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लघुकथाएँ

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1-ईश्वर की खाँसी

            ईश्वर खाँस रहा है और पृथ्वी हिल रही है। मनुष्य हजारों हजार बरसों से महसूस कर रहा है कि ईश्वर जब भी खाँसता है तो पृथ्वी हिलने लगती है।

            इधर, ईश्वर लगभग रोज खाँसने लगा है और पृथ्वी रोज हिल रही है…ईश्वर के खाँसने से मनुष्य ईश्वर की खाँसी से परेशान है।

मनुष्य, पानी पी रहा है, और अचानक ईश्वर को आ जाती है खाँसी,ईश्वर की खाँसी से हिलने लगती है पृथ्वी, पानी छलक पड़ता है…मनुष्य के चेहरे पर, मनुष्य खा रहा है खाना और हिलने लगती है पृथ्वी खाना बिखर जाता है धरती पर, मनुष्य कई बार चलते-चलते गिर पड़ता है, हिलती पृथ्वी के साथ, वह अपना संतुलन नहीं बना, रख पाता है। खेत की निंदाई,कोड़ाई, जोताई…सभी मुश्किल लगती है, जब ईश्वर की खाँसी से हिलती है पृथ्वी, दरअसल, ईश्वर की खाँसी से इन दिनों मनुष्य की  दैनदिन की सभी क्रियाएँ प्रभावित हो रही है। पानी से पेशाब तक भोजन से मल त्याग तक प्रेम से संयोग तक।

            बहुत बूढ़ा हो गया है ईश्वर, ईश्वर, इतना बूढ़ा हो गया है कि एक बूढ़े मनुष्य से ज्यादा बूढ़ी हो चुकी है-बूढ़े ईश्वर की खाँसी, हजारेां-हजार बरस पुराना है ईश्वर ईश्वर के फेफड़े हैं, हजारो हजार बरस पुराने। ईश्वर के पुराने फेफड़े अब जवाब दे गए हैं। खाँस रहे हैं लगातार।

लगातार हिल रही है पृथ्वी…ईश्वर की खाँसी से पुराने और जर्जर फेफड़ों की, यह इतनी भयावह खाँसी है कि मनुष्य को डर लग रहा है कि ईश्वर की खाँसी से हिलते-हिलते, कहीं नष्ट न हो जाए यह पृथ्वी।

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2-बच्चों की आँखें

            बहुत बड़ा बगीचा है। बगीचे में बहुत से पेड़ है पेड़ों पर बहुत सी चिड़ियाँ है। पौधे है। बहुत से फूल हैं, पौधों पर फूलों पर बहुत सा पराग है, पराग पर, बहुत सी तितलियाँ हैं। इन सब के साथ, बहुत से बच्चे हैं बगीचे में। हरी बेंचों पर  बैठे, बैठै, एक दूसरे से सटे-सटे एक-एक हरी बेंच पर, चार-चार पाँच-पाँच बगीचे में जितनी हरी बेंच हैं, यहाँ-वहाँ छिटकी-सी रखी, उन पर यहाँ-वहाँ छिटके से बैठे हैं बच्चे सिर झुकाए सबके हाथों में मोबाइल है, मोबाइल की स्क्रीन पर एक गेम चल रहा है, जिसमें जंगल में युद्धरत एक योद्धा है-चपल ओर तीव्र अपने आस-पास का, सबकुछ तहस-नहस करता योद्धा। बगीचे की बेंचों पर बैठे सारे बच्चे युद्धरत है जंगल में। मोबाइल की स्क्रीन के जंगल में, भटक रहे हैं सारे बच्चे। सारे बच्चे मोबाइल-स्क्रीन के भीतर युद्धरत हैं।

            मोबाइल-स्क्रीन के जंगल में, नकली पेड़ हैं, चिड़ियाँ है,नकली, नकली पौधे हैं, नकली, नकली तितलियाँ है, फूलों पर पराग हैं नकली, जंगल में नकली घास है जो युद्धरत नकली योद्धा के पैरों तले, बार-बार कुचली जा रही है।

            मोबाइल स्क्रीन में उभर रही सारी नकली चीजों को देखतेी, बच्चों की आँखें भर असली हैं। असली आँखों से, वे मोबाइल की स्क्रीन में, रची गई नकली दुनिया को देख रहे हैं।

