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स्कूल (नेपाली)

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अनुवादः एकदेव अधिकारी

       “मैले भनिसकेँ नि, गाडी ढिलो हुन्छ भनेर,” स्टेशन मास्टरले झर्को मान्दै भन्यो- “छ घण्टा भन्दा अगाडि त आउँदैन, अब गइहाल यहाँबाट….हिजो देखि किन यति सताइरहेको !”

       “हजुर नरिसाउनुस न,” ग्रामीण महिलाले हाथ जोडेर भन्न थाली- “मलाई एकदम चिन्ता भइरहेको छ, छोरोले घर छाडेको तीन दिन भइसक्यो….ऊ हिजै आउनु पर्ने ! पहिलोपल्ट घरबाट एक्लै बाहिर निक्लेको हो ।”

       “अनि छोरोलाई एक्लै किन पठाएको त ?” महिलाको अनुनयका कारण नरम हुँदै उसले सोध्यो । “मति भ्रष्ट भएको रहेछ मेरो,” उसले रुन्चे स्वरमा भनी- “छोरोको बाऊ छैनन्, म गुन्द्री, दरी बुनेर घरखर्च चलाउँछु । केही दिनदेखि काम गरेर दुई पैसा कमाउँछु भनेर जिद्दी गरिरहेथ्यो । टोकरी भरी चना लिएर निक्लेको थियो ।”

       “चिन्ता नगर्नु…आइहाल्छ नि !” उसले सान्त्वना दियो ।

       “हजुर…एकदमै सिधा छ मेरो छोरो, उसलाई राति एक्लै निद्रा पनि लाग्दैन…मसँगै सुत्छ । हे भगवान् ! यो दुई रात उसले कसरी काट्यो होला ? यस्तो जाडोमा ऊसँग ऊनी कपडा पनि त छैन…” ऊ सुँक्कसुँक्क गर्न थाली । स्टेशन मास्टर आफ्नो काममा लाग्यो । ऊ वेचैन भएर प्लेटफार्ममा यताउता टहल्न थाली । त्यो गाउँको सानो स्टेशनमा चारैतिर अन्धकार व्याप्त थियो । उसले मनै-मन निश्चय गरी कि भविष्यमा आफ्नो छोरोलाई कहिल्यै पनि आफूबाट टाढा हुन दिने छैन । ट्रेन चर्को आवाज निकाल्दै त्यो सुनसान स्टेशनमा आइपुग्यो । ऊ श्वास रोकेर, आँखा च्यातेर ट्रेनका डिब्बाहरूतर्फ हेरिरहेकी थिई । एउटा आकृति दौडँदै आयो । नजिकबाट उसले देखी- “तनक्क तन्किएको गर्धन, ठूला-ठूला आत्मविश्वासपूर्ण आँखाहरू, ओठमा हल्का मुस्कान…।

       “आमा, तपाईँ यति राति यहाँ आउनु नहुने थियो ।” आफ्नो छोरोको गम्भीर, चिन्तायुक्त आवाज उसको कानमा पऱ्यो । ऊ छक्क परी । उसलाई विश्वास भएन यो तीन दिन मै उसको छोरो यति ठूलो कसरी भयो ?

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रुदन

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तब उसकी उम्र यही कोई चार-पाँच साल के करीब रही होगी जब एक सुबह माँ की कूकें सुनकर उसकी नींद उचट गई थी। हतप्रभ-सा बिस्तर पर आँखें मलता बैठा रह गया था कि उसकी बुआ रोती-रोती अन्दर आई थी। बुआ ने उसे बताया…..’’चुन्नू!उठ! पागल सुक्को मर गई है।’’

          सुक्को उसकी छोटी-सी बहन थी। नौ महीने की होकर मर गई थी। माँ की कूकें उसने पहली बार सुनी थीं। माँ की हृदयविदारक कूकें सुनकर उसके भीतर कुछ जम-सा गया था।

          वह आठ-दस साल का रहा होगा जब एक दिन उसके नानके से एक आदमी आया था। उसे देखकर माँ के चेहरे पर एक उदास-सी मुस्कान उभर आई थी…‘‘आ भाई! तू कैसे रास्ता भूल गया आज?’’ माँ ने उसे पानी का गिलास थमाया था। उसने  घूँट पीकर बताया कि बड़ा मामा, रामप्रसाद पूरा हो गया है, ‘‘हैं…?’’ माँ के मुँह से एक चीख-सी निकली और माँ अपने पल्लू में मुँह दबाकर कूक पड़ी थी। यह वैसी ही कूक थी जो सुक्को के मरने पर उसने सुनी थी। वह बुरी तरह से डर गया था। ‘वह भागा-भागा पड़ोस से रुक्मणी ताई को बुला लाया था। सामने वाली बूढ़ी अम्मा भी आ गई थी। माँ बहुत देर तक कूकें मारकर रोती रही थी। माँ का प्रलाप उसके भीतर जाकर बैठ गया था।

          वह बड़ा हुआ तो दादा, नानी तथा पिता की मृत्यु पर भी उसने माँ का ऐसा ही रुदन सुना था। हर बार माँ का चीत्कार करता यह रुदन उसके भीतर…..कहीं गहरे में जाकर चिपक-सा जाता था। रात के सन्नाटे को चीरती हुई कोई  ट्रेन जब लम्बी सीटी बजाती हुई गुजरती तो उसे भ्रम हो जाता कि माँ कूक रही है। बाहर गली में कोई लम्बी चीखने की आवाज अथवा किसी बच्चे के रोने की आवाज पर भी उसे अकसर यही भ्रम हो जाता कि यह तो माँ का रुदन है। वह घबराकर भागता, माँ को ढ़ूँढ़ता और माँ के झुर्रियों भरे सपाट चेहरे को देखकर ही चैन पाता।

          एक दिन उसकी माँ मर गई थी। मरी हुई माँ का मुख देखकर उसे रोना नहीं आया। वह रोता था तो माँ को रोती हुई देखकर….रिश्तेदार औरतें स्यापा डाल रही हैं, जिन्हें देखकर भी उसका रोना नहीं फूटा था। अपने जीवन के सारे सुख-दुख, सारे अनुभव अपनी झुर्रियों में समेटकर माँ चुपचाप-सी सोई पड़ी थी।

          वह बूढ़ा हो गया। रोज की तरह वह बड़े बाजार में सग्गू सरिए वाले की दुकान पर बैठा अखबार बाँट रहा था। तभी फकीरिया वहाँ आया तथा उसे राम-राम कहकर बताने लगा, ‘‘चाचा,संघोई वाले रामस्वरूप का बड़ा बेटा रामपाल गुजर गया है। बाद दोपहर संस्कार होना है।’’ उसने चौंकते हुए पूछा था, ‘‘ये कैसे हुआ फकीरे?’’

          लौटते हुए उसे घर पकड़ना भारी हो गया। अपने मरे हुए दोस्त रामस्वरूप की याद हो आई उसे…..और रामपाल को तो उसने गोद में खिलाया था। जाने की उम्र तो मुझ बूढ़े की थी और जा रहे हैं हमारे बच्चे! सोचकर उसे झुरझुरी आ गई थी। लाठी टेकता, कराहता वह किसी तरह घर पहुँचा था। दहलीज पारकर वह बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठ गया था। उसने किसी तरह पुकारा था…..‘‘नराती!’’

          नराती उसकी विधवा बहिन थी, जो आस-औलाद न होने की वजह से साथ ही रहती थी। नराती भाई की आवाज सुनकर बाहर आई, ‘‘हाँ भाई? क्या कहै था?’’

          वह गुम-सा हो गया था। चुप! बोल मानो कहीं उसके दिल में ही अटक-से गए थे। नराती का ध्यान उसके चेहरे पर चला गया था। नराती को उसके चेहरे के पीछे सैंकड़ों ज्वार दिखलाई पड़ गए थे। वह चौंककर बोली, ‘‘हाय-हाय! क्या हो गया भाई? तू इस तरह गुम-सा कैसे हो गया?’’

          लाठी छोड़ वह खड़ा हुआ और घुटनों पर दोहत्थड़ मारकर जमीन पर बैठ गया। वह कूकें मारकर रो पड़ा था। लम्बी-लम्बी कूकें….मुहँ उसने अपने कुरते के छोर में दबोचा हुआ था।

नराती भी वहीं बैठकर भाई का सिर छाती में दबोचकर रोने लगी, ‘‘हाय-हाय! भाई तू बोल तो सही आखिर हुआ क्या…..?’’

‘‘……राम…पाल…पूरा हो गया…..’’ रोते हुए किसी तरह वह बोला था….

‘‘हैं? कौन सा रामपाल?’’

‘‘संघोई वाले रामस्वरूप का छोकरा…..’’

‘‘हाँ नारती खुद भी जोर-जोर से रोने लगी थी। सारा परिवार घबराया-सा वहीं जमा हो गया था।

संस्कार से लौटकर वह चौबारे में लेटा हुआ था। नीचे बरामदे में उसके बेटे आपस में बातें कर रहे थे।

‘‘इसका मतलब है कि पिता जी के अन्दर कोई बहुत गहरा दु:ख जमा हुआ है….कैसे औरतों की तरह फूट-फूटकर रो पड़े थे रामपाल की मौत की खबर सुनकर?’’ बड़े भाई ने कहा तो छोटा चिढ़ते हुए बोला, ‘‘यार, दस-साल से ऊपर हो गए हैं रामसरूप को मरे हुए। तब से आना-जाना ही छूटा पड़ा है। माँ के मरे पर तो सोरे आए नहीं थे। जबकि चिट्ठी मैंने ख़ुद पोस्ट की थी….हमारी तो समझ से बाहर है कि जिस रामपाल ने अपने बच्चे छोड़ रखे थे, शराब के चक्कर में, उस रामपाल की मौत पर ऐसे कूकें मारकर पिताजी आखिर क्यों रो पड़े….?’’

