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Channel: लघुकथा
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संवेदनशीलता

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बहुत दिनों के बाद मुझे कुछ अच्छा असाइनमेन्ट मिला था। न्यूज रूम में पोप जॉन पॉल द्वितीय पर सभी स्क्रिप्ट लिखने और वीडियों एडिटिंग करवाने की जिम्मेदारी मुझे दी गई थी। दरअसल मैंने ही अपने बॉस को बताया था कि पोप की सेहत लगातार गिर रही है। ऐसा लगता है कि ये जल्दी भगवान को प्यारे हो सकते हैं। न्यूज चैनल के लिए ये एक बहुत बड़ी खबर होगी। ऊँचे तबके के लोगों की इस खबर पर पेनी नजर है। क्यों न पोप पर कुछ अच्छे पैकेज पहले से बनाकर रखे जाएँ। कभी इनकी मौत हो गई तो फिर हम दूसरे चैनलों के मुकाबले इसे अच्छे से कवर कर पाएंगे। बॉस को ये आइडिया पसन्द आया और उन्होंने ये जिम्मेदारी मुझे ही सौंप दी।

            ‘‘आखिरकार लम्बी बीमारी के बाद पोप जॉन पॉल द्वितीय नहीं रहे।’’ ‘‘पोप की मौत से पूरी दुनिया में शोक की लहर फैल गई है।’’ कुछ ऐसी ही शुरुआती पँक्तियों के साथ मैंने स्क्रिप्ट लिखनी शुरू की। हर दृष्टिकोण से पोप पर मैंने कई पैकेज तैयार किए।

            लेकिन पोप हैं कि गम्भीर बीमारी के बावजूद कई दिनों तक अन्तिम घड़ियाँ गिनते रहे। अब मरे,तब मरे की स्थिति थी। इसी में एक हफ्ता गुजर गया। मैं जबरदस्त मेहनत करके अब तक कई पैकेज बना चुका था। लेकिन ये पैकेज तभी चलाए जा सकते थे जब पोप की मौत हो जाए। इधर पोप न तो पूरी तरह ठीक हो रहे थे और न ही उनकी सेहत में सुधार हो रहा था। पर इस चक्कर में मैं बेकाम हो गया था। कहाँ तो मैं एक नये कान्सेप्ट के साथ आगे बढ़ने की सोच रहा था, लेकिन मेरे सहकर्मी ही मेरा मजाक उड़ा रहे थे कि साले क्या कर रहे हो। थक हारकर एक दिन मैंने तय किया कि अब सारी स्टोरी लाइब्रेरी में जमा करके किसी दूसरे एसाइनमेन्ट में लग जाऊँगा।

            एक दिन थका हारा मैं घर पहुँचा कि अचानक मेरे एक साथी का फोन आया और उसने बताया कि पोप की मौत हो चुकी है। मैं काफी खुश हुआ कि अब मेरी सभी स्टोरी चलेंगी। मैं बिना देर किए दफ्तर पहुँच गया। तब तक कई स्टोरी चल चुकी थी। सभी सहकर्मी मुझे बधाई दे रहे थे कि मैंने कितना बढ़िया काम किया है। दूसरे चैनल जहाँ पोप की वही घिसी पिटी खबर दिखा रहे थे, वहाँ हम इसका बेहतरीन करवेज सभी एंगल से कर रहे थे। कुछ सहकर्मियों ने बधाई देते हुए कहा कि लग ही नहीं रहा कि ये स्टोरी मैंने पोप की मौत से पहले लिखी है। तभी एक शख्स की आवाज सुनाई पड़ी कि यही तो एक पत्रकार की संवेदनशीलता है।

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पसंदीदा लघुकथाएँ

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        स्वाध्याय का अभ्यास अथवा व्यसन तो मुझे तबसे रहा है, जब मैने पूरा वाक्य पढ़ना सीख लियाथा , परन्तु लेखन का श्रीगणेश मेरी किशोरावस्था में उपन्यास से हुआ। प्रारंभ में तीन उपन्यास लिखे,तदुपरांत कविता की ओर मुड़ी।विवाह के पश्चात ढेर सारे दायित्वों के निर्वहन हेतु  कई वर्ष तक कलम थमी रही। फिर अंतर्जाल के माध्यम से एक सहज सुलभ फ़लक मिला, अपने इस शौक को पुनः जाग्रत करने का।यहीं मैंने लघुकथाएँ पढ़ीं और  लेखन की ओर आकृष्ट हुई। लघुकथा वर्तमान परिदृश्य में तेजी से उभरती,पैठ बनाती, पाठकों के दिलो- दिमाग को झिंझोड़ती विधा है। इसके लेखन अथवा पठन में अपेक्षाकृत कम समय लगता है। आज, जब मानव जीवन  सैकड़ों तरह की आपाधापी से जूझ रहा है, तो ऐसे में समय का अभाव बहुत ज्यादा हो गया है। इस युग की ज़रूरत है लघुकथा, यही वजह रही कि मैंने लेखन हेतु मुख्य रूप से लघुकथा का चुनाव किया ।

         जब बात करूँ अपनी पसंद की लघुकथाओं की तो कई लघुकथाएँ ज़हन में उभरती हैं ,जो मुझे बेहद प्रिय है। युगल जी की पेट का कछुआ, श्याम सुंदर अग्रवाल जी की माँ का कमरा,बलराम अग्रवाल जी की बिन नाल का घोड़ा, चित्रा मुद्गल जी की दूध,काम्बोज जी की नवजन्मा, अशोक भाटिया जी की कपों की कहानी, सुकेश साहनी जी की कई कथाएँ, ईश्वर, बिरादरी,ठंडी रजाई इत्यादि। यहाँ आज मैं जिन दो लघुकथाओं की बात करूँगी उनमें आदरणीय सुकेश साहनी जी की मेंढकों के बीच और नवोदित लघुकथाकार डॉक्टर कुमार सम्भव जोशी जी की शयनेषु रम्भा है।

         साहनी जी मेरे सबसे पसंदीदा लघुकथाकार रहे हैं। उन्हें मैं तबसे पढ़ती आ रही हूँ, जब लघुकथा के विषय में मुझे कोई जानकारी नहीं थी, बस उनका नाम देखकर जो भी रचना सामने होती थी, उसे पढ़ डालती थी। साहनी जी की कथाओं की विशेषता यह है कि वे बहुत गूढ़ होती हैं। उनका अंत आते- आते आप चौंक उठते हैं, चमत्कृत हो जाते हैं। उनकी कथाओं में जो गहराई होती है, वह आसानी से कहीं और नज़र नहीं आती।

          प्रस्तुत लघुकथा मेंढकों के बीच किस्सागोई शैली में कही गई है। जैसा की साहित्य का दायित्व है समाज की विद्रुपताओं एवम विडंबनाओं पर प्रहार करना तथा समाज को संस्कार देना । यह लघुकथा उस मापदण्ड को पूरी तरह से पूर्ण करती है। इसमें मेंढकों एवम उनकी कूपमण्डूकता को प्रतीक बनाकर समाज के संकीर्ण सोच वाले उन अकर्मण्य लोगों पर कटाक्ष किया गया है ,जो बोलते बहुत कुछ हैं– ऊँचे आदर्श, विशाल हृदयता, बड़े बड़े सिद्धांत। परन्तु जब बात आती है कुछ करने की तो अपनी निष्क्रियता नहीं तोड़ पाते। वे जाति, धर्म, सम्प्रदाय जैसी निम्न विचारधारा में उलझे रह जाते हैं। सारा दोष दूसरों पर डालकर स्वयं पाक साफ़ बने रहते हैं। सारी अच्छाई अपने लिए और सारे दोष दूसरों के। 

          इस लघुकथा में बिम्ब का इस्तेमाल बहुत खूबसूरती से किया गया है, जो कि साहनी जी की विशेषता है। बरसों पहले लिखी गई यह लघुकथा आज भी प्रासंगिक है और आने वाले पचास वर्षों में भी उतनी ही प्रासंगिक रहेगी। यहाँ सीधे तौर पर कोई उपदेश नहीं दिया गया है। एक बच्चे को कहानी सुनाते हुए पात्र बहुत सरल अंदाज में मेंढ़कों का निरर्थक टरटराना और कुछ भी सार्थक न करना प्रस्तुत करता है। जो कि अक्सर ओछी और निम्न मानसिकता से घिरे लोग करते हैं। जब बालक प्रश्न करता है कि मदद करने वाला व्यक्ति हिन्दू था अथवा मुसलमान, तो वह बस इतना कहता है कि वह जो भी था बस एक अच्छा आदमी था। इस मसले में जो पड़ेगा वह मेंढक में बदल जाएगा, अर्थात मनुष्यता भूलकर सिर्फ निरर्थक बकवाद ही करेगा। इस कथा का प्रस्तुतीकरण बेहद शानदार, संवाद पात्रानुकूल हैं।+

        दूसरी कथा नवोदित कथाकार डॉक्टर कुमार सम्भव जोशी जी की ‘ शयनेषु रम्भा ‘ जब मैंने पढ़ी तो हैरान रह गई। एक अलहदा अंदाज में लिखी गई यह नारी विमर्श की एक बहुत बोल्ड और तीखी लघुकथा है। बरसों से अपने दायित्वों की चक्की में पिसती एक नारी को कैसे शोषित किया जाता है, कभी घरेलू हिंसा तो कभी शारीरिक शोषण। हर तरह से उसे दबाया कुचला जाता है। परंतु जब वह सर उठाती है ,तो हंगामा हो जाता है। वह थकी है, बीमार है, अनिच्छा है अथवा कोई और कारण, उसे पुरुष की इच्छा के सम्मुख सर झुकना ही उसका परम् धर्म है। 

        प्रारंभ में साधरण अंदाज में शुरू हुई यह कथा अंत आते आते झकझोर जाती है। यहाँ नारी पात्र का यह कहना कि कहीं उसे एंग्जाइटी पिल की तरह तो कहीं स्लीपिंग पिल की तरह, कभी जश्न के रूप में तो कभी अपनी कुंठा निकालने के लिए पंचिंग बैग की तरह इस्तेमाल किया गया। उसके सम्वाद पाठक को पल भर के लिए स्तब्ध कर देते हैं। उसकी शारिरिक क्रंदन के प्रति व्यक्त की गई आकांक्षा सबको आश्चर्य में डाल देती है। क्या नारी की भी कोई कामना हो सकती है ! क्या उसे इतनी उच्छृंखलता शोभा देती है ! अरे भई स्त्री है, उसका जन्म तो समर्पण के लिए हुआ है, उसकी कैसी चाह ? 

सम्वाद शैली में लिखी गई इस कथा के सम्वाद बहुत तीक्ष्ण एवम मार्मिक हैं। भाषा शैली एवम प्रस्तुतीकरण बेहतरीन एवम भावानुकूल है।

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1-मेंढ़कों के बीच ( सुकेश साहनी )

वर्षो पहले मैंने अपने बेटे को एक कहानी सुनाई थी, जो कुछ इस तरह थीः

एक बार की बात है, रात के अँधेरे में एक गाय फिसलकर नाले में जा गिरी।

सुबह उसके इर्द-गिर्द बहुत से मेंढक जमा हो गए।

‘‘आखिर गाय नाले में गिरी कैसे?’’ उनमें से एक मेंढक टरटराया, ‘‘हमें इस पर गहराई से विचार करना चाहिए।’’

‘‘मुझे तो दाल में कुछ काला लगता है!’’ दूसरे ने कहा।

‘‘कुछ भी कहो…’’ तीसरा मेंढक बोला, ‘‘अगर पुण्य कमाना है तो इसे बाहर निकालना होगा।’’

‘‘मरने दो!’’ चौथा टर्राया, ‘‘हमारी नाक के नीचे रोज ही सैकड़ों गायें-बछड़े काटे जाते हैं, तब हम क्या कर लेेते हैं?’’

‘‘हमने तो चूड़ियाँ पहन रखी हैं,’’ पांचवें मेंढक की टर्र-टर्र।

‘‘भाइयो!’’ वहाँ खड़े एक बुजुर्ग ने उन सबको शान्त करते हुए कहा, ‘‘अगर ये गाय न होकर कुत्ता-बिल्ली होता तो क्या हमें इसे मर जाने देना था?’’

एकबारगी वहाँ चुप्पी छा गई। वे सब उस बुजुर्ग को शक भरी नजरों से घूरने लगे। अगले ही क्षण वे सबके सब उस पर टूट पड़े। उन्होंने उसे लहूलुहान कर नाले में धकेल दिया। इस घटना से मेंढकों में भगदड़ मच गई । वे सब सुरक्षित स्थलों में दुबक गए। घटनास्थल पर सन्नाटा छा गया।

‘‘फिर क्या हुआ?’’ मुझे चुप देखकर बच्चे ने पूछा था।

‘‘फिर?….वहाँ से गुजर रहे एक आदमी ने रस्सी की मदद से गाय को नाले सें बाहर निकाल दिया। अपनी जमात से बाहर वाले का ऐसा करना मेंढकों के गले नहीं उतरा। उनको इसमें भी कोई साजिश दिखाई देने लगी। यह बात कानोंकान पूरी मेंढक बिरादरी में फैल गई। वे समवेत स्वर में जोर-जोर से टर्राने लगे।’’

कहकर मैं चुप हो गया था।

‘‘अब मेंढक क्यों टर्रा रहे थे, पापा?’’

‘‘अब वे इस बहस में उलझे हुए थे कि गाय को बाहर निकालने वाला हिन्दू था कि मुसलमान।’’

‘‘फिर….’’

