आज के दौर में कई बार तो ऐसा लगता है कि लंबी कहानियों और उपन्यासों के पाठकों की संख्या भी निरंतर कम हो रही है। दूसरी बात यह भी है कि पाठक को जो रस, आनंद, संवेदना या विचार चाहिए वह लघुकथा में आसानी से मिल जा रहे हैं। लघुकथा आकार में छोटी होने पर भी अपनी विशेष शैली और क्षमता के कारण सही जगह पर जबरदस्त चोट करती है। इसीलिए लघुकथा का जादू हर व्यक्ति की जुबान पर और हर बड़ी पत्रिका में अपना स्थान बना रही है।
लघुकथाकारों की श्रेणी में आदरणीय रामकुमार आत्रेय जी का नाम बहुत ही गौरव व सम्मान के साथ लिया जाता है। आत्रेय जी ग्रामीण परिवेश में पले बढ़े हैं। अतः उनकी रचनाओं में गांव-देहात, उसमें फैली सामाजिक, सांप्रदायिक विषमता, जातिप्रथा व शोषण दिखाई देता है। इनकी लघुकथाएँ गिरते जीवनमूल्यों व बदलते मानवीय रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करती हैं।
रामकुमार आत्रेय जी भोगे हुए यथार्थ को अनूठी कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करने वाले बेहद संजीदा साहित्यकार थे। उनकी प्रत्येक कहानी मानवीय संवेदनाओं को झकझोर कर रख देती है। मैंने आत्रेय जी की अनेक लघुकथाएँ पढ़ी हैं। जैसी ‘हनी ट्रैप’, ‘सलाम रिश्ता’, ‘बिन शीशों का चश्मा’, ‘इक्कीस जूते’, ‘आंखों वाले अंधे’, ‘छोटी- सी बात’, ‘यक्ष प्रश्न’, ‘हरिद्वार’ और ‘पंख’ आदि। ये ऐसी लघुकथाएँ हैं जिन्हें जितनी बार पढ़ा जाए उतनी ही बार नए नए प्रश्न और जीवन के विविध आयाम प्रस्तुत करती हैं। इनमें ‘पिता जी सीरियस हैं’ मुझे बहुत पसंद है। क्यों पसंद है यह आप भी देख लीजिए…।
पिताजी सीरियस हैं : फिलहाल मेरे पास आदरणीय आत्रेय जी की एक लघुकथा ‘पिता जी सीरियस हैं’ है। लघुकथा की पहली पंक्ति- ‘वृद्ध पिता की आँखों की रोशनी लगभग जा चुकी थी।’ एक व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक पीड़ा को व्यक्त करती है ,जो पिता भी है। जब व्यक्ति परिवार में भी अकेला महसूस करने लगता है तब उसकी शारीरिक पीड़ा मानसिक पीड़ा में बदलने लगती है। पिता ने अपने पुत्र को उसके पैरों पर खड़ा होने के लिए स्वयं को तिल-तिल गला दिया। फिर भी पिता खुश है कि उसका पुत्र आगे बढ़ रहा है। आंतरिक वेदना की शुरुआत तो तब होती है, जब उम्र के उस पड़ाव पर पुत्र अपने पिता को अकेला छोड़ देता है, जब उसे पुत्र से सेवा और सहायता की सबसे अधिक जरूरत होती है। तब एक भयंकर प्रश्न उठता है कि क्या माता-पिता इसी दिन के लिए अपने बच्चों का पालन पोषण करते हैं?