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कपों की कहानी

घर

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लता को इस घर में आये अभी कुछ दिन ही हुए थे । वो सुंदर तो थी ही, किन्तु अपनी सुशीलता और मृदुभाषिता से उसने सब का दिल जीत लिया था । रस्मो-रिवाज़ की औपचारिकता के बाद वो अपना सामान अपने कमरे की अलमारियों में लगाने लगी । उसकी सास ‘मीरा’ भी उसे इस नये घर के परिवेश में पूर्णतया ढल जाने में सहायता कर रही थी ।

कुछ दिनों में मीरा ने यह देख लिया था कि लता स्वभाव से संकोची भी थी । नई नवेली दुल्हन के लिए नये घर में ऐसा होना स्वाभाविक भी था । दो-एक सप्ताह में लता ने अपने सारे कपडे और अन्य वस्तुएँ सुचारू रूप से अपनी अपनी जगह जमा दी थीं । कुछ दिनों के बाद मीरा ने देखा कि नीचे वाले स्टोर रूम में लता के खाली सूटकेसों के पास ब्राउन कागज़ में लिपटा कोई पैकेट पड़ा था ।­­­­ कुछ दिन तो मीरा ने सोचा कुछ होगा, खोल लेगी आवश्यकता पड़ने पर । पर वो पैकेट नहीं खुला ।

एक दिन उत्सुकता वश मीरा ने लता से पूछा, “बेटी, इस पैकेट में क्या है ? शायद आप इसे कमरे में ले जाना भूल गई होगी। यह काफी दिनों से यहीं पर पड़ा है ।”

लता ने बड़े सकुचाते हुए कहा, “माँ, इस पैकेट में मेरे मम्मी –पापा की तस्वीर है । मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि इसे कहाँ रखूँ।”

मीरा ने बड़े स्नेह से उससे कहा, “अरे खोलना तो, देखें तो कैसी तस्वीर है ।”

 लता ने बड़े चाव से वो पैकेट खोला और तस्वीर को निहारते हुए उसे अपनी सासू माँ को थमा दिया।

साथ ही कहा, “जब वो दोनों कश्मीर की सैर के लिए गए थे न, तब की तस्वीर है।”

उस सुंदर जोड़े को निहारते हुए मीरा ने कहा, “ अरे कितने सुंदर लग रहे हैं दोनों । कहाँ रखूँ ? अरे इनकी जगह तो यहाँ है । और मीरा ने वो तस्वीर बैठक की कोने वाली मेज़ पर करीने से रख दी ।

50 वर्ष पहले मीरा ने अपने लिए भी ऐसा ही सोचा था ;किन्तु तब वो हिम्मत नहीं जुटा पाई थी।

अब बैठक की उस मेज पर मीरा और उसके पति की तस्वीर के साथ लता के माता –पिता की तस्वीर भी सजी थी ।

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हरिशंकर परसाई से मुकेश शर्मा की बातचीत

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प्रश्न: लघुकथा का साहित्य में क्या स्थान है?

उत्तर: लघुकथा कथात्मक अभिव्यक्ति का लघुत्तम रूप है?

प्रश्न: लघुकथा के प्रारम्भिक काल के विषय पर आपके विचार?

उत्तर: पंचतंत्र, हितोपदेश आदि में लघु बोधकथाएँ हैं। पश्चिम में ऑस्कर वाइल्ड की लघुकथाएँ हैं। इनका सबका मिला-जुला प्रभाव भारतीय लघुकथा पर है। हम अपनी लघुकथा को परम्परा से हितोपदेश, पंचतंत्र से जोड़ सकते हैं। पुराणों तथा दर्शन ग्रंथों के दृष्टांत बहुत हैं।

प्रश्न: इन दिनों लिखी जा रही लघुकथाओं की प्रमुख कमजोरियाँ कौन-सी हैं?

उत्तर: लघुकथाओं में चरम बिंदु (climax) का महत्त्व है। यह अन्त में आना चाहिए। काफी लघुकथाओं में यह नहीं आता या कमजोर आता है।

प्रश्न: लघुकथा का मिनी कहानी एवं व्यंग्य से क्या सम्बन्ध है?

उत्तर: लघुकथा को मिनी कहानी कह सकते हैं। लघुकथा में व्यंग्य प्रधान तत्त्व है।

प्रश्न: लघुकथा की वर्तमान स्थिति कैसी लगती है?

उत्तर: अच्छी है।

प्रश्न: आज इतनी अधिक लघुकथाएँ क्यों लिखी जा रही हैं?

उत्तर: कथन लघुत्तर होता जा रहा है और लघुकथा तीखा प्रभाव छोड़ती है। प्रभाव एक पिन चुभोने जैसा होता है।

प्रश्न: लघुकथा का प्रारूप कैसा होना चाहिए?

उत्तर: कम-से-कम शब्द होने चाहिए। विशेषण-क्रिया विशेषण नहीं हो और चरम बिन्दु तीखा होना चाहिए।

प्रश्न: लघुकथा का आकार कितना हो?

उत्तर: वस्तु के हिसाब से आकार तय होगा।

प्रश्न: लघुकथा लिखते समय ध्यान रखने योग्य बातें   ….?

उत्तर: क्या कहना, इसका ध्यान रखना चाहिए।

प्रश्न: आजकल लिख रहे लघुकथा लेखकों की स्थिति पर आपके विचार….

उत्तर: मैं इस पर कुछ नहीं कहूँगा। साधारणतः ठीक है।

प्रश्न: लघुकथा को प्रभावशली बनाने के लिए और कोई विशेष बात….?

उत्तर:लेखकों में सामाजिक चेतना हो। अन्तर्विरोध पकड़े। शैली सहज हो।

प्रश्न: स्वस्थ लघुकथा के क्या मापदण्ड हो सकते हैं?

उत्तर: छोटी, प्रभावशाली और विचार करने को बाध्य करने वाली लघुकथा हो

प्रश्न: पिछले दिनों चले लघुकथा आंदोलन पर आपके विचार…..? क्या किसी विधा की उन्नति के लिए आंदोलन जरूरी हैं?

उत्तर: आंदोलन के मुद्दे मेरी समझ में नहीं आते। कोई लघुकथा-आंदेालन है ही नहीं। जरूरत भी नहीं है।

प्रश्न: क्या किसी विधा की उन्नति के लिए समीक्षा आवश्यक है?

उत्तर: समीक्षा में अवश्य जानकारी होती है।

प्रश्न: इस विधा को समीक्षकों द्वारा गंभीरता से न लिए जाने के क्या कारण हैं?

उत्तर: समीक्षक आकृष्ट तो हो रहे हैं।

प्रश्न: लघुकथा की समीक्षा के क्या निकष हो सकते हैं?

उत्तर: जो निकष कहानी की समीक्षा का है, वही लघुकथा की समीक्षा का है।

प्रश्न: लघुकथा का समीक्षा पक्ष पुष्ट न हो पाने के क्या कारण है?

उत्तर: लघुकथाएँ समीक्षकों का ध्यान खींचने लायक शायद अभी नहीं हुई हैं।

प्रश्न: इसके समीक्षा पक्ष को पुष्ट करने के लिए लघुकथा लेखकों की क्या भूमिका हो सकती है?

उत्तर: लघुकथा-लेखक खुद समीक्षा भी लिखें।

प्रश्न: इसके बेहतर भविष्य के लिए कोई योजना?

उत्तर: मेरी नज़र में कोई योजना नहीं है।

प्रश्न: क्या आपको विधा का भविष्य  उज्ज्वल लगता है?

उत्तर: भविष्य जरूर उज्जवल है। फार्म हर विधा का छोटा होता जा रहा है।

प्रश्न: लघुकथा लेखकों के लिए कोई सुझाव या संदेश?

उत्तर: अनुभवों का विश्लेषण करें, नज़रिया हो, अनुभवों का सही अर्थ करें और कम-से-कम शब्दों में कह दें।

(सन्दर्भ: लघुकथा के आयाम: सम्पादक: मुकेश शर्मा)

अछूत खून

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‘‘रुको बहू, रसोई घर में मत घुसना। चौका छूत हो जाएगा।’’

 ‘‘भला क्यों दादीजी? आज तो मैं आपकी पसन्द के मूँग के कबाब और मखाने की खीर बनाने जा रही हूँ। सिर धोकर नहाई हूँ।’’ लाड़ली पोत-बहू ने इतराकर कहा।

 शुभा कल ही शैवाल के साथ आगरे आई। गोद में छह महीने का शुभम् था। शुभम् के होने में वह मरते-मरते बची। समय से पहले अचानक भयंकर ब्लीडिंग शुरू हो गई। घर में अकेली होने से अस्पताल पहुँचने में बहुत देर हो गई। डाक्टर ने तुरन्त आपरेशन करके मुश्किल से जच्चा-बच्चा की जान बचाई। शुभा का ब्लड ग्रुप आर.एच. निगेटिव था। मैचिंग खून मिलने में भी समय लगा। ददिया सास को परपोते का मुँह देखने का बड़ा चाव था।‘‘मरने से पहले तू मेरी गोदी में परपोता दे मुझे ‘‘सरगनसैनी’ चढ़ने की खुशी में सोने की अँगूठियाँ दी थी। आगरे आने से पहले उसने भी शैवाल के पीछे पड़ दादी जी के लिए अँगूठी खरीदी थी और नन्ही-सी चाँदी की सीढ़ी पर सोने का पानी करवा के लाई थी। परपोते को दादी की गोदी में देकर अँगूठी पहनाई और हँसकर कहा, ‘‘दादी जी शुभं इस सीढ़ी को कसकर पकड़कर खड़ा रहेगा और आप स्वर्ग चढ़ जाइएगा।’’

          दादी जी का वर्जना सुन रुआँसी शुभा वहाँ से हट गई। शैवाल पास ही खड़ा था। ‘‘क्या बात है दादी? कल तक जिस बहू का इस खानदान में कोई सानी नहीं था, आज अचानक वही दुलारी बहू अछूत कैसे हो गई।’’

          बहू को जचकी के बाद खून चढ़ाया गया था?’

          ‘‘हाँ ब्लीडिंग इतनी हुई थी कि इसकी जान के लाले पड़ गए थे। छह बोतल खून चढ़ाया तब इसमें जान आई। यह तो ईश्वर की बड़ी कृपा हुई जो दोनों मेरे पास हैं।’’

          ‘‘खून कहाँ से मिला?’’

          ‘‘मुझे पता नहीं। अस्पताल ने इन्तजाम किया। उसका मैंचिंग खून बड़ी मुश्किल से मिला।’’

          ‘‘कितने का खून आया था?’’