‘‘फिर क्या? उनका टरटराना आज भी जारी है।’’

बच्चा सोच में पड़ गया था। थोड़ी देर बाद उसने पूछा था, ‘‘पापा, आपको तो पता ही होगा कि वह आदमी कौन था?’’

‘‘बेटा, मुझे इतना ही पता है कि वह एक अच्छा आदमी था,’’ मैंने उसकी भोली आँखों में झांकते हुए कहा था, ‘‘वह हिन्दू था या मुसलमान, यह जानने की कोशिश मैंने नहीं की क्योंकि तुम्हारे दादा जी ने मुझे बचपन में ही सावधान कर दिया था कि जिस दिन मैं इस चक्कर में पड़ूँगा उसी दिन आदमी से मेंढक में बदल जाऊँगा।’’

इसके बाद मेरे बेटे ने मुझसे इस बारे में कोई सवाल नहीं किया था और मुझसे चिपककर सो गया था।

मुझे नहीं मालूम कि यह कहानी मेरे बच्चे के मतलब की थी या नहीं,उसकी समझ में आई थी या नहीं, पर इतना जरूर है कि उस दिन के बाद वह ‘मेंढकों’ से जरा दूर ही रहता है।

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शयनेषु रम्भा (डॉ. कुमार सम्भव जोशी)

          “सरला  देवी, क्या आप जानती हैं, बिना किसी उचित कारण के पति को शारीरिक सम्बन्धों के लिए इनकार करना मानसिक क्रूरता की श्रेणी में आता है।”चश्मे को ऊपर उठाकर जज साहब ने सरला को देखा।

          “सिर्फ इसी बिना पर आपके पति की तलाक की माँग स्वीकृत की जा सकती है। आपको कुछ कहना है?” जज ने शब्दों पर जोर दिया। 

           “योर ऑनर, हमारे निजी सम्बन्धों के आधार में प्रेम कभी था ही नहीं।” सरला ने कहना शुरू किया।

           “कभी टेंडर नहीं मिला ,तो तनाव दूर करने के लिए एंटी एंक्ज़ाईटी पिल के तौर पर सम्बन्ध बनाये गये, तो कभी नींद न आने पर मुझे सोते से भी जगाकर स्लीपिंग पिल्स की तरह। कभी शेयर गिर गए तो अफसोस मनाने के लिए, कभी बड़ी डील की जश्न में शैम्पेन की तरह, कभी ऑफिस की भड़ास निकालने के लिए पंचिंग बैग की तरह……..” सरला बेधड़क कहती चली गई।

            “मेरी इच्छा हो या न हो, इन्हे कोई परवाह नहीं थी। लेकिन बिस्तर पर स्त्री सदैव ‘शयनेषु रम्भा’ होनी चाहिए।” सरला का दुःख फूट पड़ा।

            “बीमार होने पर भी अगर मैने आनाकानी की, तो यह कहकर विवश किया गया कि यही पत्नी का धर्म है-‘शयनेषु रम्भा’।” सरला की आँखें भर आई। 

             “कुछ पलों के बाद मेरे अंदर की नारी मर चुकी होती थी, अतृप्त तन व मन के अलावा सिर्फ नोंचने खरोंचने के निशान और नसों में बसी शराब की बू लिए मैं शेष रह जाती थी।” पूरी अदालत स्तब्ध- सी सुन रही थी।

              “फिर एक दिन मैने भी ‘शयनेषु कामदेव’ माँग लिया, जो मेरे पति कभी बन नहीं पाए। बस, मैने दृढ इनकार करना सीख लिया। अपने भीतर की नारी को जीवित रखने के लिए।”

jyotysingh.js@gmail.com

मेहनत की रोटी

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“देखो, देखो… वो भी हमारी तरह भिखमंगा ही लगता है | पर, देखो किस शान से न्यूज़पेपर पढ़ रहा है !” 
चलो मित्रों, चलते हैं उसके पास|” सभी भिखमंगे एक साथ उस लड़के के पास पहुँचे|

“तुम भीख मांगते हो पेट भरने के लिए या पेपर खरीद कर पढने के लिए ?” एक ने लड़के से पूछा |

दूसरे ने उसका मजाक उड़ाते हुए कहा , “अरे! शौक़ीन है, भीख मांग कर अपना शौक पूरा कर रहा है| हा..हा..हा..|”

“हाँ.. पेट भरने के लिए कुछ तो करना पड़ता है ! रोड पर आ गया हूँ | क्या करूँ! छोटी प्राइवेट कम्पनी में नौकरी थी, छूट गई ! 
कंपनी के तीन हजार के तनख्वाह में …क्या बच पाता !

बड़ा घोटाला हुआ…कम्पनी मालिक गिरफ्तार हो गया । बाद में कम्पनी भी बंद हो गयी| हाँ …मालिक पैसे वाला है,  देर- सबेर हाजत से निकल ही जाएगा | हम गरीबन के पेट पर तो लात पर गई!”
किस्मत तो मेरी फूटी जो फिर से रोड पर आ गया हूँ ! अनाथ का ठौर कहाँ! आजन्म,  रोड से गहरा नाता रहा मेरा | यहीं खेलकूद कर बड़ा हुआ हूँ। लडके ने हँसते हुए जवाब दिया |

”ठीक किया, जो इधर आ गया । यह धंधा आजकल बहुत फल-फूल रहा है । बिना हाथ पैर डुलाए आराम से पेट भर जाता है |

न आगे नाथ है .. न पीछे पगहा , फिर तुम्हे चिंता किस बात की ? हमारी तरह पड़े रहो । हम दिन में भीख मांगते हैं और रात में अपनी मर्जी का जीते हैं |” कुछ भिखमंगे लड़के के पास सटकर बोले ।

“ सुनो … भीख माँग कर खाना अच्छी बात नहीं है, भीख देते वक्त लोग हिकारत भरी नजर से घूरते हैं |”

“अच्छा… बता, फिर तू रोज़ रोड के किनारे बैठकर, क्या करते रहता है?” एक भिखमंगे ने उपहास करते हुए पूछा ।

” दिन में बैठकर यहाँ पढाई करता हूँ, और शाम से ट्यूशन पढाता हूँ ।” पेपर समेटते हुए लड़का जोर से हँसने लगा ।

” अरे… तू हँसता बहुत है।” एक साथ कई आवाजें …

” हाँ दोस्त, जिंदगी का इम्तिहान है,  हँसकर देने में ही भला है।” कहते हुए लड़का वहाँ से चल पड़ा ।

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सबक/ ਸਬਕ

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ਅੰਜਲੀ ਗੁਪਤਾ ਸਿਫ਼ਰ’/ अंजलि गुप्ता सिफ़र

ਅੰਜਲੀਗੁਪਤਾ‘ਸਿਫ਼ਰ’/ अंजलि गुप्ता सिफ़र-(पंजाबी अनुवाद : योगराज प्रभाकर)

“ਛੱਪ!” ਉਸਨੂੰ ਥੋੜੀ ਉਚਾਈ ਤੋਂ  ਛੋਟੇ-ਜਿਹੇ ਅਤੇ ਸੋਹਣੇ-ਜਿਹੇ ਤਲਾਬ ਵਿੱਚ ਸੁੱਟਿਆ ਗਿਆ, ਜਿੱਥੇ ਛੋਟੇ-ਛੋਟੇ ਪਲਾਸਟਿਕ ਦੇ ਰੁਖ ਲੱਗੇ ਹੋਏ ਸਨl ਇੱਕ ਖੂੰਜੇ ਵਿੱਚ ਪਲਾਸਟਿਕ ਦਾ ਗੁੱਡਾ ਪਾਣੀ ਦੇ ਬੁਲਬੁਲੇ ਕੱਢ ਰਿਹਾ ਸੀl ਓਹ ਰੋਣਾ ਭੁੱਲਕੇ ਅੱਖਾਂ ਮਲਦੀ ਹੋਈ ਇਹ ਨਜ਼ਾਰਾ ਵੇਖਣ ਲੱਗ ਪਈl ਓਦੋਂ ਹੀ ਇੱਕ ਸੋਹਣੀ-ਜਿਹੀ ਮੱਛੀ ਆ ਗਈl
“ਹੈਲੋ! ਕੀ ਨਾਂ ਹੈ ਤੇਰਾ? ਜੀ ਆਇਆਂ ਨੂੰ!”
“ਮੈਂl… ਮੈਂl… ਗੋਲਡੀ… ਗੋਲਡਨ-ਮੱਛੀ ਹਾਂ… ਇਹ ਮੈਂ ਕਿੱਥੇ ਆ ਗਈ?”
“ਇਹ ਇਕਵੇਰੀਅਮ ਹੈl ਮੈਂ ਕਾਰਪ-ਮੱਛੀ ਹਾਂ, ਮੀਨੂੰ ਆਖਦੇ ਨੇ ਸਾਰੇ ਮੈਨੂੰl ਆਪਾਂ ਐਥੇ ਬਹੁਤ ਮਸਤੀ ਕਰਾਂਗੇl ਤੈਨੂੰ ਭੁਖ ਲੱਗੀ ਐ? ਲੈ, ਖਾਣਾ ਖਾl”
“ਵਾਹ!” ਗੋਲਡੀ ਬਹੁਤ ਸੁਆਦ ਲੈ-ਲੈ ਕੇ ਛੋਟੀਆਂ-ਛੋਟੀਆਂ ਗੋਲੀਆਂ ਖਾਣ ਲੱਗ ਪਈl
ਇਹ ਸਭ ਚੇਤੇ ਕਰਦਿਆਂ-ਕਰਦਿਆਂ ਗੋਲਡੀ ਵਰਤਮਾਨ ਵਿੱਚ ਵਾਪਸ ਪਰਤ ਆਈ, ਕਿਉਂਕਿ ਅੱਜ ਵੀ ਉਸਨੂੰ ਬਹੁਤ ਭੁਖ ਲੱਗੀ ਹੋਈ ਸੀl ਵੈਸੇ ਮੀਨੂੰ ਉਸਦਾ ਬਹੁਤ ਖਿਆਲ ਰਖਦੀ ਸੀl ਮੀਨੂੰ ਨਾਲ ਚੰਗਾ ਸਮਾਂ ਬੀਤ ਰਿਹਾ ਸੀ ਉਸਦਾl ਓਹ ਦੋਵੇਂ ਰੱਜ ਕੇ ਗੱਲਾਂ ਕਰਦੀਆਂ ਅਤੇ ਸਾਰਾ ਦਿਨ ਨੱਚ-ਟੱਪ ਵਿੱਚ ਹੀ ਲੰਘਾ ਦਿਂਦੀਆਂl
“ਆਪਣੇ ਤੋਂ ਇਲਾਵਾ ਇਸ ਘਰ ਵਿੱਚ ਸਭ ਕੁਝ ਨਕਲੀ ਐ ਮੀਨੂੰ। ਫੁੱਲ, ਬੂਟੇ ਅਤੇ ਓਹ ਖੂੰਜੇ ‘ਚ ਪਿਆ ਕੁੱਤਾ ਵੀl”
“ਹਾਂ ਗੋਲਡੀ! ਇਨਸਾਨ ਦਾ ਵੱਸ ਚਲੇ ਤਾਂ ਓਹ ਆਪਣਾ ਵੀ ਪੁਤਲਾ ਬਣਾ ਲਵੇl” 
“ਤੂੰ ਬੋਰ ਨੀ ਸੀ ਹੁੰਦੀ ਮੇਰੇ ਆਉਣ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ?”
“ਨਹੀਂ-ਨਹੀਂ! ਮੈਂ ਸਾਰਾ ਦਿਨ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਵੇਖਦੀ ਸੀ, ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਸੁਣਦੀ ਰਹਿੰਦੀ ਸੀl ਬਹੁਤ ਮਜ਼ੇਦਾਰ ਹੁੰਦੀਆਂ ਨੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂl ਤੈਨੂੰ ਪਤੈ ਮੱਛੀ ਨੂੰ ਮੀਨ ਵੀ ਆਖਦੇ ਨੇ, ਇਸੇ ਲਈ ਮੇਰਾ ਨਾਮ ਮੀਨੂੰ ਪੈ ਗਿਆl”
“ਵਾਹ! ਤੂੰ ਤਾਂ ਬਹੁਤ ਕੁਝ ਜਾਣਦੀ ਐਂ, ਪਰ ਇਹ ਲੋਕ ਇੱਕ-ਦੂਜੇ ਨਾਲ ਤਾਂ ਗੱਲਬਾਤ ਕਰਦੇ ਹੀ ਨਹੀਂl”
“ਹਾਂ! ਇੱਕ-ਦੂਜੇ ਨਾਲ ਤਾਂ ਘੱਟ ਹੀ ਗੱਲਬਾਤ ਕਰਦੇ ਨੇ ਪਰ ਮੋਬਾਇਲ ‘ਤੇ ਬਹੁਤ ਗੱਲਾਂ ਕਰਦੇ ਨੇl ਜਾਂ ਫੇਰ ਮੋਬਾਇਲ ਅਤੇ ਟੀਵੀ ‘ਤੇ ਕੁਝ ਦੇਖਦੇ ਰਹਿੰਦੇ ਨੇl ਇਹ ਸਾਰੀ ਸਮਝਦਾਰੀ ਓਥੋਂ ਹੀ ਸਿਖੀ ਐ ਮੈਂl”
“ਇੱਕ ਹਫਤੇ ‘ਤੋਂ ਘਰ ਕਿੰਨਾ ਸੁੰਨਾ-ਸੁੰਨਾ ਐ ਨਾ? ਸਾਰੇ ਚਲੇ ਗਏl ਸਾਡੇ ਲਈ ਖਾਣਾ-ਦਾਣਾ ਵੀ ਛੱਡ ਕੇ ਨਹੀਂ ਗਏl ਹੁਣ ਆਪਾਂ ਕੀ ਖਾਵਾਂਗੇ?” ਗੋਲਡੀ ਰੋਣਹਾਕੀ ਹੋ ਗਈl
“ਤੇਰਾ ਤਾਂ ਪਤਾ ਨੀ; ਪਰ ਮੈਂਨੂੰ ਪਤਾ ਐ ਕਿ ਮੈਨੂੰ ਕੀ ਕਰਨਾ ਚਾਹੀਦੈl ਇਹ ਮੈਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਤੋਂ ਜ਼ਰੂਰ ਸਿਖਿਆ ਹੈl” ਗੋਲਡੀ ਦੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਵੱਲ ਦੇਖਦਿਆਂ ਮੀਨੂੰ ਨੇ ਕਿਹਾl
ਕੁਝ ਦੇਰ ਬਾਅਦ ਇਕਵੇਰੀਅਮ ਵਿੱਚ ਸਿਰਫ਼  ਇੱਕ ਹੀ ਮੱਛੀ ਤੈਰ ਰਹੀ ਸੀl    

