सृजन और रचनाकौशल पर ‘अपनी बात’ लिखते हुए प्रसिद्ध कथाकार रमेश बतरा याद आ रहे हैं। उनकी प्रत्येक लघुकथा आज भी मॉडल के रूप में प्रस्तुत की जाती है। लघुकथा के सन्दर्भ में उन्हें जो कहना होता था,अपनी लघुकथाओं के माध्यम से कहते थे.लघुकथा के शास्त्रीय पक्ष को लेकर लिखे गए उनके लेखों की संख्या सीमित है। लघुकथा के वर्त्तमान परिदृश्य में विषय वैविध्य और प्रयोग की दृष्टि से सुकेश साहनी ने अलग पहचान बनाई है,वह भी लघुकथा पर स्वतंत्र आलेख लिखने में कृपणता बरतते हुए अपनी बात लघुकथाओं के माध्यम से करते दिखाई देते हैं। इन परिस्थितियों में समय-समय पर उनके द्वारा व्यक्त विचार अतिमहत्त्वपूर्ण और सहेजने योग्य हो जाते हैं। इस दृष्टि से प्रस्तुत पुस्तक बहुत ही मूल्यवान् हो जाती है।
पुस्तक
में प्रस्तुत सुकेश साहनी के लेखों को मुख्यत:
4 भागों में बाँटा जा सकता है-1 लघुकथा के रचनात्मक
पहलू पर विचार और मन्तव्य 2 विभिन्न विषयों पर केन्द्रित लघुकथाओं की गुण-धर्म
के आधार पर समालोचना ,3कथादेश की वार्षिक लघुकथा प्रतिगोगिता में निर्णीत रचनाओं के माध्यम
से सृजन-प्रक्रिया और रचना कौशल पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ, 4 स्थापित कथाकारों की चुनिंदा लघुकथाओं कीगुण-दोष पर आधारित समीक्षा ।
अपनी सृजन-प्रक्रिया और सम्मेलनों में पढ़े गए
अपने आलेखों में सुकेश साहनी ने लघुकथा-विषयक अपने व्यावहारिक अनुभव और सार्थक विचार
प्रस्तुत किए, जो लघुकथा-जगत्( पुरानी और नई पीढ़ी )दोनों के लिए सदा निर्णायक और अकाट्य
सिद्ध हुए। मंचों पर इनके विचारों को गम्भीरतापूर्वक लिया गया और अपनाया गया।
विषयों
के आधारपर सम्पादित
संग्रहों में रचनाओं का चयन सुकेश साहनी का है। इनमें स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की लघुकथाएँ, महानगर
की लघुकथाएँ और देह व्यापार की लघुकथाएँ प्रमुख हैं।इन संग्रहों के अग्रलेख किसी आम पाठक से लेकर शोधार्थियोंतक के लिए बहुत ही रोचक, ज्ञानवर्धकऔर उपयोगी हैं। यह 1992-1994 का वह दौर था , जब लघुकथा उपेक्षित
थी और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही थी। अन्तर्जाल जैसे माध्यम नहीं थे। केवल प्रकाशन एकमात्र सहारा था। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संग्रहों का अवगाहन करके
साहनी जी ने विषय वैविध्य की दृष्टि से इन संग्रहों का सम्पादन करके लघुकथा की रचनात्मक शक्ति , व्यापक सामाजिक
दृष्टि और साहित्य के क्षेत्र में गम्भीर अवदान को प्रस्तुत किया। एक
ओर विषयानुरूप विभिन्न आयामी रचनाओं का चयन
और सम्पादन( निर्ममतापूर्वक) करके लघुकथा की शक्ति और व्यापकता को उजागर किया। दूसरी ओर सस्ता साहित्य
मण्डल के यान्त्रिक अनुवाद से हटकर ख़लील जिब्रान का पूरा पारायण करके उनकी कथाओं का
‘ख़लील ज़िब्रान की लघुकथाएँ’ नाम से किया गए सर्जनात्मक एवं साहित्यिक अनुवाद की प्रस्तुति
की, जिसने हिन्दी-जगत् को समृद्ध किया। कथा के सन्देश और कथारस को ग्रहण किए बिना किसी
कथा का शब्दश: अनुवाद करना यान्त्रिकता है। अच्छा अनुवाद अपने आप में एक सृजन है।इस
लेख में सुकेश साहनी ने विशेष रूप से उन लघुकथाओं का उल्लेख किया है, जो आज भी प्रासंगिक
है और जिनसे गागर में सागर भरने की तकनीक सीखी जा सकती है.
कथादेश
मासिक द्वारा आयोजित लघुकथा-प्रतियोगिताएँ लम्बी यात्रा तय कर चुकी हैं। विभिन्न निर्णायकों के साथ सुकेश साहनी भी इसके एक
निर्णायक रहे हैं। अपने दो टूक अभिमत के माध्यम से साहनी जी ने लघुकथा का जो व्यावहारिक
रूप प्रस्तुत किया है,वह सचमुच अनुकरणीय है। निर्णीत लघुकथाओं का सांगोपांग विवेचन
सृजन की बारीकियों को उजागर करता है , साथ ही उस रचना-कौशल के झरोखे भी खोलता है ,जिससे
रचना को संजीवनी मिलती है। लघुकथा के निष्पक्ष रचनाकारों ने इन लेखों में किए गए सांगोपांग
विवेचन को खूब सराहा है। सुकेश साहनी द्वारा किया गया यह विवेचन गरिष्ठ साहित्यिक विवेचन
से कोसों दूर है। इसका आधार बनी हैं अपनी कमियों और विशेषताओं से युक्त प्रतिभागियों
की रचनाएँ। बिना रचना के हवाई सिद्धान्त कभी कारगर नहीं हो सकते । शास्त्रीय सिद्धान्तों
की यही सबसे बड़ी कमज़ोरी है। रचनाओं के गुण-दोष पर गहन विश्लेषण से व्यावहारिक सृजन
के द्वार खुलते हैं। इन लेखों में प्रस्तुत
किया गया दृष्टिबोध लघुकथा के सृजन -पक्ष के साथ उसके नित्य परिवर्तित और विधा
के रचना-कौशल की सूक्ष्मता को भी रेखांकित करता है । स्पष्टतया कहूँ तो इन लेखों के
माध्यम से सुकेश साहनी ने लघुकथा जगत् में
फैली अराजकता , फ़ेसबुकिया आपा-धापी , अखबारों द्वारा रचनात्मक उपेक्षा और नासमझ रचनाकारों
के बड़बोलेपन की भी खबर ली है। रचनात्मक -मंथन
को आधार बनाकर किया गया विश्लेषण ही व्यावहारिक होता है। कोरी शास्त्रीयता से विधा
का कोई हित नहीं हो सकता।
राजेन्द्र
यादव और रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की कुछ चुनिंदा लघुकथाएँ और डॉ श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’
के संग्रह की भूमिका के रूप में आपने अपने विचार बेवाकी से प्रस्तुत किए। आपने विशेषताओं
के साथ कमियों की भी बेझिझक निशानदेही की।
जो लेखक लघुकथा को अपने लेखन की प्रिय और समर्थ विधा बनाना चाहते हैं, उनके लिए यह पुस्तक दैनन्दिन स्वाध्याय का ग्रन्थ बन सकती है।
-0-
2- सुभाष नीरव
कथाकार मित्र सुकेश साहनी मुझसे बेशक आयु में तीन वर्ष छोटे हों, पर लेखक के तौर पर मेरे अग्रज और वरिष्ठ हैं। मुझे साहनी जी की लघुकथा एँ
प्रारम्भ से प्रभावित करती रही हैं और मैं
इनकी अनेक लघुकथाओं को लघुकथा के मानक के रूप में लेता रहा हूं।
लघुकथा में बारीकी और उसकी गुणवत्ता को कैसे अपने रचनात्मक
कौशल से रचा -बुना जा सकता है, यह मैंने सुकेश साहनी की लघुकथाओं से
सीखने की कोशिश की। कुछ नाम और हैं जैसे रमेश बतरा, भगीरथ, सूर्यकांत नागर, बलराम अग्रवाल ,जिनकी लघुकथाओं ने मुझे सीखने-समझने की भरपूर
ज़मीन दी। सुकेश भाई की न केवल लघुकथाएँ , बल्कि इनकी कहानियाँ भी मुझे उद्वेलित और
प्रेरित करती रही हैं। इनके भीतर का कथाकार ‘कहानी ‘ और
‘ लघुकथा ‘ दोनों को साधने में सिद्धहस्त है। यही कारण है कि सुकेश मुझसे उम्र में
छोटे होने के बावजूद मुझसे बड़े हैं। इनकी विनम्रता का तो मैं कायल हूँ। बहुत से लघुकथा सम्मेलनों में मिलने और एक साथ
मंच साझा करने का मुझे अवसर मिला है।
इनकी नई आलोचना
पुस्तक ‘लघुकथा : सृजन और रचनु-कौशल’ कल मुझे डाक में मिली। इसमें लघुकथाओं, लघुकथा संकलनों, लघुकथा संग्रहों को लेकर और विशेषकर कथादेश की अखिल भारतीय लघुकथा
प्रतियोगिताओं को लेकर समय-समय पर लिखे आलेख संकलित किए गए हैं। ये सभी महत्त्वपूर्ण आलेख इध-उधर बिखरे हुए थे, उन्हें एक जगह एक किताब में उपलब्ध कराया
गया है, जिसे मैं ज़रूरी भी मानता हूँ।
इस किताब को हमारे प्यारे मित्र भूपाल सूद (अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली) ने छापा है। वह आज हमारे बीच नहीं हैं, पर न जाने क्यों सुकेश भाई की अयन प्रकाशन से छपकर आई इस किताब को छुआ, तो यूँ लगा जैसे भूपी भाई को छुआ हो, यह छुअन बहुत अपनी।-सी
लगी, जैसे वह जब मिलते थे, मुस्कराते हुए हाथ बढ़ाकर सीधे गले लगा लेते थे, ठीक वैसी ही आत्मीय-सी छुअन !
हार्ड बॉन्ड में 150 पेज की इस किताब की कीमत 300 रुपये है।बहरहाल, भाई सुकेश साहनी जी को दिल से बधाई।
– -0–19 सितम्बर 2019
2-रवि प्रभाकर
कल शाम थका-हारा जैसे ही घर पहुँचा तो
सुकेश साहनी कृत ‘लघुकथाः सृजन और रचना-कौशल‘ को देखकर मन प्रसन्न हो गया और सारी
थकान छूमंतर हो गई। शाम से ज्यों किताब
पढ़नी शुरू की , तो वह रात दो बजे हाथ से छूटी। लघुकथा के मौन साधक
सुकेश साहनी कई दशकों से सृजन कार्य में लगे हुए हैं। आत्मप्रशंसा और आत्म
विज्ञापन से कोसों दूर रहने वाले साहनी जी हिंदी लघुकथा उन चंद गिने-चुने विद्वानों में से हैं,
जिन्हें अभिमान छू तक नहीं गया है। लघुकथाकार व आलोचक के रूप में इनका अग्रणी
स्थान है। लघुकथा के क्रमगत विकास का जो युग आपने देखा है और जिसके निर्माण में
इनका कुछ कम हाथ नहीं कहा जा सकता, कई दृष्टि में
नितान्त महत्त्वपूर्ण है। इनकी विद्वत्ता, गंभीर
अध्ययनशीलता और विवेचन कुशलता का परिचय 150 पृष्ठों में फैली इस कृति से भली – भाँति मिल जाएगा। इस पुस्तक में 19 महत्त्वपूर्ण आलेख है , जिनके अध्ययन से कोई भी लेखक भली भांति सीख सकता है कि लेखक को अपने हृदय
की अनुभूतियों और मस्तिष्क-जन्य विचारों को शब्दों का आवरण किस प्रकार पहनाना
चाहिए और प्रकाशित करने से पूर्व उन्हें किस
प्रकार सजाना चाहिए कि वह हृदयग्राही बनकर पाठक को आकर्षित कर सकें। इन आलेखों में कथादेश
अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में निर्णायक की टिप्पणी के तौर पर रचनाओं के
गुण-दोषों पर गहन विश्लेषण है, जिनसे
बहुत कुछ सीखा जा सकता है। रामेश्वर काम्बोज जी के शब्दों ‘जो लेखक लघुकथा को
अपने लेखन की प्रिय और समर्थ विधा बनाना चाहते हैं, उनके लिए यह पुस्तक दैनन्दिन स्वाध्याय का ग्रन्थ बन सकती है।’ से पूर्ण सहमत होते हुए खासतौर पर लघुकथा
के नवीन अभ्यासियों से यह गुजारिश है कि उन्हें यह पुस्तक अवश्य
पढ़नी चाहिए। यह पुस्तक अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली,
नई दिल्ली, दूरभाषः 9818988613 से मात्र 300
रुपये में उपलब्ध है।
(हरियाणा सरकार द्वारा
रामुकमार आत्रेय जी को बाल मुकुन्द गुप्त
पुरस्कार के अवसर पर राधे श्याम भारतीय द्वारा उनसे लिया गया साक्षात्कार)
हिन्दी
साहित्य के वरिष्ठ कवि एवं कथाकार रामकुमार आत्रेय को हरियाणा साहित्य अकादमी की ओर
से बालमुकुन्द गुप्त पुरस्कार मिलने पर मैं उन्हें बधाई देने उनके घर पहुँचा। रामकुमार
कुमार आत्रेय का व्यक्तित्व जितना अनुकरणीय है, उतना ही उनका साहित्य। वे केवल साहित्य
में ही आदर्शवाद की बातें नहीं करते बल्कि वे स्वयं उनका पालन करने वाले भी हैं। आज
साहित्य क्षेत्र में जिस तरह गुटबाजी कायम है, वे उससे कोसों दूर रहे हैं। आज देश की
ऐसी कोई पत्रिका नहीं है ,जिनमें इनकी रचनाएँ ससम्मान प्रकाशित न होती हों। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय
कुरुक्षेत्र के बी.ए.प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में इनकी कविताएँ (हरियाणी बोली) में पढ़ाई जा रही हैं। प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत्त होने पर भी खुद को साक्षर मानते हैं। पिछले कई वर्षों से
इनकी नेत्रदृष्टि बिल्कुल साथ छोड़ गई है। इसके बावजूद ये साहित्यिक -साधना में रत हैं
और उसी साधना के बल पर इन्होंने हिन्दी एवं हरियाणवी भाषा में 15 पुस्तकें पाठकों
को देकर एक अनुपम कार्य किया है। अनुपम इसलिए क्योंकि जिन विकट परिस्थितियों में आम
आदमी हार मान बैठता है, ऐसे में आत्रेय जी लड़ते रहे और अपनी लेखनी से अपने मन के भावों
एवं आम आदमी की पीड़ा को शब्दों में पिरोकर समाज को एक नई राह दिखाने को प्रयासरत हैं।
आत्रेय जी मूलतः स्वयं को कवि मानते हैं। मैं समझता हूँ कि इनके मन में काव्य के उपजने
के पीछे कहीं न कहीं वेदना का प्रभाव रहा है, क्योंकि 6 वर्ष की आयु में जिनके सिर
सेे पिता का साया उठ गया हो । घर में एकमात्र पुत्र होने के कारण परिवार का सारा बोझ
जिनके कंधों पर आ पड़ा हो और आगे चलकर 30 वर्ष की अवधि में जिनकी धर्मपत्नी छोटे- छोटे
बच्चों को छोड़कर इस लौकिक संसार से विदा हो गई हो तो ऐसे में मन दुखों से भर ही जाता
है। संसार मिथ्या नजर आता है, और फिर पीड़ित मन संसार के यथार्थ की खोज में भटकने लगता।
वहीं से कल्पना लोक में विचरते मन से उपजने लगती है कविता। सुमित्रानंदन पंत की
वे काव्य पंक्तियाँ –
वियोगी
होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।
उमड़कर
आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।।
आत्रेय जी पर सटीक बैठती प्रतीत होती हैं; आइए , आत्रेय
जी के व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व से रू-ब-रू होते हैं-
राधेश्याम
भारतीय: आत्रेयजी, आपने साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा है। लिखा
ही नहीं बल्कि उस साहित्य ने हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग पहचान भी बनाई है। आप स्वयं
को मूलतः कवि मानते हैं । आपके कवि बनने के पीछे क्या कारण रहे हैं ?
रामकुमार
आत्रेय: मेरे कवि बनने में मेरी माँ की भूमिका विशेष रही है। साहित्यिक
जीवन की शुरूआती दिनों में जब मैं जे.बी.टी का कोर्स कर रहा था, तो पुण्डरी कैथल में
फौजी की एक दुकान थी। जिस पर 25 पैसे में नॉवल किराए पर मिलते थे । मैंने नॉवल किराये
पर लेने शुरू कर दिए। विष्णु प्रभाकर और रामधारी सिंह दिनकर का साहित्य पढ़ डाला। मुझे
विष्णु प्रभाकर के नाटकों में और रामधारी सिंह दिनकर की कविताएँ में बड़ा आनन्द आता था और दिनकर
की कविताओं से प्रेरित हो मेरे मन में काव्य के अंकुर फूटने लगे। वैसे ये अंकुर बचपन
में ही फूटने लगे थे । जब मेरी माँ और दादी सोते वक्त मुझे कहानियाँ सुनाया करती थी।
उनमें से अधिकतर पौराणिक संदर्भो पर आधारित होती थीं। कुछ कहानियाँ बिल्कुल कपोल -कल्पित
होती थीं। जिनमें परियाँ और राक्षसों के आश्चर्यजनक कारनामों का वर्णन होता था। परन्तु
उन सब में नैतिक मूल्यों को प्राथमिकता अवश्य दी जाती थी। बस, वहीं से मैं अपना दुख-
दर्द भूलकर दूसरों के दुख-दर्द को समझने, जूझने, थकने तथा टूटने लगा और अन्तःकरण से
फूटने लगी कविता।
रा.
भारतीय: क्या आप कवि ही बनना चाहते थे ,या साहित्य की अन्य विधाओं
में भी रूचि थी?
रा.आत्रेयः
भारतीय जी, मैं एक कवि एवं कथाकार तो बन गया पर, एक नाटककार न बन सका यह टीस मेरे मन
में रही। मुझे धर्मवीर भारती के नाटक ‘अन्धायुग’ ने इतना अधिक प्रभावित किया कि उनकी
प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। बाद में निराला जी से प्रभावित हुआ और उनकी
शैली का अनुसरण करते हुए मैं मुक्त छंद में कविता करने लगा। बस, अब तो मैं स्वयं को
कवि कहलवाना अधिक प्रसन्द करता हूँ।
रा.
भारतीय:आप साहित्य से जुड़ाव के शुरूआती दिनों के बारे कुछ बताइए
?
रा.आत्रेयः
मुझे रचना लिखने की सीख 1980 में आई। पर, मैं गाँव में रहने वाला व्यक्ति किसी वरिष्ठ
साहित्यकार के सम्पर्क में नहीं आया इसलिए परिस्थितियों से अकेला ही जूझता रहा । मैं
अपनी रचनाएँ धर्मवीर भारती की पत्रिका
‘धर्मयुग’ में भेजता रहा । रचनाएँ न छपी । इंतजार करता रहा।
एक दिन एक पत्रिका पढ़ी । उसमें लिखा था कि यदि किसी साहित्यकार को अपनी रद्द हुई रचनाओं
बारे पता करना हो तो जवाबी लिफाफा साथ में भेजें । मैंने भी ऐसा ही किया।
एक दिन धर्मवीर भारती का पत्र आया कि आपकी रचना हमें मिल
चुकी हैं , हम रचना के बारे सूचित नहीं करते और उसके बावजूद रचनाएँ भेजता रहा फिर रचनाएँ छपने लगी। मैं तो इतना ही
भेजें कि हमने साहित्य में अपना स्थान यूं ही नहीं बनाया बल्कि साहित्य की उबड़ -खाबड़
राहों से गुजरे हैं…हरियाणवी में कहूँ तो ‘‘हाम् तो वो राही सै जिनहै डल्यां म्ह
तै राह बणाई सै।’’ उसके बाद कविताएँ ‘पंजाब केसरी और ‘वीर प्रताप’में छपने लगीं।
रा.
भारतीय:- 1987 में आपका प्रथम काव्य संग्रह ‘बुझी मशालों का जुलूस
’ प्रकाशित हुआ । उसके बाद‘ बूढ़ी होती बच्ची’, ‘आंधियों के खिलाफ’, ‘रास्ता बदलता ईश्वर’
और सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह ‘ नींद में एक घरेलू स्त्री’ आदि काव्य संग्रह। आप
अपनी कविताओं के बारे कुछ बताएँ ?
रा.आत्रेयः-इन
संग्रहों में संकलित कविताएँ मेरी अपनी अनुभूतियॉँ हैं
और अनुभूतियाँ कभी असत्य नहीं होती । बचपन से ही इतनी विपदाएँ , विषमताएँ एवं कटुताएँ झेली कि मैं यथार्थ का पुजारी
होते हुए भी अपने आपको भावुकता में डूबने से बचा नहीं पाया। एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा
कि भावुकता के आवेश में चाहे मेरा मन आकाश में उड़ता रहा हो लेकिन अपने पाँवों को मैंने
कभी धरातल से ऊपर नहीं उठने दिया। इसलिए इस धरती का दर्द, धरती पर ‘धरती’बनकर जीने
वाले लोगों का दुखदर्द भी मेरा अपना ही दुख दर्द रहा है । इसी दुख दर्द को मैंने अपनी
वाणी देने का प्रयत्न किया है । मैं नहीं जानता कि मैं कहाँ तक सफल हुआ हूँ । संभवतः
एक यही कारण है कि मेरी ये कविताएँ बिना किसी आडम्बर के सीधी-सरल
भाषा में लिखी गई हैं । हो सकता हो इसीलिए इन पर सपाट-बयानी का आरोप लगाया जाए। मात्र
कला के नाम पर लिखी गई कविताओं में भाषा की जटिलता और सर्वथा अप्रचलित बिम्बों की बोझिलता
एक गुण हो सकती है, लेकिन दुख-दर्द की भाषा किसी आडम्बर की मुहताज नहीं होती। फिर मैं
तो उस कविता को कविता नहीं मानता जो पाठक को दण्ड पेलने पर भी उसकी समझ में न आए।
रा.
भारतीय:- आप लघुकथा लेखक के रूप में भी अपनी एक विशेष पहचान रखते
हैं? अभी तक आपके चार लघुकथा संग्रह- ‘इक्कीस जूते’ (1993), ‘आँखों वाले अंधे’(1999)
‘छोटी-सी बात’ (2006) और (2011) में बिन शीशों का चश्मा’ प्रकाशित हो चुके हैं। मैं
समझता हूँ कि इस विधा पर इतना कार्य हरियाणा में शायद ही किसी ने किया हो। आप लघुकथा
बारे बताइए ?
रा.आत्रेयः–
प्रथम लघुकथा संग्रह ‘इक्कीस जूते ’ हरियाणा साहित्य अकादमी के अनुदान से प्रकाशित
हुआ है। लघुकथा का स्तरीय रूप टेढ़ा काम है। जितना इसमें लाघव है उतना ही टेढ़ापन ; जिसे
साधना कठिन है। कम से कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा सार्थक बात कहना ही लघुकथा की
विशेषता है। लेकिन जब रचनाकार शब्दों से खेलने लगता है और सिर्फ कहन मानकर ही रचना
का रूप दे देता है। इससे उसकी गम्भीरता एवं सार्थकता पर आघात पहुँचता है।
इसके बावजूद हिन्दी लघुकथा पर बहुत अधिक कार्य हो रहा है।
इसके पीछे पाठकों द्वारा लघुकथा को महत्व दिया जाना है क्योंकि आज पाठक के पास लम्बे-चौड़े
उपन्यास या लम्बी कहानियाँ पढ़ने का समय नहीं है। इसलिए वे लघुकथा में ही उपन्यास और
कहानी का आस्वादन लेते हैं। आज लघुकथा के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग हो रहे हैं, जो
उत्साहवर्धक तो हैं ही, भविष्य के प्रति आश्वस्त भी करते हैं। लघुकथा एक अचूक शस्त्र
बनकर वर्तमान में व्याप्त बुराइयों पर बड़ी सार्थकता के साथ आक्रमण कर रही है। इस प्रकार
लघुकथा का भविष्य उज्ज्वल है। भविष्य में निश्चित ही एक प्रतिष्ठित विधा के रुप में
इसका अध्ययन एवं अध्यापन होगा।
रा.
भारतीय:- किसी रचना का आधार क्या होना चाहिए?
रा.आत्रेयः–
किसी रचना का आधार यथार्थ होना चाहिए । पर, उसमें कल्पना से परहेज नहीं करना चाहिए।
यथार्थ-बोध का मतलब यह नहीं है कि कैमरा उठाया और फोटो खींच लिया। यथार्थ यथार्थ लगे
इसके लिए सूत्रों के योजक से कल्पना का सहारा लिया जा सकता है। और वह कल्पना से रचना
को नीरस होने से बचाया जा सकता है।
रा.
भारतीय:- लघुकथा की शब्द संख्या बारे विद्वानों के विभिन्न मत रहे
हैं , आप इस बारे में क्या सोचते हैं?
रा.आत्रेयः–
कोई रचना शब्दों में नहीं बांधी जा सकती है क्योंकि रचना कोई गणित नहीं होती । गणित
की अपनी एक सीमा होती है । रचना संवेदना होती है; भावना होती है और भावना, संवेदना
को शब्द सीमा में बांधना उसकी आत्मा को मार देना है। लघुकथा में लघु विशेषण जुड़ा है
इसलिए इसमें शब्द सीमा संख्या कम से कम हो। और कम से कम की भी कोई सीमा नहीं हो सकती।
रा.
भारतीय– अच्छा यह बताइए ,आपकी पहली कहानी कब और किस पत्रिका में
छपी?
रा.
आत्रेय:-वैसे तो मैं कहानियाँ आठवें दशक के मध्य में ही लिखने
लगा था। लेकिन वे सभी कहानियाँ
सर्वथा काल्पनिक और भावुकता
की चाश्नी में लिपटी होती थीं। आठवें दशक के उत्तरार्ध में एक कहानी ‘टपकती जहरीली
लारें’ चंडीगढ़ से प्रकाशित होने वाली जागृति नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इस
कहानी के प्रकाशन से मुझे 50 रूपये पारिश्रमिक के रूप में प्राप्त हुए थे। परन्तु इस
कहानी को मैंने बाद में नष्ट कर दिया था क्योंकि यह भी सर्वथा काल्पनिक और भावुकता
की चाशनी में लिपटी थी।
रा.
भारतीयः– आप कहानियाँ क्यों लिखते हैं?
रा.
आत्रेय:-मेरी अपनी जिंदगी आपदाओं और असफलताओं से घिरी रही है। दुर्भाग्य
मुझे हमेशा ठुकराता रहा है इसलिए व्यक्ति के जीवन के अभाव ,उसकी असफलताएँ , उसका दर्द और संघर्ष मुझे आकर्षित करते रहे
हैं। किसी भी दुखी व्यक्ति का दर्द अपना बनाकर मैं कहानी के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाता
रहा हूं। ऐसा करने से मुझे लगता है कि मैंने किसी के दुख दर्द को बंटाकर उसे किसी हद
तक कम करने में सहायता की है।
रा.भारतीय:-
अब तक छपी कहानियों में कौनसी कहानी आपको अधिक प्रिय है। क्यों?
रा.