          ‘‘अब याद नहीं। शायद छह हजार का था।’’

          ‘‘जब इतना खर्च किया तो दो तीन हजार और देकर किसी ऊँची जाति का खून खरीदते। भंगी का खून चढ़वाने की क्या जरूरत थी।’’

          शैवाल को हँसी आ गई-“हमें पता नहीं कुछ और तुम्हें मालूम हो गया कि वह भंगी का खून था। और अगर था भी तो लाल ही रंग का, काला रंग नहीं। फिर तो दादी यह तुम्हारा पर-पोता भी तो अछूत हो गया। अछूत माँ का दूध जो पी रहा है।’’

          ‘‘प्रवाल बहू को देखकर पूना से जब आया तो उसने हमें बताया था कि भाभी के छह बोतल खून भंगी का चढ़ाया गया है। मैंने उसे मना कर दिया है किसी और को यह बात नहीं मालूम है। पर मैं तो इस बुढ़ापे में अपना धर्मभ्रष्ट नहीं कर सकती। रही शुभं की बात सो मर्द बच्चा है उसे कैसी अछूत।’’

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दंश

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इंजीनियरिंग कालेज के हॉस्टल में गिरीश और मुझे एक ही रूम मिला था। चौथे दिन पाँच सीनियर्स आए थे कमरे में।

          ‘‘तुम दोनों का अटेस्टेशन हो गया?’’ उन्होंने कड़ककर पूछा।

          ‘‘नहीं…!यह अटेस्टेशन क्या है भैया?’’….हम भीतर तक काँप गए थे उनकी आँखों को देखकर।

          ‘‘रूम नं. अड़तालिस में पहुँचो, सब मालूम हो जाएगा।’’ कहकर वे चले गए।

          गिरीश और मैं सिर से पाँव तक रैगिंग के भय में डूबे पहुँचे थे रूम नम्बर अड़तालिस में वे पाँचों किसी जूरी के सदस्य की तरह बैठे थे। उनके सामने एक बड़ी परात में नीला रंग घुला रखा था।

          ‘‘अपने पैंट-चड्डी उतारो और इस परात में बैठो। फिर उठकर उस बड़े कागज़ पर बैठो। तुम्हारे पीछे की निशानी कागज पर बन जाए । फिर उस पर हमसे साइन कराओ। यह अटैस्टेड कागज़ तुम्हारे कमरे में हमेशा उपलब्ध होना चाहिए। कागज़ गुमा अटेस्टेशन फिर से होगा।’’ बीच में बैठा सीनियर यह प्रक्रिया समझा रहा था। कमरे में तैरते उसके शब्द हमारे भय को द्विगुणित कर रहे थे। हमारे शरीर पसीने से तर थे और दिमाग सोचने-समझने की स्थिति में नहीं।

          मैं बचपन से शर्मीला और संकोची रहा हूँ। मेरे लिए यह करना असम्भव था। मैंने शरीर की सारी शक्ति लगाकर शब्द जोड़े और हकलाकर कहा, ‘‘भैया मैं नंगा नहीं हो पाऊँगा।’’

          पाँचों ने विचित्र दृष्टि से मुझे देखा। एक सीनियर उठा था। उसका भारी हाथ मेरे बाएँ गाल पर पड़ा।

          ‘‘साला….’’ बिना अटेस्टेशन कराए रहेगा हॉस्टल में……’’ पाँचों इतनी जोर से हँसे थे कि पूरा कमरा गूँज गया।

          ‘‘शाम को तुम्हारा अटेस्टेशन हॉस्टल के सभी लड़कों के बीच होगा।’’ कहकर वे कहीं चले गए।

          कमरे में लौटकर मैंने गिरीश से कहा था, ‘‘मैं अटेस्टेशन नहीं कराऊँगा ,चाहे मुझे पढ़ाई छोड़कर घर वापस जाना पड़े।’’

          गिरीश बोला था, ‘‘मैं वापस नहीं जाऊँगा। वापस जाकर मुझे खेती करनी पड़ेगी और फिर जल्दी ही शादी।’’

          शाम होने से पहले मैं सामान उठाए स्टेशन पर था।

          गिरीश ने अटेस्टेशन करा लिया था। आज वह प्रथम श्रेणी इंजीनियर है। मैंने नहीं कराया ,मैं मिडिल स्कूल शिक्षक हूँ।

          कुछ घटनाएँ जो जिन्दगी पर गहरा दंश छोड़ती है, उसके लिए एक छोटा शब्द भी जिम्मेदार होता है, जैसे मेरे लिए अटेस्टेशन।

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अनुत्तरित

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गर्मी की छुट्टियों का मज़ा लेते हुए और अपनी शैतानियों में चार चाँद लगाते हुए चिंटू और चिंकी इंदौरी कुल्फी का मज़ा ले रहे थे । 

बुआ … ये खजूरी बाज़ार क्या है ? – चिंटू ने भोलेपन में पूछा ।

बुआ – अरे बेटा, यह एक जगह का नाम है । 

अरे ! ऐसा नाम…. इतना अजीब । 

हाँ,  वहाँ पर पहले बहुत सारे खजूर के पेड़ थे इसलिए…  

ओह ! तो फिर ये नवलखा का क्या मतलब…… 

चिंकी …..कितने अजीब नाम है तुम्हारे शहर की जगहों के….ही ..ही … ही ..

चिंटू तू तो रहने दे… तेरे शहर का तो नाम ही बड़ा अजीब है – वड़ोदरा … अब भला यह क्या नाम हुआ ? 

इतने में बुआ बोल पड़ी  – अरे बेटा ! नवलखा  नाम इसलिए पड़ा ; क्योंकि एक ज़माने में वहाँ पर नौ लाख पेड़ हुआ करते थे …

ओह ! ….नौ लाख …. सच में ! वाह… !!! 

और वड़ोदरा ,यानी जहाँ पर हर जगह बहुत सारे वड़ या बड़ के पेड़…. 

देखे हैं न तुम दोनों ने  बरगद के पेड़ ?  बोलो …

इतने सारे पेड़ ! हर जगह !

तो अब वो पेड़ कहाँ  गए ? ….. –  दोनों बच्चे एक साथ बोल पड़े ।

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विशेषांक-पुरस्कृत लघुकथाएँ

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हिन्दी चेतना का लघुकथा विषेशांक: 21 वीं सदी के ऊर्जावान् लघुकथाकार । अंक निम्नलिखित लिंक से डाउनलोड कर सकते हैं-

https://www.hindichetna.com/wp-content/uploads/2019/07/hindi-chetna-83-with-cover.pdf

कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 2019 में पुरस्कृत लघुकथाएँ कथादेश के अगस्त के अंक में।

महानगर की लघुकथाएँ

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 महानगर की लघुकथाएँ:संपादक : सुकेश साहनी ,प्रकाशक : अयन प्रकाशन , 1/20  महरौली , नई दिल्ली-110030,प्रथम संस्करण : 1993, द्वितीय संस्करण : 2019,मूल्य : 300 रुपये

हिंदी -लघुकथा अपनी गति से क्रमशः प्रगति की राह पर चल रही है। लघुकथा आज के समय की माँग भी है और यह  भौतिक और मशीनीयुग की जरूरत भी बन चुकी है। । अनेकानेक लेखकों ने  एकल संग्रह, संकलन और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लघुकथा के विकास में अपना योगदान किया है।

हिंदी- लघुकथा में ऐसे लेखकों में सुकेश साहनी का नाम अग्रगण्य है।  आपने हिंदी- लघुकथा की पहली वेबसाइट www.laghukatha.com का वर्ष 2000 से सम्पादन किया है, वर्ष 2007  से रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ भी उनके साथ इस काम में जुड़ गए।  सुकेश साहनी के  संपादित  लघुकथा संकलनों में ‘महानगर की लघुकथाएँ’ विशेष स्थान रखता है।

जैसे की नाम से विदित होता है कि प्रस्तुत पुस्तक ‘महानगर’ विषय पर आधारित है, इस पुस्तक में महानगर के जीवन से परिचय तो होता ही है, साथ ही  महानगर को समझने के लिए एक सकारात्मक दृष्टिकोण भी बनता नज़र आता है। सुकेश साहनी ने अपने सम्पादकीय में अपने अनुभवों को साझा करते हुए महानगर से सम्बंधित कुछ समस्यायों पर अपने विचार प्रकट किये हैं जो विचारणीय है।

प्रस्तुत संकलन  को दो भागों  में बाँटा गया है, पहले भाग में ( संस्करण-1993)कुल 93 लेखकों की लघुकथाएँ प्रकाशित हैं  जिनमें   चर्चित लघुकथाकारों के साथ-साथ कुछ अचर्चित लेखकों की भी उत्कृष्ट लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं।  दूसरे भाग में (नए संस्करण -2019 में) परिशिष्ट में प्रथम संस्करण में प्रकाशित रचनाकारों के अतिरिक्त  21 नई लघुकथाओं को भी शामिल किया गया है। युवा पीढ़ी ऐसे संकलनो से न सिर्फ अपने वरिष्ठ रचनाकारों को पढ़कर सीख सकती हैं अपितु शोधार्थियों के लिए भी विषय आधारित

संकलन  अध्ययन हेतु उपयोगी साबित होते हैं। सुकेश साहनी ने उपर्युक्त पुस्तक का दूसरा संस्करण प्रकाशित करवा कर हिंदी- लघुकथा- जगत् को एक अनमोल और ऐतिहासिक धरोहर प्रदान की है ,जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। जहां तक मेरा अध्ययन है महानगर को लेकर यह प्रथम संकलन है।इस संकलन का अध्ययन करते समय संपादक की ये पंक्तियाँ अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती हैं, “महानगरों में रहने वाला आदमी  कितना प्रतिशत कंप्यूटर में बदल गया है और कहाँ कहाँ उसकी आत्मा का लोप हुआ है। किसी भी समाज को जीवित रखने के लिए अनिवार्य संवेदना एवं सहानुभूति की भावना की महानगरों में कितनी कमी हुई है।” इसमें प्रकाशित प्रायः लघुकथाकारों ने महानगरों में उपज रही समस्याओं एवं विडम्बनाओं का चित्रण बहुत ही सुंदर ढंग से किया है। मानव मूल्यों हेतु संघर्ष करते लोगों का चित्रण, ‘रिश्ते’ (पृथ्वीराज अरोड़ा), ‘अर्थ’ (कुमार नरेन्द्र) की लघुकथाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है जो जितना बड़ा महानगर है उसमे उतनी ही भ्रष्ट व्यवस्था है जिसे ‘सवारी’ (राजेंद्र मोहन त्रिवेदी ‘बंधु’) ,’सुरक्षा’ (श्रीकांत चौधरी), ‘हादसा’ (महेश दर्पण) इत्यादि लघुकथाओं में स्पष्ट है।