बीमार

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उनके पेट में पथरी हो गई थी। बुढ़ापे में दर्द असहाय हो गया तो डॉक्टरों ने ऑपरेशन की सलाह दी। ऑपरेशन लम्बा था। अस्पताल का छोटा-सा कमरा दिन-रात लोगों से खचाखच भरा रहता। दूर-दूर से बेटियाँ आईं। प्यार, सद्भावना और सेवा ने वृद्ध की सारी पीड़ा हर ली। डूबती आँखों में नई ताजगी समा गई।

            आठ दिन बीत गए। अस्पताल से छुट्टी का दिन था। फीस, दवाइयाँ और कमरे का किराया डॉक्टर को देना था। उन्होंने अपने मित्र से कहा, ‘‘जरा डॉक्टर से भेंट कर लूँ। एक बार देख लें फिर चलेंगे।’’ मित्र ने  डॉक्टर को बुलाया।

            ‘‘कहिए, अब सब ठीक तो है।’’ डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए पूछा। वृद्ध के चेहरे पर विषाद की रेखा फैल गई।’’ आठ दिनों से स्वर्ग में था। आज आप कहाँ भेज रहे हैं….?’’ डॉक्टर चौंका। वह कुछ समझ नहीं पाया। बिल्कुल पास बैठक्र स्नेह से पूछा, ‘‘क्यों, ऐसी क्या बात है?’’ वृद्ध ने मुस्कुराने का प्रयास किया।

            ‘‘घर के उस एकाकी उपेक्षित दिनचर्या से आपका अस्पताल कितना सुखद है। सोचता हूँ, कुछ दिन और बीमार रहता….’’

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पिंजड़े को पकड़कर झूलती चिड़िया

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    ‘‘क्या कहा तुमने…? …तुम मुझे तलाक भी नहीं देने दोगी…?’’
    ‘‘हाँ, ठीक सुना तुमने! तुम सोचते हो कि शादी अपनी मर्जी से करोगे और तलाक भी अपनी मर्जी से दे दोगे, तो तुम गलत हो। जो तुम आज मेरे साथ कर रहे हो, वही कल किसी और के साथ करने के लिए मैं तुम्हें खुला छोड़ने वाली नहीं हूँ।’’
      ‘‘जब तुम मेरे साथ खुश नहीं हो, मेरा व्यवहार तुम्हें अच्छा नहीं लगता तो तलाक लेकर मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ती?’’
      ‘‘हाँ वीरेश, मैं तुम्हारे साथ खुश नहीं हूँ ;लेकिन खुश रहना चाहती हूँ। तुम्हारा व्यवहार मेरे प्रति अच्छा नहीं है, लेकिन मैं चाहती हूँ कि तुम मेरे साथ अच्छा व्यवहार करो। तुम मेरा सम्मान नहीं करते लेकिन मैं तुमसे सम्मान पाना चाहती हूँ।… जो मैं तुमसे पाना चाहती हूँ, वो मुझे तलाक देकर तो मिल नहीं सकता। यदि मिल पाएगा ,तो इस रिश्ते को बचाकर और तुम्हें सुधारकर ही मिल पाएगा।’’
      ‘‘…और रिश्ता हमारा बचने से रहा। मैं भी, जैसा हूँ, वैसा ही रहने वाला हूँ!’’
      ‘‘मैं एक औरत हूँ और मुझे अपनी शक्ति पर पूरा विश्वास है… तुम समझते रहो मुझे कमजोर…’’
      ‘‘दीक्षा मैडम! मैं शहर का जाना-माना वकील हूँ। इस पर भी विश्वास है न तुम्हें…?’’
      ‘‘मेरा तो इस बात पर भी विश्वास है कि वकालत की शक्ति इन्सानियत और रिश्तों की सामाजिकता से ऊपर नहीं हो सकती…!’’
      ‘‘तो फिर ठीक है, कल भिजवाता हूँ तुम्हें नोटिस… तैयार रहना कोर्ट में दुश्चरित्र सिद्ध होने के लिए…’’
      ‘‘ऐसा ही सही। लेकिन कोर्ट में मुझे बुलाने से पहले अच्छे से सोच लेना कि तुम्हारे मान-अपमान के लिए तुम्हीं जिम्मेवार होगे… ऐसा न हो कि घिसे-पिटे फार्मूले के ध्वस्त होने पर वकालत करने के योग्य ही न बचो…’’
      दोस्तो, इस कथा में मैं एक पात्र होता और कोर्ट में मौजूद रहा होता, तो आगे की कथा जरूर सुनाता। पर मैंने सरसराती हवा में एक पिंजड़े को बाहर से पकड़कर झूलती चिड़िया से कल जो सुना, वो आपसे साझा करना चाहता हूँ।
      करीब छह महीने बाद माननीय न्यायाधीश के कक्ष से बाहर आते युगल में से जो पत्नी थी, वह बहुत खुश थी। न्यायाधीश महोदय ने उसे अपने ‘पति’ नामक रिश्ते को सुधारने के लिए दो वर्ष का समय दे दिया था।

खंडन

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उस फिल्म की चर्चा का कारण एक नग्न दृश्य था। दर्शकों में यह जानने की बड़ी जिज्ञासा थी कि स्वयं हीरोइन ने यह दृश्य अभिनीत किया है अथवा इसे फिल्माने के लिए किसी एक्स्ट्रा कलाकार की मदद लेनी पड़ी!

इस मामले में असमंजस की स्थिति बनी हुई थी कि पत्र–पत्रिकाओं ने घोषित कर दिया–यह सीन एक एक्स्ट्रा कलाकार ने मोटी रकम लेकर किया है।

दृश्य मदमस्त कर देनेवाला था। संभावना थी कि वह एक्स्ट्रा कलाकार अगर सामने आ जाए, तो उसे बिना किसी संघर्ष के आठ–दस फिल्में बतौर हीरोइन आसानी से मिल सकती हैं।

अगले ही दिन फिल्म की हीरोइन ने प्रेस कान्फ्रेंस का आयोजन कर डाला। उसने बाकायदा सबूतों के साथ सिद्ध कर दिया कि वह चर्चित दृश्य उसी ने किया था। किसी एक्स्ट्रा की मदद नहीं ली गई।

क्षितिजअखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन 2019,इंदौर

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*कोई भी कला संयम और समय के साथ ही विकसित होती है– सुकेश साहनी*

*क्षितिज*  संस्था,इंदौर द्वारा द्वितीय ‘अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन 2019’ का आयोजन दिनांक 24 नवम्बर 2019, रविवार को श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर में किया गया। यह कार्यक्रम चार विभिन्न सत्रों में आयोजित हुआ। प्रथम उद्घाटन , लोकार्पण एवम सम्मान सत्र रहा। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार, कला मर्मज्ञ श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने की। मंच पर क्षितिज साहित्य संस्था के अध्यक्ष श्री सतीश राठी, श्री सूर्यकांत नागर, श्री सुकेश साहनी, श्री श्याम सुंदर अग्रवाल, श्री माधव नागदा एवं श्री कुणाल शर्मा उपस्थित थे।

संस्था परिचय एवं अतिथियों के लिए स्वागत भाषण श्री सतीश राठी ने दिया । लघुकथा विधा को लेकर वर्ष 1983 से संस्था द्वारा किए गए कार्यों एवं संस्था के विभिन्न प्रकाशनों की जानकारी देते हुए लघुकथा विधा के पिछले 35 वर्ष के इतिहास पर एक दृष्टि डाली । उन्होंने संस्था के इतिहास व कार्यों से सभी को परिचित करवाया। अतिथियों का परिचय देते हुए लघुकथा विधा के लिए उनके द्वारा किए गए कार्यों की जानकारी प्रस्तुत की तथा लघुकथा विधा के लिए दिए जाने वाले सम्मानों की चयन प्रक्रिया वहाँ पर प्रस्तुत की।

इस सत्र में सत्र अध्यक्ष श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय को कला साहित्य सृजन सम्मान 2019, श्री सुकेश साहनी को क्षितिज लघुकथा शिखर सम्मान 2019 ,श्री श्याम सुंदर अग्रवाल को क्षितिज लघुकथा सेतु शिखर सम्मान 2019, श्री माधव नागदा को क्षितिज लघुकथा समालोचना सम्मान 2019 श्री कुणाल शर्मा को क्षितिज लघुकथा नवलेखन सम्मान 2019 एवं श्री हीरालाल नागर को, लघुकथा शिखर सम्मान 2019 से सम्मानित किया गया।

इस सत्र में पुस्तकों का विमोचन भी किया गया।

क्षितिज पत्रिका के सार्थक लघुकथा अंक का विमोचन सर्वप्रथम हुआ। पुस्तक सार्थक लघुकथाएँ , इंदौर के 10 लघुकथाकारों के लघुकथा संकलन ‘शिखर पर बैठ कर’ श्री सुकेश साहनी के लघुकथा संग्रह ‘साइबरमैन’, श्री भगीरथ  परिहार की पुस्तक ‘कथा शिल्पी सुकेश साहनी की सृजन-संचेतना , ज्योति जैन के लघुकथा संग्रह ‘जलतरंग’ का अंग्रेजी अनुवाद, डॉ अश्विनी कुमार दुबे के ग़ज़ल- संग्रह ‘कुछ अशआर हमारे भी’, श्री चरण सिंह अमी की पुस्तक ‘हिन्दी सिनेमा के अग्रज’, श्री बृजेश कानूनगो की दो पुस्तकें ‘रात नौ बजे का इंद्रधनुष’ व ‘अनुगमन’ का विमोचन इस कार्यक्रम के लोकार्पण सत्र में हुआ। उद्घाटन के पश्चात इस तरह कुल 11 पुस्तकों का विमोचन हुआ ।

अतिथियों का स्वागत . पुरुषोत्तम दुबे, अरविंद ओझा, सतीश राठी , अश्विनी कुमार दुबे, योगेन्द्र नाथ शुक्ल, आशा गंगा शिरढोनकर एवं प्रदीप नवीन ने किया। प्रथम सत्र का संचालन अंतरा करवड़े ने किया। मां सरस्वती के पूजन एवं दीप प्रज्ज्वलन  के वक्त सरस्वती वंदना विनीता शर्मा ने प्रस्तुत की।

व्याख्यान सत्र में कुणाल शर्मा ने लघुकथा के आधुनिक स्वरूप पर बात की। श्री माधव नागदा ने शैक्षिक पाठ्यक्रम में लघुकथा की उपादेयता विषय पर अपने विचार रखे। किशोर और युवा को लघुकथा पाठ्यक्रम में शामिल करवाकर ही साहित्य से परिचित करवाया जा सकता है, उससे उनमें साहित्यिक अभिरुचि का विकास होता है। इतिहास भले ही पुराना हो; किंतु यह एक नई विधा है । विधार्थी इससे अनजान हैं ; इसलिए यदि विधिवत पाठ्यक्रम के द्वारा उन्हें विधा से परिचित करवाया जाए तो आगे शोध के रास्ते खुलते हैं। पंचतंत्र भी लघुकथा का ही रूप है, बुद्ध महावीर भी लघुकथा के माध्यम से अपनी बात कहते थे। समय का अभाव व भाव की तीव्रता के कारण यह विधा अधिक ग्राहय है।

कहानी उपन्यास की तरह यह भी सभी विषयों पर अपनी उपयोगिता सिद्ध करेगी।

सुकेश साहनी ने अपने भाषण में लघुकथा के विचार पक्ष एवम विभिन्न विषयों पर रची जा रही लघुकथाओं के महत्त्व  पर प्रकाश डालते हुए कहा कि, लघुकथा विषय पर अपने विचार लेखक को व्यक्त करते हुए विषय के साथ न्याय करना प्राथमिकता में होना चाहिए। घटना व विषय विविध हैं। लिखते वक़्त समय देते हुए लिखा जाए। कोई भी कला संयम और समय के साथ विकसित होती है इसलिए किसी भी विषय के साथ समय देकर ही न्याय किया जा सकता है। उन्होंने रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु ‘ और गौतम सान्याल की टिप्पणियों को उद्धृत करते हुए कहा कि विचार वह धुरी है, जिस पर कथा घूमती  है। सीप में मोती बनने वाली प्रक्रिया की तरह लघुकथा का सृजन हो सकता है, लेकिन शीघ्र मोती पाने के चक्कर में लघुकथा को नोच कर नहीं परोसा जा सकता, उसका पूरी तरह से परिपक्व होना जरूरी है।

