसर रचना में बार-बार प्रयोग किए गए शब्द का ही शीर्षक के रूप में प्रयोग कर लेते हैं। या फिर रचना के अंतिम अवतरण अथवा वाक्य में प्रयुक्त कोई विशेष शब्द अथवा वाक्यांश को ही शीर्षक का रूप दे देते हैं। कई बार ऐसे शीर्षक बहुत ही अजब व अस्पष्ट बनकर रह जाते हैं। ‘इज्जत मुफ्त मिलेगी’, ‘लव यू बोले तो’, ‘आपका स्वागत है’, ‘पढ़ा, पढ़ा, भला तुम क्या पढ़ोगे?’, ‘तुम मेरे क्या लगते हो?’, ‘जा तू चली जा’, ‘ऐसे ही खामखाह’, ‘कह देंगे’, ‘मैं नहीं जाती’, ‘तुम गुस्सा तो नहीं करोगी?’ जैसे शीर्षक अस्पष्ट व अर्थहीन बनकर रह जाते हैं। पाठक इनसे कुछ नहीं समझ पाता। शीर्षक का चुनाव करने से पहले कथ्य व उसके द्वारा संचारित संदेश को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। शीर्षक संपूर्ण रचना का प्रतिनिधित्व करता हुआ दिखाई देना चाहिए।

शीर्षक रचना को अर्थ प्रदान करता हो— लघुकथा का शीर्षक अर्थ-भरपूर होना चाहिए न कि कोई व्यर्थ शब्द। उसी शीर्षक को उत्तम शीर्षक कहा जा सकता है जो रचना को अर्थ प्रदान करता हो तथा अगर शीर्षक को हटा दिया जाए अथवा बदल दिया जाए तो रचना पर गहरा प्रभाव पड़े अथवा उसके अर्थ ही बदल जाएँ। रचना पढ़ने के पश्चात उसको समझने के लिए पाठक को पुनः उसका शीर्षक पढ़ना पड़े, उसे मैं श्रेष्ठ शीर्षक मानता हूँ। ऐसे शीर्षक ही सही अर्थों में लघुकथा का भाग बनते हैं। उदाहरण के लिए उर्दू के प्रसिद्ध लेखक जोगेंद्र पाल की लघुकथा ‘चोर’ को लिया जा सकता है। रचना है—

मैं अचानक उस अंगूर बेचने वाले बच्चे के सिर पर जा खड़ा हुआ।

“क्या भाव है?”

बच्चा चौंक पड़ा और उसके मुँह की तरफ उठते हुए हाथ से अंगूर के दो दाने गिर गए।

“नहीं साहब! मैं खा तो नहीं रहा था…”

शीर्षक के बिना इस रचना के अर्थ बहुत स्पष्ट नहीं हैं. लेकिन जब लेखक ने इसको शीर्षक ‘चोर’ दिया तो अर्थ स्पष्ट हो गए। विचार कीजिए, अगर इस रचना का शीर्षक ‘बच्चा’, ‘अंगूर’ या फिर ‘जूठे अंगूर’ रख दिया जाए तो क्या इसके अर्थ बदल नहीं जाएँगे?

यह केवल शुरुआत है। इस सम्बन्ध  में बहुत विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

-0-

Viewing all 2447 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>