आज शिक्षा की जब सबसे ज्यादा आवश्यकता है तो ऐसे समय में शिक्षा संस्थानों में जो भ्रष्टाचार मचा हुआ है वो भी किसीसे छिपा नहीं है, महानगर की  इस समस्या पर यूँ तो कई लोगों ने लिखा है किन्तु ‘वज़न’ (सुरेश अवस्थी), ‘शुरुआत’ (शशिप्रभा शास्त्री) की लघुकथाएँ अपने उद्देश्य में अधिक सफल रही हैं। महानगर में नित्यप्रति हो रहे अवमूल्यन पर भी लघुकथाकारों ने अपने-अपने ढंग से सुंदर चित्रण किया है ‘आशीर्वाद’ (पल्लव), ‘कमीशन’( यशपाल वैद, ‘आग’ (भारत भूषण), ‘लंगड़ा’ (पवन शर्मा), ‘बीसवीं सदी का आदमी’ (भारत यायावर) इत्यादि लेखकों ने अपने कौशल से लोहा मनवाया है। अरविन्द ओझा की ‘खरीद’ लघुकथा महानगर में किस प्रकार लोगों का विदेशी वस्तुओं के प्रति  आकर्षण बढ़ता जा रहा है उसपर करारी चोट की है और महानगरों में जितनी तेज़ी से आबादी बढ़ रही है, उतनी ही तेज़ी से सभी क्षेत्रों में प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है, जिसे रमाकांत की लघुकथा ‘मृत आत्मा’ में देखा जा सकता है। इतना ही नहीं छोटे शहरों की अपेक्षा महानगरों में क्रूर मानसिकता का भी तेज़ी से विकास हो रहा है जिसे ज्ञानप्रकाश विवेक की लघुकथा ‘जेबकतरा’ में देखा जा सकता है।

अपवाद को छोड़ दें तो महानगरों में प्रायः लोग दोहरा जीवन जी रहे हैं। एक ही बात पर दूसरों के प्रति उनकी विचारधारा कुछ होती है और अपने बारे में उनकी विचारधारा ठीक इसके विपरीत होती है जिसे सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा  ‘उच्छलन’ में देखा जा सकता है,अर्थाभाव के कारण कैसे व्यक्ति संवेदना शून्य हो जाता है इसे प्रायः महानगरों में देखा जा सकता है इस मानसिकता को महावीर प्रसाद जैन ने अपनी लघुकथा ‘हाथ वाले’ में प्रत्यक्ष किया है।

प्रायः व्यक्ति अच्छी बातों कि अपेक्षा बुरी बातों से जल्दी प्रभावित होता है, यही बात फिल्मों के सन्दर्भ में भी कही जा सकती है, फिल्मों द्वारा उपजी बुराइयों का प्रभाव किस प्रकार बढ़ता जा रहां  इसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘स्क्रीन-टेस्ट’ में देखा जा सकता है। आज हमारी नज़र जितनी दूर भी जाती है हम देखते हैं कि पैसा बेचा जा रहा है और पैसा ही खरीदा जा रहा है आज हमारे जीवन  में पैसा ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बन गया है जिसके आगे रिश्तों के बीच का अपनापन लुप्त होता हुआ प्रतीत होता है इसे बहुत ही सटीक ढंग से दर्शाती है कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘किराया’। ऐसी ही श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिखने में सुकेश साहनी ने अपना लोहा मनवाया है यहाँ भी ‘काला घोड़ा’ लघुकथा में महानगरीय सभ्यता से अभिशप्त इंसान का चित्रण करके स्वयं को सिद्ध कर दिया है। महानगर में जहाँ अम्बानी जैसे धनाढ्य लोग हैं वहीँ दिहाड़ी पर काम करने वाले लाखों इंसान भी हैं। धनाढ्य लोगों के चक्रव्यूह में किस प्रकार आदमी  फँसता-सिमटता जा रहा है यह बात गीता डोगरा ‘मीनू’ की लघुकथा ‘हमदर्द’ में भली-भाँति देखा जा सकता है।

आज उपभोक्तावादी संस्कृति में महानगर के आदमी को  इस बुरी सभ्यता ने इस तरह से जकड़ लिया है कि उसकी प्राथमिकताएँ ही बदलती जा रही है। इन्हें हम इस संकलन की प्रायः लघुकथाओं में देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त विविध समस्याओं से परिपूर्ण जो लघुकथाएँ आकर्षित करती हैं उनमें डॉ. सतीश दुबे, शंकर पुणताम्बेकर, रमेश बत्रा, प्रबोध गोविल, चित्रा मुद्गल, मधुदीप, बलराम, सुदर्शन, विक्रम सोनी, कृष्ण कमलेश, असगर वजाहत, कृष्णानन्द कृष्ण, मंटो, हीरालाल नागर, सतीश राठी, सुभाष नीरव, पवन शर्मा, राजकुमार गौतम, मधुकांत, कमल कपूर, अशोक लव, भगवती प्रसाद द्विवेदी, बलराम अग्रवाल, रमेश गौतम, मार्टिन जॉन ‘अजनबी’, नीलिमा शर्मा निविया, अनीता ललित, डॉ. कविता भट्ट,डॉ.सुषमा गुप्ता, सविता मिश्रा, सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ इत्यादि की लघुकथाओं की परख की जा सकती है। एक संकलन में इतनी अधिक एक ही विषय पर श्रेष्ठ लघुकथाओं का होना संपादक के सम्पादकीय कौशल को प्रत्यक्ष करता है।

इतना ही नहीं, नामी लघुकथाकारों की लघुकथाओं के साथ-साथ जहाँ उन्होंने नवोदित लघुकथाकारों को स्थान दिया है वहाँ अज्ञात नामों की लघुकथाओं को छापने में भी परहेज़ नहीं किया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सम्पादक को नामों की अपेक्षा श्रेष्ठ लघुकथाओं से ही मतलब रहा है।

इस संकलन के लिए मैं बिना किसी संकोच के कहना चाहती हूँ कि सम्पादित लघुकथा संकलनों में यह संकलन अपनी विशिष्ट पहचान प्रत्यक्ष करता है।

कल्पना भट्ट , श्री द्वारकाधीश मंदिर, चौक बाज़ार, भोपाल-462001

   

आखेटक

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आखेटक-लघुकथा-संग्रह; जगदीश पन्त ‘कुमुद’
वर्ष; 2019, पृष्ठ ; 104, मूल्य; 220 रुपये, अयन प्रकाशन , 1/20 महरौली , नई दिल्ली-110030

लघुकथाएँ

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1-तापमान गिर गया

“उफ़ कितनी गर्मी है !” साहब माथे का पसीना पोछते हुए बोले।

फिर घंटी बजा बनवारी को एयर कंडीशनर का तापमान कम करने का हुक्म जारी किया। भरी दोपहरी में नीचे जाकर एक आइसक्रीम लाने का आदेश भी साथ ही दे दिया।

बनवारी झट से जाकर आइसक्रीम ले आया और फिर साहब के सामने विनय की मुद्रा में सर झुका खड़ा हो गया।

“कुछ कहना है क्या ?” साहब ने ठंडी आइसक्रीम खाते हुए पूछा।

“साहब बाहर चपरासी जहाँ बैठते हैं वहाँ कूलर लगवाने के लिए बड़े बाबू से इल्तिजा की थी। वो आपके पास फाइल भेजे हैं। तनिक आप पास कर देते तो हम भी थोड़ी ठंडी हवा खा लेते। ” बनवारी ने बेहद विनम्र हो प्रार्थना की।

“अच्छा देखते हैं। जरा बड़े बाबू को अंदर भेजिये। ” साहब ने तुरंत जवाब दिया।

प्रसन्नचित हो बनवारी ने झट से जा कर बड़े बाबू को साहब का फरमान सुना दिया।

बड़े बाबू हाजिर हुए तो साहब ने बस इतना कहा-“हमसे पूछे बिना कूलर की फाइल क्यों भेजी आपने। आज कूलर मांग रहें हैं तो कल एयर कंडीशनर भी माँगेंगे। इतनी भी क्या गर्मी है ? ठीक ही तो है मौसम। पंखा लगा हुआ तो है। हम फाइल में चर्चा करें लिख दे रहे हैं। आप फाइल पर चर्चा करने अगस्त के बाद ही आइएगा। “

बड़े बाबू  डाँट खा फाइल बगल में दबा चुपचाप वापस लौट गए।

बाहर बनवारी बदले तापमान से बेखबर सब चपरासियों को यही बताने में लगा है

“साहेब से सिफारिश कर दी है अब देखना कूलर जल्द ही लग जाएगा “

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2-खातिरदारी

‘आया होगा फिर उसी सुमन का फोन।’

घंटी बजी तो मीरा धीमे से बुदबुदाई।

आधे घंटे शेखर फ़ोन पर ही लगा रहा। उसकी हंसी-ठहाकों की आवाजों से मीरा का ह्रदय जलने लगा।

बेचारे शेखर को क्या पता था कि उसकी एक -एक हरकत पर मीरा नजर गड़ाए हुए है।

फ़ोन ख़त्म हुआ तो मीरा ने आखिर शेखर को बता ही दिया :

“सुनो ये क्या लगा रखा है। सुबह सारे व्हाट्सप्प मैसेज देखे थे हमने। ये सुमन ने क्या- क्या नहीं भेजा हुआ आपको। कैसे- कैसे वीडियो और चुटकले। कॉल लॉग भी देखा है -पिछले एक महीने से आप दोनों की रोज कम से कम दो -तीन बार बात होती है। “

“तो ???”

शेखर का जवाब सुन मीरा गुस्से में फटने वाली थी। पर इतनी लम्बी शादी के बाद ऐसे ही कैसे किसी पराई स्त्री को पति से इतनी नजदीकियां बढ़ाने देती। पति को कैसे भी समझाना -बुझाना जरूरी था। वो नौकरी नहीं करती, बच्चे भी छोटे हैं। घर -गृहस्थी तो बचाकर ही चलना पड़ेगा। सो अपने गुस्से में काबू कर बोली -“देखो। मैं बात को बढ़ाना नहीं चाहती पर मुझे ये ————-“

उसकी बात पूरी होती इससे पहले ही घर की घंटी बजी।

“अरे सुमन को बुलाया था कुछ कागज़ देने के लिए। उसी ने घंटी बजाई होगी।’इतना कह शेखर ने लपक के दरवाजा खोला।

“आओ सुमन आओ कब से तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा हूँ!”

पति की बातें मीरा के कानों में पड़ीं, तो उसने निश्चय किया की वह इस सुमन की बच्ची का चेहरा भी नहीं देखेगी।

बिना सुमन की और देखे वह किचन की तरफ बढ़ ही रही थी कि सुमन ने उसका अभिवादन किया।

“नमस्ते भाभी जी!”

मीरा मुड़ी।

सामने सुमन को देख, हड़बड़ाहट में जवाब दिए बिना ही रसोई की तरफ चल पड़ी। जलपान की व्यवस्था करने।

छह फुट लम्बे दाढ़ी -मूँछ वाले सुमन जी के लिए।

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3-भेड़ियों के बीच

“अरे ये वही है न ! जिसकी इज्जत लूटी गई थी ?”