श्री श्याम सुंदर अग्रवाल ने अपने वक्तव्य में कहा कि पंजाबी लघुकथा से आगे अब हिन्दी लघुकथा विकास की बात हो। इंदौर शहर के योगदान को याद करते हुए उन्होंने विविध भाषाओं में लिखने वाली लघुकथा के विकास की बात की। निरंतरता सबसे बड़ा गुण है, वह सफलता की ओर ले जाती है। लघुकथा में भी यह बात उल्लेखनीय है कि तमाम आलोचना के बाद भी लेखकों ने लिखना जारी रखा और आज लघुकथा एक विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है। पंजाबी भाषा एवं हिन्दी भाषा के आपसी जुड़ाव की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि क्षितिज पत्रिका ने कभी पंजाबी लघुकथाओं पर भी अंक निकाला और मिनी पत्रिका में भी हिन्दी के लघुकथाकारों की लघुकथाओं के अनुवाद प्रकाशित किए गए।

विशेष योगदान हेतु, सर्वश्री उमेश नीमा, चरण सिंह अमी, नई दुनिया के अनिल त्रिवेदी, पत्रिका अखबार की संपादक क रुखसाना, दैनिक भास्कर के श्री रविंद्र व्यास श्री प्रदीप नवीन आदि को सम्मानित किया गया। कला सहयोग के लिए वरिष्ठ कलाकार श्री संदीप राशिनकर को भी सम्मानित किया गया।

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने अपने वक्तव्य में कहा कि, साहित्य का यात्री सृजन से एकाकर हो जाता है। जो बुद्धि न समझ सके वह चमत्कार कहा जाता है, लघुकथा भी एक सहज चमत्कार है, कहने को लघु किंतु प्रभाव में विराट है। यह विधा, वामन के विराट पग की तरह अपने प्रभाव क्षेत्र में व्यापक रूप से लोकप्रिय है। एक स्वतंत्र विधा के रूप में इसका बड़ा सम्मान है।

लघुकथा की यात्रा की तुलना उन्होंने गंगा की यात्रा से कर कहा कि, अब यह संगम की तरह महत्वपूर्ण हो गई है। संस्कृत आख्यायिका यह नहीं है, उपन्यास का साररूप भी यह नहीं है। लघुकथा भिन्न विधा है एडगर एलान पो अंग्रेजी में इसके  पुरोधा रहे। लघुकथा संवेदना का सार रूप है, जिसकी तेजस्विता अपूर्व है। प्राचीन ग्रंथों में हर जगह यह विधा भिन्न-भिन्न स्वरूप में उपस्थित रही है।सार्थक संदेश, विसंगति पर चोट व व्यंग्य भी लघुकथा के तत्व माने जाते हैं।

विधाओं के अंतर अवगमन पर उन्होंने कहा विधाओं का आपस में संवाद होना आवश्यक है, अधिक से अधिक अध्ययन यह विवाद समाप्त किया जा सकता है। श्री नरेंद्र जैन, श्री राजेंद्र मूंदड़ा, श्री नितिन पंजाबी, को भी सम्मानित किया गया। इस सत्र का आभार प्रदर्शन पुरुषोत्तम दुबे ने किया।

कार्यक्रम का द्वितीय सत्र लघुकथा पाठ का था जिसमें 35 से अधिक लघुकथाकारों ने अपनी प्रतिनिधि रचनाओं का पाठ किया। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ लघुकथाकार श्री भागीरथ परिहार ने की। मंच पर अतिथि थे सर्वश्री योगेन्द्र नाथ शुक्ल, पवन जैन, संतोष सुपेकर। श्रीमती जया आर्य, सुषमा दुबे, सुषमा व्यास, पुष्परानी गर्ग, स्नेहलता, कोमल वाधवानी प्रेरणा, राम मुरत राही, कपिल शास्त्री, दीपा व्यास, आदि ने लघुकथा पाठ किया । अपने उद्बोधन में श्री योगेंद्रनाथ शुक्ल, श्री पवन जैन, श्री भागीरथ परिहार ने पढ़ी गई लघुकथाओं के कथ्य शिल्प की समीक्षा की। इस सत्र का संचालन निधि जैन ने किया।

तृतीय सत्र नारी अस्मिता व लघुकथा लेखन पर मूल रूप से केंद्रित था। मुख्य अतिथि श्री सूर्यकांत नागर थे। सत्र अध्यक्षता श्री बलराम अग्रवाल ने की। डॉ पुरुषोत्तम दुबे, हीरालाल नागर, ज्योति जैन व वसुधा गाडगिल सत्र में अतिथि के रूप में मौजूद थे। इस सत्र का संचालन श्रीमती सीमा व्यास एवं वत्सला त्रिवेदी ने किया ।

श्री सूर्यकांत नागर ने स्त्री पुरुष की संवेदना में भेद बताते हुए स्त्री विमर्श को आवश्यकता पर बल दिया।

श्री बलराम अग्रवाल ने कहा – साहस के साथ स्त्री अस्मिता व अधिकार की बात करने के लिए लेखन से बेहतर कोई माध्यम नहीं है, वेदो से लेकर अब तक स्त्री के विमर्श में गिरावट आई है और अब धीरे-धीरे स्थितियाँ बदली है, भारतीय साहित्य भाषा की मर्यादा के साथ आधुनिक विषय को विस्तार द्वारा सकते हैं।

श्री हीरालाल नागर ने अपने वक्तव्य में स्त्री विर्मश में लघुकथा की उपयोगिता व उसकी यात्रा पर प्रकाश डाला। डॉ पुरुषोत्तम दुबे ने लघुकथा के कालखंड व शिल्प पर चर्चा की। ज्योति जैन ने स्त्री अस्मिता पर कुछ लघुकथाओं के माध्यम से अपनी बात प्रभावी ढंग से प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि स्त्री और पुरुष की तुलना नहीं की जा सकती।

वसुधा गाडगिल ने अपने वक्तव्य में स्त्री के विविध स्वरूप पर लिखे जाने वाले साहित्य पर प्रकाश डाला। नवीन प्रतिमान नवीन विचार आज की आवश्यकता है।

आखिरी महत्वपूर्ण सत्र प्रश्न उत्तर सत्र व मुक्त संवाद व परिचर्चा का था जिसमें लघुकथा विधा से जुड़ी विभिन्न जिज्ञासा, दुविधा उसके कथा शिल्प व प्रभाव पर चर्चा हुई। सत्र की अध्यक्षता श्रीमध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति के श्री राकेश शर्मा, संपादक वीणा पत्रिका ने की। मंच पर विभिन्न प्रश्नों का जवाब देने के लिए देश भर में लघुकथा की अलख जगाने के लिए निरंतर सक्रिय श्री सुकेश साहनी, श्री बलराम अग्रवाल, श्री श्याम सुंदर अग्रवाल व श्री ब्रजेश कानूनगो ने विभिन्न प्रश्नों का उचित समाधान करते हुए जवाब दिए।

लघुकथा में शब्द सीमा क्या हो? लघुकथा व अंग्रेजी की शॉर्ट स्टोरी में क्या भेद है? लघुकथा में संवाद की भूमिका कितनी है? एक चरित्र पर आधारित लघुकथा को मान्य किया जायेगा? लघुकथा व कथा में क्या भेद है? लघुकथा के मापदंड क्या हैं? लघुकथा में व्यंग्य की भूमिका पर प्रश्न क्यों उठाए जाते हैं? लघुकथा में कथ्य का विकास कैसा हो? जैसे और कई प्रश्नों के जवाब देकर नव लेखकों, शोधर्थियों की जिज्ञासाओं का समाधान किया गया। सत्र का संचालन डॉ गरिमा संजय दुबे ने किया।

समूचे आयोजन के संदर्भ में, आयोजन में पधारे अतिथियों का उपस्थित लघुकथाकारों का एवं स्थानीय अतिथियों का, क्षितिज संस्था के सचिव श्री अशोक शर्मा भारती ने आभार व्यक्त किया।

इस आयोजन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि लघुकथा की रचना प्रक्रिया एवं विभिन्न विषयों पर लिखी जाने वाली लघुकथा पर चर्चा करने के साथ-साथ सार्थक लघुकथा पर चर्चा विशेष रुप से की गई। क्षितिज संस्था का प्रथम सम्मेलन लघुकथा की सजगता पर केंद्रित था और यह द्वितीय सम्मेलन लघुकथा की सार्थकता पर केंद्रित था।


साइबरमैन

दृष्टि / दिल्ली लघुकथा अधिवेशन

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दृष्टि (संपादक : अशोक जैन) का सातवाँ अंक नए विषयों पर केन्द्रित।


दिल्ली लघुकथा अधिवेशन 2019( प्रतिवेदन अप्राप्त)

ततःकिम’ –प्रतिकार की शक्ति से भरी- पूरी लघुकथाएँ

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हिन्दी लघुकथा का व्यापक प्रसार हुआ है और बहुआयामी विविधता से नये-नये अक्स उभरकर आये हैं। नई दस्तक में डॉ. संध्या तिवारी की ‘ततःकिम’ संग्रह की लघुकथाएँ न केवल प्रभावी हैं, बल्कि प्रतिकार की शक्ति से भरी पूरी हैं। बड़ी बात यह है कि उनकी लघुकथाएँ मिथकों की पौराणिकता को उलझाती हुई समकालीन यथार्थ को समानान्तर रूप से इस तरह अंतर्ग्रथित करती हैं कि काल की लंबाई के बावजूद वे कालदोष से मुक्त हैं। 

     संध्या जी  नारी विमर्श के ऐसे अक्स उभारती हैं, जो जाने-पहचाने होकर भी तीखे और असरदार हो जाते हैं। यथार्थ को वे हर क्षेत्र में व्याप्त सीलन, सेंध और सलवटों से खींच ले आती हैं, पर उनमें जितनी विवशता और लाचारगी की भाव मुद्राएं हैं, उतने ही तेजस्वी स्वर भी हैं। लघुकथा के संक्षिप्त आकार में वे दो कथाओं को समान्तर रूप से लिपटाकर उसे ऐसे बिन्दु पर ले आती हैं, जहाँ पौराणिक जड़ता दम तोड़ती नज़र आती है। 

विराम चिन्हों और शीर्षकों से लेकर लघुकथा के अंतर्ग्रथन में लघुकथाएँ बहुत चौकस और प्रयोगी शिल्प से अपने चरमान्त की नाटकीय आकस्मिकता दे जाती हैं। लोक कथाओं, लोक विश्वासों, लोकोक्तिओं मुहावरों, आंचलिक बोलियों, मानवेतर पात्रों को भी वे कथाविन्यास की संचेतना में इस तरह जोड़ देती हैं, कि अभिव्यक्ति के क्षेत्रफल का ही विस्तार नहीं होता, अपितु व्यंजना को भी लोकधर्मी बना देता है। 

      नारी विमर्श के अनेक अक्स उनकी लघुकथाओं में उस अस्मितावंचित नारी को समाने लाते हैं, तो नक्काल आधुनिकताओं में पगी मानसिकता पर भी आघात करते हैं। कविता अपने शिल्प में जिस काव्यात्मक लय में नारी अस्मिता को पूरे घर में संजोती है, झाड़ू-बुहारू, रसोई, ड्रांइगरूम की सज्जा में। सुंदर घर और लेखन की तन्मयता में। पर कुछ वो छूट गया है, जो पूरा घर स्त्री से बना होकर भी मुख्य द्वार पर अपनी नेम प्लेट से  वंचित है, पुरूष प्रधान नाम-द्वार और नाम विहीन स्त्री का सुन्दर घर सारे कृतत्व वाले रात दिन के सेवा भाव पर पुरूष की नामधारी मुहर, जिसे समाज पहचानता है। पर ‘मैं मुख्य द्वारा की साँकल’ में जितनी सुरक्षा और पोषण नारी का है, उतना ही ‘घर की नेमप्लेट’ में अपने से ही वंचित। 

      छोटी सी लघुकथा ;लेकिन कितना विराट स्कैच, तंज भरा विमर्श पुरूष प्रधान मानसिकता के साथ अस्मिता विहीन नारी के उदात्त निर्लेप संस्कार को ध्वनित करता है। कविता की लय में यह कथा विन्यास और सहज व्यापार में यति-गति दृश्यमान है, ‘मैं’ की लय में सधी तर्ज के बावजूद लेखकीय प्रवेश नहीं।

      अक्स और भी हैं नारी विमर्श के जो कि सामाजिक मर्यादाओं की सिलवट में कसमसाती हुई भी अपने होने का अर्थ संजोती हैं।

आधी आबादी, हूटर, काला फागुन, स्वपरिचय, हूक, लड़कियाँ आदि लघुकथाओं में समाज की सकारात्मक दृष्टि से वंचित फिर भी  तथाकथित मर्यादावादी संस्कारों पर गहरी चोट करतीं संध्या तिवारी के नारी पात्र इसी समाज में अपने हिस्से की ज़मीन छीन कर खड़े हैं। उनके नारी पात्र समाज की इन्हीं सलवटों के बीच, सूरज की रोशनी से आँख मिलाते घास की तरह खड़े हैं। 

समान्तर कथाशीलता में ययाति शर्मिष्ठा के मिथ में देवमानी के अस्तित्व को लघुकथा 254/-  में नुकीलेपन के साथ आज के सन्दर्भ में उभारा गया है। उपेक्षिता माँ ’देवयानी’ इस मिथ की संधि में शिक्षा और नौकरी के विकल्प में नई रोशनी दिखाती है। ……