आत्रेय:-इस प्रश्न का उत्तर देना बहुत ही कठिन है। मेरी हर कहानी
अनुभव की गहन आंच के बीच से निकली है। कहानी लिखने के उपरांत एक लम्बे समय तक मैं उस
आंच में तपता रहा हूं। फिर भी प्रश्न का उत्तर यदि देना ही है तो मैं कहूंगा कि ‘आग,
फूल और पानी’ कहानी सर्वप्रथम हंस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। राजेन्द्र जी ने इसे
लघुकथा कहकर प्रकाशित किया था। इसी नाम से मेरा एक कथा-संग्रह ‘बोधि प्रकाशन’ जयपुर
से प्रकाशित हुआ है। वैसे‘पिलूरे’ कहानी को दैनिक भास्कर की रचना पर्व प्रतियोगिता
में तीसरा स्थान प्राप्त हुआ था। और अब तक का सबसे ज्यादा पारिश्रमिक दिलाने वाली यही
कहानी है।
रा.
भारतीय-क्या लेखन के कारण आपको व्यक्तिगत जीवन में कभी संघर्ष
का सामना करना पड़ा? कोई अविस्मरणीय घटना?
रा.आत्रेय-लेखन
की वजह से जीवन में कोई संघर्ष तो नहीं करना पड़ा। परन्तु कहानी लिखते समय मैं पात्रों
के साथ इतना अधिक जुड़ जाता हूं कि मैं टेंस हो उठता हूं। कई बार कहानी में सुधार करने
के लिए उसे बार-बार लिखना पड़ता है। ऐसे में दुखी होकर उन पात्रों से पीछा छुड़ाने के
लिए कहानी को अलविदा कहना पड़ता है। यही कारण है कि वर्ष भर में 2-3 कहानियाँ ही लिख पाता हूँ।
रा.भारतीयः-
नए कहानीकारों की कुछ उल्लेखनीय कहानियों के साथ कथाकारों के नाम भी बताइए अपनी दृष्टि
से?
रा.
आत्रेय-मैं हरवर्ष नई से नई पत्रिकाएँ पढ़ता और देखता रहता था। परन्तु
2008 में आंखों में फंगल इंफैक्शन हो जाने पर मेरी बाईं आँख को हटकार उसकी जगह नई आँख
लगाई गई। लेकिन मेरी देह ने इसे स्वीकार नहीं किया। और फलतः 6’6 देखने वाली आँख एकदम
अंधेरे में बदल गई। चिकित्सकों के अनुसार फंगल इंफैक्शन को तो निकाल दिया पर वे दृष्टि
को नहीं बचा सके। दाईं आँख में लैंस डालकर उसे धूंप-छांव देखने के लायक बनाया गया।
परिणाम यह हुआ कि मेरा पढ़ना पूरी तरह से बंद हो गया। अब मैं दूसरों की दया पर आश्रित
हूँ। थोड़ा-थोड़ा लिखने का प्रयास अवश्य करता हूं।जो कि काफी कठिनाई भरा एवं मंहगा पड़ता
है। अतः नए कहानीकारों की कहानी सिर्फ एक आध ही सुन पाता हूं। वैसे संजीव, उदय प्रकाश,
स्वदेश दीपक, राकेश वत्स और बहुत से रचनाकार है जिनकी कहानियाँ मुझे यदा-कदा कचोटती रहती
हैं।
रा.
भारतीयः– कहानियों में कथ्य और कलात्मक संतुलन की कोई सीमा तय होनी
चाहिए या कहानी कथ्य प्रधान होनी चाहिए?
रा.
आत्रेय:-कहानी बिना कथ्य के तो लिखी ही नहीं जा सकती। कथ्य होगा
तो कहानी होगी। लेखक कथ्य में जितना अधिक डूबकर लिखेगा, उतना ही कथारस उस रचना में
उत्पन्न होगा। कथारस की उत्पत्ति के साथ-साथ कलात्मकता अपने आप उसी में गुंथकर प्रकट
होती रहती है। सच कहूं तो मैं कलात्मकता के विषय में ज्यादा कुछ जानता नहीं हूं। सिर्फ
कहानी कहने की कोशिश करता हूं। जिसे कभी-कभी पाठक पसंद भी कर लेते हैं। यहाँ मैं आठवें
दशक में दैनिक पंजाब केसरी में प्रकाशित मेरी एक कहानी का जिक्र करना चाहूंगा। दुर्भाग्यवश
उस कहानी का नाम मैं स्मरण नहीं कर पा रहा हूं। लेकिन मेरी अपनी जिंदगी में पहली बार
उस कहानी पर पचास प्रशंसा पत्र प्राप्त हुए थे। एक पत्र उस समय लुधियाना शहर की महिला
नगर पार्षद का भी था। पत्र लिखते समय वह इतना रोई थी कि आंसू की बूंदें पत्र के अक्षरों
को फैला गई थी। उसका नाम तो मैं नहीं लूंगा लेकिन उसने कहा था कि यह कहानी मैंने उसकी
असली जिंदगी से चुराई है। बाद में मैंने इस कहानी को भी नष्ट कर दिया क्योंकि वह भी
भावुकता के आवेश में लिखी गई थी। कहानी की लोकप्रियता मेरे लिए कलात्मक संतुलन है।
लेकिन कहानी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होनी चाहिए।
रा.
भारतीय:- आत्रेय जी, आपने हरियाणवीं बोली में साहित्य रचा है उसके
बारे बताएँ ?
रा.आत्रेय:
हरियाणवी भाषा में एक दोहा संग्रह ‘ सच्चाई कड़वी घणी’ प्रकाशित हो चुका है। दैनिक ट्रिब्यून
में खरी खोटी के नाम एक स्तम्भ रविवार को प्रकाशित होता था जिसमें उस स्तम्भ की समाप्ति
पर स्तभ से मिलता-जुलता हरियाणवी भाषा में एक चुटकला दिया जाता था। अपनी बोली में बात
कहने का आनंद ही कुछ और है।
रा. भारतीय –
आत्रेय जी अन्य राज्यों में उनकी क्षेत्रीय भाषा में साहित्य प्रचुर मात्रा में है
परन्तु हरियाणा में इसकी कमी दिखाई पड़ती है क्यों?
रा.आत्रेयःइसका
सबसे बड़ा कारण यह है कि किसी भी सरकार ने हरियाणवीं को महत्व नहीं दिया। स्वाभाविक
बात है कि साहित्यकार भी उसी भाषा की ओर आकर्षित होते हैं जिससे सरकार महत्व देती हो।
इसे यूं भी कहा जा सकता है कि उसी भाषा में पुस्तक लिखने, छपवाने का लाभ होता है जिसे
सरकारी आश्रय मिला हो। जब तक हरियाणा पंजाब संयुक्त थे तब तक किसी भी मुख्यमंत्री ने
इस ओर ध्यान देना उचित न समझा। हरियाणा बनने के बाद अखबारों तथा सरकारी पत्रिकाओं ने
हरियाणवीं रचनाओं को सिर्फ दिखावे के लिए मामूली-सा स्थान देना शुरू किया, इसलिए हरियाणवीं
भाषा में काफी मात्रा में साहित्य नहीं रचा गया। दूसरे राज्य की बोलियाँ जिन्हें भाषा के रूप में
8वीं अनुसूची में स्थान प्राप्त है वहीं उन भाषाओं में साहित्य लिखा जा रहा है। अपनी
हरियाणवीं को भी 8वीं अनुसूची में लाने के प्रयास हो रहे है उसका असर अवश्य दिखाई पड़ेगा।
रा.
भारतीय:-आत्रेय जी, आपने बच्चों के लिए ‘ भारतीय संस्कृति की प्रेरक
कहानियाँ ‘
‘समय का मोल’ और ‘परियाँ झूठ नहीं बोलती’ और ‘ठोला
गुरू’ आदि पुस्तकें अपने बाल पाठकों को दी है। बाल साहित्य की रचना करते समय हमें किन
बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
रा.आत्रेयःः–
बाल साहित्य में रचना करते समय भाषा की सरलता, सबसे महत्वपूर्ण बात है। मतलब बच्चे
के मानसिक विकास के अनुसार भाषा का उपयोग होना चाहिए। रचनाएँ रोचक हो और इसके साथ-साथ ज्ञानवर्धक
भी होनी चाहिए। रचनाकार के द्वारा सीधे उपदेश झाड़ने की आदत से बचना चाहिए। आज कम्प्यूटर
का युग है तो लेखकों को नई-नई जानकारी के साथ बाल साहित्य की रचना में आना चाहिए।
रा.
भारतीय:- साहित्यकारों द्वारा आत्मकथा लिखी जाती रही है आप भी अपनी
आत्मकथा लिखिए न?’’
रा.आत्रेय:
अरे भाई! हम इतने बडे़ साहित्यकार नहीं हैं। अभी तो बहुत कुछ करना बाकी हैं। आत्मकथा
तो महान साहित्यकार लिखते हैं ।
रा.
भारतीय:- आत्रेय जी, आप एक प्राथमिक शिक्षक से लेकर प्रधानाचार्य
के पद पर रहकर बड़ी ही कर्तव्यनिष्ठा से अघ्यापन कार्य किया है और आपके पढ़ाएँ विद्यार्थी जो ज्यादातर उन्हीं
के गॉव (करोड़ा, जिला कैथल ) के हैं, जो उच्चपदो पर विराजमान हैं। इसके बावजूद आप खुद
को साक्षर मात्र मानते हैं। क्यों ?
रा.आत्रेयः
राधेश्याम जी , इंसान सारी उम्र सीखता है। मैं भी सीख रहा हूँ। और अन्त तक सीखता रहूँगा।
अब भला सिखने वाला खुद को शिक्षित कैसे मान सकता है। और बात पढ़ाएँ छात्रों का उच्च पदों पर सेवा
करना तो, मैंने कर्म को पूजा समझकर किया है। मैंने कभी नहीं चाहा कि दुनिया मेरे काम
की तारीफ करें। मैं निस्वार्थ भाव से अपने काम में लगा रहा। मैं समझता हूँ अब मेरे
कर्म का फल मुझे मिल रहा है क्योंकि जब मेरा पढ़ाया कोई विद्यार्थी मेरे पास आकर कहता
है कि गु रुजी मैं इस पद पर कार्य कर रहा हूँ तो आत्मिक सुख का अनुभव होता है। मैं
तो इतना ही कहूँगा कि हर शिक्षक को मन लगाकर पढ़ाना चाहिए ,क्योंकि उनके पढ़ाएँ विद्यार्थी ही देश के सच्चे
नागरिक बनेंगे, वे राष्ट्र का नाम रोशन करेंगे और उनका भीे। एक शिक्षक के लिए यही सबसें
बड़ा पुरस्कार होगा।
रा.
भारतीयः– आप साहित्य से जुड़े रहे हैं ,कोई ऐसी साहित्यिक घटना जो
आपकों बार-बार याद आती हो ?
रा.आत्रेयःः-‘‘
नहीं, ऐसी तो कोई खास नहीं पर, एक बार अपनी नासमझी कहँू या अप्रत्याशित होने के कारण
यादगार बनी। मेरी एक कविता ‘मुफ्त में ठगी’ ‘अक्षरपर्व’ पत्रिका में प्रकाशित हुई ।
वह कविता केरल में पढ़ी गई । उस कविता में क्या ताकत थी कि एस.सी. ई. आर.टी की तत्कालीन
निर्देशिका ने उस कविता को पढ़ा, समझा और दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में प्रकाशित करने
की अनुमति चाही। लेखक तो चाहता यही है कि उसकी रचना का आस्वाद अधिक से अधिक पाठक ले
और मैंने अनुमति प्रदान कर दी। महीने भर में ही उनका फोन आया कि आप फाइव थाउजैंड़ की
पावती रसीद भेजे। मैने कहा, मैडम मैं पॉच सौ रूपये की रसीद भेज देता हूँ। उन्होंने
पुनः कहा, पाँच सौ की नहीं; फाइव थाउजैंड यानी पॉच हजार की। यह सुनकर एक बार तो मुझे
विश्वास ही नहीं हुआ कि मेरी एक रचना के पॉच हजार मिल रहे हैं पर विश्वास करना पड़ा।
यह घटना मुझे अक्सर याद आ जाती है……..’’
रा.
भारतीय: आपकी नेत्रदृष्टि आपका साथ छोड़ गई हैं ऐसे में आपका लेखन
कार्य कैसे चलता है ?
रा.आत्रेयः
नेत्रदृष्टि जाने के बाद लेखन कार्य में बड़ी बाधा आती है। जब मेरे मन काव्य संबंधी
विचार उमड़ते हैं तो मैं कागज पर टेढे़-मेढे़ रूप में लिख लेता हूँ और बाद में अपने
पोते विकास से उन्हें लेखनीबद्ध करा लेता हूँ।
रा.
भारतीय:- नव लेखकों के लिए कोई संदेश ?
रा.आत्रेयः- वे अधिक से अधिक पढ़े और निरन्तर लिखते जाए।
साहित्यकार बनने का कोई शॉर्टकट नहीं है। साहित्य साधना की मांग करता है। और जो साधना
करते हैं वे जीवन में अवश्य सफल होते हैं।
10 नवम्बर 2015 को अचानक एक फोन आया-“हैलो, डॉ॰ अशोक कुमार जी बोल रहे हैं ?“ “जी हाँ, नमस्कार आप…….।”
“मैं रामकुमार आत्रेय बोल रहा हूँ,
कुरुक्षेत्र से। आपका दीपावली वाला पत्र मिला। आपने अपने भाव-विचार बहुत ही सुंदर ढ़ंग से लिखे हैं।”
“जी,
बहुत-बहुत आभार! आप और आपका परिवार सब कैसे है ?”
डॉ अशोक बैरागी और आत्रेय जी
“जी, अशोक जी, सब अच्छे हैं। आपको, आपके परिवार को और सभी मित्रों को दीपावली की शुभकामनाएँ।”
“जी, धन्यवाद सर आपको भी हार्दिक शुभकामनाएँ।”
“हाँ, अशोक कुमार जी तुमने मिलने का समय माँगा है। कभी भी फोन करके आ जाओ। मैं अक्सर घर पर ही रहता हूँ।”
“जी,
बहुत-बहुत धन्यवाद। प्रणाम करता हूँ।”
“खुश रहो, भगवान सब भला करें।”
“ये थी रामकुमार आत्रेय जी से पहली बातचीत।” जैसे ही फोन कटा मन खुशी से नाच उठा कि आज एक और साहित्यकार से संवाद हुआ और मिलने का सुअवसर भी। यहीं से बातों-मुलाकातों का सिलसिला निकल पड़ा।
25 दिसम्बर
2015 को मिलने की अनुमति माँगी तो उन्होंने सहर्ष स्वीकृति दे दी। साथ ही कौन-सी गाड़ी कब चलेगी और कब तक कुरुक्षेत्र पहुँचेगी ,यह सब बड़ी सहजता से समझाया और हिदायत दी कि यूनिवर्सिटी के तीसरे गेट पर उतर कर मुझे फोन कर लेना। मैं आपको वहीं मिल जाऊँगा। अगले दिन मैं तय समय पर रेलगाड़ी द्वारा कुरुक्षेत्र स्टेशन से ऑटो रिक्शा लेकर यूनिवर्सिटी के तीसरे गेट-बस स्टॉप पर पहुँच गया। मेरे मन में अब तरह-तरह के प्रश्न, जिज्ञासाएँ और कुछ आशंकाएँ भी निरन्तर उठ-बैठ रही थी। न जाने कैसा व्यक्ति होगा ? कैसे मेरे प्रश्नों के उत्तर देगा ? कहीं मुझसे ही कोई ऐसा अप्रत्याशित प्रश्न ही न पूछ ले
? कहीं ज्यादा गुस्सैल या बौद्धिक हुआ तो………?
मैं वहाँ से गुजरने वाले रोबदार और कुलीन से हर आदमी में रामकुमार आत्रेय को ढ़ूँढ़ रहा था। अगले ही क्षण मन के बनी उनकी छवि से मिलान करता, पीछे हट जाता और पास से गुजरने वाला वह आदमी आगे निकल जाता। पर मैं, दृढ़ निश्चय के साथ अपने पथ पर उनकी राह में खड़ा था। कुछ ही देर में सामने एक लम्बे -चौड़े और तगड़े-से बुजुर्ग को देखा ,जो धीरे-धीरे कदमों को जँचा- जँचाकर टेकते और हाथों में पोस्ट करने के लिए सफेद लिफाफा पकड़े हुए आ रहे थे। मन कहने लगा ,हों न हों यहीं रामकुमार आत्रेय जी हैं। तुरन्त उनकी तरफ बढ़कर चरण स्पर्श करके प्रणाम किया। “खुश रहो, भगवान भला करे।…….अरे! पहचान लिया ?”
“जी,
बिल्कुल पहचान लिया।”
“आज ठण्ड भी ज्यादा है, आने में कोई मुश्किल तो नहीं हुई। चलो पहले, यूनिवर्सिटी के पोस्ट ऑफिस चलते हैं। वहां कुछ काम है फिर घर चलेंगे।”
आत्रेय जी सरल होकर खुलते चले गए सारी औपचारिकताएँ ढ़ह गई। मैंने थोड़ा सकुचाते हुए से उनकी आँखों की रोशनी के बारे में जानना चाहा ,तो वे बिल्कुल अपने जानकार की तरह बताने लगे – “भाई शुरू में मैंने सन्
1963 में जे.बी.टी.
(प्राथमिक अध्यापक) के रूप में ज्वॉइन किया। ज्वॉइनिंग से पूर्व मेडिकल जांच अधिकारी ने अयोग्य घोषित कर दिया। फिर में बड़े अधिकारी से मिला। उसने कहा कि कोई बात नहीं यहाँ
तो एक आँख वाला भी पढ़ा सकता है। फिर तुम्हें तो जरा-सी दिक्कत है और फिर रिटायरमैंट तक सब ठीक रहा।” आत्रेय जी बोलते-बोलते रुक गए और एक लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा,
“अशोक भाई, यही मेरे जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना रही है। मैं आँखों की इस परेशानी को जीवन का
‘काला अध्याय’ मानता हूँ। सन्
82-83 में मैं हरियाणा-दिल्ली की सामूहिक काव्य गोष्ठी में आमंत्रित था। वहाँ बड़े हाल में टीवी पर सीधा प्रसारण चल रहा था,
जो रोशनी सीधी आँखों पर गिर रही थी वो बहुत तेज थी। मुझे वहाँ बहुत परेशानी हुई। कविता -पाठ करते समय मेरा एक हाथ बार-बार आँखों से गिरते पानी को पोंछ रहा था। वहीं से मेरी आँखें खराब हुई। बाद में एक आँख तो बिल्कुल ही निकलवानी पड़ी। सुधा जैन, जो एक साहित्यकार थी उनके पति आँखों के विशेषज्ञ थे। उन्होंने बहुत प्रयास किया। लेकिन रोशनी दिन-प्रतिदिन घटती चली गई। फिर दो-तीन महीने एम्स में रहा। वहाँ डॉ॰ जैन के परिचित डॉक्टर थे। उन्होंने 15-16 ऑपरेशन किए। आखिर उन्होंने “फंगल इन्फेक्शन” घोषित करके जवाब दे दिया कि आपकी इस प्रॉब्लम का इलाज अमेरिका में भी नहीं है। अब एक आँख मे केवल 15 प्रतिशत रोशनी बची है। यहीं-कहीं जाता हूँ तो पोते विकास को लेकर जाता हूँ। कहीं बाहर जाना होता है तो राधेश्याम भारतीय जो मेरे मित्र हैं , वे मेरे
साथ जाते है।”
आत्रेय जी ने बड़ी विनम्रता से मेरे बारे में, माता-पिता, खेती-बाड़ी, नौकरी के बारे में बहुत सी बातें पूछी और फिर अपनी ही लय में बताने लगे, “अशोक भाई, मेरे पिताजी बचपन में ही गुजर गए थे। माँ ने ही मुझे पाल पोसकर इस लायक बनाया। मेरी माँ बड़ी धार्मिक और दयालु थी। घर के कुत्ते-बिल्ली की रक्षा के लिए रातों जागती थी,
बाहर के अन्य कुत्तों से बचाने के लिए। मेरी माँ जातिप्रथा में विश्वास तो करती थी ; लेकिन भी फिर निम्न समझे जाने वालों को कुर्सी-पीढ़ा देकर बैठाती थी। उन्हें चाय आदि खाने-पीने का सामान भी देती थी। हाँ, फिर उन बर्तनों को आग से निकालना नहीं भूलती। पर, उनके प्रति भेदभाव या दुर्व्यवहार को कतई सहन नहीं करती थी। जब आकाशवाणी से मेरा कविता पाठ प्रसारित होता था ,तब मेरी माँ बहुत खुश होती और गली में रेडियो लेकर बैठ जाती थी। अपनी पड़ोसिनों-साथिनों को गर्व से बताती थी कि देखो, मेरा बेटा रेडियों में बोल रहा है।” (हँसते-हँसते बात पूरी की।) रास्ते चलते-चलते वे विभिन्न विभागों और कैन्टीन के विषयों में भी बताते रहें। मैंने जब उनकी पत्नी के बारे में पूछा तो गंभीर होकर बताने लगे कि पत्नी से भी सहयोग मिलता था पर वे शादी के 13-14 सालों में ही गुजर गयी। सन् 1962 में मेरी शादी हुई थी। वे भी सीधी-सादी अनपढ़ थी और मेरी माँ से उनकी पटरी नहीं बैठती थी। घर के कलेश से मुझे बड़ा ही आघात होता था। पहले उन्हें टीबी हो गई फिर टाइफाइड होने से चल बसी। काफी इलाज के बाद भी बच न सकी। वास्तव में मेरे जीवन में एक रागात्मक लय न पहले बन पाई न ही बाद में।”
तब तक पोस्ट ऑफिस आ गया था। आत्रेय जी ने कुछ पैसे निकाले, दो चिट्ठियाँ पोस्ट की और आजकल पत्रिका का
‘प्रवासी विशेषांक’ प्राप्त करके हम वापिस घर की ओर चल पड़े। उन्होंने इशारे से कहा,
“वहाँ चाय की दुकान खुली होगी ,आपको चाय पिलाते हैं। सुबह के चले हुए हो।”
मेरी इच्छा भी थी। मैंने कहा-“ठीक है सर चलो।” मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा, “भाई,
चाय के साथ क्या लोगे ब्रेड़, समोसा या फिर बिस्किट ?” मैंने कहा-“सर,
कुछ नहीं। मैं खाना साथ लाया हूँ।” फिर चाय वाले को कहा-“भाई जी दो चाय और एक बढ़िया- सा
बिस्किट दे देना।” चाय के पैसे उन्होंने ही चुकाए। चलते हुए रास्ते में उन्होंने बताया -मैंने प्राथमिक अध्यापक के रूप में ज्वॉइन किया था लेकिन अध्यापकों की कमी होने के कारण मुझे बड़ी क्लासों में हिन्दी पढ़ानी पड़ी। मैंने कई वर्ष करहंस मनाना (समालखा, जिला पानीपत) में भी पढ़ाया फिर फतेहपुर-पुण्डरी में पढ़ाया। मैं बी.एड नहीं करना चाहता था ;लेकिन मेरे मित्र ने आग्रहपूर्वक हिमाचल यूनिवर्सिटी से फार्म लाकर मुझे दे दिया। जैसे ही मैंने बी. एड़.
किया मुझे प्रमोशन मिल गया। मैं प्रिंसिपल के पद तक पहुँचा और वहीं से रिटायर हुआ।” फिर वे अचानक रुककर कहने लगे-“यह राणा आटा चक्की है। इसकी पहचान कर लो। यहाँ आकर किसी से भी पूछ लो।” राणा आटा चक्की से मुड़ते ही थोड़ी दूरी पर घर आ गया। फिर उसी गर्मजोशी से स्वागत किया, चाय बनवाई और खाना बनवाया। अपने पुत्र पवन व उनकी पत्नी को बुलाकर परिचय कराया, अपने पोते विकास से मिलवाया और बताया कि मेरे अधिकतर कार्य विकास के सहारे ही होते हैं।
थोड़े रुककर-“अशोक जी,
आप नाम के साथ क्या लिखते हो
?”
“जी,
हमारा गौत्र तो मलिक है पर मैं सीधा नाम अशोक कुमार ही लिखता हूँ।”
“देखो! अशोक कुमार नाम से लिखने वाले बहुत से लोग मिलेंगे। उस भीड़ में अपने आप को कैसे ढूँढ़ोगे ? वैसे तो साहित्यकार का काम ही उसकी पहचान होता है यह तो सही परन्तु नाम भी तो एकदम पहचान वाला होना चाहिए। आप ‘अशोक बैरागी’ के नाम से लिखा करो। मैं तुम्हें यह नया नाम देता हूँ।”
“सर, मैं यह जातिसूचक शब्द साथ लेकर घूमना नहीं चाहता।”
“अरे!
हिन्दी साहित्य के कितने बड़े कवि है बालकवि बैरागी जी वो भी तो
‘बैरागी’ लिखते हैं। यह जातिसूचक नहीं तुम्हारा विशेषण है। अब तुम ऐसा ही लिखा करो और लो मेरे फोन में भी इसी नाम से अपना नम्बर सेव कर दो। अगर मैं आत्रेय नहीं लिखता तो बैरागी ही लिखता। यह मुझे अच्छा लगता है। ठीक है,
आज से तुम
‘अशोक बैरागी’ हो गए।” तब से मैं इसी नाम से लेखन-सृजन करने लगा। मैंने जो भी प्रश्न उनसे पूछे उन्हें बहुत सरलता व सौम्यता से मुझे बताए नहीं बल्कि समझाए थे। समाज का विभिन्न जातियों से बंटकर आपसी रंजिश रखना और झगड़ा करना, महिलाओं के साथ भेदभाव व अत्याचार का होना, साहित्य का विभिन्न विमर्शों में बंटना, सहिष्णुता के मुद्दे पर पुरस्कार लौटाना, हिन्दी भाषा और लोकसाहित्य की उपेक्षा करना आदि विषयों को लेकर आत्रेय जी गंभीर थे और मानसिक पीड़ा से गुजरते थे।
साक्षात्कार हो जाने के बाद बड़े ही स्नेह से खाना खाने का आग्रह किया। हम दोनों एक ही जगह बैठ गए। मैंने अपने बैग से दही और मेथी के पराँठे निकाले तब तक विकास हमारे लिए रोटी, मटर-पनीर, आचार और लस्सी के गिलास ले आया। उस समय लगभग डाँटते हुए ही कहा -“यहाँ आओं तो कभी खाना लेकर मत आना।” मैंने मेथी के पराँठे और दही उन्हें खिलाई। खाते हुए कहने लगे-“गाँव के खाने की सुगंध और स्वाद कुछ अलग ही होता है।” वे सब्जी-रोटी-लस्सी के लिए बार-बार आग्रह कर रहे थे। उनके इस आतिथेय से मन तृप्त और हृदय गद्गद् हो गया। उनके आग्रह में औपचारिकता नहीं बल्कि आत्मीयता और अपनेपन का भाव संचित था।
खाना खाकर हम बाहर धूप में बैठ गए और उन्होंने पूछा-“कोई रचना लाए हो तो सुनाओ। उसके विषय में चर्चा करेंगे।” तब मैंने उन्हें ‘पास-फेल’,
‘गुलाबी कार्ड’ और
‘हंस’
पत्रिका में प्रकाशित ‘अपने-अपने धर्म’ लघुकथाएँ सुनाई। कुछ देर चुप रहे। फिर…….“तुमने लिखी तो अच्छी हैं ;पर तीनों रचनाओं में
‘मैं’
उपस्थित है। यानी
हर रचना में
‘मैं’
को ही रखने से रचना का स्तर गिरता है और वे आत्मकथा जैसी हो जाती हैं। ’मैं’
की जगह किसी चरित्र को नाम देकर खड़ा कर दो। जैसे विनोद, राम आदि। कोई भी हो सकता है। शब्द-
चयन घटना व पात्र के अनुकूल और सरल होना चाहिए। बात स्वयं न कहकर अगर कहानी का पात्र उसे कहे तो कहानी ज्यादा रोचक बनती है। हर घटना लघुकथा नहीं होती, लघुकथा बनती है साहित्यकार के तराशे हुए शब्दों और भाव-संवेदन के संयोजन से।” मैं जब भी उनसे मिलने गया या फोन पर लम्बी बातचीत हुई। हर बार मेरी रचनाओं पर बात होती थी। वे उन्हें सुनते थे। मेरी अनेक लघुकथाओं और कविताओं को उन्होंने नए सिरे से लिखवाया, उनकी वाक्य- संरचना
ठीक करवाई और शीर्षक सुझाए। उन्होंने कभी भी रचना सुनने से मना नहीं किया, न ही कभी टाल-मटोल की और न ही औपचारिकता बरती बल्कि आग्रहपूर्वक सुनते थे। आत्रेय जी पूरी तन्मयता से रचना सुनते, आवश्यक सुझाव देते और अच्छी रचना की खूब प्रशंसा भी करते थे। एक बार जब मैंने उनके कहानी संग्रह-‘अनोखा घुड़सवार’ की समीक्षा की और वह ‘बालवाटिका’ में छपकर आई तो बहुत खुश होकर बोले, “बैरागी जी,
तुम्हारी समीक्षा से यह बात तो स्पष्ट होती है कि तुमने पुस्तक गहनता से पढ़ी है और इतनी बारीकी से चीजों को खोजना बहुत कम लोग कर पाते हैं।”
उनकी प्रेरणा और मार्गदर्शन से मन-मयूर गर्व और प्रसन्नता से नाच उठा। एक बार जब मैं जम्मू-कश्मीर साहित्य अकादमी में गया,
तो वहां आत्रेय जी ने अपने मित्र नरेश कुमार ‘उदास’ को मेरी सहायता के लिए तैयार किया। जब मेरा तबादला असंध (करनाल) नए स्कूल में हुआ तो वहां अपनी जान-पहचान के लोगों से सम्पर्क सधवाया। मतलब, कह नहीं सकता कितनी बार उन्होंने मेरी मदद की होगी। वे अकसर कहा करते थे कि-“अच्छा लिखने के लिए बड़े लेखकों को खूब अच्छी तरह पढ़ना चाहिए।”
किसी भी कार्यक्रम मे आत्रेय जी की उपस्थिति घर के किसी अपने बड़े और आत्मीय संरक्षक जैसी महसूस होती थी। वे जिनसे रिश्ता बना लेते थे उसे अंत तक निभाते थे। हर तरह का सहयोग, सहायता और मार्गदर्शन देने को तत्पर रहते थे। हर नए काम या कार्यक्रम को पूछते थे फिर बड़े ही उपयोगी और सरल सुझाव या उपाय भी बताते थे। मैंने गोहाना में एक प्लॉट लिया, तब
कहने लगें “बैरागी जी, इसमें मकान की नींव मैं रखूँगा और अगर बेचने का विचार बने तो कुरुक्षेत्र में किसी परिचित से पूछकर अच्छी जगह प्लॉट दिलवा दूँगा।” लेकिन मेरा दुर्भाग्य, ऐसा
नहीं हो पाया। हर 15-20 दिन में फोन पर बात होती रहती थी। अधिक दिन होने पर कहते, “क्यों बैरागी जी, नाराज हो क्या?” उनका पहला वाक्य होता था “हैलो…हाँ….कौन?