“हाँ वही लग रही है। सारे कपडे फटे बिलकुल वस्त्रहीन मिली थी। “

“बेचारी के साथ बेहद ग़लत हुआ ! इससे तो अच्छा इसे मौत आ जाती। माँ -बाप की इज़्ज़त भी धूल में मिल गई “

“अरे आग बिना धुवाँ कहाँ। इसी के साथ क्यों हुआ ? ऐसे ही बनी -ठनी घूमती थी पहले भी। “

“सोनू के पापा तो कह रहे थे कि इसका पुराना याराना था उस लड़के के साथ। पकड़ी गयी ,तो रेप कह दिया। “

“ये आजकल की लड़कियाँ कपडे भी तो कैसे पहनती हैं। खुद ही आफत को न्यौता देती हैं ।”

“भाई मजे तो इसे भी आए होंगे। अब तो और चटक माल लग रही है।”

“इसकी माँ भी पागल है मेरे भाई का रिश्ता माँग रही थी। हम पागल हैं क्या जो ऐसी लड़की को ब्याह लाएँ। “

पगलाने लगी है वो इन फुसफुहाटों को सुन- सुनकर।

अब यही सोचती रहती है -उस लड़के ने जो किया वह बुरा था, पर उसके बाद जो पूरी दुनिया अपनी  नज़रों और अपनी आवाज़ों से शरीर को भेदती है ;चरित्र को तार -तार करने में लगी रहती है;उस दिन -रात लगातार चलते रेप की सजा क्या होनी चाहिए ??

कुत्ते को मृत्युदंड तो भेड़ियों को क्या ????

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4-हल्दी -हाथ

नयी बहू का गृह प्रवेश होना था। लड़के ने अपनी पसंद और मर्जी से शादी की थी। सब लोग रिश्ते को लेकर संशय में थे। जाने कैसी लड़की हो। यहाँ निभा पाए या नहीं। पंडित जी हल्दी हाथ की रस्म करवाने लगे। नई बहू ने अपने हाथ हल्दी के घोल में डुबाए, अब इन हाथों से उसे घर की दीवारों में छाप छोड़नी थी। घूँघट के अंदर से उसने बैठक की हाल ही में रंग रो-गन की गई दीवारों को देखा। अभी वइह देहरी पर ही खड़ी थी।

“पंडित जी यहाँ छाप छोड़ूँगी ,तो बैठक की दीवार पर निशान पड़ेंगे ।”

इतना कहकर उसने झट से मुड़कर दरवाजे से बाहर की दीवार पर अपने हाथों की छाप छोड़ दी।

उसकी बात सुनकर सब हँसने लगे। सारे रिश्तेदारों, सास और ससुर को यकीन हो गया कि वह इस घर को अपना मान चुकी है।

हर संशय हल्दी -हाथ की छाप में मिट गया।

बहू का अपने घर में प्रवेश हो गया ।

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5-ज़रूरत

“अम्मा बस तीस रुपये का आता है। दे न। कितने साफ़ सुथरे होते हैं। गन्दा कपडा देखके हमें घिन आती है। टीचर दीदी भी कहती है कि ये हमें स्वच्छ रख बीमारी से बचाते हैं। “

मुनिया ने अपनी अम्मा से जिद की।

“ये चोंचले पैसेवालों के होते हैं। जमाना गुजर गया इन्ही कपड़ों के सहारे ये दिन गुजारते। कौन सा बीमारी लग गयी हमें। “

अम्मा मुनिया पर खीजी।

“बीमार नहीं हो तो डॉक्टरनी से दवाई क्यों  मांग रही थी? सफ़ेद पानी आता है…. क्यों कहा था ?”

मुनिया जिद पर थी।

” एक बार ना कह दी तो कह दी। काम काज कर कुछ मेरा सर न खा। “

अम्मा डपटके मुनिया को भगा ही रही थी कि वहाँ जीतू आ गया।

“अम्मा साठ रुपए तो दे बाल कटाने हैं। “

“बाल तो तीस रुपये में ही कट जाते हैं। साठ क्यों चाहिए ?”

अम्मा ने पूछा तो जीतू बिंदास  हँसकर बोला-“वो पेड़ के नीचे वाले नाई का रेट है। मैं तो अबके सलून में कटवाऊँगा… बिलकुल हीरो जैसे। अब दे अम्मा मुझे देर हो रही है। “

अम्मा ने झट से जीतू को साठ रुपए दिए।

 हीरो जैसे बाल कटाना ज़्यादा जरूरी जो था। 

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-0-अपराजिता जग्गी ,22, मुनीरका विहार, नई दिल्ली – 110067 

aprajitalakhera@rediffmail.com

9873643308

ਮਿੱਟੀ / मिट्टी

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(हिंदी अनुवाद: योगराज प्रभाकर)  

“ਬਾਪੂ ਜੀ! ਖੇਤੀ ਛੱਡੋl ਚਲੋ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਸ਼ਹਿਰ, ਦੋਵੇਂ ਪਿਓ-ਪੁੱਤ ਰਲ-ਮਿਲ ਕੇ ਕਮਾਵਾਂਗੇl” ਪੁੱਤਰ ਨੇ ਬਾਪ ਨੂੰ ਸਲਾਹ ਦਿੱਤੀl ਬਾਪ ਸਿਰਫ ਪੁੱਤਰ ਦਾ ਮੁੰਹ ਤੱਕਦਾ ਰਿਹਾl
“ਕਿਉਂ ਬਾਪੂ ਜੀ! ਕੁਝ ਬੋਲਦੇ ਕਿਉਂ ਨੀ?”
“ਕੀ ਬੋਲਾਂ ਪੁੱਤl ਤੂੰ ਗੱਲ ਈ ਇਹੋ-ਜਿਹੀ ਕੀਤੀ ਐl”
“ਓਹ ਕਿੱਦਾਂ ਬਾਪੂ ਜੀ?”
“ਇੱਕ ਗੱਲ ਦੱਸ, ਜਦ ਤੇਰਾ ਕੰਮ-ਕਾਰ ਬੰਦ ਹੋ ਜਾਂਦੈ ਤਾਂ ਹਾਰ ਕੇ ਕਿਥੇ ਆਉਨੈਂ?” ਬਾਪ ਨੇ ਪੁਛਿਆl
“ਆਉਨਾਂ ਤਾਂ ਘਰ ਈ ਆਂl” ਪੁੱਤਰ ਨੇ ਥੋੜੀ ਦੇਰ ਬਾਅਦ ਜਵਾਬ ਦਿੱਤਾl
“ਤੇਰੇ ਲਈ ਰੋਟੀ-ਪਾਣੀ ਇਸੇ ਖੇਤੀ ਤੋਂ ਈ ਜੁੜਦਾ ਐ ਨਾ? ਜੇ ਮੈਂ ਖੇਤੀ ਨਾ ਕਰਾਂ ਤਾਂ ਕੀ ਬਣੂ ਤੇਰਾ? ਨਾਂ ਐਥੇ ਮਕਾਨ ਦਾ ਕਰਾਇਆ, ਨਾ ਰਾਸ਼ਨ-ਪਾਣੀ ਦਾ ਕੋਈ ਖਰਚਾl ਤੇਰਾ ਕਿੰਨਾ ਪੈਸਾ ਬਚਦੈ, ਤੈਨੂੰ ਨੀ ਪਤਾ? ਐਥੇ ਮੌਜ ਨਾਲ ਰੋਜ਼ ਮੁਰਗਾ-ਮੱਛੀ ਖਾਨੈਂl” ਬਾਪ ਨੇ ਆਪਣੀ ਗੱਲ ਕਹੀl
“ਪਰ ਬਾਪੂ ਜੀ, ਐਥੇ ਕਦੀਂ ਸੋਕੇ ਦੀ ਮਾਰ ਤੇ ਕਦੀਂ ਹੜ੍ਹ ਦੀl”
“ਫੇਰ ਵੀ ਡੰਗ ਸਰ ਰਿਹੈ ਪੁੱਤl ਰੋਟੀ-ਪਾਣੀ ਦਾ ਤਾਂ ਤੋੜਾ ਨੀl ਨਾ ਮਕਾਨ ਦੇ ਕਰਾਏ ਪਿੱਛੇ ਕਿਸੇ ਦੀ ਟੋਕ-ਟਕਾਈl ਮੈਂ ਤਾਂ ਚਾਰ ਛਿੱਲੜ ਦੁੱਧ ਵੇਚ ਕੇ ਵੀ ਕਮਾ ਲੈਨਾਂ ਤੇ ਦੋ ਪਾਥੀਆਂ ਵੇਚ ਕੇ ਵੀl ਮੈਂ ਤਾਂ ਕਹਿਨਾਂ ਤੂੰ ਵੀ ਇਹ ਪ੍ਰਾਈਬੇਟ-ਪ੍ਰੂਈਬੇਟ ਨੌਕਰੀ ਦਾ ਖੈਹਿੜਾ ਛੱਡ, ਤੇ ਐਥੇ ਆ ਕੇ ਵਾਹੀ ਕਰl ਸਿਰਫ ਕਣਕ-ਜੀਰੀ ਈ ਨੀ, ਆਪਾਂ ਸਬਜੀ-ਭਾਜੀ ਵੀ ਬੀਜਾਂਗੇl ਇੱਕ-ਦੋ ਮੱਝਾਂ-ਗਊਆਂ ਲੈ ਆਵਾਂਗੇ ‘ਤੇ ਦੁਧ-ਦਹੀਂ ਵੇਚ ਕੇ ਪੈਸਾ ਕਮਾਵਾਂਗੇl”
ਬਾਪ ਦੀ ਗੱਲ ਸੁਣਕੇ ਪੁੱਤਰ ਖਿੜ ਗਿਆl
“ਬਾਪੂ ਜੀ, ਸਚ ਪੁਛੋਂ ਤਾਂ ਮੈਂ ਵੀ ਏਹੋ ਚਾਹੁੰਦਾ ਸੀ, ਪਰ ਡਰਦਾ ਸੀ ਕਿ ਕਿਤੇ ਤੁਸੀਂ ਨਰਾਜ਼ ਨਾ ਹੋ ਜਾਓਂl ਆਪਾਂ ਪਿਓ-ਪੁੱਤ ਐਥੇ ਈ ਕਮਾਵਾਂਗੇ ਬਾਪੂ ਜੀl ਸਹਿਰ ਦੇ ਲੋਕ ਤਾਂ ਬਹੁਤ ਓਪਰੇ-ਓਪਰੇ ਜਿਹੇ ਲੱਗਦੇ ਨੇl ਮਾਲਕ ਵੀ ਐਨਾਂ ਮਾੜਾ ਸਲੂਕ ਕਰਦੈ ਕਿ ਰੋਣਾ ਆ ਜਾਂਦੈ ਬਾਪੂ ਜੀ… ‘ਤੇ ਓਸ ਵੇਲੇ ਆਪਣੀ ਮਿੱਟੀ ਬਹੁਤ ਯਾਦ ਆਉਂਦੀ ਐl”
ਹੁਣ ਬਾਪ, ਆਪਣੇ ਪੁੱਤਰ ਦੀਆਂ ਗਿਲੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਆਪਣੇ ਪਰਨੇ ਨਾਲ ਪੂੰਝ ਰਿਹਾ ਸੀl 
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समकालीन हिन्दी लघुकथा और आज का यथार्थ