      ’ब्रह्मराक्षस’ में सम्मोहन शिल्प उस कुंठा को सरेआम कर देती है जहाँ माँ, अपनी बेटी को अपनी ही प्रतिमूर्ति बनाना चाहती है और इसी कुंठा में बेटी हो जाती है मनोरोगी। और यह मनोवृत्त घर-घर का है, जिस कैंचुल से निकलने को नारी तड़फड़ाती है। स्वतंत्र सहज व्यक्तित्व के लिये। ’सम्मोहित’ में योग साधाना के बीच औरताना कौतूहल समाधि और आकुल हलचल का द्धन्द्ध बन जाता है। नारियों के बीच एक नारी ही पूरी लघुकथा का सम्मान व्यंजक व्यंग्य है। 

      कन्या भ्रूण हत्या का विषय पुराना है पर उसकी निर्मम विभीषिका घरों की सरहद में कुहराम मचाये रखती है। ’छिन्नमस्ता का देवीरूप, जो नृशंस के नाश की पूज्य शक्ति का मातृरूप है। पर माँ ही गर्भस्थ कन्या भ्रूण की हत्या होने देने के लिये विवश है। कोलाज की तरह गड्डमड्ड होते देवी और नारी के ये दो रूप सांस्कृतिकता आध्यात्मिकता और व्यवहार में पगी नारी विवशता में छिन्नमस्ता का प्रश्निल व्यंग्य बन जाती है। लघुकथा की यह शक्ति भी कि किस तरह हजारों साल के सांस्कृतिक मिथ और अल्ट्रासाउण्ड में बिलबिलाते कन्या भ्रूण स्वर को चिंतनीय धुरी पर ला खड़ा करते हैं और कालदोष हवा हो जाता है।। ’श्मशान वैराग्य’ सधे शिल्प की व्यंजक लघुकथा भी नारी पर अत्याचारों की करुण ध्वनि है, जो टीवी और शास्त्रीय नृत्य संगीत की ध्वनियों के शोर में कोहराम तक को पचा जाती है, चाहे बलात्कार हो, लड़कियों के शव हो, पत्नी और पुत्रियों को गाड़ी से धकेलने के नृशंस कृत्य हो, जीवित चिंताओं के बीच नृत्य संगीत हो, रेल हादसा हो। पर सारे तांडवो के बीच नृत्य के घुँघरू यथावत् बज रहें हैं। तांडव जीवन का, तांडव नृत्य का। दो अलग अलग कथावृत्त है। कैसे कोड मिक्ंिसग कर व्यंजना को प्रत्यग्र बना देते हैं। 

      नारी अस्मिता का केवल यथार्थ और विडम्बना वाला स्वर ही इन लघुकथाओं में नहीं उभरा है। किसी कीमत पर, ’मैं बाँझ नही हूँ’, ’सदाबहार’, ’बया और बंदर’, ’बाबू’, ’खरपतवार’, ’आधी आबादी’, ’दुकान’, दिठौना आदि लघुकथायें अलग-अलग तरह से पुत्र-पितृवादी सत्ता पर चोट करती हैं, पर ‘बिना सिर वाली लड़की’ में लड़की का वह चेहरा ’नारी देह’ की पुरुषवादी प्रयोजनीयता पर कसकर प्रहार करता है।

 ’बेताल प्रश्न’ में वर्जिनिटी की नैतिकता को मिडिल क्लास मानसिकता मानने वाली आधुनिकता पर भी खासा तंज कसा गया है। किटी पार्टी के आधुनिकतावादी फैशनों में बदलता हुआ चरित्र ऐसा लगता है, जैसे तयशुदा संज्ञाओं ने खुशी से अपने विकारी सर्वनाम खोज लिए हों, आदमी के बदले शराब में। सदियों की नारी की विवश दास्तानें ’अलजबरा’ में बेहद तीखा सवाल कर जाती हैं- ’’औरत के संदर्भ में रूप, नाद और चरित्र अलजबरा प्रागैतिहासिक है …. तो माना, कि यदि शक की एक भुजा रूप, दूसरी चरित्र, तीसरी नाद तो चौथी क्या होगी?’’ यह जरूर है कि कभी ऐसी लघुकथायें सांकेतिक अमूर्तन में उलझती नजर आती हैं पर अमूर्तन हटते ही वे विषाद के साथ गहरी मार भी करती नज़र आती हैं।

      जातीयता के विभेदक संस्कारों पर भी आक्रामक करती लघुकथाएँ मानवीय समानता के सोच में ‘क्षेपक’ की तरह हैं। आदमी थोड़ा-सा बेहतर स्थितियों में आने पर अपनी ही जाति और बचपन की स्थितियों से मुँह सिकोड़ने लगता है। सुखिया का एस. लाल बन जाना और बेटी के लिये अच्छा प्रस्ताव आने पर भी जाति के नाम पर ’अचानक खीर के बर्तन में सुअरों की थूथन-सी बाडी लैंग्वेज बन जाना ’क्षेपक’ लघुकथा की मारक व्यंजना है। ‘चप्पल के बहाने’ तो लेखिका के मोचीराम ने बाबू मनोज के जूते ही नहीं उसके जातिवाद सोच पर भी तीखी कीलें ठोंक दी हैं

“…एक संत रैदासऊ रहे पहिले, उनकी चमड़ा भिगोने वाली कठौती में साछात गंगाजी आयीं रही तो ई तो केवल गांठने वाला डब्बाइ है, और महाराज सच्च पूछौ तो इहे कौम ठीक से समुझि पाई, कि ईसुर कहाँ नाहीं है’’। महाराज और मोचीराम, विवेकानंद और रैदास में भेद करती सांस्कारिक संकीर्णता पर यह मानवीय संदेश मारक चोट करता है। ’साँकल’ में भी इसी तरह की द्वैतवादी जातीय पेशबंदियाँ दोहरेपन पर प्रहार करती हैं। 

      यों इन लघुकथाओं में विषयों की विविधता है। ‘राजा नंगा है’ में नारी की विवशता का पर्दा पुरुषत्ववादी सभ्यता से छिटककर जब राजा-प्रजा की पुरानी कहानी में तीर की तरह जा बिंधता है तो पारदर्शी सत्य भी घर में तमाचे और राजा के दरबार में बच्चे के हाथ काट दिये जाने की संभावना से आहत हो जाता है। लेखिका इन दोहरे कथानकों की संधि में एक बड़े सत्य में छलाँग लगाने के शिल्प में माहिर है। ’चिड़िया उड’़ में बीमार लड़की को सभी स्वार्थ की नज़र से तौलते हैं, पर यही लड़की इन दुनियादार चरित्रों से हटकर अन्य बच्चों के साथ खेलती माँ को देखती है, तो उसे अपनी उड़ान का आसमान भी माँ की अँगुली की दिशा में नज़र आता है। ’मैं तो नाचूँगी गूलर तले’ में असहिष्णुता के नाम पर उठे तथाकथित चेहरों पर सांकेतिक प्रहार किया गया है। ‘और वह मरी नहीं’ लघुकथा तो गीत की सी टेक पर बर्तनवाली डुकरिया की जिन्दगी को ही समेट लेती है, बल्कि व्यक्तिवाची से इस पूरी जात की पीड़ा बन जाती है। कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को बयाँ करती ’सपनों का दरवाजा’ भी लेखिका के कैनवास को व्यापक बनाती है। 

      यह सही है कि हिन्दी लघुकथा की सहज शैली वर्णनात्मक शिल्प से निकलकर प्रयोगी शिल्प में निखर रही है। संध्या तिवारी ने मानवेतर शिल्प संवादी शिल्प, मिथकीय नियोजन, लोककथा शैली, काव्यात्मक पैटर्न, गद्यगीत शैली में अपनी इन कथा निर्मितियों को असरदार बनाया है। कुछ लघुकथाएँ सहज शिल्प में हैं, तो अधिकतर सांकेतिक व्यंजना लिए हुए कहीं-कहीं अमूर्तन तक चली जाती हैं, लेकिन वे भाषिक कोटियों के चयन और नियोजन के प्रति बहुत सचेत हैं। अज्ञेय ने तारसप्तक में कहा था कि अभिव्यक्ति के लिये कवि भाषा को अक्षम पाता है और कई बार विरामादि चिन्हों के माध्यम से अर्थ की सत्ता का विस्तार करता है। संध्या तिवारी भाषिक ध्वनियों विराम चिन्हों , सांगीतिक ध्वनियों, शब्द के बीच की दूरियों से उस अमूर्त को भी व्यक्त करने की राह तलाशती हैं। इससे न केवल परिवेश, व्यक्ति के भीतर का मनोविज्ञान, बॉडी लैंग्वेज की दृश्यमानता, नाटकीय मोड़, विज्युअल होते चरित्र सामने आते हैं, बल्कि अर्थाें की छिपी परत भी कुछ कहने लगती है। शीर्षकों में भी पूरी लघुकथा के विन्यास को संजो देने की क्षमता है, कभी-कभी तो वे बिना शब्द के भी पूरी लघुकथा पढ़ने के बाद शीर्षक तक लौटने के लिये बाध्य करते हैं, जैसे – ₹,  …. , !!!!!! ???? आदि। पौराणिक मिथकों से लेकर आधुनिक जीवन परिदृश्यों को छोटे से कैनवास पर समेटती कई लघुकथाएँ उन्हें ’टाइप’ से निकालकर ’हस्ताक्षर’ बनाती हैं। 

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-36, क्लीमेंस रोड, सरवना स्टोर्स के पीछे, पुरुषवाकम, चेन्नई-600007, तमिलनाडु/मो. 09425083335

असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ

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असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ( लघुकथा-संग्रह), मूल्य: 200 रुपये,द्वितीय संस्करण: 2013, प्रकाशक: अयन प्रकाशन 1 / 20, महरौली, नई दिल्ली-110030

हिंदी-लघुकथा सन्  1874 में हसन मुंशी अली की लघुकथाओं से विकास करना शुरू करती है, उसके पश्चात भारतेंदु हरिश्चन्द्र, जयशंकर ‘प्रसाद’, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, अवधनारायण मुद्गल , सतीश दुबे से होते हुए आज सन् 2019 में नयी पीढ़ी तक आ पहुँची है। हसन मुंशी अली से लेकर नयी पीढ़ी तक आते-आते लघुकथा के रूप-स्वरूप और भाषा-शैली में अनेक प्रकार की भिन्नता दिखाई  पड़ती है, इन भिन्नताओं को लघुकथा-विकास के सोपानों  के रूप में देखा जा सकता है। इसके मथ्य नवें दशक जिसे लघुकथा का स्वर्णकाल भी कहा जा सकता है।  इस काल में जो कुछ लेखक अपनी विशिष्ट लघुकथाएँ लेकर सामने आये उनमें रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ का भी एक उल्लेखनीय हस्ताक्षर है। इन्होंने अपने समकालीनों की तुलना में बहुत अधिक लघुकथाएँ तो नहीं लिखी ;किन्तु जो लिखी  वे लघुकथाएँ उनके अब तक के एकमात्र लघुकथा संग्रह ‘असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ’ में संगृहीत हैं। इन लघुकथाओं को पढ़ते समय इस बात का सहज ही एहसास होता है कि इन्होंने मात्र लघुकथाएँ लिखने के लिए लघुकथाएँ नहीं लिखीं, जब कभी इन्होंने अपने समाज में घटित होती समस्याओं और विडम्बनाओं को देखा और प्रतिक्रया  स्वरूप जब लघुकथा क रूप लेकर इन्हें बेचैन किया, तब इन्होंने  उन लघुकथाओं को लिपिबद्ध कर दिया। ऐसी स्थिति  में यह स्वाभाविक ही था कि ये लघुकथाएँ संवेदनशील होती । संवेदना किसी भी श्रेष्ठ लघुकथा का पहला गुण हैं।यूँ तो इस संग्रह में प्रकाशित प्रत्येक लघुकथा भिन्न-भिन्न कारणों से अपना महत्त्व रखती है किन्तु उनमें भी ‘ऊँचाई’, ‘ चक्रव्यूह’, ‘क्रौंच-वध’, ‘अश्लीलता’, ‘प्रवेश-निषेध’, ‘पिघलती हुई बर्फ’, ‘राजनीति’,’स्क्रीन-टेस्ट’, ‘कटे हुए पंख’, ‘असभ्य नगर’, ‘नवजन्मा’ इत्यादि लघुकथाओं ने न सिर्फ संवेदित किया अपितु मेरे मन-मष्तिष्क को झिंझोड़ कर भी रख दिया। इस कारण मैं इनके चिंतन-मनन को विवश हो गयी।