और फिर नमस्ते होते ही पहचान जाते थे, सरल हो जाते थे। कई बार फोन पर नम्बर दिखाई न देने की पीड़ा भी व्यक्त करते थे। आत्रेय जी ने एक बात बड़ी सुन्दर मुझे समझाई कि जहां सब लोग लाइन में खड़े हों,
तो मुझे भी अपने ही नम्बर पर खड़ा होना अच्छा लगता है। कवि-कथाकार के रूप में मुझे अतिरिक्त सुविधा की कामना नहीं है। लेकिन लाइन में खड़ा होने पर भी मेरा हक नहीं मिलता तो मुझे दर्द होता है तब मैं एक मानसिक यंत्रणा से गुजरता हूँ।”
मैंनें एक प्रश्न उनकी रचनाओं के विषय में पूछा तो कहने लगें-“बैरागी जी,
शुरू में मैंने छंदोबद्ध लिखना शुरु किया था; लेकिन मैं अधिक लय नहीं बना पाता था। अतः मैंने शीघ्र ही मुक्तछंद में लिखना शुरु कर दिया। वास्तव में मेरी जिंदगी में कभी रागात्मक लय पहले भी नहीं थी और अब भी नहीं है।” आत्रेय जी लोक से जुड़े कथाकार थे। साधारण लोगों के सम्पर्क में रहना, अपनी लोकभाषा से जुड़े रहना, लोकसाहित्य पर लिखना-पढ़ना उन्हें बड़ा अच्छा लगता था। उन्हें स्वयं को गाँव का ‘गंवार’ कहलाना अच्छा लगता था। वे कहते थे कि-“गँवार ग्रामीण का ही पर्यायवाची है और मैं स्वयं का गँवार ही मानता हूँ।” हीर-रांझा और सोहणी-महिवाल जैसी लोककथाएँ और पंडित लखमीचंद, बाजे
भगत,
मांगेराम जैसे लोकगायक उनके प्राणों में बसते थे। वे इस बात को लेकर बड़े चिंतित होते थे कि आधुनिक पीढ़ी लोकभाषा और साहित्य को उपेक्षा की दृष्टि से देखती है उनके लिए गाँव गँवारों का स्थान हैं। इस लोकसाहित्य व परम्परा को नष्ट करने में इलैक्ट्रोनिक मीड़िया ने भी कसर नहीं छोड़ी, जब तक लोकभाषा और साहित्य का प्रचार-प्रसार नहीं होगा तो नई पीढ़ी अपने गाँव कैसे थे,
पूर्वज कैसे थे,
क्या थे, उनकी भाषा, संस्कृति, परम्पराओं और साहित्य को कैसे जानेगी ? हमारी सभ्यता, संस्कृति, हमारी जीवनशैली हमारे संस्कारों का जीवंत प्रमाण है। इनसे कटना अपनी जड़ों से कटने जैसा है।” बतरस और उनके स्नेह आशीर्वाद से सरोबार होकर जब चलने लगा तो ‘नींद में एक घरेलू स्त्री’ कविता संग्रह और ’आग,
फूल और पानी’ कहानी संग्रह मुझे आशीर्वाद सहित भेंट किए।
आत्रेय जी सीधे-सादे, सरल स्वभाव के एक ग्रामीण साहित्यकार थे। वे हर प्रकार के दिखावे, छल, प्रपंच और तिकड़मबाजी से हमेशा दूर रहे,
परिश्रम करना और सच बोलना उन्हें प्रिय था। मैंने उनसे पूछा-“आत्रेय जी,
सफलता का रहस्य क्या है
?” तब उन्होंने कहा-“बैरागी जी, सफलता के मायने सभी के लिए अलग-अलग होते हैं फिर भी परिश्रम और ईमानादारी के अलावा आज के युग में तकनीकी ज्ञान और व्यवहार कुशलता से ही सफलता मिलती है। वैसे सफलता का कोई ‘शार्टकट’ नहीं होता। अगर आपने ईमानदारी से परिश्रम किया है तो परिश्रम का फल आपको जरूर मिलेगा। थोड़ी बहुत देर भले ही हो जाए।”
आत्रेय जी का पत्रकारिता से सीधा जुड़ाव भले ही न रहा हो,
फिर भी वे एक पत्रकार की तरह सजग और अति संवेदनशील मानव थे। वे अपने आसपास की प्रत्येक गतिविधि पर नजर रखते थे। ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में ‘खरी-खोटी’ कॉलम इसका जीवंत प्रमाण है। ट्रिब्यून के संपादक श्री सहगल जी को
‘खरी-खोटी’ कॉलम शुरू
करने का सुझाव आत्रेय जी ने ही दिया था और लगातार तीन वर्षों तक इसको सफलतापूर्वक चलाना आत्रेय जी का ही कौशल और सजगता थी। इस कॉलम में साहित्य, संस्कृति, भाषा, समाज, धर्म और राजनीति लेकर बड़ी सटीक और सार्थक टिप्पणी की जाती थी। इनकी उपेक्षा या अव्यवस्था को लेकर आत्रेय जी बड़ी गंभीरता से विचार करते थे। कई बार यह टिप्पणी तीखी एवं व्यंग्यात्मक होती थी। लेख के अंत में आने वाले चुटकला सारी कटुता और व्यंग्य में हास्य रस घोल देता था। सच पूछिये तो,
मेरा आत्रेय जी से मिलने और संबंध होने का मूल कारण उनका ‘खरी-खोटी’ कॉलम का आकर्षण ही था। उन्हीं को पढ़कर मेरे मन में आत्रेय जी से मिलने और उनको जानने की तीव्र इच्छा हुई थी।
आत्रेय जी का प्रारम्भिक जीवन भले ही गरीबी में बीता हो,
लेकिन खाने-पीने के ही लाले पड़े हो ऐसा भी नहीं था। उन्होंने अपने स्वाभिमान को कभी आहत नहीं होने दिया। जब कौशल जी ‘ट्रिब्यून’ के संपादक बने ,तो आत्रेय जी को उनके व्यवहार से लगा कि वे उनके लेख को उचित महत्त्व नहीं दे रहे हैं , तो उन्होंने
कॉलम लिखना ही बंद कर दिया और फिर कौशल जी सहित अनेक मित्रों के आग्रह करने पर भी नहीं लिखा। वे हमेशा सच्ची बात कहने वाले सामाजिक साहित्यकार थे। घर-परिवार और गाँव गवांड के आदमी उन्हें पंचायती तौर पर फैसले करवाने और सलाह मशविरा के लिए बुलाकर ले जाते थे।
29 सितम्बर 2019 को आदरणीय आत्रेय जी का हम सब के बीच से चले जाना बहुत ही पीड़ादायक है। आज के इस आपाधापी, भागमभाग और स्वार्थ भरे दौर में आखिर आत्रेय जी जैसे सुलझे हुए सामाजिक, मार्गदर्शक, स्नेही और निच्छल हृदयी आखिर हैं ही कितने। संघर्षों और पीड़ाओं की भट्टी में तपकर ही आत्रेय जी कुन्दन बने थे। सरलता, सौम्यता, सादगी, परिश्रम, सत्यवादी और सरल हृदयी आत्रेयी जी भुलाए नहीं भूलते। वे मेरे जैसे न जाने कितने नौसीखिये बंधुओं के लिए प्रेरणापुंज रहे होंगे।
कई बार ऐसा लगता था कि उनके भीतर बहुत कुछ अभी शेष है,
जो भीतर ही भीतर तच रहा है,
पक रहा है,
खदबदा
रहा है,
जिसे वे कह नहीं पाए। वह बाहर आना चाह रहा था। कारण उनके जीवन का आँखों की रोशनी वाला ‘काला अध्याय’। परवश होने और स्वयं को असहाय होने की पीड़ा को भी व्यक्त करते थे। जीवन के जिन ऊबड़-खाबड़ रास्तों से वे निकलकर आए थे इतना आसान नहीं था। उनके लिए यहां तक पहुँचना। कई बार फोन पर बात होती तो कहते थे-“बैरागी जी, करने को तो मेरे पास अनेक काम हैं पर क्या करूँ परमात्मा ने मेरी आँखों की रोशनी छीन ली। मुझे असमर्थ और परवश बना दिया है।” अगर वे और जीवित रहते व आँखें भी ठीक रहती तो वे और भी बहुत सारा कह-लिख पाते जो उनके अंदर उमड़-घुमड़ रहा था;
लेकिन जीवन के कृष्णपक्ष ने कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। मेरे जीवन में आत्रेय जी के साहित्य की सुवास और स्मृतियों में वे स्वयं बने रहेंगे और मैं हमेशा उनका कृत्तज्ञ रहूँगा। सादर नमन।
-0-डॉ.अशोक बैरागी,हिन्दी प्राध्यापक,राजकीय कन्या उच्च विद्यालय, हाबड़ी (कैथल) हरियाणा
Shyam Sunder Aggarwal बड़े भाई जैसे थे आत्रेय जी। उनके अचानक
चले जाने से बहुत धक्का लगा है। उन्हें कभी नहीं भुलाया जा सकता। सादर नमन। विनम्र
श्रद्धांजलि!
Rameshwar Kamboj Himanshu बहुत दु;खद समाचार । आत्रेय जी बहुत ही
विनम्र, वरिष्ठ होते हुए भी सबको प्रोत्साहित करने वाले, पढ़ी गई हर अच्छी रचना पर फोन
करके लेखकों का मनोबल बढ़ाने वाले साहित्यकार । मेरी पहली भेंट रायपुर के लघुकथा सम्मेलन
में हुई थी। तब से लगातार मिलते रहे। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित स्वर्ण
जयन्ती समारोह में लघुकथा -सत्र की 18 मार्च 2017 को अध्यक्षता भी की थी, जिसमें श्री
सुकेश साहनी जी मुख्य वक्ता थे। सभा-कक्ष भरा हुआ था। उसके बाद निदेशक कुमुद बंसल जी
द्वारा आयोजित अकादमी के अन्य कार्यक्रमों में भी मिलना हुआ। ऐसे उदार व्यक्ति मिलना
कठिन हैं। मेरे प्रति उनका स्नेह -भाव बहुत गहरा था। उनका जाना साहित्य की बहुत बड़ी
क्षति है। प्रभु उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे और परिवार को यह असह्य दु;ख सहन करने
की शक्ति प्रदान करे ।
Sukesh Sahni बड़े भाई जैसा,सच्चा, सहृदय साहित्यकार मित्र चला गया। इस रिक्तता को भर
पाना मुश्किल। दूरभाष पर लम्बी साहित्य चर्चा होती थी। वे अपनी बेबाक़ प्रतिक्रिया
देते थे। राधे श्याम भारतीय और अरुण कुमार के साथ मैं भी विमर्श में शामिल रहता था।अभी
तो आपको बहुत काम करना था उन्हें। नमन!!
Satish Raj Pushkarna Wo jitne achche Laghukathakar the utne hi
shreshth vyakti the.Unki punya smrition ko pranam!
Mukesh Sharma दुखद समाचार।आत्रेय
जी का जाना लघुकथा जगत की बड़ी क्षति है
Ashok Jain ओह दुखद समाचार । ईश्वर दिवंगत आत्मा को अपने चरणों में स्थान दें । अभी
तो घरौंडा मिले थे 14 तारीख़ को! उफ्फ़
Kumud Bansal ये अचानक कैसे हुआ । लगभग 20 दिन पहले ही आत्रेय जी खूब लंबी बात हुई थी
।साहित्य जगत की बहुत बड़ी क्षति है । श्रीहरि उन्हें निज श्रीचरणों में स्थान दें ।उनसे
सदैव बड़े भाई का स्नेह मिला ।
Balram Agarwal अत्यंत दुखद। दो दिन पहले ही उनसे लम्बी बातचीत हुई थी। आज सुबह ही कथादेश
संपादक हरिनारायण जी को किसी संदर्भ में उनकी लघुकथा ‘इक्कीस जूते’ सुनाई थी।
ईश्वर उनकी पवित्र आत्मा को शान्ति प्रदान करे। ॐ शांति।
Ashok Bhatia बहुत दुखद खबर है।सरल,निश्छल,बड़े भाई समान श्री आत्रेय से पांच-छः
दिन पहले ही बात हुई थी।सर पर चोट ही शायद ले गई उनको।लघुकथा
के लिए बड़ी क्षति है।अक्सर हम गोष्ठियों में इकट्ठे ही जाते थे।कभी
अकेला निकल जाऊं,तो बड़े अपनेपन से शिकायत करते थे।हरदम हंसमुख।आँखें नहीं रही थीं,पर वे तो थे।मेरे
लिए श्री आत्रेय का जाना बहुत बड़ी व्यक्तिगत क्षति भी है।विनम्र
श्रद्धांजलि।
Dipak Mashal राम कुमार आत्रेय
जी की लघुकथाओं से सबसे पहले लघुकथा.कॉम पर मुख़ातिब हुआ था। लगभग तभी से उनकी लघुकथाओं
से प्रभावित था और बहुत कुछ सीखा भी। उनके इस तरह अचानक जाने
से उत्पन्न निर्वात को भरना बहुत मुश्किल है।
Martin John बेहद ग़मगीन खबर । माह भर पहले उनसे खूब लंबी बातचीत हुई थी । जब कभी मेरी
प्रकाशित लघुकथाओं /रेखाचित्रों वाली पत्रिका मुझसे पहले पहुँच जाती तो फौरन ख़बर कर
देते थे । सचमुच उनका इस तरह कूच कर जाना ग़मगीन कर गया । सशक्त और समर्थ लघुकथाकार
हमने खो दिया । नमन ।
Yograj Prabhakar बेहद दुखद समाचार
है। विश्वास नहीं हो रहा। अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
दुलीचंद कालीरमन ॐ शांति । बच्चों जैसा सरल ह्रदय और उच्च मानव मूल्यों व रचनाधर्मिता के
पक्षधर का यूँ चले जाना साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति है
Kastoorilal Tagra शत-शत नमन । मेरा उनसे केवल एक बार रु ब रु मिलना
हुआ । वह ” प्रेरणा -अंशु ” मासिक पत्रिका के लघुकथा प्रतियोगिता में
पुरस्कृत हुए थे । उस सन्दर्भ में उन्होंने
उत्तराखंड के दिनेशपुर कस्बे में आकर लघुकथा पर अपने विचार रखे थे । जिनसे मैं बहुत
प्रभावित हुआ था । आप ( राधेश्याम भारतीय जी ) भी उनके साथ आये थे ।
उसके बाद निरंतर उनसे मोबाइल पर संपर्क बना रहा ।
बड़े साहित्यकार होते हुए भी वह सदैव विनम्र बने रहे । वह सच और सरल
व्यक्तित्व के स्वामी थे । मेरे एक संरक्षक और मित्र का जाना
, जहां साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति है , वहीँ उनका जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति है
। ॐ शान्ति … शान्ति… शान्ति ।
Sheel Kaushik अत्यंत दुखद समाचार।स्तब्ध हूँ। कुछ दिन पहले ही घरौंडा ( करनाल) में मिले
थे। सदैव हँसते व आशीर्वचन लुटाते थे हम पति-पत्नी पर। क्या कहें नियति पर बस नहीं
। विनम्र श्रद्धांजलि उनके चरणों में अर्पित करती हूँ।
Umesh Mahadoshi अत्यंत दुखद। बेहद सहज – सरल व्यक्तित्व थे आदरणीय आत्रेय जी। दो -तीन दिन
पूर्व ही भाई नरेश उदास जी के साथ बातचीत में पता चला था कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं
चल रहा। ईश्वर उन्हें अपने श्रीचरणों में स्थान दें।
Shashi Bhushan Badoni बहुत दुखद खबर। मेरा उनसे लगभग गत 15-20
वर्षों से अत्यंत आत्मीय मित्रता थी।मुझे उनकी इधर की अश्वस्था की खबर नहीं हुई,।आज
अचानक यह पढ़कर मै बहुत दुःखी महसूस कर रहा हूँ। मुझे अपने ऊपर यह ग्लानि भी हो रही
है, कि मैने बहुत दिनों से उन्हें फोन भी नहीं किया था…! ईश्वर उनके परिवार को इस
दुख को सहने की क्षमता प्रदान करे।विनम्र श्रद्धांजलि !!
Niraj Sharma वरिष्ठ लघुकथाकार आ. रामकुमार आत्रेय जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
उनकी लघुकथा इक्कीस जूते भ्रष्ट व्यवस्था को बखूबी उजागर करती है।उनसे
कई कार्यक्रमों के दौरान मुलाकात हुई। वे सब बातें याद आ रही हैं
Bhagirath Parihar वरिष्ठ लघुकथाकार रामकुमार आत्रेय जी को विनम्र श्रद्धांजलि
बादशाह ने ढिंढोरा पिटवाया कि उसने अपने पूरे राज्य में
ऐसे अवसर उत्पन्न कर दिए हैं कि अब किसी भी व्यक्ति को भूखा नहीं रहना पडे़गा…..पूरा
राष्ट्र खुशहाल हो चुका है…यदि कोई व्यक्ति अब भी भूखा रह गया हो ,तो उसके दरबार
में हाजिर हो जाए, ताकि उसके भूखा रह जाने का कारण जानकर इसके लिए उतरदायी राजकीय कर्मचारी
को दंड दिया जा सके। ढिंढोरा पिटवाकर बादशाह निश्चिन्त हो गया था कि कोई भी भूखा व्यक्ति
उसके समक्ष उपस्थित नहीं होगा और उसकी कीर्ति दशों-दिशाओं में फैल जाएगी। लेकिन बादशाह के इस सुखद स्वप्न को तोड़ता
हुआ एक मरियल -सा व्यक्ति उसके सामने हाथ जोड़े उपस्थित हो गया।
“तुम भूखे हो?’’बादशाह ने गुर्राते हुए पूछा।
“जी मालिक।’’
गिड़गिड़ाहट
भरा स्वर था उस व्यक्ति का।
“क्यों….क्यों? आखिर क्यों ? आग की तरह भड़क उठे थे बादशाह।
“मेरी ईमानदारी के कारण ,भगवन!’’ व्यक्ति ने गर्व के साथ
बादशाह से आँखें मिलाते हुए कहा।
उसे आशा थी कि बादशाह प्रसन्न होकर उसकी पीठ थपथपाएँगे और
पुरस्कार देंगे।
“क्या तुमने मेरे कर्मचारियों को तथा दूसरे लोगों को बेईमानी
करते हुए नहीं देखा था? क्या तुमने उन्हें अपनी बेईमानी के कारण पुरस्कृत होते नहीं
देखा था?’’अगला प्रश्न था बादशाह का।
“हाँ, सरकार,देखा था।’’
“क्या तुम्हें किसी ने बेईमानी करने से रोका था।?’’
“नहीं ,प्रभु ,नहीं।’’
“तो फिर भी बेईमानी करके तूने अपना पेट क्यों नहीं भरा?’’
“मैं अपने सिद्धांतों पर अडिग रहना चाहता हूँ स्वामी।’’
“बहुत अच्छा। फिर तो भूखा रहने के उतरदायी तुम स्वयं हो।’’
फिर अपने मंत्री की ओर उन्मुख होते हुए उसने आदेश दिया-‘‘इस व्यक्ति को इक्कीस जूते
लगाए जाएँ,जोकि
ईमानदारी व सिद्धांतों जैसी गली -सड़ी चीजों से खुद को चिपकाए हुए है।’’
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2-शिकायत
मोहन
जी कुर्सी पर आराम की मुद्रा में पसरे हुए थे। ऐसा होने पर भी उनकी आँखें दरवाजे पर टिकी थीं। दरवाजा
बंद था। हालांकि जाली की राह से दूर तक देखा जा सकता था। बाहर से आने वाले व्यक्ति
को इस तथ्य का ज्ञान नहीं होता था कि भीतर बैठा कोई व्यक्ति उसकी गतिविधि पर नजर रखे
हुए है। तभी मोहन जी को एक साइकिल वाला व्यक्ति अपनी ओर आता दिखाई दिया। व्यक्ति ने
अपनी साइकिल वहाँ खड़ी की। उसने हैंडल पर टंगा एक पुराना-सा थैला उतारा और दरवाजे की
ओर बढ़ा।
मोहन
जी किसी चुस्त-दुरूस्त व्यक्ति की तरह सावधान होकर कुर्सी पर बैठ गए। झट से लैंडलाइन फोन का चोंगा उठाकर कान से लगाते
हुए वे तेज आवाज में बोले-‘‘ चड्ढा साहब,मैंने
कहा न अगले हफ्ते के पहले दिन जो आपकी पेशी है,यह आखिरी है। अगली पेशी पर आप बरी होंगे,
इज्ज्त के साथ बरी, समझ गए न?अब मेरा माथा न खाइए।’’ ऐसा कहते हुए उन्होंने फोन काट
दिया।
साइकिल
वाला व्यक्ति ने अंदर घुसते-घुसते मोहन जी को यह सब कहते हुए सुना। मोहन जी ने उसे
दफ्तर में घुसते हुए देखकर, मेज के दूसरी ओर रखी कुर्सी पर बैठने का संकेत करते हुए
फोन के की बोर्ड पर तेजी से अँगुलियाँ घुमाई। कुछ क्षणों के उपरांत बोले- ‘‘शर्मा जी,
आपको याद दिला रहा हूँ, कल ही आपकी पेशी है। मेरा मुंशी किसी काम से ट्रेज़री तक गया
है नहीं तो वही तुमसे बातें करता। समय पर पहुँच जाना, समझे?’’
मोहन जी
ने फिर से फोन को काट दिया। और अगला नम्बर मिलाने लगे। तभी साइकिल वाले व्यक्ति ने
उन्हें बीच में टोकते हुए कहना चाहा -‘‘ साहब
जी आपने…..।’’
मोहन जी
ने हाथ के इशारे से उसे चुप रहने के लिए कहते हुए फोन में कहना शुरू किया-‘‘ गुप्ता
जी, जब आपका फोन आया यहाँ दो-तीन पार्टियाँ बैठी हुई थीं। वे लोग जिद
कर रहे थे कि मैं ही, उनका मुकदमा लड़ूँ। इसलिए मैं उनकी बात मना नहीं कर सका। अब भी
एक क्लाइंट मेरे सामने बैठा है। आपसे बाद में बात करता हूँ । पहले इस गरीब की बात सुन लूँ। फिर टाइम
ही टाइम है। आप कह रहे थे कि आप खुशी से मेरा सार्वजनिक सम्मान करना करना चाहते है
,तो वह भी हो जाएगा…।’’
साइकिल
वाला व्यक्ति ज्यादा इंतजार नहीं कर सका। वह उठते हुए बोला-‘‘ साहब जी, आपने शिकायत
दर्ज करवाई थी कि आपका फोन खराब है ;लेकिन मैं देख रहा हूँ कि यह तो बिल्कुल ठीक-ठाक
है। दस मिनट से आपने मुझे यहाँ
बिठा
रखा है। मुझे दूसरी जगह भी जाना है। आपसे अनुरोध है कि आगे से आप झूठी शिकायत दर्ज
न कराया करें। आप वकील होते हुए भी ऐसा करते हैं अच्छी बात नहीं।’’
साइकिल
वाला व्यक्ति बुड़बुड़ाता हुआ बाहर निकल गया। वकील के हाथ में थमा चोंगा तो बिल्कुल बेजान
था। वह चाहकर भी यह नहीं कह पा रहा था कि वास्तव में उसका फोन खराब है!
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3-कसूर
ऋषिकेश में गंगा का तट। एक निर्जन -सा स्थान। वहाँ खड़ी
थी एक बहुत ही सुन्दर युवती। गोरी- चिट्टी। इतनी गोरी-चिट्टी इतनी सुन्दर कि कोई देख
ले तो ,बस, देखता ही रह जाए। उसने अपना बैग कंधे से उतारा। उसमें उसने अपना पर्स रखा।और
फिर बैग को नीचे जमीन पर रख दिया। पर्स में कुरुक्षेत्र से वहाँ तक
पहुँचने का बस टिकट भी था और थे एक हजार के लगभग रुपये। सरकारी सेवा में दर्शाने वाला
उसका परिचय पत्र। इसके उपरांत हाथ ऊपर उठाकर माँ गंगा को प्रणाम किया। और फिर स्वयं को
उसके हवाले कर दिया। गंगा निगल गई उसे। मगर कसूर गंगा का नहीं था। दूर खड़े एक अपरिचित व्यक्ति ने उस युवती
को गंगा की लहरों में समाते देख कर पुलिस को फोन कर दिया।
पुलिस वहाँ
पहुँच गई। युवती का बैग उठाकर देखा। पर्स में
अन्य चीजों के इलावा एक स्लिप भी मिली। उस पर मोती जैसे अक्षरों में लिखा था-‘‘ तुम
मेरे पति हो। तुम्हारा कहना है कि तुम मुझसे प्राणों से भी अधिक प्यार करते हो। अवसर
मिलते ही, चाहे दिन हो अथवा रात ,मेरी देह से जोंक की तरह चिमट जाते हो। देह को पसीने
से और चेहरे को थूक से लथपथ कर देते हो। विरोध
करती हूँ ,तो मारने को दौड़ते हो। पर
मारते कभी नहीं…..। आखिर में रोने लगते हो। मैं तुम्हारा रोना नहीं देख सकती । इसलिए
नहीं कि तुमसे प्यार है, बल्कि इसलिए कि रोता
हुआ पुरुष बदसूरत लगता है। इतना बदसूरत की उससे घृणा होने लगती है। शादीशुदा दूसरी
महिलाओं से उनके पति के विषय में पूछती हूँ ,तो
वे भी यही कहानी दुहराती हैं। कुछ एक का कहना है कि उन्हें यह सब अच्छा लगता है । लगता
होगा । पर मुझे नहीं लगता। मैं मर रही हूँ ।
लगता है तुम पुरुष लोग ‘प्यार’ का वास्तविक अर्थ जानते ही नहीं। कसूर मेरा ही है कि
मैंने ……।
पुलिस के जिस व्यक्ति ने यह स्लिप पढ़ी थी ,उसके चेहरे पर
अचानक पसीना उभर आया। उसने तुरन्त अपना मोबाइल जेब से बाहर निकाला और पत्नी को फोन
मिलाते हुए काँपते स्वर में पूछा-‘‘ प्रिया जी, आप ठीक तो हैं न?’’