            बगीचे में बैठे बच्चों के जीवन में अनुपस्थित है वह बगीचा, जिसमें बैठे हैं बच्चे, बगीचे के असली, पेड़ पौधे, चिड़ियाँ तितलियाँ, फूल….दुखी हैं कि उनके लिए नहीं है बच्चों की आँखें।

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3-जन्म दिन

            अपने जन्म दिन पर, आदमी बस थोड़ा-सा ठिठका और फिर चल पड़ा-अगली तिथि की ओर जो उसके जन्मदिन की होने वाली थी और ठीक इस दिन से, तीन सौ पैसठवें दिन पड़ने वाली थी।

            आदमी के जीवन में, अबोध, वयस्क अधेड़ वृद्ध, जाने कितनी तिथि़याँ आई हैं, जो आदमी के जन्म की हैं। पर आदमी के जीवन में, एक वर्ष ऐसा भी आया था सिर्फ तीन सौ चौंसठ दिनों का। वह तिथि जो उस आदमी के जन्म की है-उस वर्ष गायब हो गई अचानक वर्ष के दिनों से गायब तिथि को ढूँढ़ता रहा और वर्ष के दिनों में कहीं नहीं मिलीं वह तिथि, जो उसके जन्म की थी। जन्म की तिथि के नहीं मिलने पर, गायब हो गया वह आदमी, इस पृथ्वी से चुपचाप।

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4-बेटी का क़द

            माँ को बगल में खड़ी होकर बेटी ने कहा-देखो मैं तुमसे बड़ी हूँ, पिता देख रहा था-पहली बार, अपनी बेटी का,माँ से बड़ी हो जाना-कद में माँ मुस्करा रही थी, माँ की मुस्कुराहट ने, हल्के से अपनी एड़ी उठाई-इस तरह कि किसी को न दिखे-एड़ी का उठना, बेटी ने कहा-ये, ऐसा नहीं चलेगा, माँ फिर अपनी बेटी से छोटी हो गई-कद में मुस्कुराहट ने दबा ली थी-अपनी एड़ी।

            बेटी, पिता के पास आई देखूँ आपसे कितनी छोटी हूँ…पिता ने अपने घुटने मोड़े, बेटी का कद पिता से बड़ा हो गया। बेटी हँसी और उसने घुटने मोड़े पिता और पुत्री दोनों एक दूसरे से छोटा होना चाह रहे थे। वे जब छोटा होते-होते थक गए तो जमीन पर बैठे हँसते दिखे। उनकी हँसी में माँ की हँसी भी घुली-मिली थी।

            घर के उस कोने में ,जहाँ वे थे एक दूसरे से कद का खेल खेलते-खेलते वही फर्श पर ढेर से फूल खिल आए थे अचानक, बिना मिट्टी और पानी के-सुंदर फूल।

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5-अंतिम पंक्ति के आदमी का घेरा

            उसकी आवाज किसी को सुनाई नहीं देती है। वह चिल्ला-चिल्लाकर करे तो भीनहीं। ओंठ हिलते दिखते हैं। पर ‘शब्दों को रच नहीं पाते हैं। शब्द उसके होंठ हिलते-दिखते हैं। पर  शाब्दों को रच नहीं पाते हैं। शाब्द उसके ओठों के बीच में मर-मर जाते हैं-बार-बार, सुबह से शाम तक खटती है-उसकी देह पर उसकी खटती देह, किसी को नहीं दिखती है। उसकी देह उसके पसीने को दृश्य ही नहीं दे पाती है। पसीना देह पर आता है और भाप बनकर उड़ जाता है।

            उसका कहना, उसका सहना-कुछ नहीं दिखता। यहाँ तक कि जब वह मरता है तो उसका मरना भी किसी को दिखाई नहीं देता है। उसका मरना हवा में इतनी तेजी से घुलता है कि पृथ्वी पर, उसके मरने का कोई निशाना नहीं रहता है शेष ।

            वह अरब भर आबादी में, करोड़ों की संख्या में है-अंतिम पंक्ति पर खड़ा। यह करोड़ों की संख्या, एक दूसरे का हाथ पकड़कर खड़ी हो जाए-इस देश की सीमा रेखा पर तो यह पूरा देश उसके रचे घेरे के भीतर होगा, और यह घेरा दिखेगा।

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