सर्वप्रथम मैं ‘ऊँचाई’ लघुकथा की चर्चा करना चाहूँगी। यह लघुकथा हिमांशु जी की न मात्र प्रतिनिधि लघुकथा है अपितु यह उनके विशिष्ट लघुकथाकार के रूप में पहचान भी है। मुझे विश्वास है कि कभी-न-कभी यह लघुकथा प्रत्येक लघुकथाकार की नज़र से गुज़री होगी और असंख्य पाठकों ने इसे पढ़ा भी होगा। इस लघुकथा मे नायक अपने पिता के आगमन पर यह सोचता है कि उसके पिता आर्थिक सहयोग के दृष्टिकोण से उसके पास आये हैं किन्तु भोजन करने के बाद उसके पिता जाते समय अपने पुत्र को बुला कर कहते हैं, “खेती के काम से घड़ी भर की फुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का  ज़ोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा।  तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं  मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।” जो बेटा अपने पिता के आगमन से ही विचलित हो जाता है, उसके पिता ने उलट अपने बेटे के लिए चिंता जताई है। और इसी लघुकथा में नायक के पिता को ऊँचाई दी है, कि उनका बेटा शहर तो आ गया, पर उसकी सोच संकीर्ण हो गयी और वह इतना स्वार्थी हो गया कि उसने अपने पिता का स्वागत मन मार कर किया, ऐसे में भी पिता ने अपनी जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर नायक की तरफ बढ़ा दिए और कहा, “रख लो! तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फसल अच्छी हो गयी है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमजोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहु का भी ध्यान रखो।” बेटा परेशान है इसका एहसास पिता को है, वहीं वह यह भी जानते हैं कि पैसा देने पर उनके बेटे को उसके माता-पिता की चिंता भी होगी, इसकी वजह से वह उसको चिंतामुक्त भी कर देते हैं और अपने को सहज भी कर ले इसका अवसर भी दे देते हैं। इन  अन्तिम वाक्यों  ने इस लघुकथा को उत्कृष्ट बना दिया है। और पिता और पुत्र के बीच के रिश्ते  के अपनत्व का भी उत्कृष्ट तरीके से चित्रण करने का सद्प्रयास किया है। इस लघुकथा का कथानक न सिर्फ श्रेष्ठ है अपितु इसके शीर्षक ने भी इस लघुकथा को उत्कृष्ट बनाया है। गाँव से पलायन कर शहर में रहने से कोई अमीर नहीं हो जाता समस्याएँ यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ती, पर इंसान किस तरह स्वार्थी हो जाता है और विवश हो जाता है कि उसको अपने माता-पिता भी बोझ  लगने लगते हैं वह यह भी भूल जाते हैं कि किस तरह से उन्होंने भी परेशानियों का सामना किया होगा और वह भी निस्वार्थ भाव से। इस लघुकथा में पिता का यह कहना कि “इस बार फसल अच्छी हुई है…” से हिमांशु एक सन्देश भी देना चाहते हैं कि ‘समस्याओं से भागना कोई हल नहीं हैं ; अपितु उनका सामना करना ही हितकारी होता है’ और माता-पिता से बढ़कर इस दुनिया में कोई भी नहीं होता जो नि:स्वार्थ भावना रखता है। इसको पढ़ने के पश्चात् क्या ऐसा सबके साथ नही होता जो मेरे साथ हुआ है।

इसी प्रकार अन्य ऊपर उल्लिखित लघुकथाओं में भी देखा जा सकता है। ‘चक्रव्यूह’ में नायक  मध्यमवर्गीय परिवार से है जो अपनी  जिजीविषा के लिए दिन-रात मेहनत तो करता है, पर महंगाई की मार उसकी कमर तोड़ देती है और वह खुद को चक्रव्यूह में फँसा हुआ अनुभव करता है, इस लघुकथा की अंतिम पंक्तियाँ  देखी जा सकती हैं  ‘ एक पीली रोशनी मेरी आँखों के आगे पसर रही है;जिसमें जर्जर पिताजी मचिया पर पड़े कराह रहे हैं और अस्थि-पंजर-सा मेरा मँझला बेटा सूखी खपच्ची टाँगों से गिरता-पड़ता कहीं दूर भागा जा रहा है। और मैं धरती पर पाँव टिकाने में भी खुद को असमर्थ पा रहा हूँ।” इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने मध्यमवर्गीय परिवार की परेशानियों को उभारने का सद्प्रयास किया है जिसमें वह सफल भी रहे हैं।

 ‘अश्लीलता’ इंसान की विकृत सोच को दर्शाती इस लघुकथा का अंत नकारत्मकता  लिए है ;परन्तु इसके बावजूद इस लघुकथा में इंसान की दोहरी सोच और उसके मनोविज्ञान को भली-भाँति समझा जा सकता है। इस लघुकथा की प्रथम पंक्ति को देखें: ‘रामलाल कि अगुआई में नग्न मूर्ति को तोड़ने के लिए जुड़ आई भीड़ पुलिस ने किसी तरह खदेड़ दी थी….।” और इसी लघुकथा की अन्तिम पंक्तियों को भी देखें: “वह मूर्ति के पास आ चुका था। देवमणि के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। रामलाल मूर्ति से पूरी तरह गूँथ चुका था और उसके हाथ मूर्ति के सुडौल अँगों पर के केचुए  की तरह रेंगने लगे थे।”

‘प्रवेश-निषेध’  लगभग  40 साल पहले लिखी यह लघुकथा वर्तमान की राजनीति पर करारा कटाक्ष करती है। लघु आकार की होने के बावजूद इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने इस रचना में क्षिप्रता देकर उत्कृष्ट बनाने का सफलतम  सत्प्रयास किया है। इसका अंतिम वाक्य देखा जा सकता है, जब राजनीति एक वेश्या की चौखट पर आती है और दलाल उससे उसका परिचय पूछता है, दरवाज़े ओट में खड़ी वह कहती है, “ यहाँ तुम्हारी जरूरत नहीं है। हमें अपना धंधा चौपट नहीं कराना। तुमसे अगर किसी को छूत की बीमारी लग गई तो मरने से भी उसका इलाज नहीं होगा।” और वह दरवाज़ा बंद कर देती है।

‘पिघलती हुई बर्फ’ पति-पत्नी का रिश्ता अनोखा होता है, प्रकृति ने मनुष्यों को जहाँ अलग-अलग चेहरे दिए हैं वैसे ही उनके  स्वाभाव में भी भिन्नता होती है, इसके बावजूद मनुष्य को एक सामाजिक  प्राणी का दर्जा प्राप्त है। पति-पत्नी भी अपवाद नहीं हैं, छोटी-मोटी बहस के बावजूद एक दूसरे के समर्पण भाव सहज देखने को मिल जाते  है। लेखक ने इस लघुकथा के माध्यम से इस रिश्ते की नींव को मज़बूत बनाने का सार्थक प्रयास किया है जिसमें वह पूर्णतः सफल रहे हैं।

‘राजनीति’ यह लघुकथा राजनीति की पृष्ठभूमि पर लिखी एक अच्छी लघुकथा है, इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने राजनीति में पनप रही कूटनीति और बढ़ते हुए अपराध को बड़े ही करीने से उजागर किया है।

‘स्क्रीन-टेस्ट’ फ़िल्मी दुनिया हमेशा आकर्षण का केंद्र रही है, नाम और शोहरत पाने की लालसा में और जल्द-से-जल्द अमीर बनाने की चाहत में युवा- वर्ग इस ओर आकर्षित हो जाती है, परन्तु इस चकाचौंध के पीछे के दलदल में फँस कर रह जाती है, जहाँ से वापिस आना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन- सा हो जाता है। इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने एक सकारात्मक   सन्देश भी दिया है-‘सफलता पाने के लिए कोई शॉर्टकट रास्ता  नहीं होता’।

‘कटे हुए पंख’  आपात्काल में  लिखी गई अर्ध ‘मानवेतर’ शैली की लघुकथा  है । यह राजनीति और सामंतशाही की प्रवृत्ति को चित्रित करती है । किस तरह से ऊँचे  व्यक्ति पैसे और सत्ता के दम पर अपने से नीचे के लोगों को कुचलकर अपना साम्राज्य  स्थापित करना चाहते हैं । वे किसीकी भी परवाह किये बिना अपने स्वार्थ को सिद्ध करते है। इस लघुकथा के अंत से इस बात की पुष्टि होती है : ‘परन्तु तोता उड़ न सका। धीरे-धीरे-से  पिंजरे के पास बैठ गया था; क्योंकि उसके पंख मुक्त होने से पहले ही काट दिए गए थे।

‘असभ्य नगर’ आज के भौतिक और भूमंडलीकारण के चलते पशु-पक्षियों के जीवन को भी खतरा हो गया है। परन्तु यह भी सच है कि इस आपा-धापी में हम अपना सुख-चैन भी खो चुके हैं, एक तरफ जहाँ हम जंगलों को काटते जा रहे हैं और बड़ी-बड़ी गगनचुम्बी इमारतें  बनाते जा रहे हैं, हमारे भीतर की संवेदना खत्म  होती जा रही है। हिमांशु जी ने इस मानवेतर लघुकथा के माध्यम से एक सार्थक सन्देश देने का सत्प्रयास किया है। इस लघुकथा की अन्तिम पंक्ति में पूरी लघुकथा का सार मिल जाता है, ‘उल्लू ने कबूतर को पुचकारा- “मेरे भाई, जंगल हमेशा नगरों से अधिक सभ्य रहे हैं। तभी तो ऋषि-मुनि यहाँ आकर तपस्या करते थे।” इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने पर्यावरण के नष्ट होने पर अपनी चिंता जताई है और जिससे यह सिद्ध होता है, कि हिमांशु जी न सिर्फ सामाजिक परन्तु वह प्रकृति-प्रेमी भी दिखाई पड़ते हैं ।

‘नवजन्मा’ लड़की बचाओ पर आधारित एक उत्कृष्ट लघुकथा है, जिलेसिंह जिसके घर में एक पुत्री-रत्न की प्राप्ति हुई है, उसके घर वाले निराश होकर उसको शिकायत करते है और लड़की होने के नुकसान  गिनवाते हैं, वो कहते हैं  औरत ही औरत की दुश्मन होती है, इस लघुकथा में इसका चित्रण बहुत ही करीने से हुआ है, जिलेसिंह की दादी और बहन दोनों ही लड़की पैदा होने का शोक मनाते हैं, वहीँ दूसरी ओर जिलेसिंह पहले तो तनाव में आ जाता है ;परन्तु अपनी पत्नी और पुत्री का चेहरा देखकर उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है और वह बाहर से ढोलियों को लेकर आता है और नाचने लगता है तथा ढोलिए को खूब तेज़ ढोल बजाने के लिए प्रेरित करता है। इस लघुकथा के माध्यम से हिमांशु जी ने लड़का और लड़की के भेद को मिटाने का सकारात्मक सन्देश दिया है।

इन लघुकथाओं के अतिरिक्त अन्य सभी लघुकथाएँ आलोचना की दृष्टि से मत-भिन्नता का शिकार हो सकती हैं, किन्तु पाठकीय दृष्टि से उनपर प्रश्नचिह्न लगाना कठिन है। यों भी आजतक कोई कृति ऐसी प्रकाश में नहीं आई है, जो एक मत से  निर्दोष सिद्ध हुई हो। तो इस कृति से ही हम ऐसी आशा क्यों करें कि यह निर्दोष है। इसकी विशेषताओं में  विषय की विविधता  और भाषा- शैली है ।

लघुकथा संग्रहों में ऐसे संग्रह नगण्य ही हैं जिनके  दूसरा  संस्करण भी प्रकाशित हुए हों। इस संग्रह का दूसरा संस्करण प्रकाश में आया है, जो इस बात का द्योतक  है कि इस संग्रह को  पाठकों ने भरपूर स्नेह दिया है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अन्य अनेक चर्चित संग्रहों की तरह से नयी पीढ़ी के लिए यह भी  एक आदर्श संग्रह साबित होगा।

       -0-कल्पना भट्ट ,श्री द्वारकाधीश मंदिर ,चौक बाज़ार ,भोपाल 462001 (मो 9424473377)

खुशी

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(पोलिश लघुकथा )

लड़के की आँखों में एक सपना तैर रहा था। एक सुहावना सपना-‘बाबा मैं चाहता हूँ मेरे पास खूब पैसा हो। तब मैं बहुत खुश रहूँगा।’

लड़के की उम्र यही कोई दस बरस होगी। उसने एक मैला-सा कमीज और पैंट पहन रखा था,जो निहायत ही पुराना हो चुका थी।

‘तुझे जिंदगी में वह सब कुछ मिलेगा, जो तुम कमाओगे….इनसे…..।’ और बूढ़े ने अपने बड़े-बड़े खुरदरे हाथ लड़के के आगे पसार दिए-‘पैसा तुम्हें खुशी नहीं दे पाएगा।’

‘ तो क्या चीज  दे पाएगी बाबा?’

बूढ़े ने लड़के की और देखा। पर कहा कुछ नहीं, फिर कुछ सोचता हुआ बोला, ‘तुम बहुत भोले हो मारूस! तुम एक दम अनजान हो। जर्मनों ने मुझे एक दीवार के साथ टाँग कर रखा था और हफ्ता भर मैं जख्मी टाँगों को बर्फीले रास्ते पर घिसटता रहा था। क्या वक्त था वह भी….! जंग, तूफान, खून….तुम खुशकिस्मत हो। तुम्हारी माँ है! घर है…और कोई तुम्हारे मुँह पर नहीं थूकता।’

वह चुप हो गया। लड़का भी खामोश रहा थोड़ी देर।

‘और बाबा……तुम जिंदगी में कभी खुश नहीं हुए?’ लड़के ने पूछा।

बूढ़ा जवाब देने से पूर्व क्षण भर सोचता रहा। फिर बोला,’ हाँ, सन् बयालीस में। जब मुझे जर्मनी ले जाया जा रहा था। मैं चलती गाड़ी से कूद पड़ा था। सर्दी का मौसम था। चारों ओर बर्फ जमी थी। मेरे हाथ छिल गए थे और चेहरा जख्मी हो गया था। घिसटते-घिसटते घर पहुँचने में एक हफ्ता लग गया थां और जब मैं वहाँ पहुँचा, तो मेरे परिवार वाले मेरा इंतजार कर रहे थे। और ईश्वर  से मंगलकामना भी। और तब मुझे खुशी हुई थी। शायद  जिंदगी में पहली बार। लेकिन यही बहुत बड़ी बात थी…..।’

‘ क्या बड़ी बात थी, बाबा?’