-0-
4-छुट्टी
बेटा बाइक उठाकर बाहर जाने लगा तो बूढे़ पिता ने टोका ।
अच्छा होता ड्यूटी पर बस से जाते । बाइक की अपेक्षा बस से यात्रा करना ज्यादा सुरक्षित
होता है ।
“आज मैंने
छुट्टी ले रखी है पिता जी, डयूटी पर नहीं जा रहा मैं ।’’ पुत्र
ने पीछे की ओर मुँह घुमा कर उत्तर दिया था । रेहड़ी मार्किट से कुछ खरीद कर ला रहा हूँ
अभी ।
“कमाल की
बात है, तीन दिन पहले सोमवार को जब मैंने तुम्हें छुट्टी लेने के लिए कहा था तो तुमने
बताया था कि दो हफ्तों तक कोई सी.एल. नहीं ले सकेगा । सर्लुकलर आया हुआ है । फिर आज
अचानक छुट्टी कैसे मिल गई? मुझे तो फॉलोअप चैकिंग के लिए अकेले ही जाना पड़ा था ।’’
कहते-कहते पिता हाँफने लगे थे ।
“मेरा आफिसर
बड़ा सख्त है, पिता जी । लेकिन मैं भी उसका बाप हूँ । अभी जब मैंने फोन किया तो डाँटते
हुए कहने लगा कि तुरन्त डयूटी पर आओ । मैंने उसे जवाब दिया कि पिता जी को चण्डीगढ़ ले
जा रहा हूँ । रात में इन्हें फिर से छाती में दर्द होना लगा था । चण्डीगढ़ पहुँचने ही
वाला हूँ । बस, फिर तो रबड़ की तरह मुलायम हो गया साला । बोला कोई बात नहीं, पिता जी का इलाज ठीक से करवाना ।’’
बेटे नें
गर्व भरी हँसी के साथ उत्तर देते हुए बाइक स्टार्ट की और बाहर निकलने लगा।
“रुको,
ऐसा क्या जरूरी काम आ पड़ा कि तुम्हें इतना बड़ा झूठ बोलनी पड़ा ?“ पिता ने न चाहते हुए भी पूछ
ही लिया ।
“पिता जी,
आपकी बहू की बहन अभी-अभी अपने मायके आई है । आपकी बहू चाहती है कि आज मै उसको साथ लेकर
वहाँ मिल आऊँ । मैं मना नहीं कर सका ।’’
बेटे ने
पीछे मुड़कर यह नहीं देखा कि उसकी बात सुनते ही पिता का हाथ अचानक अपनी छाती पर चला
गया है और काँपते कदमों के साथ दूर पड़ी कुर्सी पर बैठने का प्रयास कर रहा है ।
-0-
5-
पूर्णिमा का चाँद
बहुत तनाव
में चल रहा था वह उन दिनों । पत्नी किसी न किसी बात को लेकर ज़िद पर उतर आती । प्यार
से समझाने-बुझाने के सारे तरीके बेकार साबित हो चुके थे । इसलिए इस बार पत्नी के द्वारा
ज़िद किए जाने पर उसने दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह उसकी जिद को पूरा नहीं होने देगा ।
मारपीट, गाली-गलौच करना उसकी आदत में शामिल नहीं था । इसलिए उसने तय कर लिया कि वह
तब तक भोजन नहीं करेगा जब तक पत्नी अपनी जिद पर अड़ी रहेगी।
दो दिन
हो गए थे उसे आज भोजन किए । भूख की वजह से एक आध बार उसका निश्चय अवश्य डोला पर स्वयं
को समझा-बुझाकर वह अपने निर्णय पर अटल रहने में सफल हो गया था हालाँकि पत्नी के व्यवहार
को लेकर उसका तनाव कम होने की अपेक्षा बढ़ता ही जा रहा था । दिन में आज उसने अपनी बीमे
की किस्त जमा करवाई थी । लेकिन वहाँ से मिलने वाली रसीद उसे नहीं मिल पा रही थी । न
जानें कहाँ रखकर भूल गया था वह । जेब में रखे सारे कागज बाहर निकाल लिये उसने। एक-एक
करके देखने लगा था उन्हें ।
इस बार
हाथ में आई कागज की एक कतरन देखकर वह चौंका । कतरन पर बेटी ने अपने हाथ से लिखा था
– “पापा, मैं दो दिन से भूखी हूँ । जब तक आप भोजन नहीं करेंगे, मैं तब तक पानी नहीं
पियूँगी!”
दिल पर
एक धक्का-सा लगा । वही धक्का बिजली के करंट की तरह सिर से पाँव तक सनसनाता हुआ निकल
गया । बेटी का कुम्हलाया चेहरा तथा बीमारों जैसी उसकी चाल उसे याद हो आई । तनाव के
कारण ही वह यह सब नोट नहीं कर पाया था । लेकिन यह स्लिप उसकी जेब में कब रखी उसने
? प्रश्न उसके दिमाग में अपना सिर उठा चुका था । उसे याद आया कि जब वह बेटी को स्कूल
से लिवाने गया था ,तो वह मरियल सी चाल चलते हुए उसके समीप आई थी । मन ही मन उसकी धीमी
चाल को देखकर वह चिढ़ भी गया था । पर डांट पिलाने से उसने स्वयं को किसी तरह रोक लिया
था । बेटी ने पीछे बैठते हुए उसके कंधे पर हाथ रखा था । उसका वह हाथ तब जेब तक भी गया
था । तभी उसने यह स्लिप उसकी जेब में रखी होगी । उसकी प्यारी बेटी, उसकी वजह से दो
दिन से भूखी ही नहीं प्यासी भी है, धिक्कार है उसको ! ऐसा सोचता हुआ वह दौड़ता-सा बेटी
के पास आया ।
बेटी किसी
मुर्दे की तरह निश्चेष्ट बैड पर पड़ी थी । उसकी आँखें बंद थी । उसकी मम्मी उसके समीप
बैठी सलाइयों पर अँगुलियाँ चला
रही थी । उसने बेटी के माथे पर हाथ रखते हुए बड़े प्यार से कहा -“बेटी, मुझे माफ कर
दे । मेरी वजह से तुम दो दिन से भूखी-प्यासी हो । उठो, तुम्हारे लिए बाजार से तुम्हारी
मन पसंद खाने की चीज ले आऊँगा। दोनों साथ मिल कर खाएँगे ।’’
बेटी उठ
बैठी । पापा का हाथ अपने अपने दोनों हाथों के बीच में लेकर उसे प्यार से सहलाते हुए
बोली- “पापा, साथ में मम्मी भी खाएँगी । इनके लिए भी कुछ ले आना ।’’
“तुम्हारी
मम्मी तो अपना पेट रोज भर रही है । किचन में बर्तनों की उठा पटक हर रोज होती है । इन्हें
न तुम्हारी चिन्ता है और न ही मेरी ।’’
उसने
कटु स्वर में उत्तर दिया ।
“नहीं पापा,
ऐसा नहीं है । जिस दिन आपने इनकी जिद तोड़ने के लिए भोजन न करने की बात कही थी, सिर्फ
उसी दिन सुबह ही इन्होंने नाश्ता किया था । जब इनके कहने पर मैंने खाने-पीने से मना
कर दिया तो इन्होंने भी कुछ न खाने का निश्चय कर लिया था और कहा था कि मैं भी तभी कुछ
खाऊँगी जब तू खाएगी ।’’
बेटी
ने बडी मासूमियत से मुस्कुराते हुए उत्तर दिया ।
पत्नी बैड
से नीचे उतर कर उसके सामने खड़ी थी । उसे लगा कि उसके और पत्नी के बीच लड़ाई-झगड़े की
जो अंधियारी रात अमावस बन कर फैली हुई थी उसमें अचानक उनकी बेटी की मुस्कुराहट पूर्णिमा
का चाँद बन।कर रोशनी बिखेर रही है ।
-0-
6-आखिरी
इच्छा
माँ कई
दिनों से बीमार चल रही थी। वैद्य-हकीमों की दवाइयाँ बेअसर
सिद्ध हो रही थी। जिस भी चिकित्सक के पास जाने की सलाह दी जाती, मैं उन्हें वहीं ले
जाता। उनके लिए मैंने पैसे की कभी परवाह नहीं की। धीरे-धीरे वे इतनी कमजोर हो गई कि
उनका उठना-बैठना भी बंद हो गया। वे चारपाई पर ही रहने लगी।
मैं उन्हें
बीच-बीच में बैठा देता। वे मेरा सहारा लेकर बैठी रहती। चाय-पानी, दवाई, उन्हें इसी
तरह दी जाती। सुबह शाम वे हाथ में माला थाम लेती। राम-नाम का जाप करती।
एक दिन राम-नाम के जाप के पश्चात वे सामने दीवार पर टँगे
माता जानकी सहित भगवान राम के चित्र के सामने हाथ जोड़े कुछ बुदबुदाती रही। ऐसा बहुत
देर तक चला।
मैंने वातावरण को हल्का करने के लिए माँ से मजाक के लहजे में कहा-‘‘ माँ आपने भगवान से मेरे लिए तो बहुत कुछ मांगा,वह
मिला भी। अब आज अपने लिए भी कुछ माँग लो,कोई अच्छी सी चीज।’’
“बेटा रे, मैं तो आज भी तुम्हारे लिए ही कुछ माँग रही थी।
तुम्हें जो मिला, आगे भी मिलेगा, वह सब मेरे लिए ही तो है रे। खुद अपने लिये तो मैंने
कभी कुछ नहीं माँगा रे।’’ उन्होंने ऐसा कहते हुए अपना दायाँ हाथ
मेरे सिर पर रख दिया था।
मैं चौंका। तुरन्त पूछ लिया। ‘‘अब मेरे लिये क्या माँग रही
थी माँ आप?
मेरे पास तो सब कुछ है।’’ मैंने अपने सिर पर रखा हाथ अपने हाथ में लेकर उसकी बूढ़ी अँगुलियों पर अपने होंठों को रखते हुए पूछा।
“बेटा, अब सावन (श्रावण) मास के आखिरी दिन चल रहे हैं ।मैं
चाहती हूँ कि मेरी मौत भादवे भाद्रपदमास(भाद्रपदमास)
में हो…….।’’
“माँ ,जिस दिन तुम अपने प्राण त्यागोगी, वह
मेरे लिए प्रलय का दिन होगा ऐसा बुरा मत बोल । माँ मैं जानता हूँ , मरना तो सभी को है। श्रावण में मरो या
भादवे में मरो, कोई फर्क नहीं पड़ता माँ ।’’ ऐसा कहते कहते रो पड़ा था मैं
“फर्क पड़ता है, रे बेटा, पड़ता है फर्क।’’
“क्या फर्क पड़ता है, बताओ तो सही।’’
“भादवे के बाद आसुज अश्विन का महीना आता है रे। उसके बाद
कार्तिक। आसुज कार्तिक में पानी ठंडा होने लगता है। मैं मरूँगी तो तुम्हें क्रिया-कर्म
करवाने के लिए चौदह पन्द्रह दिनों तक ठंडे पानी में नहाना पड़ेगा । तू हठि है..जरूर
ठंडे पानी में नहाएगा। इसलिए भगवान से प्रार्थना की है कि मुझे भादवे मास तक ही उठा
ले। यही मेरी आखिरी इच्छा है रे बेटा……। ’’ माँ कहते -कहते हाँफने लगी थी।
——
माँ की मौत, सचमुच मे ही राधा अष्टमी के दिन भाद्रपद मास
में हुई।
15 सितम्बर 2019 की शाम, राधेश्याम भारतीय, घरौंडा ने सूचित किया कि रामकुमार आत्रेय जी को बीती रात एक कार वाला चोट मार गया है और वह सरकारी अस्पताल में दाखिल हैं।
तुरत-फुरत
में मैं गाड़ी उठाकर अस्पताल की तरफ चल दिया।
मन यह सोच-सोचकर परेशान हुआ जा रहा था कि कल रात साढ़े दस बजे के करीब तो मैंने
उन्हें ब्रह्मसरोवर के दक्षिणी कोने पर उनके पोते, विकास के सुपुर्द किया था। अगर यह पता होता कि अगले चौक पर एक दुर्घटना उनका
इंतजार कर रही है तो मैं उन्हें आजादनगर ही न छोड़ आता। पर इससे पहले भी लम्बी यात्रा के उपरान्त, लौटते
हुए, मैं उन्हें रास्ते में तालाब के इसी कोने पर छोड़ता आया हूँ। जहाँ से मैं वापिस अपने सेक्टर की तरफ मुड़ जाता
और वे अपने पोते के साथ अपने घर, आजादनगर चले जाते।……
आत्रेय जी और अरुण कुमार
अस्पताल
पहुँचकर उन्हें बैड पर बैठे, बतियाते पाया ,तो मन ही मन परमात्मा को धन्यवाद दिया।
आत्रेय जी ने बताया कि रात अस्पताल के सामने वाले चौक पर मुड़ते हुए राँग साइड से एक
कार वाला आ रहा था, जो मोटर साइकिल के अगले पहिये में टक्कर मार गया। मैं सड़क पर गिरकर बेहोश हो गए। विकास को भी थोड़ी बहुत खरोंचें आईं, बाकी वह ठीक
है। विकास ही अन्य लोगों की मदद से अस्पताल
में ले आया था। प्राथमिक उपचार के पश्चात अस्पताल
प्रशासन ने छुट्टी दे दी। पर अरुण जी…. आज
चक्कर बहुत आ रहे थे जिसकी वजह से दोबारा अस्पताल आ गया। इन्होंने एडमिट कर लिया है। ग्लूकोज़ लगा रखा है ..इंजैक्शन भी लगाए हैं….
अब कहते हैं सीटी-स्कैन होगा…!
दो
दिन बाद जब दोबारा मिलने गया तो कहने लगे -‘‘अरुण जी! कमजोरी महसूस करता हूँ तथा चक्कर
कम नहीं हो रहे हैं। सीटी-स्कैन में भी कुछ
नहीं आया है। सब नॉर्मल है।’’ … मुझे तो
भय था कि आत्रेय जी सिर के बल जमीन पर गिरे थे।
कहीं सिर में कोई खून का थक्का न जम गया हो। जो कि खतरनाक हो सकता था। …मैंने फिर मन ही मन परमात्मा का शुक्र अदा किया
कि सब कुछ ठीक-ठाक है।
20
को मैं और राधेश्याम जी मिलने गए। कहने लगे..
‘‘सारा पिण्डा दर्द करता है। चक्कर भी बन्द
नहीं हुए हैं। डॉक्टर एम.आर.आई. करवाने के
लिए कह रहे हैं।’’…चिन्ता की लकीरें मेरे और राधेश्याम के मस्तक पर भी खिंच आयीं
थीं।
25
को मिलने गया। वह घर आ गए थे। बैठे थे।
बेचैन थे। पहले की अपेक्षा कमजोर-से
लगे मुझे। देखते ही मन बुझ-सा गया। पाँव छूते हुए मैंने पूछा, ‘‘हाँ जी! … कैसी तबीयत
हैं अब ?’’ मेरी आशा के विपरीत वह दर्द भरी आवाज़ में बोले, ‘‘… दर्द है, अरुण जी
… बहुत !…’’
उनका
पुत्र पवन आ गया। उसने बताया कि रात भर कराहते
रहते हैं। पेन-किलर दे रहा हूँ। एम.आर.आई. में भी कुछ नहीं आया है।
उनसे
बैठा नहीं जा रहा था। बार-बार पहलू बदल रहे
थे। फिर अपनी पूरी हिम्मत संजोकर दर्द को परे
धकेलते हुए बोले-‘‘और …नीरज जी (मेरी पत्नी) ठीक हैं ?’’
मैंने उत्तर दिया -‘‘हाँ जी!’’
वे पुनः बोले -‘‘और वंशिका (छोटी बेटी) …मानसी
(बड़ी बेटी)…?’’
‘‘हाँ जी! वे सब बिल्कुल ठीक-ठाक हैं,’’ मैंने
उनका प्रश्न सुने बिना ही कह दिया था।…फिर बोले,’’…अच्छा देख …आज ‘‘परीकथा’’
आई है। राधेश्याम की कहानी की पूर्व घोषणा
है इसमें। … अगले अंक में छपेगी। .. आप भी भेजो। … प्रयास करते रहो। चुप नहीं बैठना चाहिए। इससे नाम बना रहता है…’’
27
को मिलने गया तो राधेश्याम जी भी साथ में थे।
वह दर्द से तड़प रहे थे। दर्द की लहरें
कहीं भीतर से उठतीं थीं और वे बिलबिला उठते थे।
उनकी अवस्था देखकर मेरी जुबान तालू से चिपक गई। वह लेटे हुए थे। बार-बार करवट बदल रहे थे। बोले -मुझे बिठा दो। राधेश्याम जी ने कमर को सहारा दिया और वे चारपाई
पर ही पैर लटका कर बैठ गए थे।
पवन
आया । पिता की स्थिति पर वह भी चिन्तित था।
बोला, ‘‘अरुण जी, कोई आराम नहीं आ रहा है।
एक इंजैक्शन (पेन किलर) रात को लगाता हूँ और एक इंजैक्शन सुबह लगाता हूँ। … तब कहीं दस मिनट के लिए आँख लगती है ….।’’
कई
बार चीजें इंसान की समझ से परे हो जाती हैं।
अब यह समझ नहीं आ रहा था कि जब सिर, गर्दन और कमर के सारे टैस्ट नॉर्मल आए हैं
तो फिर यह दर्द …?
मैने
सहज ही पूछ लिया,‘‘… आपको दर्द होता कहाँ हैं ?’’ क्षण भर के लिए वे चुप पड़ गए। अपने आप में ही कुछ ढूँढने-टटोलने -सा लगे। फिर दर्द से दोहरे होते हुए, धीमी आवाज़ में बोले,‘‘दर्द
…! हूँ ….! दुष्यन्त का एक शेर है … दर्द यहाँ होता है … वहाँ होता है …
कहाँ – कहाँ होता है … भई … भूल गया
…’’, यह कहते-कहते वह हाँफने लगे थे।
उस
दिन लौटते हुए मन बहुत उदास हो गया था। कहीं
भीतर ही भीतर यह अहसास होने लगा था कि … आत्रेय जी अब जा रहे हैं !
उनके
जीवन का सफर दर्द भरा ही रहा। माँ से उन्हें
बेहद लगाव रहा। माँ पर जब उन्होंने लघुकथा
तथा कविता लिखी ,तो कागज़ पर उन्होंने अपने स्वयं के अहसास को ही उकेरा…।
पत्नी
के इस नश्वर संसार से कूँच कर जाने पर उन्होंने एकाकी जीवन की राह चुनी। एक बार बताने लगे – क्या अरुण … उसे क्षय रोग
हुआ था। अस्पताल में मैंने जी-जान से उसकी
सेवा की थी कि बच जाएगी, किन्तु वह न बची।
मुझे क्षय रोग देकर चली गई …। बहुत
भंयकर रोग हुआ। थर्ड स्टेज का ! मुझे लगा था
कि मैं नहीं बचूँगा। पर मैं बच गया। … अरुण मैं चाहता तो दूसरा विवाह भी कर सकता था। किन्तु मैंने एकाकी पन को चुना… कागज़ -कलम को
चुना!
उनकी
एक आँख बचपन से खराब थी। उन्हें एक ही आँख
से दिखाई देता था। 2009 में उस आँख में भी
संक्रमण बढ़ गया। ऐम्स में तीन बार आँख का रैटिना
बदला गया, पर आँख के संक्रमण की वजह से तीनों ही बार डॉक्टरों को नाकामयाबी हाथ लगी। मैं उस समय हिसार में था। मिलने गया तो बेहद निराशा की अवस्था में थे। फफक पड़े -‘बस अरुण जी! अन्धा हो गया मैं तो ! लिखने
– पढ़ने के सहारे जीवन चल रहा था। अब दिखाई
ही नहीं देगा ,तो लिखना-पढ़ना खत्म हो जाएगा… और लिखना-पढ़ना खत्म ,तो समझो धीरे-धीरे
जीवन भी खत्म…!’’
तब
मैंने उनका हाथ पकड़कर कहा था, ‘‘आत्रेय जी …आप तो अपनी हर रचना में अपने पाठकों को
रोशनी दिखाते हैं। … आप अपनी हर रचना में
उज़ाले की बात करते हैं। आप ऐसी निराशाजनक बातें
करते हुए अच्छे नहीं लगते। … और … और आप क्यूँ चिन्ता करते हैं … विकास बनेगा
आपकी आँखें! … मैं बनूँगा आपकी आँखें !’’
आज
एक बार फिर से मैंने उन्हें जीवन से बेहद हताश एवं निराश पाया था। आज तो साफ – साफ महसूस हुआ कि दर्द की लहरें उन्हें
जीवन की सख्त चट्टान पर पटक रहीं हैं। …
दर्द की लहरें उन्हें पछाड़ रहीं हैं …
राधेश्याम
जी को पिपली छोड़ने गया ,तो अंधेरा गहरा गया था।
मूसलाधार वर्षा होने लगी थी। गाड़ी में
लगे पैन ड्राइव में से एक ग़ज़ल सीने में उतर रही थी …
दर्द
बढ़कर फुगाँ न हो जाए,ये जमीं आसमाँ न हो जाए ….
बाद
में पता चला कि आजाद नगर की तरफ एक बूंद भी न बरसा। वहाँ सब सूखा ही रहा था। उनत्तीस तारीख को शारदीय
नवरात्रों का पहला दिन था। सुबह से ही मन में
आत्रेय जी की लगन लगी हुई थी। मन आत्रेय जी
का ही नाम रट रहा था …
देवी
की ज्योति जगाई। क्षण भर को ठिठककर ज्योति
की तरफ देखा तो आत्रेय जी उसमें आन बसे …। कुछ व्रत का सामान तथा कुछ शृंगार का सामान
ले आता हूँ … यह सोचकर मैं ढ़ाई बजे के करीब घर से निकला और ब्रह्मसरोवर के ऊपर से
होता हुआ, सरकारी अस्पताल के सामने वाले चौक से मुड़कर आजाद नगर पहुँच गया …।
गेट
खुलने की आवाज़ पर पवन ने लॉबी का दरवाजा खोलकर बाहर झाँका था। वह बाहर आ गया था। वह किसी की प्रतीक्षा में था। उसने बताया – अभी आँख लगी है अरुण जी। … बस दस
मिनट ही हुए हैं …। आज तो रो पड़े। … सुबह से दो इंजैक्शन दिये हैं … दर्द निवारण
के लिए। तब कहीं जाकर … थोड़ी देर के लिए
अब आँख लगी है। … कल ले गया था अल्केमिस्ट
अस्पताल, पंचकूला में। उन्होंने भी सारी रिपोर्टें
देखकर तथा कुछ और एक्स-रे वगैरह करवाकर, अच्छी तरह जाँच-परख की तथा वापिस भेज दिया
कि सुबह-शाम पेन किलर दो तथा फिज़ियोथेरेपिस्ट से कमर की मालिश तथा सिकाई करवाओ …। मैं फिज़ियोथेरेपिस्ट का इन्तजार में ही हूँ। बस आने ही वाला है वह। … आपको अगर मिलना है तो
थोड़ा सा इन्तजार कर लो ..
‘‘कोई
बात नहीं …उन्हें सोये रहने दो … मैं बाद में आता हूँ,‘‘यह कहकर मैं मुड़ चला था।
वापिस
मुड़ते हुए मन फिर भारी हो गया था।
मुझे
वह दिन याद आ गया जब मैं 895/12 आजाद नगर में रहता था। यह 1992 के आसपास का समय था
जब मैं हर पत्र, पत्रिका में उनकी रचना पढ़कर प्रभावित होता था। तब आत्रेय जी का पता छपा करता था गाँव करोड़ा, जिला
कैथल, हरियाणा। मेरा प्रारब्ध मुझे पुकार रहा
था। अथवा यह कोई जन्मों का ही नाता था कि एक
दिन मैंने आत्रेय जी को एक पत्र लिखा। फिर
दूसरा, तीसरा …. और फिर एक सिलसिला ही चल निकला। मैं उन्हें अपनी रचनाएँ (कूड़ा) भेजने लगा। वह मेरे हर पत्र का जवाब देते। जवाब बहुत ही संक्षिप्त होता तथा पोस्टकार्ड पर
उनकी लिखावट में ही होता। मेरा सौभाग्य देखिये
कि 2004 के आसपास पवन ने आजाद नगर में ही प्लॉट लेकर वहाँ मकान बनवा लिया और वे
864/12 आजाद नगर कुरुक्षेत्र में ही आन बसे।
फिर
शुरु हुआ एक सिलसिला पत्रिकाएँ पढ़ने का। ‘हंस’ मैं मँगवाता तो कथादेश वह मँगाते। ‘कथा बिम्ब, शुभतारिका तथा पुष्पगंधा के अंक मैं
मँगाने लगा तो हरिगंधा, उत्तरप्रदेश, वर्तमान साहित्य तथा कथाक्रम सरीखी पत्रिकाएँ
वह मँगाने लगे। हम जब भी मिलते पहले मैं सभी
लघुकथाएँ पढ़कर सुनाता फिर कविताएँ … फिर कुछ चुनी हुई कहानियाँ भी हम पढ़ते। रचनाएँ पढ़कर फिर वह कहते -देख रचना के नीचे फोन नम्बर
दिया होगा… चल मिला, बात करते हैं। … और वह कितने ही लेखकों से सम्पर्क साधते तथा
उनसे उनके रचनाकर्म पर बात करते।
सहसा
ही मुझे वह दिन भी याद आ गया। जब वे मेरा हाथ
पकड़कर पूनम (राज) प्रकाशन, पुराना सीलमपुर, दिल्ली ले गए थे। मेरी पाण्डुलिपि पकड़ाकर प्रकाशक को साधिकार बोले-‘‘ले
भाई यह किताब छापनी है।’’ आत्रेय जी की उसी
प्रकाशक से पहले दो किताबें आ चुकी थीं। ‘इक्कीस
जूते’ (लघुकथा) और ‘आँधियों के खिलाफ’ (कविता)।
वह
लयबद्ध छोटी-छोटी छंद -मुक्त कविताएँ भी खूब लिखते। आत्रेय जी एक बार कहने लगे- अरुण … हरियाणा में
उदयभानु हंस जी छंदबद्ध कविता के सिद्धहस्त हस्ताक्षर थे। वह हर वर्ष अपने जन्मदिवस पर छंदबद्ध कविता के प्रख्यात
लेखकों को सम्मानित करते थे। वह मुक्तछंद कविता
को कविता ही नहीं मानते थे। उन्होंने मुक्तछंद
कविताओं के लिए सर्वप्रथम मुझे सम्मानित किया था तथा यह माना था कि आत्रेय जी की कविताएँ किसी मायने में छंदबद्ध
कविताओं से कम नहीं हैं।
इसके
साथ-साथ ही एक सिलसिला और भी चल निकला था।
वह मुझे अपने साथ साहित्यिक कार्यक्रमों में भी ले जाने लगे थे। हरियाणा साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों में, जलेस
की गोष्ठियों में, दूरदर्शन एवम् आकाशवाणी की अनेक रिकार्डिंग्स में मैं उनका सहभागी
रहा।
सेक्टर
आठ की मार्किट से ही मैंने देवी माँ पर चढ़ाए जाने वाली
कुछ शृंगार की सामग्री एवं फलाहार का सामान लिया।
गाड़ी में आकर बैठा तो साथ वाली सीट पर रखे मोबाइल फोन पर नजर चली गई। जो गाड़ी में ही रह गया था। यंत्रचालित की-सी अवस्था में ही मैंने फोन उठाया
… बटन दबाकर ऑन किया तो स्क्रीन पर आत्रेय जी का मोबाइल नम्बर डिस्पले हो रहा था। मिस्ड कॉल थी।
एक हाथ से कॉल मिला ली। .. मैंने तो अभी ठीक से हैलो भी नही कहा था कि उधर से
विकास रोता हुआ बोला, ‘‘अंकल जी ….. दादा जी एक्सपायर …. हो गए हैं ….’’
