सतर-अस्सी के
लघुकथा आंदोलन ने बहुतों को उद्वेलित किया था। पहचान को तरसती, लड़ती-झगड़ती
लघुकथा को आख़िर अलग पहचान, उचित सम्मान-स्थान मिल ही गया।
कोई नामकरण करता था – लघु कहानी, कोई लघु व्यंग्य, कोई लघु व्यंग्य कथा, छोटी कहानी ….. अनगिन नामों
के पक्षधर जोरदार बहस-मुबाहिसों से इस विधा को परिभाषित करने की कोशिश करते रहे।
इसमें सबसे अधिक हानि किसी की हुई, तो वह हुई लघुकथा विधा
की। हालाँकि इसकी सफलता पर संदेह नहीं था; लेकिन बेमजा बहसों ने माहौल को इसके विरोध में ला खड़ा किया था।
बीच में
लेखकों ने इस विधा से दूरी बनानी शुरू कर दी थी। बहुत वाद-विवाद, प्रतिवाद
ने मोहभंग-सा कर डाला था और जो संपादक अपनी लघु पत्रिकाओं
में लघुकथा की जड़ों को गहरे तक समोए बैठे थे, वे भी विमुख
होने लगे। सारिका जैसी लघुकथा की पैरोकार पत्रिका ने इसके नामकरण के विवाद को
गंभीरता से झेला था।
लघुकथा
बीच के सालों में फिलर की तरह उपयोग की जाने लगी थी। पत्र-पत्रिकाओं में स्थान तो
मिलता था,
लेकिन जैसे लघुकथा पर एहसान किया जा रहा हो। बस, जगह भरने के लिए।
बड़े लेखकों की
कलम तो इस दिशा में चुप हुई ही, शिक्षार्थी भी दूरी बनाने लगे। मुझे
याद है, मुझे ही एक बड़े संपादक, लेखक
ने तब कहा था – लघुकथा?…. नहीं! मेरी पत्रिका के लिए
लघुकथा नहीं भेजना।
हुआ क्या समझ नहीं
पाई थी तब, जबकि वे अपनी पहली पत्रिका में प्रमुखता से लघुकथाएँ, उस पर लम्बे आलेख, विचार,
प्रतिक्रियाएँ, लघुकथा पत्रिकाओं की लंबी सूची छापते रहे थे। उनकी पत्रिका का लघुकथांक भी आकर बेहद चर्चित हो चुका था।
आज के तमाम बड़े साहित्यकार, लघुकथाकार की रचनाएँ, लेख और लघुकथांक पर प्रतिक्रिया आ चुकी थी। फिर उन्होंने मना क्यों किया?
मेरी लघुकथा को भी ‘ लघुकथांक ‘ में प्रकाशित कर चुके थे, फिर?
वह पत्रिका थी ‘ नवतारा ‘ और संपादक थे लघुकथा को सत्तर-अस्सी के दशक में पहचान दिलाने के लिए
प्रतिबद्ध श्री भारत यायावर।
असमंजस से घिर गई।
आख़िर कौन सा तल्ख़ अनुभव उनसे कहलवा रहा है कि लघुकथा ?…..लघुकथा नहीं भेजना ‘ विपक्ष ‘ के
लिए। मैंने तो लघुकथा भेजने की ही तैयारी कर ली थी। पर
लघुकथा की मौत नहीं हुई। फिनिक्स की तरह वह फिर उठ खड़ी हुई….. पूरे दम-खम के
साथ। और आज वह चमकती, दमकती हुई सीना तान कर खड़ी है अपने
उसी नाम को धारण किए हुए।
इसमें निरंतर लगे
रहनेवाले लघुकथा-प्रेमियों का बहुत बड़ा सहयोग है। तपस्वी की तरह वे लगे रहे। अंततः लघुकथा
को उसका सम्मान दिला कर ही मानें।
बहुत सारी अच्छी
लघुकथाओं की भीड़ में से दो सुई को छाँटने की कवायद सच में मुश्किल है। फिर भी –
मेरी पसंद की पहली लघुकथा पारस दासोत की ‘ धूल ‘ है । बहुत छोटी प्रतीकात्मक कथा। आकार में लघु लेकिन अपने संदेश, असर, मारक क्षमता में भरपूर। लघुकथा के मानक पर खरी। संवादहीन,पर शब्दों से जैसे संवाद झर रहा है। खूब बतिया रही है, हाँ बतियाती लघुकथा है-‘ धूल’।
हमारे
समाज में कोढ़ की तरह जातिवाद ने कब्जा जमा लिया था। अब इतने बदलाव के बावजूद
कमोबेश कुछेक जगहों पर मालिक-नौकर के बीच का अंतर, जातिवाद का कहर-जहर
कम नहीं हुआ है। ऐसे में यह पुरानी लघुकथा अपना प्रभाव छोड़ने में अब भी सक्षम!