‘जिंदा होना मारूस, जिंदा होना।’ और यह कहते-कहते बूढ़े का चेहरा सिकुड़कर झुर्री  हो गया, और आँख से दो मोती टपक कर झुर्रियों में खो गए।

नई पुस्तकें

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पागल

ধারণা / धारणा

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মূল লেখক – রামেশ্বর কম্বোজ

অনুবাদ – আরতি চন্দ

               * ধারণা *

এই শহরে আমি এক্কে বারে নতুন এসেছি । এক্কে বারে অচেনা অনেক দৌড় ধূপ করে পাশের পাড়াতে বাড়ি খুঁজে নিয়েছি । পরশু দিনই পরিবার কে ও নিয়ে এসেছি । কথায় – কথায় অফিসে জানাজানি হয়ে গেছে যে আমি পাশের পাড়াতে ঘর ভাড়া নিয়েছি । অফিসের বড় করতে ভুরু কুঁচকে বললেন ….

” পরিবার নিয়ে আপনি ওই পাড়াতে বসবাস করতে পারবেন ?

” কেন স্যার কিছু ভুল হল কি ? ” আমি হড়বড়িয়ে জিজ্ঞাসা করলাম ।

” পাড়া টা একেবারেই বাজে ,প্রতিদিন গন্ডগোল লেগেই আছে । খূব সাবধানে থাকতে হবে । ” সাহেবের কপালে চিন্তার রেখা ।

” ওই পাড়াটা এক্কেবারে বদনাম পাড়া । গুন্ডাগার্দি লেগেই আছে । ”

কোনো মতে নিজের চেয়ারে এসে বসতে না বসতেই বড় বাবু এসে উপস্থিত …..

” আপনি ওই বাজে পাড়ায় বাড়ি ভাড়া নিয়েছেন ? “

” মনে হচ্ছে কাজটা ঠিক করিনি ? ” অনুশোচনার সুরে বললাম ।

” হ্যাঁ স্যার একেবারেই ঠিক করেননি । ওই পাড়া টা বসবাসের যোগ্য নয় , যত তাড়াতাড়ি পারেন বদলে ফেলুন ।” নিজের অভিজ্ঞ চোখ আমার চোখে রেখে বললেন ।

       এই পাড়ায় এসে আমিও খূব চিন্তায় পড়ে গেছি । ঘরের সামনে পান , বিড়ি , সিগারেটের দোকান , গুমটি গুমটির কালো গোঁফওয়ালা এক্কেবারে নামি গুন্ডা মনে হয় । সারাক্ষন ওর তাম্বুল চর্বিতে মুখ আরো বীভৎস লাগে ।

সত্যি – সত্যি আমি খূব খারাপ জায়গায় এসে পড়েছি । আমার চোখে রাতে ঘুম এলোনা । ছাদের উপর কারো লাফিয়ে পড়ার শব্দ ভয়ে আমার প্রাণ নখের ভেতর ঢুকে গেল । কাঁপতে – কাঁপতে নিজের পা টিপে – টিপে বাইরে এলাম , বুক ধড়ফড় করছে । দেখি ছাদের কার্নিশের উপর বেড়াল বসে আছে ।

আজ দুপুরে বাজার থেকে ফিরে বিশ্রাম নিচ্ছি , চোখ লেগে এসেছে । কিছুক্ষনের মধ্যেই দরজায় ধপধপ আওয়াজ । দরজা খোলাই ছিল , আমি হড়বড়িয়ে উঠে বসলাম । দেখি সামনের গোঁফওয়ালা পান দোকানী দাঁড়িয়ে হাঁসছে । সুনসান দুপুর , আমার হাত – পা ঠান্ডা ।

” কি ব্যাপার ? ” আমি জিজ্ঞাসা করলাম ।

” মনে হয় আপনারই ছেলে চকলেট নিতে এসেছিল আমার কাছে । ” ও আমায় এই প্যাকেট টা দিয়ে এসেছিল । ” বলতে – বলতে একশো টাকার নোট আমার দিকে বাড়িয়ে দিল । আমি চমকে উঠলাম , এই একশো টাকার নোটটা আমার পকেটে ছিল , হাতড়ে দেখি পকেট খালি । মনে হচ্ছে মোনু আমার পকেট থেকে একশো টাকাটা বের করে নিয়েছে ।

” চকলেটের কত দাম ? “

” মাত্র পঞ্চাশ টাকা , এই পয়সা আর কখন নিয়ে নেব । ” বলে কচর – কচর করে পান চাবাতে – চাবাতে হাসল । ওর অম্লান হাসিতে মুখটা উজ্জ্বল হয়ে উঠল ।

” আচ্ছা বাবু প্রনাম ” বলে সে চলে গেল । আমার মাথা থেকে একটা বিরাট বোঝা নেমে গেল ।

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लघुकथाएँ:राममूरत ‘राही’

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1-बोहनी

            एक गरीब-से दिखने वाले वृद्ध से जनरल कोच में एक पुलिस वाले ने पूछा-‘‘टिकट दिखाओ।’’

            ‘‘तो चलो थाने….’’ इतना कहकर पुलिस वाले ने उस वृद्ध की बाँह पकड़ी और कोच के एक कोने में ले गया जहाँ पर कोई नहीं था। फिर बाँह छोड़ते हुए धीमी आवाज में बोला-‘‘लाओ दो सौ रुपए निकालो, नही ंतो थाने चलना पड़ेगा।’’

            ‘‘साब….दो सौ रुपये नहीं हैं।’’

            ‘‘ठीक है…सौ रुपये निकालो।’’

            ‘‘साब….सौ रुपए भी नहीं हैं।’’

            ‘‘अबे कुछ तो होगा? वही दे दो।’’ पुलिस वाले ने खीजकर कहां

            बुजुर्ग ने अपने हाथ में पकड़ी छड़ी एक तरफ रखते हुए, अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक पाँच रुपए का सिक्का निकालकर पुलिस वाले को देते हुए कहा-‘‘लो साब….’’

            पुलिस वाले ने जाब पाँच रुपए का सिक्का देखा, तो वह गुस्से में भर उठा और बोला-‘‘अबे स्साले….भिखारी समझ रखा है क्या?’’

            वह बुजुर्ग डरता हुआ बोला,-‘‘नहीं साब….भिखारी तो मैं हूँ…. अभी हाल ही में डिब्बे में भीख माँगने आया था कि आपने मुझे पकड़ लिया। थोड़ी देर बाद पकड़ते तो शायद मैं आपको दो सौ रुपए दे देता। अभी तो मेरी बोहनी भी नहीं हुई ह,ैं ये पाँच रुपए का सिक्का तो कल का बचा हुआ है। इसे आप रख लो, आपकी बोहनी हो जाएगी।’’

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2-तीसरा झूठ

            बिट्टू चुपचाप मिठाई के डिब्बे में से मिठाई निकालकर खा गया। जब उसकी मम्मी ने डिब्बा देखा, तो बिट्टू से पूछा-‘‘बेटा! क्या तुमने इसमें से मिठाई ली है?’’

            ‘‘नहीं मम्मी! मैंने मिठाई नहीं ली है।’’ बिट्टू ने साफ इनकार कर दिया।

            ‘‘बेटा! मुझे मालूम है कि तुमने ही मिठाई ली है। तुम मेरे सामने पहली बार झूठ बोल रहे हो, इसलिए मैं तुम्हें समझा रही हूँ कि अब कभी झूठ मत बोलना।’’

            बिट्टू ने हाँ में गर्दन हिला दी।

            एक दिन फिर किसी बात पर बिट्टू ने अपनी मम्मी से दूसरी बार झूठ बोला, तो उसकी मम्मी ने उसे खूब डाँटा और हिदायत दी कि अब कभी झूठ बोला तो पिटाई करूँगी।

            बिट्टू ने अपनी मम्मी से वादा किया कि अब वह कभी भी झूठ नहीं बोलेगा।

            लेकिन कुछ दिनों बाद बिट्टू ने जब तीसरी बार झूठ बोला, तो उसकी मम्मी ने इस बार उसे ना ही डाँटा और न ही उसकी पिटाई की क्योंकि इस बार बिट्टू ने अपनी मम्मी के कहने पर ही मिसेज वर्मा से ये झूठ बोला था मम्मी घर में नहीं हैं, जबकि उसकी मम्मी घर पर ही थीं।

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3-ब्लॉक

            ‘‘किसका फोन था?’’ सुरेखा ने किचन में से पूछा।

            ‘‘पापा का था?’’ पति अमित ने बताया।

            ‘‘वे बीमार हैं। इलाज के लिए दस हजार रुपए माँग रहे थे।’’

            ‘‘कह देते पेड़ पर पैसे नहीं लग रहे हैं, जो तोड़ कर दे दंेगे। हम खुद ही परेशानी में हैं।’’ सुरेखा ने गुस्से में कहा।

            अमित ने आगे कुछ नहीं कहा और वह चुपचाप बाथरूम में नहाने चला गया।

            ‘‘आज मैं उनका नम्बर ब्लॉक किए देती हूँ, ताकि वे दोबारा फोन न लगा सकें।’’ सुरेखा गुस्से में किचन में से बड़बड़ाती हुई हॉल में आई  और जैसे ही मोबाइल उठाकर नम्बर ब्लॉक करना चाहा, वह परेशान हो गई। क्योंकि वो जिस नम्बर को ब्लॉक करना चाहती थी, वो नम्बर अमित के पापा का नहीं, उसके खुद के पापा का था।

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4-अन्तहीन रिश्ते

            बस स्टॉप पर उतर कर, रुखसाना घर की तरफ तेज कदमों से जा रही थी। रास्ते में ही खबर मिली थी कि मन्दिर-मस्जिद के विवाद से शहर में साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए हैं। जब वह एक गली से गुजर रही थी, तभी तीन शराबी युवक उसका रास्ता रोककर खड़े हो गए और उसके साथ छेड़खानी करने लगे।

            अचानक वहाँ एक ऑटो रिक्शा आकर रुका। जिसमें से दाढ़ी वाला ऑटो चालक उतरा, उसने उन तीनों शराबी युवकों को रोकते हुए कहा-‘‘क्यों बे! परेशान कर रहे हो इस लड़की को?’’

            ‘‘क्यों?….क्या…..ये तेरी बहन लगती…है? जो इसे बचाने चला आया…। अबे चला जा…यहाँ से…नहीं तो मैं तेरे हाथ पैर…तोड़ दूँगा…। शायद तू मेरा नाम….जानता नहीं है…। मेरा नाम….किशोरी…दादा है, समझे….।’’ उसमें एक दादा टाईप युवक ने लड़खड़ाती हुई आवाज में कहा।

            ‘‘हाँ! मेरी बहन लगती है।’’ इतना कहकर, वह तीनों युवकों से भिड़ गया, थोड़ी देर में ही वे तीनों वहाँ से भाग निकले।

            रुखसाना ने उससे कहा-‘‘भाईजान! आपका बहुत-बहुत शुक्रिया।’’

            ‘‘शुक्रिया की जरूरत नहीं है, चलो मैं तुम्हें घर छोड़े देता हूँ।’’

            ‘‘भाईजान! पास में ही मेरा घर है। आप क्यों परेशान हो रहें हैं? मैं चली जाऊँगी।’’

            ‘‘तुमने मुझे भाईजान कहा है। शहर में दंगे हो गए हैं। मेरा फर्ज बनता है कि एक भाई के नाते मैं तुम्हें हिफाजत के साथ, घर पहुँचा दूँ। चलो जल्दी से बैठो।’’

            रुखसाना ऑटो में बैठ गई। जब ऑटो रिक्शा उसके घर पहुँचा, तो उसका इन्तजार कर रही उसकी दादी ने उससे घबराते हुए पूछा-‘‘रुखसाना! तूने आने में देर क्यों कर दी? मैं कब से तेरा इन्तजार कर रही हूँ। क्या तूझे मालूम नहीं है कि शहर में दंगा हो गया है?’’

            ‘‘मालूम है दादी।’’ इतना कह कर रुखसाना ने उन्हें पूरी घटना बता दी। जिसे सुनकर उसकी दादी ने उस युवक की तरफ देखकर कहा-‘‘बेटा! अल्लाह ताला तुम्हारा भला करे। अच्छा हुआ तुमने इसे उन काफिरों से बचा लिया, नही ंतो वे लोग ना जाने मेरी मासूम पोती के साथ क्या सलूक करते।’’

            वह चुपचाप ऑटो रिक्शा स्टार्ट कर वहाँ से जाने लगा, तो रुखसाना की दादी ने उससे पूछा-‘‘बेटा! तुम कौन हो?’’