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विषय और शिल्प दोनों दृष्टियों से हिन्दी लघुकथा धीरे-धीरे फैलाव ले रही है। उसके आयामों की बात करें तो रचना और समीक्षा दोनों धरातलों पर साहित्य सामने आ रहा है। अलग-अलग विषयों पर संकलन और समीक्षात्मक टिप्पणियाँ-दोनों रूपों में लघुकथा पर काम हुआ है और जारी है। लघुकथा पर आलोचनात्मक कार्य बहुत कम हुआ है, जिसके कई कारण हैं। इस दृष्टि से वरिष्ठ कथाकार माधव नागदा की लघुकथा आलोचना और समीक्षा की पुस्तक ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा और आज का यथार्थ’ का आना स्वयं में महत्त्वपूर्ण और सुखद सूचना है। एक गंभीर कलमकार होने के कारण माधव नागदा की इस पुस्तक का महत्त्व और भी बढ़ जाता है।
लघुकथा-साहित्य कैसा लिखा जा रहा है-इसे बताना आलोचक काम कार्य है। इसी दायित्व को कथाकार माधव नागदा अपने आलोचना-कर्म से ईमानदारी और गंभीरता के साथ निभा रहे हैं। इस पुस्तक में इनके समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेख, समीक्षात्मक टिप्पणियाँ और साक्षात्कार शामिल किए गए हैं। ये आलेख माधव नागदा के गहन और व्यापक अध्ययन को सत्यापित करते हैं। लघुकथा में विषय-विविधता हो या भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ हों, यथास्थिति का अतिक्रमण हो या प्रेम के आयाम हों, शिल्प हो या कि भाषा हो-सभी पर लेखक ने जमकर लिखा है। विषय संबंधी विमर्श के लिए विभिन्न आलोचकों के विचार भी दिए गए हैं। अपने मत की पुष्टि के लिए नए-पुराने लेखकों की लघुकथाओं के उदाहरण देने में उदारता से काम लिया गया है जो पुस्तक को समृद्ध और रोचक बनाता है। कविता के अंश इन्हें और संपन्न बनाने में सहयोगी हुए हैं।
इन आलेखों और समीक्षाओं में लेेेेेेेेेेेेेेेेेेखक ने लघुकथा-साहित्य पर केन्द्रित होकर कलम चलाई है जिस कारण इस पुस्तक का महत्त्व और भी बढ़ गया है। नए लघुकथा लेखकों के लिए भी यह पुस्तक लाभप्रद हैं पुस्तक के अंतिम भाग में माधव नागदा से लिए गए साक्षात्कार इनकी स्पष्ट अवधारणाओं और बेलाग बात कहने की कला के कारण नए लेखकों के लिए विशेष उपयोगी हैं।
मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस आलोचना पुस्तक का लघुकथा-जगत में सर्वत्र स्वागत होगा।
समकालीन हिन्दी लघुकथा और आज का यथार्थ: माधव नागदा, प्रकाशक: सूर्य प्रकाशन मंदिर दाऊजी रोड,बीकानेर। संस्करण: 2019 । मूल्य: 500 रु0। पृष्ठ: 192। प्ैठछ रू 978.93.87252.25.7

संवादों की छैनी से तराशी लघुकथाएँ

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साहित्यिक एक्टिविस्ट की बेजोड़ संज्ञा से जिन्हें नवाजा जा सकता है, ऐसे बलराम अग्रवाल लघुकथा रचना में बहुत दिनों से निष्ठापूर्वक संलग्न हैं। उनके संबंध में ऐसे विचार के प्रदेता श्री विश्वनाथ त्रिपाठी की इस बात से भी सहमत हुआ जा सकता है कि ‘बलराम अग्रवाल जीवन को व्यापक दृष्टि से देखने वाले लघुकथाकार हैं।’
‘तैरती हैं पत्तियाँ’ पर कोई समीक्षात्मक मन्तव्य प्रसारित करने से पूर्व प्रस्तुत लघुकथा संग्रह पर स्वयं बलराम अग्रवाल द्वारा कहे गये विचार को समझ लेना जरूरी है। उनका कहना है कि—‘तैरती हैं पत्तियाँ’ की सभी रचनाएँ हवा की हथेली या पानी के पल्लू पर उन्मुक्त भाव से तैरती जीवित रश्मियाँ और चिंगारियाँ हैं। ये पेड़ की ही नहीं, फूल की भी पत्तियाँ हैं और चाकू-छुरी का फाल कहलाने वाली लोहा-स्टील की भी। लोक की गोद में जाकर ये ही तो ‘पाती’ में भी तब्दील होती हैं; प्यार को किताब के पन्नों के बीच सूख चुके फूल-सी अमर कर जाती हैं।’ बलराम अग्रवाल के यही सब विचार ‘तैरती हैं पत्तियाँ’ में संग्रहीत लघुकथाओं का ताना-बाना बुनते नजर आते हैं।
जीवन के दो छोर होते हैं—मुलायम और कठोर। लेकिन मुलायम भी ऐसा मुलायम जो भीतरी कठोरता पर पड़ा आवरण मात्र है। आधुनिक जीवन-शैली से जो खारिज हो चुका है, वह मुलायम। सूखी पत्तियों का मर्मर स्वर अब जीवन की आकुलता बन चुका है। ये स्वर अब स्वर नहीं, जीवन की चौखट पर पढ़े जाने वाले मर्सिया बन चुके हैं। लाज-शर्म के रंगीन परदे अब इतने स्याह हो चुके हैं कि शर्मो-हया की चिंता जमाने में कहीं दिखायी नहीं पड़ती। ‘मुर्दों के महारथी’ लघुकथा में बलराम अग्रवाल ने एक संवाद पिरोया है—‘शऊर की फिक्र नहीं की, तो जनाब… मुर्दा समूचे शहर को खा जायेगा कब्र से निकलकर।’
सुई की नोंक से जैसे हथेली पर पक चुका छाला फोड़ दिया जाता है, बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं में छाले की पीव का रिसाव ‘पाकिस्तान’ शीर्षक लघुकथा में संवादों की गहमा-गहमी के मध्य से बह रहा होता है—
“पाकिस्तान किन्होंने माँगा था?”
“सियासतदारों ने।”
“वो मुसलमान नहीं थे?”
“थे, नहीं थे—मुझे क्या पता?”
“किसे पता है, फिर?”
“जिन्होंने दिया था, उन्हीं से पूछ लो।”
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के विभाजन की यही ‘पीव’ आज भी ज्यों की त्यों हैं।
लगता है, आधुनिक समय में आज का हर व्यक्ति अपना सलीब अपने ही काँधे पर ढोते हुए चल रहा है। आज हिंसा का पत्थर हर किसी के हाथ में है; कब, कहाँ सिर पर आ पड़े और काँच की देह चूर-चूर हो जाये। ‘बकरा और बादाम’ लघुकथा में बलराम अग्रवाल ने आधुनिक बोध से घिरे हालात से पस्त ऐसा ही एक संवाद गढ़ा है—अजीब ही रोग से घिर गया हूँ, सर। जिससे भी मिलता हूँ, ऐसा लगता है… उसके सींग उग आये हैं; और मैं अगर आसपास बना रहा तो पता नहीं कब, उन्हें वह मेरे पेट में घुसेड़ देगा।”
संवादों के पहरावे से ही लघुकथा की सजधज बढ़ती है यानी लघुकथा में सक्रियता पैदा हो जाती है। कुरुक्षेत्र में संवादों की बानगी ने ही ‘भगवद्गीता’ को जन्म दिया है। संवाद कभी निष्प्राण नहीं होते हैं। संवादों की अनुशासित अभिव्यंजना में ही लघुकथा के ‘प्राण’ पुलकित हुए मिलते हैं। संवादों के पार्श्व से लघुकथा का कथ्य, परिवेश, घटना, चरित्र, भाषा आदि लघुकथा के सभी आवश्यक कारक झाँकते प्रतीत होते हैं। बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं में ज्यादातर संवादों का आगमन इसी मुहावरे को पकड़कर हुआ प्रतीत होता है।
पूरा समाज मुखौटों से वासित हो चुका है। सबके चेहरे नकाब से ढके हैं। भेदाभेद का कोई सवाल ही नहीं। लेकिन जो आदमी को खँगालकर उसमें से मुखौटाविहीन इंसान निकाल दे, उसी की तलाश में बलराम अग्रवाल की अद्भुत संवादों से सुशोभित ‘हरामखोर’ लघुकथा इस अनूठे संदर्भ का दर्पण बनकर सामने आती है—
“यार, अपने उस दोस्त से मिलवा कभी…।”
“किस दोस्त से?”
“वही, जो बिना गालियाँ दिए तुझसे बात नहीं करता है।”
“क्या करोगे उस हरामखोर दोस्त से मिलकर!”
“मिन्नतें करूँगा भाई! एक दोस्त तो मुझे भी चाहिए ऐसा, जो जब भी मिले, बिना नकाब के मिले।”
संवादों के बूते लघुकथा गढ़ना बड़ा परिश्रम माँगता है। श्ब्दों की ढपली बजा-बजाकर ही संवाद नटी को कथ्य के महीन तार पर चलाना पड़ता है, तब कहीं जाकर संवादी लघुकथा का जन्म होता है। जहाँ सृजन है वहाँ पीड़ा है। यह वेदना लघुकथाकार को भुगतनी होती है, तब कहीं जाकर लघुकथा में वह ‘महाकरुणा’ पैदा होती है जिसका उत्स मानव जाति को एक सूत्र में पिरो देता है।
अस्मिता अथवा वजूद को जगाने में ही एक बड़े संवाद की जरूरत है। परतंत्रता की बेड़ियों से जकड़ी औरत जाति को मुक्त बनाने में खुद औरत को देहरी लाँघकर मैदान में आना होगा वरना औरत विषयक आजादी का सवाल निरुत्तरित ही रहेगा। लघुकथा ‘सुनो बेटियो’ में ऐसा ही अलार्म समय की घड़ी में बलराम अग्रवाल ने लगाया है
“चुप न बैठो मेरी बेटियो, ऊपर वाली उस आवाज को सुनो जो ‘औरत’ की ‘औरत’ के लिए हो। गुलामी से तुम तभी बाहर आ पाओगी, जब ‘औरत’ की आवाज सुनने और लिखने लायक खुद को बना लोगी।”
‘तैरती हैं पत्तियाँ’ संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ संवादों के बूते रची गयी हैं। ये लघुकथाएँ बलराम अग्रवाल को प्रयोगधर्मी लघुकथाकार सिद्ध करती हैं। इस संग्रह में उनकी लघुकथाएँ संवादात्मक और विचारपरक होने के बावजूद लघुकथा विधा की देहरी पर मुस्तैदी से खड़ी प्रतीत होती हैं।
बलराम अग्रवाल ‘लघुकथा आश्रम’ को जो भी देते हैं या दे रहे हैं, वह दान है, कर्ज नहीं। उनका यह साहित्यिक इन्वेस्टमेंट है, भौतिक नहीं। संवादात्मक लघुकथा गढ़ने में हिम्मत और समर्पण चाहिए जो बलराम अग्रवाल के व्यक्तित्व और कृतित्व में स्पष्टत दृष्टिगोचर होता है।
बलराम अग्रवाल का लघुकथा संग्रह ‘तैरती हैं पत्तियाँ’ गुलाब के नन्हे-नन्हेंअनेक गुलदस्तों की मानिंद हैं। उन्होंने अपनी लघुकथाओं के गुलदस्ते को एक-एक खिली-अधखिली कली को उसकी लम्बी टहनी से जटिलता के काँटे तराशकर हरी पत्तियों समेत पारदर्शी पन्नी में शंक्वाकार रूप दिया है जो देखने में संवादात्मक होकर इसके बरअक्स पढ़ने में विचारात्मक हैं।
पुस्तक : तैरती हैं पत्तियाँ; कथाकार : बलराम अग्रवाल; प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स, 1/10206, लेन नं॰ 1 ई, वेस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032; संस्करण : 2019; पृष्ठ संख्या : 160; मूल्य : रुपये 175/-(पेपरबैक)
समीक्षक : डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे, शशीपुष्प, 74 जे/ ए, स्कीम नं॰ 71, इन्दौर-452009 मोबाइल:9329581414