‘‘क्या
…. ? ओ …. हो ….।’’ फोन बंद हो गया था।
मैं जड़ हो गया था। …. जिस बात का
डर था, आखिर वही हुआ ….। आत्रेय जी चले गये
…।
गाड़ी
धीरे -धीरे चला किसी तरह घर पहुँचा। माँ अपने
नियत स्थान पर बैठी थी। कैसी अजीब-सी मनःस्थिति
थी मेरी । घर में चारों तरफ सन्नाटा था, पर
मेरे भीतर विचारों का अंधड़ उठ रहा था …. भावों का ज्वार उमड़ रहा था।
माँ के समीप जाकर दीवान पर सामान रखा …. रखा क्या
… छूट ही गया था हाथों से सब कुछ। …. शृंगार
का सामान लिफाफे से बाहर निकल आया था। चूड़ियों
की डिब्बी खुल कर चूड़ियाँ बिखर-सी गई थीं। माँ बोली – ‘‘क्या कर रहा
है … आराम से रख !’’ माँ को अनसुना करते हुए मैंने चेहरा उसके समीप ले
जाकर कहा,‘‘ चले गए वो तो … वो …. आत्रेय जी चले गए …. विकास का फोन आया है,
अभी-अभी …।’’
‘‘चले
गए !’’ … माँ ने दोहराया … फिर अगले ही क्षण सब समझकर चौंक
उठी …. ‘‘हैं ! ? ओ … हो …!’’ माँ का चेहरा स्याह पड़ गया था।
गाड़ी
उठाकर दौड़ा दी थी आजाद नगर की तरफ। चले गए
… चले गए … आत्रेय जी चले गए – मेरे भीतर एक शोर उठ खड़ा हुआ था। तालाब के ऊपर से गुजरते हुए पहले वह जगह आई जहाँ
मैंने उन्हें 14 सितम्बर की रात को विकास के सुपुर्द किया था। घरौंडा में हिन्दी दिवस मनाकर लौटे थे हम। … कहाँ मालूम था कि यह मेरी आत्रेय जी के साथ
आखिरी यात्रा होगी!
थोड़ा
आगे जाने पर … उनकी एक कहानी -‘एक पहाड़ जिद’ के 102 साल के नायक पर मेरी नज़र पड़ गई। … एक अन्जान फ़कीर के प्रति इतनी अगाध श्रद्धा
और आत्मीयता का भाव भी आत्रेय जी जैसा सहृदय व्यक्ति ही रख सकता है। गर्मियों की किसी सुहानी-सी शाम में अथवा सर्दियों
की कुनकुनी धूप में अक्सर मैं और आत्रेय जी घूमते-फिरते हुए ब्रह्मसरोवर के इस निर्जन-से
किनारे पर आ पहुँचते थे और कुछ क्षण इन बाबा जी के चरणों में बिताकर लौट जाते थे।
मैं
गाड़ी रोककर … उनके समीप पहुँचा। ‘‘आइए
…. आइए …. और कैसे हैं ?’’ उन्होंने चिर – परिचित आत्मीयता से पूछा और प्रेम का
सम्बल पा मैं जोरों से रो दिया …। वह घबरा गए …। मैंने रोते-रोते बताया कि आत्रेय जी चले गए …। उन्हें सुनाई बहुत कम देता है। उन्हें सुनाई पड़ा कि मेरे पिता जी चले गए हैं। वह बोले-‘‘क्या पिता जी … ? कोई बात नहीं …
क्यों चिन्ता करते हैं …?’’ मैंने उनके कान के समीप मुँह ले जाकर ऊँचे स्वर में कहा कि आत्रेय जी … आत्रेय जी चले
गए हैं …।
घबराहट
उनके चेहरे पर साफ परिलक्षित होने लगी थी।
किन्तु उनकी आत्मशक्ति गजब की थी। अगले
ही क्षण अपने आप को सँजोकर बोले -‘‘कोई बात नहीं … चिन्ता मत करो … सब कुछ वह
(परमात्मा) ही तो है ….।’’
गाड़ी
में बैठकर मैंने मुड़कर उनकी तरफ देखा तो पाया कि वह उकड़ू बैठकर अपना आसन कभी बिछाने
तो कभी समेटने लगे थे। … और ऐसा करते हुए वह लगातार बड़बड़ाए जा रहे थे … ‘‘सब कुछ
उन्हीं की (परमात्मा) इच्छा से ही तो होता है … सब उन्हीं की लीला ही तो है … सब
वह ही तो है …!’’
सरकारी
अस्पताल के सामने वाला वह मनहूस चौक भी आया था जहां 14 सितम्बर की रात वह दुर्घटना
घटित हुई थी। सड़क तो आज भी नहीं बनी थी। लोग आज भी राँग साइड से ही गुजर रहे थे।
।वह
लेटे हुए थे। शांत चित्त ! होंठ ऐसे मानो अभी
मुस्कुरा उठेंगे। मानो अभी कह उठेंगे – हाँ
अरुण भाई … आ गए ! … हाथ स्वतः ही जुड़
गए …. अश्रुधारा फूट पड़ी थी।
दर्द सहते-सहते दर्द को ऐसे अपना लेंगे …
दुष्यन्त का वह शे़र मानो सम्मुख आकर साकार हो उठा था-
सर से सीने में कभी, पेट से पाँवों में कभी,
एक जगह हो तो कहे दर्द इधर होता है।
महाप्रयाण
से पहले चरण छुए। मन पुकार उठा था, ‘‘आत्रेय
जी ! … हो सके तो फिर लौटकर आना ! … फिर बहुत सारी लघुकथाएँ, कविताएँ, कहानियाँ
लिखना। … फिर उपन्यास भी लिखना। फिर …!
अक्सर कहा करते थे … बहुत तमन्ना थी अरुण जी, मैं उपन्यास भी लिखना चाहता
था … पर आँखों की वजह से कुछ न बन पाया!
आत्रेय
जी मन की आँखों से लिखते थे। उनकी लघुकथाएँ
कथारस से भरपूर होतीं। एक बार एक गोष्ठी में
एक लेखिका ने तीन-चार पंक्तियों की अपनी कुछ लघुकथाएँ पढ़ीं। आत्रेय जी ने कहा कि यह लघुकथाएँ तो हैं … पर
प्रभाव तो नहीं छोड़ पा रही हैं। उनकी लघुकथाओं की प्रूफ रीडिंग करते समय राधेश्यामजी
और मैं उनकी रचना प्रक्रिया से गुजरते। उनकी
लघुकथाओं के पात्र मेरे देखे-भाले, जाने-पहचाने लोग ही होते। … मैं अक्सर मजाक में उन्हें छेड़ने लगता, बहस
करता। मेरी लघुकथा को तो सुनते ही वह कह उठते
– अरुण जी … आप लघुकथा की शुरुआत कहानी की तरह से करते हो । … या फिर कहते – यह
कहानी का प्रारूप है, मेरे भाई !
मैं
जब भी मिलने जाता। वह पत्र-पत्रिका उठाकर लाते
और कहते – देखो इसमें फलाँ लेखक की लघुकथा है।
पढ़ना तो इसे …। लघुकथा समाप्त होने
पर मैं उनका मुँह देखता कि वे कुछ कहेंगे।
पर वह कहते -‘पहले आप बताओ … आप क्या समझे ?’
फेसबुक
पर आयी लघुकथाएँ भी मैं कभी-कभार उन्हें पढ़कर सुनाता। और जब उस लघुकथा पर आए कमैंट्स मैं उन्हें पढ़कर
सुनाता तो वह निराशा से भर उठते। कहते – अरुण
जी ! यह आभासी संसार है। … और दुख इस बात का है कि इन लेखकों ने इसे ही
सच मान लिया है। इन लाइक्स और कमैन्ट्स से
बाहर निकलकर यथार्थ की जमीन पर पाँव रखना बहुत जरुरी है, इन लोगों के लिये …
एक
बार एक लघुकथा गोष्ठी में उन्हें बुलाया नहीं गया। राधेश्याम जी के पास निमन्त्रण आया तो उसने मुझसे
बात की। फिर उसने कार्यक्रम के आयोजकों से
बात की ! संयोग से एक आयोजक आत्रेय जी के समकालीन
थे। लघुकथा के विकास में उनका भी बहुत अच्छा
योगदान रहा। राधेश्याम ने उनसे बात की, तो
उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ। उन्होंने आत्रेय
जी से बात की ओर पश्चाताप स्वरूप उन्हें कार्यक्रम के लिए विशेष आमन्त्रण दिया। कार्यक्रम के पश्चात् हमारी बैठक हुई। राधेश्याम जी भी थे। कार्यक्रम के बारे में भी बात
चली। मैंने सहज ही टोक दिया, ‘मुझे नहीं अच्छा
लगा आत्रेय जी … आपका इतना बड़ा नाम और इतना अच्छा काम … आपने उन्हें आगे से फोन
किया कि मुझे क्यों नहीं बुलाया …! आप मुझे
यह बताओ कि उस कार्यक्रम में भाग लेकर अब आप क्या बन गए हो ? … बताओ … आपने क्या
पा लिया अब …?’’
मेरी
बात सुनकर आत्रेय जी सहम गए थे। क्षणभर की
चुप्पी के पश्चात वह बोले -‘‘भई … वह (आयोजक) मेरा समकालीन है। मैं उसे अपनी नाराजगी जाहिर कर सकता हूँ। …और
हम साथ काम कर रहे हैं ,तो नाराजगी जाहिर करनी भी चाहिए …!’’
तब
नहीं पता था कि ‘हँसी-हँसी में, जिसे मैं जीवन की निस्सारता का पाठ पढ़ाने की बचकानी
हरकत करुँगा ,वह सहज ही में जीवन की निस्सारता का इतना बड़ा पाठ मुझे पढ़ा जाएगा कि
…
चिता
धू-धू कर जल उठी थी।
वह
खुद्दार इतने थे कि दैनिक-ट्रिब्यून के संपादक की छोटी-सी बात पर नाराज़ होकर उसे दो
टूक सुना आए कि मैं आज के बाद आपके अखबार का यह कॉलम नहीं लिखूँगा। जो साप्ताहिक कॉलम (खरी-खोटी के नाम से) आत्रेय
जी ने लगभग दो -अढ़ाई साल लिखा … उस सुनहरे मौके को (मौकापरस्त लेखकों के लिए) आत्रेय
जी ने सहजता से ही छोड़ दिया।
चिता
की अग्नि की तरफ एकटक ताकते हुए देर तक खड़ा रहा।
कैसा होता है मानव जीवन ! क्षणभंगुर
! पानी केरा बुदबुदा …! जाने वाला पार
… उस पार चला जाता है। पीछे छोड़ जाता है
पैरों के निशान …! असंख्य यादें !
नारनौल,
मनुमुक्त मानव मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा स्थानीय सेक्टर 1 पार्ट 2 स्थित अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक केंद्र
मनुमुक्त भवन में रविवार को भव्य इंडो- नेपाल लघुकथा सम्मेलन
का आयोजन किया गया, जिसमें नेपाल तथा भारत के दस राज्यों से
आए तीन दर्जन लघुकथाकारों और लोककथा समीक्षकों ने लघुकथा विधा के स्वरूप और स्थिति
पर गंभीर विचार मंथन किया । डॉ. जितेंद्र भारद्वाज द्वारा प्रस्तुत प्रार्थना गीत
के बाद चीफ ट्रस्टी डॉ. रामनिवास मानव के प्रेरक सान्निध्य में लगभग चार घंटे तक
चला यह सम्मेलन दो सत्रों में संपन्न हुआ। लघुकथा विधा के परिचय और लघुकथाकारों के
सम्मान पर केन्द्रित प्रथम सत्र डॉ. पंकज गौड़ के संचालन में
संपन्न हुआ। हरियाणा कला परिषद चंडीगढ़ के निदेशक अनिल कौशिक ने इस सत्र की
अध्यक्षता की तथा चौधरी बंसी लाल विश्वविद्यालय भिवानी के रजिस्ट्रार डॉ. जितेंद्र
भारद्वाज इसमें मुख्य अतिथि थे। लघुकथा पाठ और लघुकथा
समीक्षा पर केन्द्रित द्वितीय सत्र कांता राय के संचालन में संपन्न हुआ। सिंघानिया विश्वविद्यालय पचेरी बड़ी, राजस्थान के पूर्व कुलपति डॉ. उमाशंकर यादव ने इस सत्र की अध्यक्षता की
वही भक्तपुर नेपाल के पूर्व प्रमुख जिला अधिकारी हरिप्रसाद भंडारी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे। पटना
(बिहार) के वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. सतीशराज पुष्करणा तथा इंदौर मध्य प्रदेश के
प्रमुख लघुकथाकार व समीक्षक पुरुषोत्तम दुबे ने लोककथा विधा के स्वरूप स्थिति और
विकासक्रम पर प्रकाश डाला तथा तथा पठित लघुकथाओ की समीक्षा प्रस्तुत की। समारोह
में अलीगढ़ उत्तर प्रदेश के डॉ. संतोष कुमार शर्मा द्वारा रचित डॉ. रामकुमार
की लघुकथाओं में यथार्थवाद शोध-ग्रंथ का विमोचन मंचस्थ अतिथियों
द्वारा किया गया।
यह हुए पुरस्कृत-सम्मानित:- इस भव्य
और ऐतिहासिक समारोह में नेपाल अकादमी काठमांडू की पत्रिका समकालीन साहित्य के
संपादक तथा नेपाली लघुकथा के प्रथम शोधार्थी डॉ. पुष्करराज भट्ट को अंग वस्त्र, स्मृति चिह्न, सम्मान
पत्र और ₹11000 की राशि भेंट कर डॉ. मनुमुक्त मानव
अंतरराष्ट्रीय लघुकथा पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अतिरिक्त लघुकथा
विधा के विकास में विशिष्ट, महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय योगदान
के दृष्टिगत तीन दर्जन लघुकथाकारो को डॉ. मनुमुक्त मानव लघुकथा-गौरव सम्मान प्रदान
किया गया, जिसमें काठमांडू के ओमश्रेष्ठ रोवन, बारा के नवराज रिजाल और भक्तपुर नेपाल के ध्रुव मधिकर्मी तथा हरिप्रसाद
भंडारी, पटना (बिहार) के डॉ. सतीशराज पुष्करणा, ब्यावर के मोहन राजेश राजगढ़ के डॉ. रामकुमार घोटड तथा अजमेर राजस्थान के
गोविंद भारद्वाज, नई दिल्ली के हरनाम शर्मा, जालंधर के सिमर सदोष और बरेटा पंजाब के जगदीश राय तथा बूटासिंह सिरसीवाला
मथुरा उत्तर प्रदेश के डॉ. अजीव अंजुम , सुंदर नगर हिमाचल
प्रदेश के कृष्णचंद्र महादेविया, भोपाल की कांता राय,
इंदौर मध्य प्रदेश के पुरुषोत्तम दुबे, अंतरा
करवड़े तथा डॉ. वसुधा गाडगिल , गुरुग्राम के अशोक जैन तथा
विभा रश्मि, सिरसा के डॉ. रूप देवगुण, मेजर
शक्ति राज कौशिक डॉ. शील कौशिक तथा डॉ. आरती बंसल, घरौंडा के
राधेश्याम भारतीय, दादरी के डॉ. अशोक कुमार मंगलेश और
नारनौल हरियाणा के डॉ. चितरंजन मित्तल आदि के नाम शामिल हैं।
यह रहा सम्मेलन का निष्कर्ष:- इंदौर
मध्यप्रदेश के विष्णु गाडगिल और सचिन करवड़े ,
गुरुग्राम हरियाणा के प्रो आर के भटनागर, जिला
बाल कल्याण अधिकारी विपिन शर्मा, पार्षद व निगरानी समिति के
चेयरमैन महेंद्र सिंह गौड़, जिला युवा समन्वयक महेन्द्र नायक,
डॉ. कांता भारती तथा वरिष्ठ लघुकथाकार सत्यवीर मानव आदि गणमान्य
नागरिकों की उपस्थिति में संपन्न हुए इस सम्मेलन में कथा परिवार की एक विधा बताते
हुए निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया था अपने लघु आकार में विराट भावों को सँजोए रखती है। यह वर्तमान को युग की
विद्रूपताओं को उघाड़कर उन पर जोरदार प्रहार करती है। अतः इसे समकालीन दौर की
सर्वाधिक लोकप्रिय और महत्वपूर्ण साहित्यिक विधा माना जा सकता है।
[डॉ.अशोक भाटिया जी ने आत्रेय जी पर लघुकथा‘देवता’ समर्पित की है।]
श्मशान घाट का दृश्य था। मृतक की देह को मुखाग्नि देने की तैयारी चल रही थी। अचारजी ने कपूर और घी से जलती लकड़ी जजमान को पकड़ाई और देवताओं का आह्वान करने लगे।
यह
सुनकर पास खड़े एक व्यक्ति ने दूसरे से पूछा-‘तुमने किसी देवता को देखा है?’
दूसरा-‘नहीं
तो।’
उसने
फिर तीसरे से पूछा-‘भला तुमने देखा है?’
तीसरा-‘नहीं।’
अब
दोनों ने पहले से पूछा-‘तो तुमने देखा है?’
-‘हाँ!’ पहला बोला।
-‘कहाँ देखा?कब देखा?कैसा था वह?’दोनों की जिज्ञासा बढ़ गई।
-‘देखने में हम जैसा ही था। हम यहाँ जिसके दाह-संस्कार
में खड़े हैं। वहीं तो था देवता।’
यह
सुनकर दोनों सोच में पड़ गए। अब तक और तीन-चार व्यक्ति उनके आसपास आ जुटे थे।
पहले
ने मृतक की ओर देखते हुए कहा-‘वह सरल था,सच्चा और निश्चल था,
परोपकारी था। यही तो होती है एक देवता की पहचान ।’
एक समय ऐसा भी था जब अकेली कविता ही साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा होती थी। आज के इलैक्ट्रॉनिक युग में कविता का यह गौरवशाली पद गज़ल ने हथिया लिया है। परन्तु पिछले कुछ समय से साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का अवलोकन यदि ध्यान से किया जाए तो आप पाएँगे की ‘लघुकथा‘ ने गज़ल को पीछे धकेलकर अपनी सम्प्रभुता स्थापित करने में सफलता हासिल कर ली है। यह आश्चर्य की बात नहीं तो क्या है कि लघुकथा पर केद्रित ‘लघुकथा वृत्त‘ नामक समाचार पत्र तक निकलने लगा है। कईं इलैक्ट्रोनिक पत्रिकाओं के अतिरिक्त अन्य पत्रिकाएँ भी धड़ल्ले से हिन्दी में प्रकाशित हो रही हैं। इधर लघुकथा पर केन्द्रित एक और पत्रिका ‘लघुकथा कलश‘ ने लेखकों तथा पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है। पटियाला से प्रकाशित होने वाली इस महाकाय पत्रिका का सम्पादन प्रभाकर बन्धु (योगराज एवं रवि) के द्वारा किया जाता है। हंस तथा कथादेश जैसी शीर्षस्थ पत्रिकाएँ भी लघुकथा को सम्मानपूर्वक प्रकाशित कर रही हैं। यह सब लघुकथा की लोकप्रियता का जीता जागता उदाहरण है।
लघुकथा डॉट कॉम के लोकप्रिय स्तंभ ‘मेरी पसंद‘ की यदि बात करूँ, तो इसके माध्यम से बहुत से रचनाकारों ने अपनी-अपनी पसन्द की लघुकथाओं को चुनकर उनकी सुगन्ध यत्र-तत्र बिखेरने का प्रयत्न किया है। मैं जब अपने भीतर झाँकने का प्रयत्न करता हूँ तो पाता हूँ कि बहुत-सी लघुकथाएँ मुझे अनेक कारणों से बहुत अच्छी लगती हैं। ऐसी लघुकथाओं में सुकेश साहनी की ‘बैल‘ तथा ‘ईश्वर‘, अशोक भाटिया की ‘स्त्री कुछ नहीं करती‘ तथा ‘रिश्ते‘, रामेश्वर काम्बोज की ‘ऊँचाई‘ और ‘नवजन्मा‘, बलराम अग्रवाल की ‘पीले पंखों वाली तितलियाँ‘ तथा ‘गौ भोजन कथा‘, भगीरथ की ‘पेट सबके हैं‘, रूप् देवगुण की ‘जगमगाहट‘ तथा ‘दूसरा सच‘, मधुदीप की ‘संन्यास‘ तथा ‘मज़हब‘, कमल चोपड़ा की ‘खेल‘ तथा ‘खेलने के दिन‘, अरुण कुमार सैनी की ‘स्कूल‘ तथा ‘गाली‘, राधेश्याम भारतीय की ‘कीचड़ में कमल‘ तथा ‘चेहरे‘। इनके अतिरिक्त प्रताप सिहं सोढ़ी, सतीश राठी, सतीश राज पुष्करणा, पवन शर्मा, शील कौशिक, इन्दु गुप्ता, उमेश महादोषी, मार्टिन जॉन, योगराज प्रभाकर, सुभाष नीरव, सुरेन्द्र गुप्त, सूर्यकान्त नागर, रामकुमार घोटड़, श्यामसुन्दर अग्रवाल तथा रामयतन यादव जैसे लघुकथाकारों की यत्र-तत्र प्रकाशित होने वाली लघुकथाएँ भी मार्मिक होती हैं। पाठक जहाँ सआदत हसन मण्टो तथा खलील जिब्रान को कभी नहीं भूल सकता वहीं और भी बहुत से लेखक हैं जिनकी कोई न कोई रचना हमेशा दिमाग में बनी रहती है।
सुकेश साहनी आज के युग के अत्यन्त महत्त्त्पूर्ण एवं स्तरीय लघुकथा लेखक हैं। उनकी रचनाओं के बीच से गुज़़रते हुए ऐसा बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है। उनके लघुकथा लेखन की एक और विशेषता है कि वे स्वयं को समय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल पाने में समर्थ बनाए हुए हैं। ‘हंस‘ के फरवरी 2019 अंक में प्रकाशित उनकी लघुकथा ‘फेस टाइम‘ को पढ़कर आप मेरी इस बात से सहमत हुए बिना नहीं रह पाएँगे। लेकिन कथादेश के जनवरी अंक में प्रकाशित उनकी ‘अथ विकास कथा‘ ने मुझे इस कदर प्रभावित किया कि मैं उसे अपनी पसंद की लघुकथा स्वीकार करते हुए उस पर टिप्पणी कर रहा हूँ।
सर्वप्रथम इस लघुकथा के शीर्षक पर विचार किया जाए। विद्वानों का मानना है कि शीर्षक जितना छोटा हो उतना ही अधिक प्रभावशाली होता है। ‘अथ विकास कथा‘ में से यदि ‘अथ‘ शब्द हटा दिया जाए तो ‘विकास कथा‘ शीर्षक बचा रहता है। विकास कथा भी एक बढ़िया शीर्षक है। लेकिन कथा के अनुसार विकास-यात्रा तो शुरू ही हुई है। यह यात्रा निरन्तर जारी रहने वाली है। संभव है भविष्य में इस यात्रा का मार्ग परिवर्तित हो जाए, अथवा इसका मंतव्य ही बदल जाए। ऐसे में आप विकास को भी और ही कुछ कहने लगें। रचना का विषय भ्रष्टाचार को उजागर करना है। सिर्फ उजागर ही नहीं करना ,बल्कि भ्रष्टाचार आपके दिल और दिमाग में काँटे की तरह चुभने लगे, उसे ऐसा रूप प्रदान करना है। भ्रष्टाचार एक ऐसा रोग है जो नासूर की तरह लाइलाज बनता जा रहा है। लेखक एक कुशल और अनुभवी चिकित्सक की तरह अपने ढंग से इस रोग का इलाज करता है। जिसका नाम इलाज नहीं होता, उसका नाम थैरेपी हो सकता है। इस थैरेपी के माध्यम से रोग धीरे-धीरे मूलसहित नष्ट होने लगता है ,यही तरीका साहनी जी अपनाते हैं। भ्रष्टाचार शब्द का उन्होंने एक बार भी प्रयोग नहीं किया है। हालाँकि यह एक भ्रष्टाचार कथा है, एक ऐसा भ्रष्टाचार जो दीमक की तरह इस देश की जड़ें खोखली कर रहा है। लघुकथा पढ़ते हुए लगता है कि पूरी घटना हमारी आँखो के सामने घट रही है। हम स्वयं उस घटना के अकेले उस पात्र जैसे हैं। इस भ्रष्टाचार कथा को कहने के लिए एक महाकाय उपन्यास लिखा जा सकता है तथा कहानी तो दस पंद्रह पृष्ठ की आसानी से लिखी ही जा सकती है। परन्तु साहनी जी ने उसे सिर्फ 214 शब्दों में समेट दिया। जो बात जीवन्त उपन्यास अथवा कहानी के द्वारा शायद ही कही जा सकती, उसे साहनी जी ने कुछ ही शब्दों में वांछित प्रभाव के साथ कह कर अपनी योग्यता एवम् क्षमता का परिचय दे डाला। अतः आकार की दृष्टि से भी रचना पूर्णतः सफल है। एक भी शब्द इस रचना में न तो कम है न ज़्यादा। पाठक चाहें तो इसके प्रारूप मंे अपनी रुचि के अनुसार इसमें शब्द को जोड़ अथवा घटाकर स्वयं देख ले। उसका मन कह उठेगा कि उसने जो भी किया है, उससे रचना का रूप बिगड़ गया है। जिस तरह कनिष्ठ कर्मचारी संकेत-संकेत में वरिष्ठ अधिकारी को समझाया करता है, उसका मौलिक रूप यहाँ देखने को मिलता है। जिस पैसे से नई सड़कें बननी थी, नए पुल बनने थे, टूट-फूट को रोेककर भवन अथवा सड़क की आयु बढ़ानी थी, जनपथों को मूलभूत सुविधा प्रदान करनी थी, उस पैसे का उपयोग सम्बन्धित छोटे-बड़े अधिकारियों के पेट का विकास करने में निःसंकोच किया जाता है, उनके परिवारों का विकास होता है। साहनी जी चित्रात्मक शैली के पारंगत रचनाकार हैं। इस विशेषता का उपयोग वे लगभग हर रचना में करते हैं। रचना का अध्ययन करते करते पाठक को अनुभव होने लगता है कि वह किसी कला फिल्म का एक सुंदर-सा दृश्य अपनी आंखो के सामने देख रहा हैं यही वजह है कि रचना की समाप्ति के पश्चात् भी पाठक के मस्तिष्क में उस चित्र की अनुकृति बनी रहती है। अतः यह लघुकथा एक आदर्श लघुकथा है।
मेरी पसन्द की दूसरी लघुकथा का नाम है-ज़ायका। इस लघुकथा के लेखक किसी परिचय के मोहताज नहीं रह गए हैं। अभी-अभी रचनाकार डॉट आर्ग ने लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन किया था। उस प्रतियोगिता में इनकी इस लघुकथा को दूसरा स्थान मिला है। हालाँकि प्रतियोगिता में पुरस्कृत अन्य लघुकथाओं को मैं पढ़ नहीं पाया हूँ। सम्भव है उन लघुकथाओं को पढ़ने के बाद मैं इसे अपनी पसन्द की लघुकथा भी नहीं बना पाता। परन्तु इस लघुकथा के अंत ने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं इसे अपनी पसन्द में दूसरा स्थान दूँ। ‘जायका‘ को पढ़ते हुए शुरू में मुझे लगा कि अल्ट्रामॉडर्न परिवार की बात कर रहे हैं। एक साधारण पाठक, जो यह सब जानता ही नहीं है, उसे क्या मिलेगा? क्यों वह इस लघुकथा को पढ़ेगा? मैं उसे बीच में ही छोड़ने वाला था। लेकिन मैं जानता था कि इस लघुकथा को एक प्रतियोगिता में दूसरा स्थान मिल चुका है। निर्णायक इतने बेवकूफ नहीं हो सकते कि यूँ ही फोकट में पुरस्कार दे डालें। अन्त तक पहुँचते ही मैं सन्न रह गया। डिलीवरी ब्वाय जो मामूली-सी मजदूरी प्राप्त करने के लिए दरदर भटक रहा है, अपने ऊपर चोरी से चीजें खाने का आरोप लगते ही कह उठता है कि वह तो माँ के हाथ का बना खाना खाता है। माँ के हाथ से बने खाने को छोड़कर वह ऐसी वैसी चीज क्यों खाएगा! हठात् मुझे अपनी ही एक कविता याद आ गई कि-
घर से बहुत दूर आ गया हूँ मैं
अकेला होकर भी
अकेला नहीं हूँ मैं यहाँ;
क्योंकि माँ के हाथ की बनी
खाने की कुछ चीजंे मेरे पास हैं
बासी जरूर हो गई हैं वे
लेकिन अब भी उनमें वही स्वाद है!