            ‘‘काफिर!’’ उसने संक्षिप्त-सा जवाब दिया।

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5-पराया खून

            ‘‘बेटा अशोक! मैं ये क्या सुन रही हूँ, तुम बहू को तलाक देने का सोच रहे हो?’’ यशोदा देवी ने अपने बेटे के दफ्तर जाने के  बाद से ही अपने कमरे में पड़ी हुई हैं।’’

            ‘‘माँ! शादी को दस साल हो गए हैं। अभी तक हमारी कोई सन्तान नहीं हुई है। मैंने अपना और उसका चेकअप करवाया था। डॉक्टर ने मुझमें नहीं उस में खराबी बताई है कि वह कभी भी माँ नहीं बन सकती है।’’

            ‘‘लेकिन-वेकिन कुछ नहीं माँ! मैं उसका इलाज करवाते-करवाते थक गया हूँ। मैं उससे तलाक लेना चाहता हूँ। हमें अपना वंश आगे बढ़ाना है।’’ अशोक ने माँ की बात बीच में काटते हुए कहा।

            ‘‘बेटा! मेरा कहा मान, बरखा को तू तलाक मत दे। हम अपना वंश आगे बढ़ाने के लिए अनाथाश्रम से एक बच्चा गोद ले लेंगे।’’

            ‘‘नहीं माँ! मुझे अपना ही खून चाहिए पराया नहीं।’’

            यशोदा देवी ने दीवार पर लगी अशोक की बचपन की तस्वीर पर हाथ फेरते हुए कहा-‘‘बेटा! अगर तेरे पापा भी, तेरे जैसा ही सोचते, तो तू आज इस घर में नहीं होता।’’

लघुकथा का प्रभाव

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सतर-अस्सी के लघुकथा आंदोलन ने बहुतों को उद्वेलित किया था। पहचान को तरसती, लड़ती-झगड़ती लघुकथा को आख़िर अलग पहचान, उचित सम्मान-स्थान मिल ही गया। कोई नामकरण करता था – लघु कहानी, कोई लघु व्यंग्य, कोई लघु व्यंग्य कथा, छोटी कहानी ….. अनगिन नामों के पक्षधर जोरदार बहस-मुबाहिसों से इस विधा को परिभाषित करने की कोशिश करते रहे। इसमें सबसे अधिक हानि किसी की हुई, तो वह हुई लघुकथा विधा की।     हालाँकि इसकी सफलता पर संदेह नहीं था; लेकिन बेमजा बहसों ने माहौल को इसके विरोध में ला खड़ा किया था। 

बीच में लेखकों ने इस विधा से दूरी बनानी शुरू कर दी थी। बहुत वाद-विवाद, प्रतिवाद ने मोहभंग-सा कर डाला था और जो संपादक अपनी लघु पत्रिकाओं में लघुकथा की जड़ों को गहरे तक समोए बैठे थे, वे भी विमुख होने लगे। सारिका जैसी लघुकथा की पैरोकार पत्रिका ने इसके नामकरण के विवाद को गंभीरता से झेला था। 

लघुकथा बीच के सालों में फिलर की तरह उपयोग की जाने लगी थी। पत्र-पत्रिकाओं में स्थान तो मिलता था, लेकिन जैसे लघुकथा पर एहसान किया जा रहा हो। बस, जगह भरने के लिए। 

बड़े लेखकों की कलम तो इस दिशा में चुप हुई ही, शिक्षार्थी भी दूरी बनाने लगे। मुझे याद है, मुझे ही एक बड़े संपादक, लेखक ने तब कहा था – लघुकथा?…. नहीं! मेरी पत्रिका के लिए लघुकथा नहीं भेजना। 

हुआ क्या समझ नहीं पाई थी तब, जबकि वे अपनी पहली पत्रिका में प्रमुखता से लघुकथाएँ, उस पर लम्बे आलेख, विचार, प्रतिक्रियाएँ, लघुकथा पत्रिकाओं की लंबी सूची छापते रहे थे। उनकी पत्रिका का लघुकथांक भी आकर बेहद चर्चित हो चुका था। आज के तमाम बड़े साहित्यकार, लघुकथाकार की रचनाएँ, लेख और लघुकथांक पर प्रतिक्रिया आ चुकी थी। फिर उन्होंने मना क्यों किया? मेरी लघुकथा को भी ‘ लघुकथांक ‘ में प्रकाशित कर चुके थे, फिर?    वह पत्रिका थी ‘ नवतारा ‘ और संपादक थे लघुकथा को सत्तर-अस्सी के दशक में पहचान दिलाने के लिए प्रतिबद्ध श्री भारत यायावर। 

असमंजस से घिर गई। आख़िर कौन सा तल्ख़ अनुभव उनसे कहलवा रहा है कि लघुकथा ?…..लघुकथा नहीं भेजना ‘ विपक्ष ‘ के लिए। मैंने तो लघुकथा भेजने की ही तैयारी कर ली थी। पर लघुकथा की मौत नहीं हुई। फिनिक्स की तरह वह फिर उठ खड़ी हुई….. पूरे दम-खम के साथ। और आज वह चमकती, दमकती हुई सीना तान कर खड़ी है अपने उसी नाम को धारण किए हुए। 

इसमें निरंतर लगे रहनेवाले लघुकथा-प्रेमियों का बहुत बड़ा सहयोग है। तपस्वी की तरह वे लगे रहे। अंततः लघुकथा को उसका सम्मान दिला कर ही मानें। 

बहुत सारी अच्छी लघुकथाओं की भीड़ में से दो सुई को छाँटने की कवायद सच में मुश्किल है। फिर भी –

मेरी पसंद की पहली लघुकथा पारस दासोत की ‘ धूल ‘ है । बहुत छोटी प्रतीकात्मक कथा। आकार में लघु लेकिन अपने संदेश, असर, मारक क्षमता में भरपूर। लघुकथा के मानक पर खरी। संवादहीन,पर शब्दों से जैसे संवाद झर रहा है। खूब बतिया रही है, हाँ बतियाती लघुकथा है-‘ धूल’।

हमारे समाज में कोढ़ की तरह जातिवाद ने कब्जा जमा लिया था। अब इतने बदलाव के बावजूद कमोबेश कुछेक जगहों पर मालिक-नौकर के बीच का अंतर, जातिवाद का कहर-जहर कम नहीं हुआ है। ऐसे में यह पुरानी लघुकथा अपना प्रभाव छोड़ने में अब भी सक्षम! 

संरचना (संपादक -कमल चोपड़ा ) के अंक -6, 2013  में यह लघुकथा छपी थी। इसमें एक कामवाली बाई के माध्यम से सामाजिक विषमता को दर्शाया गया है। एक शब्द फालतू नहीं। शब्द बाहुल्य से नहीं, लघुकथा को अर्थ की व्यापकता से समृद्ध किया गया है। 

ठकुराइन के घर काम करनेवाली स्त्री अपनी जूतियों को ड्योढ़ी पर ही उतार देती है। उसे अपनी जूतियों को अंदर ले जाने की इजाजत नहीं। लेकिन बात यहीं पर नहीं रुकती। वह ठकुराइन की जूतियों को अपनी काँख तले दबा, घर के सारे काम निपटाती है। उसे एक बार भी जमीन पर नहीं रखती है। सामंतवादी व्यवस्था की पोल खोलती कथा आगे बताती है कि बाहर आकर पुनः उन जूतियों को ड्योढ़ी पर रख खुद की पहन लेती है। गुलामी की पराकाष्ठा है यह। हालाँकि आज इस स्थिति में बेहद बदलाव आ चुका है; पर ग्रामीण क्षेत्रों, दूर-दराज के इलाकों में कभी-कभार अब भी यह स्थिति देखने को मिल जाती है। 

  अंत में जब वह अपनी जूतियों की धूल झाड़ उन्हें पहनकर लौटती है, तो पाठक को हतप्रभ कर देती है यह कथा। मानव-मानव के बीच इतना फर्क! फिर भी इसकी मुख्य पात्र कमजोर नहीं। वह वापस जाने से पूर्व अपनी जूतियों की धूल वहीं ड्योढ़ी पर झाड़ जाती है। 

शीर्षक धूल सार्थक….तीन अर्थों में खुलता है। एक शाब्दिक। दूसरा किसी कामगार व्यक्ति को धूल समान ही मानने की भारतीय मानसिकता के संदर्भ में। कामगार, पिछड़ी जाति का मनुष्य धूल के समान ही हैसियत रखता आया है। तीसरा धूल का ड्योढ़ी पर ही झाड़कर चल देना उसके स्वाभिमान का प्रतीक बन गया है। 

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 दूसरी लघुकथा अभिज्ञान-लेखक-चैतन्य त्रिवेदी ,संग्रह – उल्लास में संगृहीत(प्रकाशन वर्ष – 2000)

आर्य स्मृति साहित्य सम्मान, किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित। इसकी पांडुलिपि ‘ उल्लास ‘ को श्री राजेन्द्र यादव, श्री कमलेश्वर और चित्रा मुद्गल जी के निर्णायक मंडल ने पुरस्कार के योग्य माना था। बाद में उल्लास नाम से ही किताबघर ने छापा। इसी पुस्तक में शामिल है यह लघुकथा अभिज्ञान ! 

आदमी दुनियाभर की चीजें जानता-पहचानता है। खूब ज्ञान प्राप्त करता है। किताबों, ज्ञान प्रसारित करनेवाले अन्य साधनों, तकनीक के जमाने में सहज उपलब्ध जानकारियों के भंडार से लैस रहता है। बस, खुद को नहीं जानता, खुद को नहीं पहचानता….. इसी बात को आधार बनाकर लिखी गई यह कथा। 

खुद को जानने के लिए बेचैन ज्ञानी व्यक्ति से एक अज्ञानी, अँधेरे में बैठा आदमी पूछता है – कौन हो तुम? 

ज्ञानी व्यक्ति बताता है बहुत सी पुस्तकें पढ़ने के बावजूद वह स्वयं को नहीं पहचानता। अब तक कोशिश ही कर रहा है। 

अँधेरे में बैठा व्यक्ति उससे पूछ बैठता है – कम सुनते हो? 

उसका उत्तर देखें- सुनने से कहाँ कोई जान पाया है, वरना इतनी कथाओं, आप्त प्रवचनों से ही सब जान जाते।

कितना सटीक कथन कि उपदेश, प्रवचन, दूसरे की आँख-कान से देखकर कोई कभी स्वयं से साक्षात्कार नहीं कर सकता है। 

अंत में अँधेरे में बैठा आदमी उसे पागल समझता है। कहता भी है। 

ज्ञानी व्यक्ति का कथन कि पागलपन से ही खुद को जाना जा सकता है, पहले मनुष्य का मुँह बंद करा देता है। फिर अँधेरे में बैठे आदमी ने कुछ नहीं पूछा। 

इस अंत से उपजती है यह सच्चाई कि पूछने को अब कुछ बचा भी है। अँधेरे में बैठा आदमी अज्ञानता का प्रतीक है, लेकिन ज्ञानी समझा जानेवाला दूसरा व्यक्ति भी कहाँ ज्ञानी?  

इस कथा में भी संक्षिप्तता में छिपा विस्तृत अर्थ मुखर है। 

आज और भी प्रासंगिक है यह कथा। वास्तव में आदमी को खुद को पहचानने की जरूरत है। आख़िर उसका जन्म हुआ किसलिए? और खुद को जानने के लिए पागलपन की हद तक जिज्ञासा जगाकर अपने भीतर उतरना है। अपने से मिलने की उसकी छटपटाहट में ना पंडित, मौलवी, मुल्ला, ग्रंथी, पादरी, फकीर की वाणी मदद कर सकती है और ना ही पोथियों का वाचन। एक अच्छी लघुकथा का स्वाद क्या होता है, इस अभिज्ञान में महसूसा जा सकता है। पूरी शिद्दत से यह अपनी बात कहती है। अंत और शीर्षक सार्थक, सारगर्भित! अंदर की सामग्री, वैचारिकता को सहारा देता हुआ। 

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 1. धूल: पारस दासोत 

आज भी, जब वह ठाकुर के यहाँ हवेली पर काम करने पहुँची…… उसने, हमेशा की तरह, अपनी जूतियाँ ड्योढ़ी पर उतार, ठकुराइन की भेंट दी गई जूतियाँ, अपनी काँख में दबाई और काम पर लग गई।

  वह उन जूतियों को हवेली में कहीं अपनी काँख में दबाए, तो कहीं हाथ में उठाए हुए थी। 

शाम, अपने घर लौटते समय –

उसने, पहले ठकुराइन की दी हुई जूतियाँ, अपनी काँख में से हटा, ड्योढ़ी पर छोड़ी, फिर ड्योढ़ी पर उतारीं अपनी जूतियों को उठा, उनकी धूल झाड़ी और पहनकर चल दी।

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2-अभिज्ञान – चैतन्य त्रिवेदी 

” कौन हो तुम  ? ” अँधेरे में बैठे उस आदमी ने पूछा। 

दुबारा पूछा तो ज्ञानी पुरुष ने कहा, ” बहुत सारी किताबें पढ़ चुका हूँ, पर अभी भी बता नहीं सकता कि कौन हूँ। “

अँधेरे में बैठे आदमी ने फिर कहा, ” कम सुनते हो? “

” सुनने से कहाँ कोई जान पाया, वरना इतनी कथाओं, आप्त प्रवचनों से ही सब जान जाते। “

अँधेरे में बैठे व्यक्ति ने कहा, ” मुझे तो कोई पागल आदमी जान पड़ते हो। “

” इसी तरह जाना जा सकता है खुद को । पागलपन की हद तक। ” ज्ञानी पुरुष ने कहा। 

फिर अँधेरे में बैठे आदमी ने कुछ नहीं पूछा। 

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सम्पर्क; 1 सी, डी ब्लॉक, सत्यभामा ग्रैंड, पूर्णिमा कॉम्पलेक्स के पास, कुसई, डोरंडा, राँची, झारखण्ड -834002

ईमेल – anitarashmi2@gmail.com

एहसास-हरदर्शन सहगल

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जैसे ही जाग खुली तो घबरा गई, ‘’लो आज फिर देर हो गई।’’

जैसे तैसे चप्पलों में पैर फँसाती हुई, दूध वाले के बाड़े जा पहुँची।

टीन का बड़ा दरवाजा अब तक बंद था। बार–बार जोर–जोर से बजाती रही।

अंतत: दरवाजा खुला, बहन जी इस वक्त।

“बस जरा देर से आँख खुली।”

“अभी तो रात के दो बजे हैं।”

“हँय?”

“आइए अन्दर घड़ी देख लीजिए।”

“ओह…भैया मुझे घर तक छोड़ आओगे। रात को इस प्रहर में अकेले जाते डर लगता है।”

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