पुरुष

कथादेश / लघुकथा कलश/साहित्य पुरस्कार

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1-कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 2019 में पुरस्कृत लघुकथाएँ



2-लघुकथा कलश-जुलाई-दिसम्बर 19(रचना-प्रक्रिया विशेषांक)

3-ठाकुर वेदराम साहित्य पुरस्कार 2019 अशोक जैन को

गुड़गाँव जिले के वरिष्ठ साहित्यकार अशोक जैन को साहित्य के क्षेत्र में योगदान के लिए  वर्ष 2018-19 का ठाकुर वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया।  यह पुरस्कार 7 अगस्त को कुल्लू में आयोजित सामारोह में वहाँ की उपायुक्त डॉ ॠचा वर्मा द्वारा प्रदान किया गया। पुरस्कार स्वरूप 11 हज़ार रुपये स्मृति चिह्न , शॉल व प्रशस्ति-पत्र भेंट किए गए।

लघुकथा का स्वरूप

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वर्तमान समय में आम नागरिक को जीवनयापन के लिए भारी  जद्दोजहद का सामना करना पड़ रहा है। नाटक और भारी भरकम उपन्यासों से नहीं जुड़ पाने के कारणों में यह एक महत्वपूर्ण कारण है। कहानी एक ऐसी विधा है जो डेढ़ -दो हजार शब्दों में, भाग-दौड़ की दिनचर्या वाले पाठक को मानसिक संतुष्टि दे जाती है। लेकिन रोजगार के लिए ‘बस’ और ‘लोकल’ में की जानेवाली घंटों की भीड़-भरी आवाजाही, दूरदर्शन और मोबाइल जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम कहानी के पाठक को भी पत्र-पत्रिकाओं से दूर ले जाने लगे। तब क्या किया जाए! साहित्य की भूख कैसे मिटे? अस्सी के दशक में मराठी में ‘चारोळी’(चार-लाइनें) का चलन इसी भूख को मिटाने का एक प्रयास रहा। पॉकेट-साइज के सैकड़ों ‘चारोळी-संग्रह’ छपे और उन्होंने मुंबई की लोकल में सफर करनेवाले साहित्य-प्रेमी यात्रियों की जेब में अपनी जगह बना ली। हमारी ‘चार लाइना’ और ‘मुक्तक’ भी  पाठकों को साहित्य-संतुष्टि प्रदान करने का एक प्रयास है,ऐसा कहना अनुचित न होगा।

            ‘लघुकथा’ यह विधा-गत नाम भले न प्राप्त हुआ हो पर लघुकथा तब से ही विद्यमान थी ,जब से कथा या कहानी अस्तित्व में है। दादी जल्दी में हों तो  ‘कछुआ और खरगोश’ वाली कहानी  ‘लघुकथा’ (अथवा लघुकहानी)का रूप ले लेती थी और झट समाप्त हो जाया करती थी। दादी फुर्सत में हैं और मुन्ना को नींद भी नहीं आ रही है तो दादी की सर्जना- शक्ति सक्रिय होकर उसी कहानी को इतना लंबाती थी कि उसकी अगली किश्त अगले दिन सुननी पड़ती थी। विस्तार देने के लिए कछुआ और खरगोश की दौड़ में आनेवाली बाधाएं यथा; बारिश, रास्ते में पड़नेवाला दरिया, नदी, रास्ता रोककर अपना भक्ष्य बनाने को तत्पर  भेड़िया आदि -यह सब दादी की कल्पना शक्ति पर निर्भर करता था। सत्तर के दशक तक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, लंबी कहानियों की भरमार हुआ करती थीं। लघुकथा ‘कहानीकार’ या ‘तारिका’ समान किसी पत्रिका के पृष्ठ पर यदा-कदा नजर आ जाया करतीं। लेकिन अस्सी का दशक आरंभ होते ही लघुकथा ने पूरे जोशोखरोश के साथ साहित्यिक पटल पर अपना स्थान बनाना शुरू किया। अखबारों के साप्ताहिक परिशिष्ट, पत्रिकाओं के नियमित अंकों में लघुकथाएँ ‘फीलर’ के रूप में नहीं अपितु साहित्य की सम्मानित विधा के रूप में स्थान पाने लगीं। सारिका, तारिका, दीपशिखा, साहित्य निर्झर आदि पत्रिकाओं के लघुकथा-विशेषांक प्रकाशित हुए और दशक की समाप्ति तक अनेक लघुकथाकारों के संग्रह भी निकले। इस प्रकार लघुकथा ने साहित्य-जगत में अपना स्थान मुकम्मल कर लिया।

            लघुकथा के तत्त्व, उसका स्वरूप परिभाषित किया गया जिसका सार- संक्षेप यही कि लघुकथा है तो कथा ही, पर उसका स्वरूप लघु हो। उसमें कथानक को ‘कहानी’ बनानेवाला विस्तार न हो। ऊपर ‘नानी की कहानी’ में उल्लिखित बाधाएं, उनका वर्णन, पात्रों द्वारा उनका निराकरण आदि विस्तार की  गुंजायश नहीं होती लघुकथा में पर  कथानक तो होता ही है। बल्कि लघुकथा में कथानक तेजी से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है और पाठक  को एक सम्पूर्ण कहानी पढ़ने की संतुष्टि दे जाता है। अधिक स्पष्ट करना हो तो मैं यह कहना चाहूंगा कि कहानी अगर तलवार है तो लघुकथा खंजर है। खंजर में तलवार के सारे तत्त्व मौजूद होते हैं, सिवा आकार के।

 मैं पिछले पचास वर्षों  से  लघुकथाएँ पढ़ रहा हूँ ,अर्थात मेरा लेखन आरंभ नहीं हुआ था, तब से । नई पत्र-पत्रिका आयी कि सबसे पहले उसमें लघुकथा खोजता था। समयाभाव तो एक कारण था ही पर लघुकथा के प्रति आकर्षण का एक और महत्त्वपूर्ण कारण था। कम शब्दों में एक संपूर्ण रचना पढ़ने का समाधान ।

        पढ़ी हुई सैंकड़ों लघुकथाओं में से किन्हीं दो का उल्लेख करने की बात आई तो सबसे पहले याद आई, खलील जिब्रान की (सुकेश साहनी द्वारा अनूदित) लघुकथा ‘पवित्र नगर’ यह एक बेहतरीन लघुकथा है। नपे -तुले शब्दों में, पात्रों के संवाद के माध्यम से, प्रभावशाली ढंग से लेखक ने लघुकथा को अंजाम दिया है।  नोट करने लायक बात यह है कि अगला एकेक वाक्य कहानी की नई परत खोलता जाता है। शहर के सारे निवासियों के केवल एक आंख और एक हाथ थे। निवासी धर्मग्रंथों का पालन करने वाले। शहर के एक स्थान पर लगे हुए शिलालेख के अनुसार दाहिनी आँख अपराध करे तो उसे बाहर निकाल फेंको क्योंकि जीते जी सशरीर नरक झेलने से बेहतर है कि एक अंग नष्ट हो जाए। यदि दाहिना हाथ अपराध करे तो उसे काटकर अलग कर दो। सारे शहरवासियों के एक हाथ और एक आंख से वंचित होने का अर्थ है, शहर के किसी भी व्यक्ति का पवित्र न होना। बच्चे चूँकि शिलालेख को पढ़कर समझ नहीं सकते इस कारण उनकी दोनों आंखें और हाथ सलामत हैं। बच्चे अबोध होते हैं। यह भी हो सकता है कि उन्होंने कोई अपराध न किया हो ! पर यह कहने की बजाए लेखक का यह कहना कि ‘वे अभी इस शिलालेख को पढ़ और समझ नहीं सकते’ से स्पष्ट होता है कि वे भी निरपराध नहीं हैं।  कहानी के अंत में ‘मैं तुरंत ही उस पवित्र नगर से निकल भागा’, यह प्रतिपादित करने के लिए काफी है कि ऐसा कोई नहीं है जिसने अपराध न किया हो। और ऐसे लोग जहाँ  रहते हैं उस शहर को  लेखक ने नाम दिया है, ‘पवित्र नगर !’  