माँ के हाथ के बने खाने को आधुनिक परिवार में याद दिलाना, उसकी पुनःस्थापना करना यही इस लघुकथा को यादगार लघुकथा बना देता है। संभव है कुछ अल्टामॉडर्न पाठकों को इस लघुकथा का विषय अत्यंत पिछड़ेपन की निशानी लगे;क्यांेकि परिवार में रेडीमेड फास्ट फूड ऑर्डर देने पर कुछ ही समय में हाजिर हो जाता है। महेश शर्मा नाटककार हैं। लघुकथा में भी छोटे चुटीले संवादो वाली नाटकीयता मौजूद है। साहनी जी की तरह महेश जी भी चित्रात्मक शैली का खूब उपयोग करते ह। रचना अत्यंत प्रामाणिक लगने लगती है। शीर्षक लघुकथा के उद्देश्य के अनुसार सार्थक है। रचना के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने में सक्षम है। भाषा विषयानुरूप है। आकार की दृष्टि से भी लघुकथा वास्तव में ही लघुकथा है। आरंभ से लेकर अंत तक जिज्ञासा बनी रहती है। मुझे मालूम है कि महेश जी लघुकथाएँ कम लिखते हैं; लेकिन जो भी लिखते हैं बहुत ही स्तरीय एवं पठनीय होता है। बधाई !
1-अथ विकास कथा- सुकेश साहनी
बड़े साहब के चेम्बर में बड़े बाबू विकास सम्बंधी कार्यों के बिल पारित करवा रहे थे। ब्रीफिंग के लिए छोटे साहब भी वहाँ मौजूद थे।
‘‘यह बिल किस काम का है?’’ बीस लाख के एक बिल पर हस्ताक्षर करने से पहले बड़े साहब ने जानना चाहा।
‘‘सर, यह बिल उस पीरियड से सम्बंधित कार्यों का है, जब माननीय मंत्री जी क्षेत्रीय निरीक्षण पर आए थे।’’
‘‘ग्राम मेवली में कुछ ज्यादा ही खर्च नहीं हो गया?’’ अगले बिल को देखते हुए बड़े साहब ने पूछा।
‘‘नहीं सर! दीवाली पर प्रमुख सचिव महोदय से आपकी जो वार्ता हुई थी, उसी के अनुसार बिल तैयार कराए गए हैं।’’
‘‘ये छोटे-छोटे कई बिल……?
‘‘ये सभी बिल चीफ साहब से सम्बंधित है, जब नैनीताल से लौटते हुए उन्होंने तीन दिन हमारे क्षेत्र में आकस्मिक निरीक्षण हेतु हाल्ट किया था।’’
‘‘हमारी बेटी की शादी भी करीब आ गई है….’’ बड़े साहब ने अर्थपूर्ण ढंग से छोटे साहब की ओर देखा।
‘‘पूरी तैयारी है, सर!’’ छोटे साहब ने उत्साह से बताया और बड़े बाबू ने तत्काल एक बिल बड़े साहब के सामने हस्ताक्षर हेतु रख दिया।
‘‘इन बिलों को शामिल करते हुए क्षेत्र के विकास के लिए प्राप्त कुल धनराशि के विरूद्ध खर्चे की क्या स्थिति है?’’
‘‘शत प्रतिशत!’’ छोटे साहब ने चहकते हुए बताया।
‘‘एक्सीलेंट जॉब!’’ बड़े साहब ने शाबाशी दी।
-0-
2-ज़ायका -महेश शर्मा( अप्रैल 2019 के अंक में देश के अन्तर्गत )
साहित्य मेरे लिए हवा भी है, पानी भी है, और धूप भी। इन्हें
पाने और सहेजने के लिए मैं अक्सर भटका भी हूँ और अटका भी। इसी राह पर आगे बढ़ते रहने
पर मैंने झटका भी खाया है और पटका भी। इस प्रक्रिया के दौरान मेरे तन-मन पर गहरे निशान
जन्म लेते रहे हैं। तन पर पड़े निशान तो समय पाकर क्रमानुसार मिटते रहे और फीके पड़ते
रहे; परन्तु मन पर पड़े निशान निरन्तर सालते रहे हैं। उनका फीका पड़ना, मिटना, मेरे वश
में कभी नहीं रहा। निशान पड़ने की यह प्रक्रिया आज भी जारी है। लगता है जब तक जिंदा
रहूँगा तब तक जारी ही रहेगी।
इतना अवश्य है कि कभी-कभी मैं अपने हाथ में कलम उठा लेता
हूँ और मन में पड़े निशानों को कागज पर उकेरने लगता हूँ। गरीबों, शोषितों तथा सीधे-साधे
इन्सानों के मन पर पड़े गहरे घावों को भी मैं अपने ही घाव समझने लगता हूँ। सिर्फ समझने
ही नहीं, महसूस भी करने लगता हूँ। सही ढंग
से लिखना मुझे कभी नहीं आया। मैं स्वयं भी बेडोल हूँ, मेरे अक्षर भी बेडोल हैं। आपको
मेरी लघुकथाओं के बहुत सारे पात्र में मेरे जैसे ही मिलेंगे। उनके दुख दर्द मात्र उनके नहीं बलिक मेरे भी बन गए हैं।
यदि मैं लघुकथाओं के बारे में बात करूँ तो बताना चाहूँगा, लघुकथा मेरे लेखन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा
है। अभी तक मेरे चार लघुकथा संग्रह (इक्कीस जूते ,आँखों वाले अंधे, छोटी सी बात ,बिन शीशों का चश्मा)
प्रकाशित हो चुके हैं। और सैकड़ों लघुकथाएँऔर
है जिनसे एक पुस्तक प्रकाशित हो सकती है।
‘लघुकथा’ शब्द ’लघु’ तथा ’कथा’ के योग से बना है। ’कथा’
अपने आप में संज्ञा शब्द है और ’लघु’ उसका विशेषण है। परन्तु ’लघुकथा’ विशेषण और विशेष्य
के योग से बना सिर्फ एक नया और सार्थक शब्द नहीं है। लघुकथा स्वयं को साहित्य की गरिमामय
अभिवृ़द्धि करने वाली एक नई विधा बनकर सुस्थापित कर पाने में सफल सिद्ध हुई है।
मेरी दृष्टि में
लघुकथा ‘सीमित शब्दों’ में, सीमित संवाद के साथ या सीमित रचना वातावरण के माध्यम से एक अनूठा
प्रभाव पैदा करती है। जिसका प्रभाव ऐसा होता
है, मानो किसी ने किसी के मुंह पर तमाचा जड़
दिया हो। यहां तमाचा जड़ने का अर्थ खेल खेल में तमाचा जड़ना नहीं बल्कि एक दम उसको आंदोलित
करना है।’
कहानी और
लघुकथा में एक विशेष अंतर देखने को मिलता है।
कहानी में जो प्रभावोत्पादकता पांच-छह पेज में पैदा होता है। लघुकथा में वहीं
प्रभाव एक या मुश्किल से दो पृष्ठ की लघुकथा में मिल जाता है।
यदि मैं लघुकथा लेखन प्रक्रिया की बात करूँ तो
कहूँगा
कि लेखन कार्य की शुरूआत में मुझे लगता था
कि लघुकथा लिखना आसान है। अनुभव से सीख पाया हूँ पर वास्तव में ऐसा है नहीं। लिखने का तो सभी लघुकथाएँलिख ही रहे हैं। पर इतना आसान भी नहीं है लघुकथा
लेखन। लघुकथा का स्तरीय रूप टेढ़ा काम है। जितना
इसमें लाघव है उतना ही टेढ़ापन ; जिसे साधना कठिन है। कम से कम शब्दों में ज्यादा से
ज्यादा सार्थक बात कहना ही लघुकथा की विशेषता है। लेकिन जब रचनाकार शब्दों से खेलने
लगता है और सिर्फ कहन मानकर ही रचना का रूप दे देता है। इससे उसकी गम्भीरता एवं सार्थकता
पर आघात पहुँचता है। और वास्तव में वह लघुकथा नहीं रह जाती। लघुकथा में उसके लघु या
विस्तार पर अक्सर चर्चा होती रहती है तो इस पर मेरा मानना है कि कोई लघुकथा शब्दों की निश्चित संख्या में नहीं बांधी जा सकती
है क्योंकि रचना कोई गणित नहीं होती। गणित की अपनी एक सीमा होती है । रचना संवेदना
होती है; भावना होती है और भावना, संवेदना को शब्द सीमा में बाँधना उसकी आत्मा को मार
देना है।
यदि मैं लघुकथा में कथानक की बात करूँ तो
किस्सागोई से जुड़ी जितनी भी विधाएँ हैं, चाहे
वह उपन्यास अथवा नाटक हो, कहानी अथवा एकांकीं हो सभी में ’कथानक’ की आवश्यकता रहती
है। कथानक का फलक जैसा होगा वह विधा के रूप में वैसा आकार ग्रहण करता है। कथानक का
होना लघुकथा में भी जरूरी है। कहने का मतलब यह है कि कथा तो यहां भी रहेगी ही। यह पहली
शर्त है लघुकथा के लिए। कथा जहां होगी, वहां मनोरंजन भी होगा ही। मनोरंजन जहां होगा
वहां मन को बिगाड़ने, सुधारने या फिर सन्तुष्ट करने की प्रक्रिया भी रहेगी ही। यदि ऐसा
है तो फिर कथा भी लघुकथा में उपस्थित रहती ही है। स्थूल रूप में यदि कहा जाए कि जो
अन्तर रूमाल और टॉवल में होता है, वही अन्तर लघुकथा और कथा में होता है। यहॉं इस बात
पर ध्यान देना भी जरूरी है कि कई रूमाल मिलकर भी एक टॉवल का काम नहीं कर सकते और न
ही एक टॉवल एक रूमाल की तरह आपकी जेब में आपके दिल के समीप रहने की औकात रख सकता है।
मेरी प्रत्येक
लघुकथा में ’कथा’ निश्चित रूप से मौजूद रहती
है। वह कथा आपका मनोरंजन भी करेगी, तिलमिलाएगी, गुदगुदाएगी, कुछ सोचने के लिए मजबूर
भी करेगी। ऐसा मेरा दावा है। ऐसी लघुकथाएँही
मुझे आकर्षित करती हैं। प्रयोग जिसे करना हो, करे। मैं ऐसा नहीं कर पाता।
लघुकथा में शीर्षक का अपना महत्व है। शीर्षक ऐसा हो जो पाठक
को कथा पढ़ने को विवश कर दे। मेरी लघुकथा ‘बिन
शीशों का चश्मा’ का शीर्षक पढ़कर एक बार पाठक अवश्य सोचेगा कि क्या बिन शीशों का चश्मा
भी होता है…होता भी है तो कैसा होता है….लेखक इसके माध्यम से क्या बताना चाहता
है। और यही बातें सोचते हुए पाठक उस रचना को पढ़ना चाहेगा। बहुत से साथियों की लघुकथाओं
के शीर्षक अक्सर चर्चा में रहते है। मैं सुकेश
साहनी की लघुकथा ‘अथ विकास यात्रा’ का उदाहरण देना
चाहूँगा।
विद्वानों का मानना है कि शीर्षक जितना छोटा हो उतना ही
अधिक प्रभावशाली होता है। ‘अथ विकास यात्रा‘ में से यदि ‘अथ’ शब्द हटा दिया जाए तो
‘विकास यात्रा’ शीर्षक बचा रहता है। विकास यात्रा भी एक बढ़िया शीर्षक है। लेकिन कथा
के अनुसार विकास यात्रा तो शुरू ही हुई है। यह यात्रा निरन्तर जारी रहने वाली है। सभंव है भविष्य इस यात्रा का मार्ग परिवर्तित हो
जाए, अथवा इसका मंतव्य ही बदल जाए। ऐसे में आप विकास को भी और ही कुछ कहने लगें। यात्रा
बीच में विश्राम भी कर सकती है, रुक भी सकती है। ऐसे में न तो ‘विकास यात्रा’ और और
न ही ‘यात्रा‘ शीर्षक रचना के मर्म को प्रकट कर पाते। रचना का विषय भ्रष्टाचार को उजागर
करना है। सिर्फ उजागर ही नहीं करना; बल्कि भ्रष्टाचार आपके दिल और दिमाग में कांटे
की तरह चुभने लगे उसे ऐसा रूप प्रदान करना है। भ्रष्टाचार एक ऐसा रोग है जो नासूर की
तरह लाइलाज बनता जा रहा है। लेखक एक कुशल और अनुभवी चिकित्सक की तरह अपने ढंग से इस
रोग का इलाज करता है। जिसका नाम ईलाज नहीं होता उसका नाम थैरेपी हो सकता है। इस थैरेपी
के माध्यम से रोग धीरे-धीरे मूलसहित नष्ट होने लगता है यही तरीका साहनी जी अपनाते हैं।
भ्रष्टाचार शब्द का उन्होंने एक बार भी प्रयोग नहीं किया है। हालाँकि यह एक भ्रष्टाचार
कथा है।
लघुकथा का उद्देश्य की बात करें तो कोई भी रचना निरुद्देश्य
नहीं लिखी जाती। रचना का काम भटके हुए को रास्ता दिखाना है। संवेदनहीन होते समाज को
संवेदनशील बनाना और मानवीय मूल्यों की स्थापना करना है। कभी -कभी मेरे सामने ऐसे पात्र
आ गए ,जिनका दुःख सुनकर मुझे लघुकथा लिखने पर विवश कर जाते हैं। फिर मैं लघुकथा की
रचना करते हुए उस पात्र की तरह रोता रहता हूँ।
उसका दुःख मेरा दुःख बन गया और मैं चाहता हूँ कि वही दुःख हर पाठक का दुःख
बन जाए।
दूसरी बात, किसी
घटना से प्रभावित होकर उसे अपने शब्दों में ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर देना लघुकथा
का उद्देश्य पूरा नहीं होता, उसके लिए लेखक का कौशल काम करेगा। मैं अपनी एक लघुकथा ‘पंख’ की रचना प्रक्रिया के बारे
में बताना चाहूँगा।
वैसे अभी हाल में मैंने यह रचना प्रक्रिया लघुकथा को समर्पित साहित्यकार योगराज प्रभाकर के सम्पादन में निकलने
वाली पत्रिका‘ लघुकथा कलश’ के लिए लिखी है।
‘पंख’ लघुकथा में खुद मैं ही उपस्थित हूँ। हुआ यों कि दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक
छात्र ने एक लव लैटर लिखकर एक लड़की के सामने फेंका। अचानक वह पत्र दूसरी लड़की के सामने
जा गिरा। लड़की ने प्रधानाचार्य से शिकायत कर दी। लड़के को बुलाया गया ,तो उसने बता दिया
कि पत्र अमुक लड़की के लिए लिखा गया था। जो गलती से दूसरी लड़की पर जा गिरा। लड़के को
धमकाने पर उसने बता दिया कि लड़की भी उसे पत्र लिखती है। और वे दोनों शादी करना चाहते
हैं। इसपर उस लड़की के माता-पिता को स्कूल में बुलाया गया । उन्होंने उस लड़की को विद्य़ालय
में भेजना बंद कर दिया। दूसरी लड़कियों के अभिवाभवकों को जब इस घटना का पता चला, तो
उन्होंने अपनी -अपनी बेटियों को स्कूल भेजने से मना कर दिया।
प्रधानाचार्य के साथ-साथ अन्य अध्यापकों एवं गाँव के लोगों ने
कहना शुरू कर दिया कि लड़कियों के पंख उग आए हैं। यदि इन पंखों को काटा नहीं गया ,तो
गाँव उजड़ जाएगा । घटना यह थी अब उस घटना को लघुकथा के रूप में देखिए।
पंख
गाँव के सभी लोग,जिनमें औरतें भी शामिल थीं, अपने हाथों
में कैंचियाँ उठाएँ एक
ही दिशा में दौडे़ चले जा रहे थे। आश्चर्य तो इस बात का था कि उनके हाथों में थमी कैंचियाँ उनके कदों से कहीं बड़ी थीं।
मैं उस गांव में किसी काम से पहली बार गया था। उन लोगों के लिए मैं और मेरे लिए वे
पूर्णतया अपरिचित थे। इसलिए मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह सब हो क्या रहा है। विवश
होकर मुझे एक आदमी को रोककर पूछना पड़ा-‘‘ मेहरबानी करके मुझे इतना बताते हुए जाओ कि
आप सब हाथों में कैंची उठाए क्यों और किधर भागे चले जा रहे हैं?’’
‘‘गाँव पर अचानक एक विपत्ति आ पड़ी है…इसलिए सब लोग उससे
बचाव करने के लिए कैंचियाँ उठाएँदौड़े चले जा रहे हैं।’’उसने किसी तरह अपनी हंफहंफी
पर काबू पाते हुए मुझे बताया।
‘विपति! कैसी विपत्ति?’’ चौंकते हुए मैंने पूछा था।
‘अरे भाई, एक लड़की के पंख उग आए हैं। देखा -देखी दूसरी लड़कियों
के भी पंख उगने लगेंगे। यह विपति नहीं तो और क्या है?’’ इतना कहते ही वह भी उधर ही
दौड़ चला।
मेरी लघुकथाओं में
समकालीन समाज की चिंताए तीक्ष्ण और यथार्थपरक
ढंग से पाठकों के सामने उपस्थिति दर्ज करवाती
हैं। भारतीय व्यवस्था, व्यवस्था में व्याप्त सडांध, भ्रष्टाचार भाई-भतीजावाद, जाति
एवं धर्म की संकीर्णता, किसान-मजदूर की पीड़ा,
रिश्तों में स्वार्थ की बू और कथनी और करनी में अंतर को दर्शाती लघुकथाए हैं।
अंत में इतना ही कहूँगा कि लघुकथा जन-जन की विधा इसलिए नही बन रही
है कि पाठक के पास समय का अभाव है बल्कि इसलिए बन रही है कि लघुकथा अपना विशेष प्रभाव
छोड़ती है, पाठक को चिंता एवं चिंतन को बाध्य करती है। बहुत लम्बे समय तक उसके जेहन
में वह घटना घूमती रहती है। बहुत कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कह जाती है। यानि गागर
में सागर भर जाती है।
वह कक्षा में फर्श पर अकेला बैठा रहता था। कक्षा के लगभग सभी विद्यार्थी उसे अपने साथ बेंच पर बैठाने से कतराते थे। उसकी पैंट की दोनों जेबें उधड़ी रहती और ऊपर के दोनों बटन कमीज से नदारद। शरीर हड्डियों का ढाँचा था और दाँत पीले पड़े हुए थे। उसके करीब खड़े होने पर एक तीखी बदबू नथुनों में उतर जाती । अपने पीरियड में तो मैं उसे दूसरे बच्चों के साथ बेंच पर बैठा देता, परंतु बाद में वह फिर से फर्श पर बैठा नजर आता। पिछले कई रोज से मैं उसे अपने विषय की पाठ्य-पुस्तक लाने के लिए टोक रहा था, परंतु वह रोज एक ही जवाब देता, ।” मास्टर जी, कल ले आऊँगा।”
उस दिन मैंने कक्षा में पढ़ाने के लिए पुस्तक खोलते हुए सभी विद्यार्थियों पर एक नजर डाली। वह कक्षा में अकेला था ,जो फिर से किताब नहीं लाया था।
“क्यों बे, तू आज भी किताब नहीं लाया?” मैं उस पर गरजा।”
“मास्टर जी, कल ले आऊँगा।”
उसका जवाब सुनकर मैं गुस्से से भर गया और बालों से खींचते हुए उसके गाल पर चार-पाँच थप्पड़ जड़ते हुए बोला, ” किताब क्यों नहीं लाता तू?… क्या करता है तेरा बाप?”
“सर, इसके माँ-बाप नहीं हैं, अपने चाचा के पास रहता है।” उसकी बगल में बैठा लड़का बोला।
यह सुनकर मेरा गुस्सा थोडा हल्का पड़ गया ,मानों किसी ने गर्म तवे पर पानी के छींटे मार दिए हों। चेहरे पर बनावटी गुस्सा लिये मैंने फिर से उससे जवाब तलब किया, “अबे गधे, जब तेरे पास किताब ही नहीं है, तो स्कूल में क्या करने आता है?”
“जी..जी.. स्कूल में भरपेट खाना मिल जाता है।” उसने सुबकते हुए जवाब दिया।
उसका जवाब सुनकर मैं निरुत्तर-सा हाथ में पुस्तक थामे कुर्सी में धँस गया।
-0-
2-दूध का गिलास
” मैं खाना लगाती हूँ , आप नहाकर तैयार हो जाओ “।
रमेश नहाकर गुसलखाने से निकला तो वह खाना परोस लाई ।
थाली में से रोटी का कौर तोड़ते हुए रमेश बोला,” गीता , क्या बाबू जी गए थे कल अस्पताल चेक कराने ?”
” जी , डॉक्टर ने ऑपरेशन के कारण हुई कमजोरी बताई है । माँ जी कह रही थी कि अब से अपने बाबू जी को दो वक्त दूध दे दिया करो । अब तुम ही बताओ घर में इतना दूध कहाँ से आए ?”
खाते-खाते रमेश थोड़ा रुक गया ।
” चुन्नू भी अभी छोटा है तो उसे भी दूध चाहिए । वरना , अभी से उसमें कमजोरी बैठ जाएगी ।”
” हाँ ।” रमेश का मन किसी उधेड़बुन में लग गया ।
शाम को ऑफिस से आकर अपना बैग पत्नी को थमाते हुए रमेश बोला,” कल से थोड़ी देरी से आया करूँगा , ऑफिस वालों ने टाइम बढ़ा दिया है ।”
” तुम और तुम्हारे ऑफिस वाले भी ना बस …..” पत्नी के चेहरे पर नाराजगी भरे भाव उतर आए ।
” अच्छा मैडम जी , अब खाना तो खिला दो ।” वह उसे रिझाते हुए बोला ।
” अच्छा एक बात और , खाना खाते ही नींद चढ़ जाती है भई , तो इस वक़्त दूध मत दिया करो छाती पर भारीपन- सा हो जाता है ।”
” और कमजोर हो जाओगे , चलो मुझे क्या लेना…।” इस बार उसके चेहरे की नाराजगी शब्दों में उतर आई थी ।
” तुम्हारे होते हुए मुझे कुछ नहीं हो सकता मैडम जी ।” रमेश ने उसे बाँहों में भरते हुए कहा ।
” ऑफिस में ओवरटाइम लगाकर कुछ आमदनी भी बढ़ जाएगी और वैसे भी इस बुढ़ापे में बाबू जी को मुझसे ज्यादा दूध की जरूरत है ।” रात को बिस्तर पर सोचते-सोचते जाने कब उसकी आँख लग गई…..
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3-उसका जिक्र क्यों नहीं करते
पार्क में एक बैंच पर चार आदमी बैठे बतिया रहे थे।
पहला : सुना है…करियाने वाले रामकिशोर की लड़की मंगल ठेकेदार के लड़के के साथ भाग गई।
दूसरा : ठीक सुना है, बेशर्म ने सारे मोहल्ले में बाप की थू-थू करा दी।
तीसरा : बस पूछो मत…उसके तो चाल-चलन और पहनावे से ही दिखता था कि एक ना एक दिन जरूर गुल खिलाएगी।
चौथा खामोश रहा।
पहला : लड़कियों के तो पंख लग गए है आजकल।
दूसरा : भई , लड़की जात…फिर भी कोई शर्म-हया नहीं।
तीसरा : खबर तो यह भी है कि शादी भी रचा ली है।
चौथा फिर खामोश रहा।
पहला : शादी भी रचाई तो गैर-बिरादरी लड़के के साथ!
दूसरा : कम से कम जात-बिरादरी का तो ख्याल कर लेती!
तीसरा : भई , मैं तो कहूँ लड़कियों को इतनी आजादी देना भी ठीक नहीं ।
चौथा अभी भी खामोश था।
पहला : अरे भाई , तू क्यों खामोश बैठा है? कुछ तो बोल।
चौथा : अकेली भागी है क्या लड़की?
दूसरा : अरे , कैसी बात करते हो! अकेली क्यों…लड़के के साथ भागी है…
चौथा : तो भाई लड़के के बारे में भी कुछ बोलो, उसका जिक्र क्यों नहीं करते…?
अब शेष तीनों खामोश थे ।
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4-स्वेटर
‘टन-टन…।’
घण्टी की आवाज ने अगला पीरियड शुरू होने का ऐलान कर दिया था । लेकिन इस हाड़ कँपाती सर्दी में स्टाफ-रूम में दहकते हीटर के आगे से उठकर जाना मुश्किल लग रहा था । खैर, जैकेट की चेन को गले तक चढ़ाकर और मुँह को मफलर से ढाँप, मैं क्लास रूम को चल दिया ।
कक्षा में बल्ब की मन्द रोशनी में बच्चे फर्श पर बिछी एकमात्र दरी पर बैठे पढ़ रहे थे । इन दिनों बंद रखे जाने वाले कक्षा के दोनों दरवाजों ने बाहर से आती ठंडी हवा पर रोक लगा रखी थी। लेकिन खिड़की के झरोखों से आती हवा बच्चों के शरीर में सिहरन-सी पैदा कर रही थी । दीवार से सटकर बैठे उस दुबले से लड़के को मैं पिछले कुछ दिनों से देख रहा था। उसने अपने बदन को केवल एक महीन-से कमीज से ढक रखा था । वो बच्चा फैशनपरस्त था या गरीबीग्रस्त, इस बात को लेकर मैंने कोई रुचि नहीं दिखाई । हाँ, मेरे पास बेटे की वर्दी की एक पुरानी स्वेटर थी ,जो मैंने कल आधी छुट्टी में उसे बुलाकर थमा दी थी । पर आज फिर से वह केवल कमीज ही पहने था । सुबह मैंने वही स्वेटर किसी और बच्चे को पहने देखा था । मुझे आश्चर्य हुआ । मैंने उसे पास बुलाकर जवाब तलब किया, ” क्यों भई , तुमने स्वेटर नहीं पहना ?”