संरचना
(संपादक -कमल चोपड़ा ) के अंक -6, 2013 में यह लघुकथा छपी थी। इसमें एक कामवाली
बाई के माध्यम से सामाजिक विषमता को दर्शाया गया है। एक शब्द फालतू नहीं। शब्द
बाहुल्य से नहीं,
लघुकथा को अर्थ की व्यापकता से समृद्ध किया गया है।
ठकुराइन
के घर काम करनेवाली स्त्री अपनी जूतियों को ड्योढ़ी पर ही उतार देती है। उसे अपनी
जूतियों को अंदर ले जाने की इजाजत नहीं। लेकिन बात यहीं पर नहीं रुकती।
वह ठकुराइन की जूतियों को अपनी काँख तले दबा, घर के सारे काम
निपटाती है। उसे एक बार भी जमीन पर नहीं रखती है। सामंतवादी व्यवस्था की पोल खोलती
कथा आगे बताती है कि बाहर आकर पुनः उन जूतियों को ड्योढ़ी पर रख खुद की पहन लेती
है। गुलामी की पराकाष्ठा है यह। हालाँकि आज इस स्थिति में बेहद बदलाव आ चुका है; पर ग्रामीण क्षेत्रों, दूर-दराज के इलाकों में
कभी-कभार अब भी यह स्थिति देखने को मिल जाती है।
अंत में जब वह अपनी
जूतियों की धूल झाड़ उन्हें पहनकर लौटती है, तो पाठक को
हतप्रभ कर देती है यह कथा। मानव-मानव के बीच इतना फर्क! फिर भी इसकी मुख्य पात्र
कमजोर नहीं। वह वापस जाने से पूर्व अपनी जूतियों की धूल वहीं ड्योढ़ी पर झाड़ जाती
है।
शीर्षक
धूल सार्थक….तीन अर्थों में खुलता है। एक शाब्दिक। दूसरा किसी कामगार व्यक्ति को
धूल समान ही मानने की भारतीय मानसिकता के संदर्भ में। कामगार, पिछड़ी
जाति का मनुष्य धूल के समान ही हैसियत रखता आया है। तीसरा धूल का ड्योढ़ी पर ही
झाड़कर चल देना उसके स्वाभिमान का प्रतीक बन गया है।
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दूसरी
लघुकथा अभिज्ञान-लेखक-चैतन्य त्रिवेदी ,संग्रह – उल्लास में संगृहीत(प्रकाशन
वर्ष – 2000)
आर्य स्मृति
साहित्य सम्मान,
किताबघर प्रकाशन से प्रकाशित। इसकी पांडुलिपि ‘ उल्लास ‘ को श्री राजेन्द्र यादव, श्री कमलेश्वर और चित्रा मुद्गल जी के निर्णायक मंडल ने पुरस्कार के योग्य
माना था। बाद में उल्लास नाम से ही किताबघर ने छापा। इसी पुस्तक में शामिल है यह
लघुकथा अभिज्ञान !
आदमी दुनियाभर की
चीजें जानता-पहचानता है। खूब ज्ञान प्राप्त करता है। किताबों, ज्ञान
प्रसारित करनेवाले अन्य साधनों, तकनीक के जमाने में सहज
उपलब्ध जानकारियों के भंडार से लैस रहता है। बस, खुद को नहीं जानता, खुद को नहीं पहचानता….. इसी
बात को आधार बनाकर लिखी गई यह कथा।
खुद को जानने के
लिए बेचैन ज्ञानी व्यक्ति से एक अज्ञानी, अँधेरे में बैठा आदमी
पूछता है – कौन हो तुम?