 दूसरी लघुकथा है, बलराम अग्रवाल की ‘नागपूजा’। यह लघुकथा मैंने आज से कोई तीस वर्ष पूर्व पढ़ी थी। मोहन अनंत सागर के संपादन में एक लघुकथा संग्रह निकला था, ‘यथार्थ’, उसमें। बलराम अग्रवाल यशस्वी लघुकथाकार तथा लघुकथा-समीक्षक हैं। लघुकथा को संपूर्ण विधा के रूप में स्थापित करने के लिए जिन रचनाकारों का योगदान रहा है, उनमें वे महत्त्वपूर्ण हैं। ‘नागपूजा’ में ‘सेक्रेटरी’ को वासना का शिकार बनाने के लिए लालायित  ‘साहब’ पर जबरदस्त कटाक्ष किया गया है। सेक्रेटरी अनूठा तरीका अपनाती है। वह क्रिश्चियन है। पड़ोस के हिंदू परिवार से उसे नागपंचमी पर नागपूजा के प्रभाव की जानकारी मिलती है। वह साहब को ग्लास भर  दूध पिलाकर कहती है, ‘आज का दिन अगर नाग दूध एक्सेप्ट कर लेता है तो साल भर के लिए उसके डसने का डेंजर खत्म हो जाता है।’ साहब ने दूध पी लिया है। ‘यू एक्सेप्टेड द मिल्क …थैंक  यू। हमको पूरा साल के लिए रोज-रोज का वरी से फ्री कर दिया।’

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पवित्र नगर

मैं यह देखकर हैरान रह गया कि नगर के सब निवासियों के केवल एक हाथ और एक आँख थी। मैंने मन ही मन में कहा, ‘पवित्र नगर के नागरिक …एक हाथ और एक  आँख वाले ?’

मैंने देखा, वे भी आश्चर्य में डूबे हुए थे और मेरे दो हाथ, दो आँखों को किसी अजूबे की तरह देखे जा रहे थे। जब वे मेरे बारे में आपस में बातचीत कर रहे थे तो मैंने पूछा, ‘‘क्या यह वही पवित्र नगर है जहाँ के निवासी धर्मग्रंथों का अक्षरश: पालन करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं?’’

उन्होंने कहा, ‘‘हाँ , यह वही शहर है।’’

मैंने पूछा, ‘‘तुम लोगों की यह दशा कैसे हुई।  तुम लोगों के दाहिने हाथ  और दाहिनी आँख को क्या हुआ?”

वे सब एक दिशा में बढ़ते हुए बोले, आओ…खुद ही देख लो।’’

वे मुझे नगर के बीचों-बीच स्थित मंदिर में ले गए, जहाँ  हाथों और आँखों का ढेर लगा हुआ था। वे कटे हुए अंग निस्तेज और सूखे हुए थे।

मैंने कहा, ‘‘किस निर्दयी ने तुम्हारे साथ ऐसा सलूक किया है?”

सुनकर वे सब आपस में फुसफुसाने लगे और उनमें से एक बूढ़े आदमी ने आगे बढ़कर कहा, ‘‘यह हमने खुद ही किया है। ईश्वर के आदेश पर ही हमने अपने भीतर की बुराइयों पर विजय पाई है।’’

वह मुझे एक ऊँचे स्थान पर ले गया। बाकी लोग भी पीछे हो लिए। वहाँ  एक शिलालेख गड़ा हुआ था, मैंने पढ़ा-

‘‘अगर तुम्हारी दाहिनी आंख अपराध करें, तो उसे बाहर निकाल फेंको; क्योंकि जीते जी सशरीर नरक झेलने से बेहतर है कि एक अंग नष्ट हो जाए। यदि तुम्हारा दाहिना हाथ अपराध करे, तो उसे तत्काल काट फेंको क्योंकि इससे पूरा शरीर नरक में नहीं जाएगा।’’

मै सब कुछ समझ गया । मैंने उनसे पूछा, क्या तुम लोगों में कोई भी ऐसा नहीं जिसके दो हाथ और दो आंखें हों?’’

वे बोले, ‘‘कोई नहीं। केवल कुछ बच्चे हैं जो अभी इस शिलालेख को पढ़ और समझ सकते हैं।’’

जब हम उस मंदिर से बाहर आ गए तो मैं तुरंत ही उस पवित्र नगर से निकल भागा; क्योंकि मैं  कोई बच्चा नहीं था और उस शिलालेख  को अच्छी तरह  पढ़ सकता था।

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नागपूजा

‘‘अ रे! ये…ये किस खुशी में भई?’’ सीट पर बैठते ही मेज पर एकदम उनके सामने सेक्रेटरी ने गर्मागर्म दूध भरा गिलास रखा तो वे आश्चर्य चकित होकर पूछ बैठे।  वे समझ गए कि उनकी बगलगीर न होने की स्थिति में उसकी जगह नई ‘सेक्रेटरी’ रख लेने की कल शाम की उनकी धमकी तेज असरदार सिद्ध हुई।

अन्य दिनों के विपरीत लड़की ने ‘मिनी- स्कर्ट’ के स्थान पर सुर्ख चौड़े बार्डरवाली लकदक सफेद साड़ी पहन रखी थी और बेहद खूबसूरत लग रही थी। नीची निगाहें करके दुग्ध-प्रस्तुति के माध्यम से काम-समर्पण के उसके सटीक संकेत को उन्होंने भाँपा और पुलककर गटा-गट सारा दूध चढ़ा गये।

‘‘हमारे पड़ोस में एक हिंदू-फैमिली रहता सर।’’ इस बीच उस क्रिश्चियन युवती ने उसकी मेज पर रोली-चावल युक्त एक प्लेट रखी और साड़ी  के पल्लू से बाकायदा अपना सिर ढांपकर अनामिका और अंगूठे की सहायता से साहब की ओर रोली के छींटे उछालती हुई बोली – ‘सवेरे उसने हमको बताया कि आज नाग- पंचमी है। आज का दिन सही प्रोसेस से नाग को पूजते और दूध पिलाते हैं, सर। यदि वह दूध को एक्सेप्ट कर लेता है तो पूरा साल उसके द्वारा डसने का ‘डेंजर’ खत्म हो जाता है।’’ तत्पश्चात वह बेहद सादगी से हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी और बोली- ‘‘यू एक्सेप्टेड द मिल्क सर, थैंक यू। पूरा साल के लिए रोज-रोज का वरी से फ्री कर दिया हमको। नेक्स्ट ईयर आपकी भरपेट सेवा करेगा हम।’’

साहब ने अपने माथे पर चू आए पसीने को पोंछने के लिए जेब से रूमाल निकाला ; लेकिन उस पवित्र लड़की की आंखों में छलक आए आँसुओं को वह देख न पाए।                

समझदार

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      कूड़ा बीनती वो बच्चियाँ अक्सर वहाँ आती, दुकानो के बाहर पड़े लिफाफे और गत्ते उठाने, कई बार झगड़ती गत्तो की हिस्सेदारी को लेकर फिर जल्द ही समझौता कर लेती, वह गाँव से आकर उस बड़ी सी दुकान में बहुत सालों से नौकर लगा था, उन बच्चियों को देखकर उसे अपनी बेटी की याद आती ,जो उनकी ही उम्र की थी। एक बच्ची तो कुछ-कुछ उसे अपनी बेटी के जैसी ही लगती, हाँलाकि उनके बोलने का लहज़ा सुनकर उसे हँसी आतीम जब वह पूछती, ” ऐंकल(अंकल) ऐ ऐंकल गत्ते है क्या?” 

“ऐ तो रोज्जे( रोज ही) ना देता” दुकानदार के बोलने से पहले ही दूसरी जवाब देती. 

 उस दिन उसने सहज ही उस लड़की से पूछ लिया,” सुन, तेरा नाम क्या है?”

लड़की ने उस की तरफ देखा, एक दम अविश्वासी -सी नज़रों से और बोली, ” कुछ नी है मेरा नाम” और तेज कदमों से आगे बढ़ गई, एक पल को वह ठिठका, फिर उसे लगा कि उसकी अपनी बेटी भी अब इतनी ही समझदार हो गई होगी कि अजनबी और अपने का अंतर कर सके एक मुस्कान उसके होठों पर फैल गई

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ग़लती

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“देखो मम्मा यह हमारा असेम्बली हॉल है।” आरव उछल-उछल कर मम्मी-पापा को अपना स्कूल दिखा रहा था। 

“मम्मा यह हमारा क्लास रूम है”

पैरेंट्स टीचर मीटिंग के चलते स्कूल में रौनक लगी हुई थी। एक बच्चे के बाद आरव का नम्बर आ गया।

औपचारिक गुड मॉर्निंग के बाद अध्यापिका ने आरव की तारीफ़ों के पुल बाँध दिए। आरव पढ़ाई में और खेलों में था भी प्रशंसा योग्य।

“जाओ आरव खेलो अपने दोस्तों के साथ” अध्यापिका ने आरव की पीठ थपथपाते हुए कहा। आरव को तो जैसे इसी बात की प्रतीक्षा थी। 

अब प्रसन्न मुद्रा में बैठी अध्यापिका के मुँह पर थोड़ा तनाव उभर आया

“क्या बात है मैम ? आरव की कोई शिकायत है?” 

“मिसेज़ सिंह ज़्यादा गम्भीर बात तो नहीं है ,पर पिछले काफी समय से देख रही हूँ कि आरव अपनी गलती पर भी कभी ‘सॉरी’ नहीं बोलता। खेलते हुए कभी किसी बच्चे को लग गई, तो बच्चे आपस में फटाफट सॉरी बोल देते हैं। आपस में कोई झगड़ा होने पर भी आरव अड़ जाता है कि उसे सॉरी नहीं बोलना है। यह बात आगे चलकर सही नहीं रहेगी इसके लिए।”

“जी मैम मैं जानती हूँ उसकी यह आदत, मैंने भी इस पर बहुत समझाया है ;पर कोई फर्क़ नहीं पड़ा। घर में भी यह कभी किसी गलती पर सॉरी नहीं बोलता।” 

“मिसेज सिंह अन्यथा मत लीजिएगा, एक बात पूछूँ?”

“जी मैम’

“क्या मिस्टर सिंह कभी आपको सॉरी बोलते हैं”- अध्यापिका ने नेहा की आँखों में झाँकते हुए कहा।

“ये तो कभी ग़लती करते ही नहीं न” नेहा कहने की कोशिश कर रही थी; पर बात कहीं उसके गले में अटक रही थी।

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