वह गुमसुम सा स्थिर खड़ा रहा ।
” तुमसे कुछ पूछ रहा हूँ !”
” नहीं…” उसने हल्के से होंठ हिला दिए ।
” पढ़ाई के दिन है, कहीं ठंड-वंड लग गई तो….अभी से इतना फैशन अच्छा नहीं !’
” नहीं सर ।” उसने पुनः इतना ही कहा ।
” मैंने स्वेटर तुम्हें पहनने के लिए दिया था , किसी और बच्चे को देने के लिए नहीं !” मैंने बात पर जोर डालते हुए कहा ।
” सर , वो मेरे छोटे भाई ने पहन रखा है ।” वह दबी आवाज में बोला ।
” और तुम बिना स्वेटर के रहोगे?”
” नहीं सर , छोटे भाई को सर्दी ज्यादा लगती है । गर्म बनियान में भी उसे ठंड लगती है, पर मुझे ज्यादा ठंड नहीं लगती ।” उसने मुँह दूसरी तरफ घुमाते हुए कहा।
पर खिड़की से आती ठंडी हवा से उसके चेहरे पर उभरे रोंगटे साफ नजर आ रहे थे।
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5-संवेदना
जनवरी का महीना था । कड़ाके की सर्दी से खून नसों में जमा जा रहा था । न्यू ऑफिसर कॉलोनी के बड़े से गेट के पास बनी पोस्ट में ड्यूटी पर तैनात कांस्टेबल बीच-बीच में उठकर गश्त लगा आता। रात गहरा रही थी और रजाइयों में दुबके पड़े कॉलोनी वासियों को नींद अपने आगोश में लिए थी । दूर-पास से आती कुत्तों के भोंकने की आवाज बीच-बीच में सन्नाटे को तोड़ रही थी । इन सब के बीच कांस्टेबल की नजर पार्क में बनी छतरीनुमा छत के नीचे बेंच पर लेटे एक व्यक्ति पर पड़ी । झींगुरों की आवाज के बीच ‘टक-टक’ करते उसके कदम उसके पास जाकर ठहर गए । बेंच पर, खुद को फ़टे से कम्बल में लपेटे बड़ी- बड़ी उलझी दाढ़ी, चीकट बाल और मैले-कुचैले कपड़ों वाला एक भिखारीनुमा व्यक्ति अधलेटा सा पड़ा था । वह बेंच पर डंडा बजाते हुए गरजा :
” चलो उठो यहाँ से । इधर सोना मना है ।”
वह हड़बड़ा कर उठा । हाथ में डंडा थामे खाकी वर्दीधारी को देख वह बिना कुछ कहे वहाँ से खिसक गया ।
दूसरी रात भी वह व्यक्ति उसी बेंच पर लेटा था । उसके पास जाकर कांस्टेबल कड़क अंदाज में बोला :
“चलो उठो यहाँ से । कल बात समझ नहीं आई थी ? कोई पियक्कड़ मालूम पड़ते हो ?”
“साहब , पियक्कड़ नहीं, बेघर हूं । ठण्डी ज्यादा थी तो ….।”
वह इससे ज्यादा नहीं कह पाया और शरीर को कम्बल से ढाँप पाँव घसीटता हुआ वहाँ से चला गया ।
अगली रात दाँत किटकिटाने वाली ठण्ड थी। बर्फीली हवा शरीर में सिरहन पैदा कर रही थी । गश्त लगाते कांस्टेबल की नजर फिर से उस भिखारीनुमा व्यक्ति पर पड़ी जो बेंच पर गठरी बना लेटा था । वह एक क्षण के लिए उस ओर मुड़ा; पर कुछ सोचकर उसके पाँव वहीँ ठिठक गए । वह उस तक जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया और कुछ देर पहले सड़क किनारे सुलगाये अलाव पर हाथ सेंकने लगा ।
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6-सलीब पर पिता
आज मदनलाल जी को मालिक के बेटे ने ऐसी झाड़ पिलाई, उनकी आँखें छलछला आईं। किसी पार्टी का ऑर्डर डिलीवर नहीं हो पाया था, नतीजन वो उन पर राशन-पानी लेकर चढ़ गया। न कहने वाली भी कितनी-ही खरी-खोटी सुनाकर वह अपने केबिन में चला गया।
‘‘बुढ़ापे में दिमाग सठिया गया है। मैं कितना कहता हूँ कि एक्स्टेंशन किसी को मत दो।’’ अन्दर वह अपने बाप पर बरस रहा था, ‘‘हम व्यापार करने को बैठे हैं या धर्मादा चलाने को… अभी इसका हिसाब साफ करो और दफा करो।”
केबिन से निकलकर ये तीर उनके कलेजे में आ गुभे। उनका मन हुआ कि जिल्लतभरी इस नौकरी को तुरन्त लात मार दें। रिटायरमेंट के पहले भी वे इस तरह बेइज्जत होते आए थे, लेकिन अब तो दोनों बेटे अच्छी कंपनी में सेट हो गए हैं और बढ़िया कमा रहे हैं। अगर उन्हें इस अपमान के बारे में पता चल गया तो कल से कतई यहाँ नहीं आने देंगे। रिटायरमेंट के बाद वे एक्सटेंसन पर हैं; शायद तभी नजरों में खटकते हैं। उन्होंने मन बना लिया कि आज शाम घर जाकर सब-कुछ साफ-साफ बयान कर देंगे; और वही उन्होंने किया भी। सारा दुखड़ा बेटों के आगे रो दिया।
‘‘पिताजी, प्राइवेट नौकरी में तो यह सब चलता रहता है ।’’ बड़े बेटे ने हँसते-हँसते ज्ञान दिया, ‘‘अगर मालिक कुछ नहीं कहेगा ,तो उसे मालिक कौन कहेगा…..! जैसे अब तक करते आए थे, वैसे ही—बस, एक कान से सुनते और दूसरे से निकालते रहिए।”
“वैसे भी, आपको कुछ दे ही रहे हैं न ! वरना रिटायरमेंट के बाद कौन किसी को नौकरी पर रोकता है।” उसके बाद छोटे बेटे के शब्द उनके माथे से टकराए।
वे उन दोनों को देखते रह गए—एकदम मूक।
अगली सुबह, भरे मन से फैक्टरी की ओर चल दिए। लेकिन, आज से उन्हें बेटों के भविष्य के लिए नहीं, खुद अपने लिए तिरस्कृत होना था।
-0-कुणाल शर्मा,137 , पटेल नगर (जण्डली ),अम्बाला शहर : 134003<हरियाणा
साहित्य की कोई भी विधा हो, जब वह विकास करती है, तो उसमें अनेक पड़ाव आते हैं जो उसके विकास को गति देते हैं ।लघुकथा भी इस तथ्य का अपवाद नहीं है । यों तो लघुकथाओं का उद्भव विद्वानों ने वेदों से माना है किन्तु जहाँ तक हिन्दी–साहित्य का प्रश्न है तो डॉ राम निरंजन परिमलेन्दु के अनुसार, 1874 ई में बिहार के सर्वप्रथम हिन्दी साप्ताहिक–पत्र ‘बिहार–बन्धु’ में कतिपय उपदेशात्मक लघुकथाओं का भी प्रकाशन हुआ था । इन लघुकथाओं के लेखक मुंशी हसन अली थे जो बिहार के प्रथम हिन्दी–पत्रकार भी थे । इसके पश्चात् 1875 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की लघुकथाओं का संकलन ‘परिहासिनी’ प्रकाश में आया ।
1885 ई के आसपास तपस्वी राम ने पर्याप्त लघुकथाएँ लिखीं ,जो उनकी पुस्तक ‘कथा–माला’ में संगृहीत हैं । उनकी ये लघुकथाएँ नीति–कथाओं के निकट होते हुए भी वर्तमान लघुकथा की परंपरा की आरंभिक कड़ियों का सुखद एहसास कराती हैं । सन् 1912 के आसपास ईश्वरी प्रसाद शर्मा ने ‘गल्पमाला’, ‘ईसप की कहानियाँ भाग–3’, ‘पंचशर’ आदि लघुकथा–संकलन संपादित किये । 1924 ई में आचार्य शिवपूजन सहाय की लघुकथा ‘एक अद्भुत कवि’ कलकत्ता से प्रकाशित पत्रिका ‘मारवाड़ी’ में प्रकाशित हुई थी । 1928 ई में लक्ष्मी नारायण ‘सुधांशु’ ने साहित्य में स्वीकृत नौ रसों में प्रत्येक रस पर एक–एक लघुकथा लिखी, जिनमें हास्य और व्यंग्य रस पर लिखी उनकी लघुकथाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । उसी काल में प्रफुल्ल चन्द्र ओझा ‘मुक्त’ ने भी अनेक लघुकथाएँ लिखीं, जो ‘सरस्वती’जैसी ख्याति प्राप्त साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित हुईं । ‘सरस्वती’ के अतिरिक्त उस काल की अन्य अनेक पत्रिकाओं में भी उनकी लघुकथाएँ प्रकाशित हुईं । पंडित जनार्दन प्रसाद झा ‘द्विज’ के विषय में ललित मोहन शुक्ल लिखते हैं, ‘’द्विज जी ने 1929-30 में कुछ लघुकथाएँ लिखीं वे तत्कालीन पत्र–पत्रिकाओं में ससम्मान स्थान प्राप्त करती रहीं ।’’
प्रेमचंद 1930 से अपनी पत्रिका ‘हंस’ में लघुकथाओं में प्रकाशन कर रहे थे । ‘हंस’, वर्ष 2 अंक 1–2 पृष्ठ 65 पर नेपाल के श्री विश्वेश्वर प्रसाद कोईराला की लघुकथा ‘अपनी ही तरह’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी । इसी तरह की एक अन्य लघुकथा बालकृष्ण बलदुवा की ‘भूलने दे’ शीर्षक से उसी अंक के पृष्ठ 91 पर प्रकाशित हुई थी । अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद की पत्रकारिता’ के पृष्ठ 47 पर डॉ सरदार सुरेन्द्र सिंह लिखते हैं -वस्तुत: लघुकथा का प्रचलन प्रेमचंद के ‘हंस’ ने ही किया । सुरेन्द्र सिंह की इस बात से सहमत होना आसान नहीं है इसलिए कि इससे पूर्व 1874 में ‘बिहार–बन्धु’ ‘लघुकथा’ नाम से ही लघुकथाएँ प्रकाशित करता रहा है किन्तु सुरेन्द्र जी के इस उद्धरण से यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि प्रेमचंद लघुकथाओं को लघुकथा शीर्षक यानी स्तंभ के अन्तर्गत प्रकाशित कर रहे थे । लघुकथा हेतु यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि । लगभग इसी काल में यानी 1935 ई में आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री भी इस विधा के विकास में अपना योगदान दे रहे थे । उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में मुझसे (डॉ सतीशराज पुष्करणा) कहा था-“संभवत: 1935 से 1955 ई के बीच की अवधि में लगभग 70-80 लघुकथाएँ लिखीं । उन्होंने और आगे बताया कि उनकी एक सौ एक लघुकथाएँ ‘चलन्तिका। नामक लघुकथा–संग्रह में संगृहीत हैं, जो अभी तक अप्रकाशित है ।
इसके पश्चात् तो लघुकथा शनै: शनै: विकास की यात्रा तय करती रही । प्राय: लघुकथाएँ आदर्शों की बातें करती रही । ऐसे में जो कथाकार सक्रिय रहे उनमें माखनलाल चतुर्वेदी, पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी, जयशंकर ‘प्रसाद’, प्रेमचंद, माधवराव सप्रे, सुदर्शन, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, रामधारी सह ‘दिनकर’, रामेश्वरनाथ तिवारी, मोहनलाल महतो ‘वियोगी’, दिवाकर प्रसाद विद्यार्थी, बैकुण्ठ मेहरोत्रा, रावी, श्रीपतराय, कामताप्रसाद सह ‘काम’, शांति मेहरोत्रा, राम दहिन मिश्र इत्यादि प्रमुख हैं ।
लघुकथा के विकास में एक पड़ाव सन् 1942 में तब आया जब बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ ने लघुकथा को परिभाषित किया । यह परिभाषा बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ की चर्चित पुस्तक ‘साहित्य–साधना की पृष्ठभूमि’ के पृष्ठ 267 पर प्रकाशित है । फिर इसी परिभाषा को लक्ष्मीनारायण लाल ने बहुत ज़रा–से हेर–फेर के साथ हिन्दी–साहित्य कोश, भाग.1 के पृष्ठ 740-741 पर प्रकाशित कराया ।
इस विकास–क्रम को रामवृक्ष बेनीपुरी, केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’, राधाकृष्ण, ज्योति–प्रकाश, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र, आनंद मोहन अवस्थी, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, भृंग तुपकरी, डॉ ब्रजभूषण प्रभाकर, श्यामलाल ‘मधुप’, शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ , रामेश्वर
नाथ तिवारी, श्याम नंदन शास्त्री, मधुकर गंगाधर, चन्द्र मोहन प्रधान इत्यादि कथाकारों ने आगे बढ़ाया ।
1962 में ‘कादम्बिनी’ में डॉ सतीश दुबे एवं डॉ कृष्ण कमलेश की लघुकथाओं से लघुकथा का पुनरुत्थान काल आरंभ होता है । आधुनिक लघुकथा का प्रथम पड़ाव वास्तव में ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ (संपादक : भगीरथ एवं रमेश जैन) से शुरू होता है । इसके प्रकाशन में सहयोग एवं दिशा–निर्देशन डॉ त्रिालोकी नाथ व्रजबाल का रहा । इस संग्रह की लघुकथाओं में पारंपरिक लघुकथाओं एवं आधुनिक लघुकथाओं का संगम मिलता है । इस संग्रह ने लघुकथा के लिए आगे का रास्ता बनाया जिसका प्रभाव लघुकथा के अगले पड़ाव डॉ शमीम शर्मा के सम्पादकत्व में 1983 में प्रकाशित ‘हस्ताक्षर’ में दिखा । इस संग्रह में परंपरागत लघुकथाएँ पीछे छूटती नज़र आईं और आधुनिक लघुकथाएँ अपना दमखम दिखाती सामने आईं । इस कृति में लघुकथाओं के साथ–साथ अनेक महत्त्वपूर्ण लेख भी प्रकाशित थे । ये सभी लेख जहाँ लघुकथा के इतिहास पर प्रकाश डाल रहे थे, वहीं कुछ लेख लघुकथा की शास्त्रीयता भी सिद्ध कर रहे थे । यों ‘हस्ताक्षर’ से पूर्व 1977 डॉ शंकर पुणतांबेकर के सम्पादकत्व में ‘श्रेष्ठ लघुकथाएँ’ का और इसके ठीक दो वर्षों पश्चात् ‘आठवें दशक की लघुकथाएँ’ का प्रकाशन डॉ सतीश दुबे के संपादकत्व में हुआ । ये दोनों संकलन अपनी भूमिका में सफल रहे किन्तु वैचारिक स्तर पर कोई विशेष दिशा–निर्देश नहीं दे सके । हाँ ! 1978 में जगदीश कश्यप एवं महावीर जैन के सम्पादकत्व में ‘छोटी–बड़ी बातें’ प्रकाश में आया । इसकी लघुकथाएँ अपने काल के हिसाब से तो श्रेष्ठ थीं (किन्तु इसमें प्रकाशित लेख भी थे जो पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में उतने सफल नहीं हो सके जितना उन्हें ‘उस काल में’ होना चाहिए था । कारण वह काल ऐसा था जब लघुकथा अपनी पुरानी केंचुल उतारकर नयी केंचुल धारण कर रही थी, ऐसे में कुछ ऐसे ही लेखों की आवश्यकता थी जो नई–पुरानी लघुकथाओं के संध्किाल पर प्रकाश डालते तो भावी लघुकथा हेतु कुछ सार्थक दिशा प्राप्त हो पाती,जो न हो पाया ।यह कार्य ‘हस्ताक्षर’ (संपादक : डॉ शमीश शर्मा) ने किया ।
1983 ई में लघुकथा ने फिर एक अगले पड़ाव पर पहुँची जब डॉ सतीशराज पुष्करणा के सम्पादकत्व में लघुकथा के आलोचना–पक्ष पर प्रकाश डालते लेखों का संकलन ‘लघुकथा : बहस के चौराहे पर’ प्रकाशित हुआ । यह अपने ढंग की लघुकथा–जगत् में प्रथम पुस्तक थी । इसकी सर्वत्र चर्चा एवं प्रशंसा हुई । इस पुस्तक के लेखों ने भावी लघुकथा की दिशा लगभग तय कर दी और लघुकथा उस दिशा पर चलकर सफलता की मंजि़लें तय करने लगी । डॉ पुष्करणा के ही संपादकत्व में 1984 में ‘तत्पश्चात्’, ‘लघुकथा : सर्जन एवं समीक्षा’ , ‘लघुकथा की रचना–प्रक्रिया’, ‘लघुकथा : एक संवाद’, ‘अँधेरे के विरुद्ध का सौंदर्य शास्त्र’ तथा कृष्णानंद कृष्ण के संपादकत्व में प्रकाशित ‘लघुकथा : सर्जना एवं मूल्यांकन’ एवं उनके एकल लेखों का संग्रह ‘लघुकथा : दिशा एवं स्वरूप’ इत्यादि पुस्तकें प्रकाश में आईं । इन पुस्तकों में प्रकाशित लेखों के प्रभाव से लघुकथा–सृजन काफी निखरा ।
1984 में श्री चन्द्र भूषण सिंह ‘चन्द्र’ का दूसरा संग्रह ‘मिट्टी की गंध’ प्रकाश में आया जिसमें उनकी सैंत्तीस लघुकथाओं के अतिरिक्त कृष्णा कुमार सिंह का शोधपरक लेख तथा ‘नौवें दशक की लघुकथाओं पर एक दृष्टि’ के साथ–साथ 1980 से लेकर 1984 तक प्रकाशित लघुकथा–संग्रह, संकलन तथा उनके प्राप्ति स्थान दिए गए हैं जिससे यह कृति लघुकथा के विकास में एक पड़ाव के रूप में चर्चित हुई । 1985 में सिद्धेश्वर एवं तस्नीम के सम्पादकत्व में ‘आदमीनामा’ का प्रकाशन हुआ । जिसमें बिहार के ही आठ लेखकों की दस–दस लघुकथाएँ संकलित थीं । इन आठ लेखकों में डॉ सतीशराज पुष्करणा, चितरंजन भारती, निविड़जी शिवपुत्र, रामयतन प्रसाद यादव, सिद्धेश्वर, तारिक असलम ‘तस्नीम’ इत्यादि थे । इसमें एक लेख भी था जो किसी स्तर पर भी विचार करने को बाध्य नहीं करता था ।
इसी काल में अरविन्द एवं कृष्ण कमलेश के संयुक्त सम्पादकत्व में ‘लघुकथा : दशा एवं दिशा’ प्रकाशित हुई जिसकी लघुकथाएँ एवं विचार–पक्ष में दिए गए लेख काफीफी विचारोत्तेजक थे । अपने इन्हीं गुणों के कारण इस कृति को पर्याप्त ख्याति प्राप्त हुई । इस कृति ने अनेक नये एवं सशक्त हस्ताक्षर लघुकथा को दिये जो आज भी अपनी रचनाओं के कारण ख्यातिलब्ध हैं ।
1986 ई में ‘प्रत्यक्ष’ (सं डॉ सतीशराज पुष्करणा) लघुकथा में एक ऐसा पड़ाव था जिसने सृजन–पक्ष एवं विचार–पक्ष दोनों को न मात्र समृ( किया अपितु भावी लघुकथा में होने वाले परिवर्तनों की ओर भी संकेत किये जो लघुकथा के आकार एवं विषय–वस्तु पर केन्द्रित थे । जिसका प्रभाव यह हुआ कि लघुकथा के आकार में विस्तार होना आरंभ हुआ और घिसे–पिटे विषयों को छोड़कर इसे नये विषयों के साथ–साथ लघुकथा को संवेदनात्मक बनाने पर भी चर्चा थी । इसी काल में ‘आयुध’ (सं कमल चोपड़ा) ‘आतंक’ (सं नंदल हितैषी एवं संयोजक ध्ीरेन्द्र शर्मा) , ‘हालात’ एवं ‘प्रतिवाद’, (सं कमल चोपड़ा) , ‘पड़ाव और पड़ताल’ (सं मधुदीप) , रमेश कुमार शर्मा ‘अन्जान’ का शोध–प्रबंध ‘हिन्दी लघुकथा : स्वरूप एवं इतिहास’ 1989 में प्रकाशित हुआ । इन सारी कृतियों ने लघुकथा–जगत् में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की । ये सारी कृतियाँ अपने आप में नई एवं दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक–दूसरे की पूरक सिद्ध हुई हैं । इससे लघुकथा–सृजन एवं समीक्षा दोनों के ध्रातल पर समृद्ध हुईं । अब सृजन एवं समीक्षा–कार्य साथ–साथ विकास पाने लगे ।
लघुकथा–जगत् में एक नया मोड़ तब आया जब 1985 से क्रमश: ‘कथानामा’, ‘कथानाम’–2 एवं ‘कथानामा’–3 बलराम के संपादकत्व में प्रकाशित हुए । इनमें दस–दस लघुकथाकारों की सचित्र–परिचय के दस–दस लघुकथाएँ एवं इनमें एक–एक गंभीर लेख प्रकाशित थे । मूल्यांकन किए जाने की दृष्टि से बलराम का यह कार्य कापफी सराहा गया । पिफर बलराम यहीं नहीं रुके उन्होंने पिफर क्रमश: ‘हिन्दी लघुकथा कोश’ (1977) ‘भारतीय लघुकथा कोश 1–2’ (1993) और ‘लघुकथा विश्व–कोश 1.4’ (1995) इनके संपादन में प्रकाशित हुए । इनमें लघुकथाएँ एवं लेख दोनों साथ–साथ प्रकाशित थे । इसें संदेह नहीं बलराम के इस कार्य ने लघुकथा के विकास एवं सम्मान में कापफी वृद्धि की । 1990 ई में डॉ सतीशराज पुष्करणा के सम्पादकत्व में 730 पृष्ठों की एक बड़ी पुस्तक ‘कथादेश’ प्रकाश में आयी । इस पुस्तक में 25 कथाकारों
की 25–25 लघुकथाएँ, चित्र, परिचय एवं लेखक का वक्तव्य के साथ प्रकाशित हुए । इसमें एक खंड ‘विचार–पक्ष’ का भी था जिसें अनेक महत्त्वपूर्ण लेख थे । प्रो निशांतकेतु का चर्चित लेख ‘लघुकथा की विधागत शास्त्रीयता’ भी इसी पुस्तक में शामिल था । यह पुस्तक काफी चर्चित रही । इस पुस्तक ने पाठकों एवं लघुकथा–लेखकों को सोचने–समझने हेतु विवश किया कि वे अपने भीतर स्वयं अपने रचना–कर्म का ईमानदारी से मूल्यांकन करें और वांछित सुधार हेतु चर्चा–परिचर्चा करें, बात करें, बहस करें, संवाद स्थापित करें । इस दिशा में जगह–जगह पर गोष्ठियों का सिलसिला बढ़ा जिसके सार्थक परिणाम सामने आये कि ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच’ के तत्त्वावधान में 1988 ई से 2012 ई पचीस अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन, पटना में आयोजित हुए जिनमें फतुहा (1991) , बरेली (2000) और हिसार (2001) में हुए । देश के अन्य अनेक स्थानों पर गोष्ठियाँ, संगोष्ठियाँ और सम्मेलनों का सिलसिला चल पड़ा । फ़रवरी 2008 में रायपुर में विश्व लघुकथा सम्मेलन भी हुआ और लघुकथा विकास की राह पर और आगे बढ़ी ।
एक दौर यह भी आया जब विभिन्न राज्यों से अपने–अपने राज्य के रचनाकारों को लेकर संकलन संपादित किए गए जिसमें ‘बिहार की हिन्दी लघुकथाएँ’ एवं ‘बिहार की प्रतिनिधि् हिन्दी लघुकथाएँ’ (दोनों के संपादक डॉ सतीशराज पुष्करणा) , ‘हरियाणा का लघुकथा–संसार’ (संपादक: रूप देवगुण एवं राजकुमार निजात) , ‘राजस्थान का लघुकथा–संसार’ (संपादक : महेन्द्र सह महलान एवं अंजना अनिल) जैसे उल्लेखनीय संकलन प्रकाश में आए । इनके अतिरिक्त 2004 में डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र के संपादकत्व में ‘कल के लिए’ प्रकाश में आया जिसमें हिन्दी की प्राय: तमाम महिला लघुकथा–लेखिकाओं की लघुकथाओं के साथ स्वयं संपादक का लेख ‘हिन्दी–लघुकथा के विकास में महिलाओं का योगदान’ प्रकाशित था । इसी वर्ष ‘राजस्थान की महिला लघुकथाकार’ (संपादक : महेन्द्र सह महलान एवं अंजना अनिल) प्रकाश में आया । ये सभी संकलन इसीलिए महत्त्वपूर्ण थे कि ये एक जगह, एक ही राज्य एवं महिलाओं की रचनाओं के साथ–साथ इन पुस्तकों में प्रकाशित लेख लघुकथा के इतिहास पक्ष को पर्याप्त बल दे रहे थे । इस दिशा में बलराम के संपादकत्व में भी पर्याप्त कार्य हुआ है । लघुकथा–इतिहास–लेखन के क्रम में ये सारी कृतियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकेंगी ।
लघुकथा–जगत् में पिफर एक पड़ाव ऐसा आया जिसमें एक विषय को केन्द्र में रख कर वैसी ही लघुकथाओं के संकलन प्रकाशित किए गए जिनमें सुकेश साहनी के संपादकतत्व में ‘स्त्री–पुरुष सम्बन्धोंकी लघुकथाएँ’ (1992) , ‘, ‘देह–व्यापार की लघुकथाएँ’ (1997) , ‘महानगरों की लघुकथाएँ’ (1998) , बीसवीं सदी की लघुकथाएँ’ (2000) तथा रूप देवगुण के संपादन में ‘शिक्षा–जगत् की लघुकथाएँ’ (1993) में प्रकाशित हुईं । नि:संदेह इन सभी पुस्तकों में ‘हिन्दी लघुकथा : उलझते–सुलझते प्रश्न’ भी अपने ढंग की निराली पुस्तक थी । इसी क्रम में 2000 में कृष्णानंद कृष्ण के सम्पादकत्व में प्रकाशित ‘शताब्दी शिखर की हिन्दी–लघुकथाएँ’ प्रकाश में आई । इन पुस्तकों ने जहाँ पूर्व सदी की लघुकथाओं को शामिल रखा, वहीं इन लघुकथाओं के मूल्यांकन का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया । इन सभी पुस्तकों के सम्पादकीय अपनी विशेष अहमियत रखते थे ।
2007 में डॉ सतीशराज पुष्करणा, कृष्णानंद कृष्ण, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’ एवं डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र के संयुक्त संपादकत्व में ‘लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र’ प्रकाश में आया इसमें लघुकथा के प्राय: सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों पर केन्द्रित दस लेख तथा एक संपादकीय था । यह पुस्तक काफी चर्चित रही । इस पुस्तक की समीक्षा में डॉ शत्रुघ्न प्रसाद ने लिखा–यह सौंदर्यशास्त्र नहीं, बल्कि लघुकथा का शास्त्र है । 2008 में डॉ सतीशराज पुष्करणा प्रणीत ‘लघुकथा–समीक्षा : एक दृष्टि’ प्रकाश में आई । इस कृति में डॉ पुष्करणा के बारह ऐसे लेख थे जो 2005 के वर्ष में कृष्णानंद कृष्ण, डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र, नरेन्द्र प्रसाद ‘नवीन’, रामयतन प्रसाद यादव, सी रा प्रसाद, उर्मिला कौल, पुष्पा जमुआर, वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज इत्यादि लघुकथाकारों के हुए एकल–पाठ के अवसर पर पढ़े गए डॉ पुष्करणा के लेखों का संग्रह है, जिसके अन्त में कई दर्जन उत्कृष्ट लघुकथाएँ भी दी गयी थीं । यह भी अपने आपमें एक प्रयोग था, जो लघुकथा–समीक्षा–कार्य को बल एवं विकास देता है ।
डॉ रामकुमार घोटड़ ने भी लघुकथा के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । उनके संपादकत्व में ‘प्रतीकात्मक–लघुकथाएँ’ (2006) , ‘पौराणिक संदर्भ की लघुकथाएँ’ (2006) , ‘अपठनीय लघुकथाएँ’ (2006) ‘दलित समाज की लघुकथाएँ’ (2008–2011) , ‘भारतीय हिन्दी लघुकथाएँ’ (2010) , ‘लघुकथा–विमर्श’ (2009) ‘राजस्थान के लघुकथानगर’ (2010) , ‘भारत का हिन्दी लघुकथा–संसार’ (2011) ‘कुखी पुकारे’ (2011) ‘हिन्दी की समकालीन लघुकथाएँ (2012) ‘आजाद़ भारत की लघुकथाएँ’ (2012) इत्यादि पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । ये सभी महत्त्वपूर्ण हैं । उनमें क्या है ? यह पुस्तकों के नाम से ही स्पष्ट है । इन पुस्तकों से जहाँ शोधार्थी लाभान्वित होंगे ,वहीं लघुकथा पर विचार करने वालों को विचार करने की दृष्टि से विभिन्न श्रेणियों की लघुकथा एकत्र करने में सुविधा होगी । लघुकथा के इतिहास–लेखन में भी ये पुस्तकें सहायक होंगी । ये सभी पुस्तकें ऐसी हैं जो लघुकथा के महत्त्वपूर्ण पड़ाव बन गयी हैं । ‘इन सब उल्लेखनीय पड़ावों के अतिरिक्त लघुकथा के विकास में अन्य जो महत्त्वपूर्ण पड़ाव सिद्ध हुए, उनमें ‘मिनीयुग’ (सं जगदीश कश्यप) , ‘आघात’ बाद में ‘लघुआघात’ (सं विक्रम सोनी) , ‘दिशा’ (सं डॉ सतीशराज पुष्करणा) और अब ‘संरचना’ (सं डॉ कमल चोपड़ा) इत्यादि लघुकथा को निर्मित पत्रिकाओं की भूमिका की भी अवहेलना करती । इसी क्रम यह बताना भी है कि विगत कई वर्षों से इंटरनेट पत्रिका ‘लघुकथा डॉट काम’ एवं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ भी महत्त्वपूर्ण पड़ाव के रूप में बहुत बढ़ा कार्य कर रही है । इस प्रकार के अन्य अनेक कार्यों की अपेक्षा है । और अन्त में इस पुस्तक यानी ‘कही–अनकही’ की चर्चा भी प्रासंगिक प्रतीत होती है, कारण यह पुस्तक हिन्दी लघुकथा की विकास–यात्र का नया एवं उल्लेखनीय पड़ाव है । इसमें श्री चन्द्र की लघुकथाओं के अतिरिक्त विचार करने योग्य ऐसी पर्याप्त सामग्री दी गई है ,जिससे विचार पर आगे कार्य करने वालों को पर्याप्त मार्ग–दर्शन सहज ही प्राप्त हो सकेगा, ऐसा मेरा विश्वास है ।
सड़क
किनारे बैठे फक्कड़ के सामने अपना रथ रोकते हुए सूरज ने कहा,”मुझे झुककर सलाम
कर!”