ज्ञानी व्यक्ति
बताता है बहुत सी पुस्तकें पढ़ने के बावजूद वह स्वयं को नहीं पहचानता। अब तक कोशिश
ही कर रहा है।
अँधेरे में बैठा
व्यक्ति उससे पूछ बैठता है – कम सुनते हो?
उसका उत्तर देखें-
सुनने से कहाँ कोई जान पाया है, वरना इतनी कथाओं, आप्त प्रवचनों से ही सब जान जाते।
कितना सटीक कथन कि
उपदेश,
प्रवचन, दूसरे की आँख-कान से देखकर कोई कभी
स्वयं से साक्षात्कार नहीं कर सकता है।
अंत में अँधेरे
में बैठा आदमी उसे पागल समझता है। कहता भी है।
ज्ञानी व्यक्ति का
कथन कि पागलपन से ही खुद को जाना जा सकता है, पहले मनुष्य का मुँह बंद
करा देता है। फिर अँधेरे में बैठे आदमी ने कुछ नहीं पूछा।
इस अंत से उपजती
है यह सच्चाई कि पूछने को अब कुछ बचा भी है। अँधेरे में बैठा आदमी अज्ञानता का
प्रतीक है,
लेकिन ज्ञानी समझा जानेवाला दूसरा व्यक्ति भी कहाँ ज्ञानी?
इस कथा में भी
संक्षिप्तता में छिपा विस्तृत अर्थ मुखर है।
आज और भी प्रासंगिक है यह कथा। वास्तव में आदमी को खुद को पहचानने की जरूरत है। आख़िर उसका जन्म हुआ किसलिए? और खुद को जानने के लिए पागलपन की हद तक जिज्ञासा जगाकर अपने भीतर उतरना है। अपने से मिलने की उसकी छटपटाहट में ना पंडित, मौलवी, मुल्ला, ग्रंथी, पादरी, फकीर की वाणी मदद कर सकती है और ना ही पोथियों का वाचन। एक अच्छी लघुकथा का स्वाद क्या होता है, इस अभिज्ञान में महसूसा जा सकता है। पूरी शिद्दत से यह अपनी बात कहती है। अंत और शीर्षक सार्थक, सारगर्भित! अंदर की सामग्री, वैचारिकता को सहारा देता हुआ।
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1. धूल: पारस दासोत
आज भी, जब
वह ठाकुर के यहाँ हवेली पर काम करने पहुँची…… उसने, हमेशा
की तरह, अपनी जूतियाँ ड्योढ़ी पर उतार, ठकुराइन की भेंट दी गई जूतियाँ, अपनी काँख में दबाई
और काम पर लग गई।
वह उन जूतियों को
हवेली में कहीं अपनी काँख में दबाए, तो कहीं हाथ में उठाए
हुए थी।
शाम, अपने
घर लौटते समय –
उसने, पहले
ठकुराइन की दी हुई जूतियाँ, अपनी काँख में से हटा, ड्योढ़ी पर छोड़ी, फिर ड्योढ़ी पर उतारीं अपनी
जूतियों को उठा, उनकी धूल झाड़ी और पहनकर चल दी।
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2-अभिज्ञान – चैतन्य त्रिवेदी
” कौन हो तुम
? ” अँधेरे में बैठे उस आदमी ने पूछा।
दुबारा पूछा तो
ज्ञानी पुरुष ने कहा,
” बहुत सारी किताबें पढ़ चुका हूँ, पर
अभी भी बता नहीं सकता कि कौन हूँ। “
अँधेरे में बैठे
आदमी ने फिर कहा,
” कम सुनते हो? “
” सुनने से कहाँ कोई
जान पाया, वरना इतनी कथाओं, आप्त
प्रवचनों से ही सब जान जाते। “
अँधेरे में बैठे
व्यक्ति ने कहा,
” मुझे तो कोई पागल आदमी जान पड़ते हो। “
” इसी तरह जाना जा सकता
है खुद को । पागलपन की हद तक। ” ज्ञानी पुरुष ने कहा।
फिर अँधेरे में
बैठे आदमी ने कुछ नहीं पूछा।
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सम्पर्क; 1 सी,
डी ब्लॉक, सत्यभामा ग्रैंड, पूर्णिमा कॉम्पलेक्स के पास, कुसई,
डोरंडा, राँची, झारखण्ड
-834002
ईमेल – anitarashmi2@gmail.com