“तुझे
सलाम करूँ? मगर क्यों?” उसके प्रचंड प्रकाश से बचने के लिए अपना हाथ आँखों के
सामने करते हुए फक्कड़ ने पूछा।
“ये
दुनिया का दस्तूर है, चढ़ते सूरज को सभी सलाम करते हैं!” सात घोड़ों के रथ पर सवार
सूरज ने उसे समझाया।
“करते
होंगे, मगर मैं तेरे आगे सिर नहीं झुकाऊँगा! जा हवा आने दे।”
सूरज के तेज से परेशान फक्कड़ से बहुत ही निश्चिन्त स्वर में उत्तर दिया।
“मगर
क्यों नहीं झुकाएगा?” घोड़ों की लगाम कसते हुए सूरज ने आश्चर्य भरे स्वर में पूछा।
“क्योंकि
तू बहुत कमज़ोर और निर्बल है, जिस दिन सबल हो जाएगा मैं तेरे आगे सर ज़रूर झुकाऊँगा!”
सड़क की पटरी पर अपनी कथरी बिछाते हुए फक्कड़ बोला।
“कमज़ोर
और निर्बल? और वो भी मैं?” सूरज के पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक गई थी।
“हाँ!”
कथरी की सिलवटें हटाते हुए फक्कड़ ने बहुत ही आत्मविश्वास से कहा।
“तो
अगर मैं यह सिद्ध कर दूँ कि मैं सबल हूँ, तो क्या तू मुझे सलाम करेगा?” सूरज भी
हार मानने को तैयार न था।
“एक
बार नहीं, सौ-सौ बार सिर झुकाकर सलाम करूँगा!” कथरी पर लेटते हुए फक्कड़ ने सिर
हिलाते हुए स्वीकृति दी।
“तो
फिर जल्दी बता! तुझे विश्वास दिलाने के लिए मुझे क्या करना होगा?” अब सूरज के स्वर
में बेचैनी थी।
फक्कड़
ने सूरज की तरफ़ पीठ मोड़ते हुए उत्तर दिया,”एक बार, सिर्फ़ एक बार रात में उदय होकर
दिखा दे!”
यह
कहकर फक्कड़ ने अंगोछे से अपना चेहरा ढक लिया, अब सूरज का माथा पसीने से तरबतर था।
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2-कुक्कुर
जात
घटाटोप
अँधेरे को चीरकर सामने से आती टॉर्च की रौशनी ने फुसफुसाकर आने की अनुमति माँगी तो
इस ओर की टॉर्च ने धीरे-से टिमटिमाकर सुस्वागतं कहा।
दोनों
तरफ़ से कुछ साए आगे बढे। उनके क़दम एकदम मौन
थे, किन्तु चेहरों पर विचित्र-सी मुस्कान नृत्य कर रही थी।
ख़ामोशी,
मगर गर्मजोशी से हाथ मिलाने का सिलसिला शुरू हुआ।
पट्टे
से बँधा कुत्ता उस तरफ़ की हवा सूँघकर अचानक ग़ुर्राया।
“हश्श्श।”
होंठों पर उँगली रखते हुए वर्दीधारी साए ने कुत्ते को मौन रहने का आदेश दिया।
“इसे
दूर रखो यार।”
भयभीत स्वर में आगन्तुक ने कहा।
“इसे
छोड़ो, जल्दी से काम की बात करो।”
पट्टे
से बँधा कुत्ता फिर ग़ुर्राया, वर्दीवाले ने उसे घूरकर देखा तो उसकी गुर्राहट कुछ कम
हुई।
“ये
लो पूरे पाँच है, गिन लो” आगन्तुक ने एक भरी-भरकम पैकेट उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा।
“न..न..
न..! ये बात ग़लत है भई। ऐसा नहीं चलेगा। मुझे पूरा पैसा चाहिए।”
वर्दीवाले ने न में सर हिलाकर अप्रसन्नता जताई।
पट्टे
से बँधा कुत्ता फिर ग़ुर्राया। वर्दीवाले ने उसे घूरकर
देखा पर वह मौन न हुआ।
“अरे
यार पूरा पैसा ही तो दे रहा हूँ।” कनखियों से
कुत्ते की ओर देखते हुए वह बोला।
“देखो,
बात एक आदमी की हुई थी। जबकि ये तो दो हैं। इसलिए दुगनी रकम देनी होगी।”
“अरे
इतनी पुरानी दोस्ती है अपनी, जल्द ही कर दूँगा सब घाटा पूरा।”
ज़बरदस्ती पेकेट उसके हाथ में थमाते हुए वह बोला।
कुत्ता
अब ज़ोर से ग़ुर्राया।
दोनों
वर्दीधारियों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा।
“ठीक
है गुरु, तुम भी क्या याद करोगे कि किसी रईस से पाला पड़ा था।”
पेकेट अपने साथी को पकड़ाते हुए वह बोला।
कुत्ता
अचानक ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा। उसका साथी कुत्ते के
पट्टे से खींचते हुए कुछ दूरी पर गया, और उसे एक पेड़ से बाँध दिया।
“चलो
आओ भई, ज़रा जल्दी करो। ये पगडंडी सीधे तुम्हें
मंज़िल तक पहुँचा देगी।” उँगली के इशारे से रास्ता बताते हुए
वर्दीधारी फुसफुसाया।
कंधों
पर भरी-भरकम बैग लटकाए दोनों साए तेज़ी से उस पगडंडी की तरफ़ बढ़ने लगे। उनका साथी तेज़ी
से अँधेरे में ग़ायब हो रहा था। नोटों की गड्डियों
के बोझ से दबकर उन वर्दीधारियों की आत्मा तो कोमा में जा रही थी लेकिन ज़ंजीर से बँधा
हुआ कुत्ता, पगडंडी की तरफ़ बढ़ते हुए सायों की ओर देखता हुआ क्रोधभरे स्वर में लगातार
भौंके जा रहा था…भौंके जा रहा था…।
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3-धूल
सने दर्पण
पत्नी
की पीठ का दर्द दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था। सब घरेलू नुस्खे बेअसर
साबित हुए थे, अत: बाबूजी उन्हें किसी विशेषज्ञ को दिखाना चाहते थे। कई दिनों से अपने बेटे से आग्रह कर रहे थे किन्तु बेटा उनकी
बात को अनसुना करता आ रहा था। आज तो उसने दफ्तर में
काम का बहाना बनाकर माँ को साफ़ इनकार कर दिया।
बेटे
का यूँ जवाब दे देना उन्हें बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था।
पत्नी
का रुआँसा-सा चेहरा देख बाबूजी ने कहा,
“चल
भागवान, मैं ही ले चलता हूँ तुम्हें डॉक्टर के पास।”
दर्द
से लगभग कराहती हुई पत्नी को लेकर डॉक्टर के पास चल पड़े।
कॉलोनी
में निकलकर सड़क पार करते हुए पत्नी ने यकायक कम्पनी बाग़ की तरफ़ इशारा करते हुए पूछा,”देखो
जी, ये वही पार्क है न जहाँ कभी हम देर रात तक बैठे बतियाया करते थे ?”
“हाँ
!” बाबूजी ने ठंडी-सी आह भरते हुए उत्तर दिया।
“समय
कितनी तेज़ी से बीत जाता है.. नईं?”
“सही
कहती हो।”
बाबूजी के स्वर में अभी भी उदासी थी।
“चलो
न, थोड़ी देर के लिए चलें अन्दर।”
“अरे
मगर डॉक्टर के पास भी तो जाना है, ख़ामख़्वाह देर ही जाएगी।”
“थोड़ी
देर बाद चलें जाएँगे, अभी चलो न पार्क में।” पत्नी ने ज़िद
करते हुए कहा।
“अच्छा
अच्छा, चलता हूँ।”
पार्क की ओर मुड़ते हुए वे बोले। “अच्छा अब तुम
यहाँ आराम से बैठ जाओ।” पार्क में प्रवेश करते ही बेंच
की तरफ़ इशारा करते हुए बाबूजी ने कहा।
“तुम्हें
याद है बरसों पहले हम दोनों कितनी मस्ती किया करते थे यहाँ ?” पत्नी की आँखों
में एक अजीब सी चमक आ रही थी।
“हाँ
याद है ! और फिर हम स्टेशन के पास वाले ठेले से अक्सर शाम को चाट-पापड़ी भी खाने जाया
करते थे?”
“हाँ,
बिल्कुल याद है।”
“पता
नहीं क्यों आज बीते हुए वक़्त की यादें फिर से ताज़ा हो उठी हैं।”
“एक
बात कहूँ जी ?”
“हाँ
कहो न।”
“आज
हम पहले यहाँ चाट-पापड़ी खाएँगे, फिर बड़े चौक पर जाकर बर्फ़ की चुस्की।”
“तुमने
तो मेरे मुँह की बात छीन ली, हम दोनों जगह ही चलेंगे।”
“उसके
बाद माल रोड की ठंडी हवा भी खाने चलेंगे।” पत्नी का पीला
चेहरा अब गुलाबी होने लगा था।
“जो
हुकम मेरी सरकार ! तो मैं कोई ऑटो रिक्शा देखता हूँ।”
बाबूजी के स्वर में अब उत्साह था। बाबूजी अचानक पैंसठ
से पच्चीस के हो गए थे।
“ऑटो
रिक्शा क्यों जी ? हम तो यूँ ही पैदल टहलते-टहलते जाएँगे।”
पत्नी ने बेंच से उठते हुए कहा। उनकी पत्नी भी अट्ठावन
से अठारह की हो रही थी।
“अरे
इतनी दूर पैदल ? मगर तुम्हारा पीठ का दर्द…?”
“अब
कोई दर्द नहीं है जी मुझे। बस तुम हाथ पकड़ लो
मेरा।”
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4-तापमान
“पैंतीस
साल की नौकरी के बाद भी न कोई क़द्र है न कोई इज्ज़त।
ये भी
साली कोई ज़िंदगी है? इससे अच्छा तो मौत ही आ जाए, सारा टंटा ही ख़त्म हो।”
अपना स्कूटर दीवार से साथ लगाकर बाबूजी बड़बड़ाते हुए घर में दाख़िल हुए।
दरअसल आज का दिन ही मनहूस था बाबूजी के लिए। सुबह घर से काम पर जाने के लिए निकले तो तो रास्ते में स्कूटर ख़राब हो गया, सुबह-सुबह कोई मैकेनिक भी नहीं मिला तो लगभग तीन मील तक बमुश्किल स्कूटर को घसीटते हुए कारख़ाने पहुँचे। जाते ही उस नए अफ़सर ने बिना कुछ सुने बाबूजी को देर से आने पर न केवल डाँटा ;बल्कि नौकरी से निकाल देने की धमकी भी दी थी। दोपहर को पता चला कि तीर्थयात्रा पर जाने के लिए उनकी छुट्टी मंज़ूर नहीं हुई। यही नहीं अपने छोटे बेटे के दाखिले हेतु जो ऋण की अर्ज़ी दी थी, वह भी अस्वीकार कर दी गई थी। उनका खाना भी आज डिब्बे से बाहर नहीं निकला, और भोजनावकाश के समय वे बीड़ी पर बीड़ी फूँकते रहे।
“बाबूजी, पानी।” बाबूजी को देखते ही उनकी पुत्रवधू पानी का गिलास उनके सामने रखते हुई बोली।
“नहीं
बहू मुझे नहीं चाहिए, ले जाओ उठाकर।” बाबूजी के माथे
की त्योरियाँ और गहरी हो रही थी।
“इतने
परेशान क्यों हो, तबीयत तो ठीक है न? क्या हुआ है तुम्हें ?” बाबूजी की पत्नी
भी कमरे में आ पहुँची।
“कुछ
नहीं हुआ मुझे, बस तुम लोग जाओ यहाँ से।” बाबूजी ने उन्हें
उँगली के इशारे से बाहर का रास्ते दिखाते हुए कहा।
“बाऊ
जी, वो आपके लोन का क्या हुआ?” स्थिति से अनभिज्ञ छोटे बेटे ने कमरे में प्रवेश
करते ही पूछा।
उत्तर में बाबूजी ने उसे बुरी तरह घूर कर देखा, उनका यह रूप देखकर सबने वहाँ से जाना ही उचित समझा। बीड़ी सुलगाकर वे फिर बड़बड़ाने लगे:
“ये
ज़िंदगी है कि साला नरक?” कमरे की दीवारों का ज़र्द पीला रंग धीरे-धीरे उनके चेहरे
पर उतर रहा था। और वे एकटक दीवारों को घूरे जा रहे थे, उदासी का सन्नाटा
पूरे कमरे में फैल चुका था, तभी नन्ही-नन्ही पायलों की छनछन से कमरा गूँजने लगा।
“दादू,
दादू जी!!”
इन
शब्दों से उनकी तन्द्रा भंग हुई, तीन साल की पोती अचानक उनकी टाँगों से आ लिपटी और
बाबूजी के माथे से त्योरियाँ कम होने लगीं।
“अले…
ले… ले… ले! मेली गुगली-मुगली! मेली म्याऊँ बिल्ली! कहाँ चली गई थी तू? दादू जी
कब छे तुझे ढूँढ लए थे।” नन्ही पोती को उठाते हुए वे पंछी
की तरह चहक उठे थे। पोती ने भी अपना सिर उनके कंधे पर रख दिया। अब उनके चेहरे के पीलेपन पर पोती की फ़्रॉक का गुलाबी रंग
चढ़ना शुरू हो चुका था। स्नेह से उसका माथा
चूमते हुए उन्होंने पुत्रवधू को आवाज़ दी,”एक
कप गर्मा-गर्म चाय तो पिला दे बहू…ऽ…।”
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5-नारायणी
कामिनी
जबसे यहाँ आई थी उसने हमेशा अपनी सहेली सुनंदा को रसोई के साथ रसोई होते ही देखा था। उसके जीवट से ईर्ष्या भी होती लेकिन अक्सर उसे सुनंदा पर
ग़ुस्सा ही आता। क्योंकि उसके चहरे पर न तो कभी थकावट ही दिखती और न ही भाग-भाग
कर बच्चो, पति और सास-ससुर की सेवा करते हुए किसी प्रकार की झुँझलाहट ही। रोज़ की तरह आज भी उसने पहले दोनों बच्चों को तैयार करके
स्कूल भेजा, नहाने से लेकर दफ्तर जाने तक पतिदेव की सब फरमाइशें पूरी कीं। फिर सास-ससुर को नाश्ता दिया।
घर को
व्यवस्थित कर लेने के बाद अपने नाश्ते की प्लेट लिए वह हॉल में पहुँची:
“ग्यारह
बजने को आए हैं, और तू अब नाश्ता करने लगी है?” कामिनी ने अधिकार भरे स्वर में कहा।
“अरे
फ़्री होऊँगी तभी तो करूँगी न?” सुनंदा ने उसके पास बैठते हुए मुस्कुराकर उत्तर दिया।
“इतने
दिनों से देख रही हूँ, पल भर के लिए आराम नहीं तुझे” कामिनी ने अपनी कुर्सी उसके नज़दीक
सरकाते हुए कहा
“अरे
आराम ही आराम है। तू ये सब छोड़ ये बता कि लंच में क्या खाएगी?” उसकी बात को
अनसुना करते हुए सुनंदा ने पूछा।
“हे
भगवान!! अभी नाश्ता ख़त्म हुआ नहीं कि तुझे लंच की चिंता भी होने लगी?” कामिनी ने अविश्वास
भरे स्वर में कहा
“डेढ़
बजे बच्चे स्कूल से आ जाते हैं और दो बजे इनको भी तो खाना भेजना होता है न। और तू लंच की बात कर रही है मैंने तो डिनर के लिए भी चने
भिगोकर रख दिए हैं।”
“धन्य
है रे तू! किस मिट्टी की बनी है, तुझे कभी थकावट नहीं होती क्या?” दोनों हाथ जोड़कर
माथे से लगाते हुए कामिनी बोली।
“अरे
अपना घर है अपना परिवार है, थकावट कैसी?”
“मगर
तुझे भी तो आराम मिलना चाहिए न?” आत्मीयता भरे स्वर में कामिनी ने कहा।
“आराम
के लिए पूरी रात पड़ी होती है मेरी प्यारी कम्मो रानी” कामिनी की नाक को धीरे-से पकड़कर
हिलाते हुए सुनंदा ने कहा।
“इसीलिए
तो अपन ने शादी नहीं की, कौन दिनभर मुफ़्त की ग़ुलामी करे?” अपने कटे हुए बालों पर हाथ
फिराते हुए कामिनी ने बहुत ही बेफ़िक्र अंदाज़ में कहा।
“अपनों
के लिए कुछ करने को ग़ुलामी नहीं सुख कहते हैं कामिनी मैडम” कप में चाय उड़ेलते हुए उसने
कहा।
“सच
बता क्या तुझे कभी इस हाड़तोड़ रुटीन से कोफ़्त नहीं होती?” कामिनी ने अगला प्रश्न दागा।
“कोफ़्त
कैसी? मुझे तो बल्कि सच्ची ख़ुशी मिलती है ये सब करने से।”
“ख़ुशी?
मगर क्यों?” कामिनी उत्तर जानने को बेचैन थी।
“तूने
गृहस्थी नहीं बसाई न?” उत्तर देने की बजाय सुनंदा ने प्रतिप्रश्न उछाला।
“गृहस्थी?
माई फुट! हम तो आज़ाद परिंदे हैं” स्वछन्द अंदाज़ में उसने उत्तर दिया
चाय
का कप उसकी तरफ़ सरकाते हुए सुनंदा ने मुस्कुराते हुए कहा:
लिखी हुई इबारत (लघुकथा-संग्रह): ज्योत्स्ना कपिल ,प्रकाशक :अयन प्रकाशन 1 /20 , महरौली ,नई दिल्ली-110030 प्रथम संस्करण -2019 ,मूल्य :रुपये-250 ,पृष्ठ : 128
सहमा हुआ शहर (लघुकथा-संग्रह): सुरेश बाबू मिश्रा ,प्रकाशक :अयन प्रकाशन 1 /20 , महरौली ,नई दिल्ली-110030 प्रथम संस्करण -2019 ,मूल्य :रुपये-200 ,पृष्ठ : 98
जागती आँखों का सपना:हरभजन सिंह खेमकरनी,संपादन व अनुवाद: डॉ. श्याामसुन्दर दीप्ति,प्रेरणा प्रकाशन, अमृतसर,संस्करण: प्रथम, 2019 ,मूल्य: रु.100/-,पृष्ठ: 104
“तुम
बिट्टू को टोकती क्यों नहीं, उल्टा-सीधा खर्च करता है, बाद में महीने के आखिर में
पैसे का रोना रोता है।”
“तुम
क्या कम हो टोकने के लिए, जो मैं भी टोकूँ। देखा नहीं, बहू और बच्चों के
सामने जब तुम उसे डाँटते हो, तब कैसा रुआँसा हो जाता है।”
“क्या
करूँ, आदत से लाचार हूँ। मुझ से कुछ भी गलत होते नहीं देखा जाता।”
“मेरी मानो, अगर खुश रहना चाहते हो, तो अनदेखा
करना और चुप रहना सीखो।”
“अपने लाड़ले बेटे को भी कभी ऐसे समझाया
करो। दो महीने से कह रहा हूँ- ‘ इस बार जूते दिलवा दे, मेरे जूते
का तल्ला कब का फट चुका है ‘ लेकिन हर महीने कोई न कोई खर्च बता
देता है।”
“बस
भी करो, सारे दिन कुढ़ते रहते हो ? कुत्ता हड्डी चिंचोड़ेगा तो अपने
ही मसूड़ों का खून पिएगा।”
“तुम
भी बस… कुछ भी बोल देती हो। अच्छा सुनो, ध्यान रखना, कुरियर वाला आएगा। बिट्टू
कह रहा था कि उसने एक टोस्टर ऑन लाइन आर्डर किया है। अच्छा, तुम
ही बताओ, टोस्टर की क्या जरूरत थी ? ब्रेड को तवे पर सेंक कर भी तो काम
चल रहा था, फिर भी नवाबजादे ने ऑर्डर कर दिया, आने दो आज उसकी अच्छे से खबर
लेता हूँ।”
इतने
में कूरियर वाला एक पैकेट दे गया। खोल कर देखा तो दंग रह गए, उन्हीं
के लिए जूते थे। बिल्कुल वैसे, जैसे वे चाहते थे। पहन कर देखे, तो लगा जैसे मक्खन
में पैर दे दिए हों, आराम-दायक और सुन्दर।
आँखें
भीग गईं, रूँधे गले से बोले, “अजी सुनती हो, हमारा बेटा हीरा है, हीरा।”
अपनी
साँसों की ऊपर -नीचे होती रिदम को संयत करते हुए, अनिल के कान केवल अनाउंसमेंट पर
टिके थे। उसकी तरह ही अनेक सहकर्मी भी इसी ऊहापोह की स्थिति में खड़े थे।आज मंदी
की चपेट में आई कंपनी से कर्मचारियों की छटनी होने वाली थी। इसलिए सभी अपने अपने
भविष्य को लेकर चिंतित खड़े थे।
” मिस्टर अनिल शर्मा यू आर नाउ इन, एण्ड प्रमोटेड टू सीनियर पोस्ट”
अनाउंसमेंट सुनकर उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि जहाँ उसके
कई काबिल साथी नौकरी से हाथ धो बैठे थे, ऐसे में प्रमोशन होना, उसके लिए सपने से कम
नहीं था।वजह थी कंपनी के दिए कार्य को, पूरी ईमानदारी से नियत अवधि में पूरा करना तथा
कभी अनावश्यक छुट्टी न लेना था।
उसकी खुशी का पारावार नहीं था।इसलिए ऑफिस से निकल कर, रास्ते से एक सुंदर गुलाब के
फूलों का गुलदस्ता खरीद कर, टैक्सी ड्राइवर को, कार तेज चलाने को कह जल्दी बैठ गया।उसका
वश चलता तो, आज उड कर पहुंच जाता।
कार की पहियों के साथ, उसका मन भी कहीं तेजी से अतीत में घूमने लगा।
पत्नी उससे ज्यादा पढ़ी- लिखी ही नहीं, उससे समझदार भी थी। यह बात वह शादी के
कुछ दिन बाद ही समझ गया था। क्योंकि उसने आते ही घर के साथ-साथ बाहर की भी आधे
से ज्यादा जिम्मेदारियां अपने ऊपर सहर्ष ले ली थी।
अपाहिज पिता को हर हफ्ते हॉस्पिटल ले जाने के लिए, छुट्टी लेने कि उसकी समस्या को पत्नी
ने बिना किसी गिले-शिकवे के हल कर दिया, मिली राहत से, उसके दिल ने थैंक यू कहना
चाहा पर
“ये तो उसका फर्ज है”- सोच पुरुष अहं ने कहीं न कहीं रोक दिया।
बैंक,बिजली- पानी बिल आदि की लंबी लाइनों में, खड़े होने की उबाऊ जद्दोजहद
से भी उसे आजाद कर दिया , तब उसके दिल ने खुश हो थैंक्यू बोलना चाहा तो
ठीक है, इतना बडा काम भी नहीं कर रही”- पुरुष अहं फिर आडे आ गया।
बच्चों को लगातार मिल रही सफलता से पिता होने के नाते अपनी तारीफ सुन, वह गर्व
से भर उठता और उसका दिल पत्नी को धन्यवाद कहने आतुर हो उठता,
” तो क्या हुआ? ये तो माँ का ही फर्ज होता है”- पुरुष अहं ने एकबार फिर फन
उठाकर उसे रोक लिया।
” सर ..आपका घर आ गया”- ड्राइवर की बात सुनकर, वह अतीत से वर्तमान में लौटा।
गेट के बाहर, पत्नी को बेचैनी से चहल कदमी करते देख, जल्दी उसके पास पहुंचकर, गुलदस्ता
देते हुए मुस्कुराकर बस एक ही शब्द कहा
” थैंक यू”
आज पुरुष अहं पहली बार दूर मौन खडा था।