पिता की आँखों में फंगल इंफेक्शन हो गया है और उसे पड़ोसी को साथ लेकर जाना पड़ रहा है। पड़ोसी की अनुनय- विनय करनी पड़ रही है, आने-जाने के खर्च के साथ अहसान ऊपर से उठाना पड़ रहा है। ये पंक्तियाँ हमारे सामाजिक ताने-बाने के बिखराव को स्पष्ट करती हैं। कथा आगे बढ़ती है फिर एक दिन बेटा पूछता है -पिताजी आप हॉस्पिटल नहीं गए, तो पिता भी पूछ लेता है कि तुम भी तो अभी तक ड्यूटी पर नहीं गए, जबकि तुम्हारा बॉस तो बड़ा सख्त है वह अपनी पत्नी तक को छुट्टी नहीं देता, तो तुम कैसे रह गए। तब पुत्र बताता है कि आज उसे अपने साले की जन्मदिन की पार्टी में जाकर रिश्तेदारी को निभाना है।
पिता के पूछने पर वह बताता है – “आज तो मैंने ऐसी चाल चली कि साला न नहीं कर पाया।” पिता बेटे की खुशी के लिए यहाँ तक भी खुश है। पिता को सबसे गहरी पीड़ा तब होती है, जब उसका बेटा पिता के सीरियस होने का बहाना बनाकर अपने बॉस को बेवकूफ बनाता है और साले की जन्मदिन पार्टी में मस्ती करने के लिए जाता है। यहाँ स्पष्ट होता है कि पुत्र के पास अपने लिए और रिश्तेदारी निभाने के लिए तो समय है परंतु वृद्ध और आँखों से लाचार पिता के लिए कोई समय नहीं है। यहाँ एक बुजुर्ग का उसी के घर में क्या स्थान या महत्व है, इसका भी पता चलता है। वास्तविकता तो यह है कि वह बुजुर्ग पिता एक फालतू सामान की तरह है। गौर करने की बात यह है कि कंपनी का वह मालिक जो अपने सिद्धांतों के कारण जो ‘पत्थर दिल’ कहलाता है। अपनी पत्नी तक को छुट्टी नहीं देता और वह छुट्टी लेने पर वेतन काट लेता है; पर वह भी एक बुजुर्ग और दृष्टिबाधित व्यक्ति की मजबूरी को, उसकी लाचारी को समझता है। इसी कारण वह अपने कर्मचारी को पिता के इलाज के लिए ले जाने के लिए छुट्टी दे देता है। अब देखिए, एक पराया व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी निभाता है। उसमें एक वृद्ध के प्रति संवेदना, सहानुभूति और सहयोग की भावना है लेकिन उसका पुत्र अपने ‘पुत्र धर्म’ का पालन न करके अपने ही मूल्यों से गिर जाता है और वह इलाज के बहाने ली गई छुट्टी का उपयोग कहीं और करता है। इस लघुकथा में आधुनिक युवाओं की झूठ, छल और अय्याशी की आदतें भी मुखरित होती हैं। आज की युवा पीढ़ी जीवन के हर क्षेत्र में अपनी जिम्मेदारी से भागती नजर आ रही है। आज के युवाओं में इस चेतना का स्पंदन क्यों नहीं हो रहा कि जिस स्थान पर आज उसका पिता है कल ठीक उसी जगह वह स्वयं भी खड़ा होगा। पिता-पुत्र के रिश्तों की रोशनाई बिल्कुल सूख चुकी है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि पुत्र द्वारा पिता की बीमारी को भुनवाया जा रहा है। वह भी केवल अपनी मस्ती के नाम पर। अंतिम पंक्ति में पिता की बेबसी और लाचारी देखिए- “पलकों के नीचे ढुलक आई आँसू की दो बूँदों को छुपाने के लिए पिता ने मुँह घुमा लिया।” पिता की वेदना इतनी गहरी है कि वे कुछ कह नहीं पाए और उनकी आंतरिक वेदना आँसू बनकर ढुलक आती है। यानी मानवीय रिश्तों में दरार अभी और चौड़ी होनी है, जो अभी तक शेष है आगे वह भी नहीं रहेगा। इस लघुकथा में एक पक्ष पिता का है जो आदर्श (अप्रत्यक्ष)का प्रतिनिधित्व करता है तो दूसरा पुत्र का पक्ष जो कटु यथार्थ (प्रत्यक्ष) को प्रकट करता है।
एक जगह अमृतराय लिखते हैं- “वही लिखो जो तुमने जिया है और जो नया लिखना है उसे पहले जियो।” यहाँ पर यह पंक्ति आत्रेय जी की रचना प्रक्रिया पर पूर्णतया लागू होती है; क्योंकि आत्रेय जी अपने जीवन के अनुभव और आसपास के जीवन से विषय का चयन करते हैं। कई बार स्वयं आत्रेय जी मुझे बताते थे कि फलाँ आदमी या इसकी घटना को देखकर मैंने फला कहानी इस तरह लिखी थी।कई लघुकथाओं के कथानक तो उन्होंने निजी जीवन से बुने थे। आत्रेय जी एक दृष्टिबाधित और बुजुर्ग की पीड़ा को गहराई से अनुभूत कर सकते हैं; क्योंकि वे स्वयं इस दौर से गुजरे हैं। सत्य तो यह है कि आत्रेय जी की इस लघुकथा में उनके जीवन की यथार्थ अनुभूति की ही अभिव्यक्त हुई है।
सार रूप में कहा जा सकता है कि आत्रेय जी की यह लघुकथा बहुत ही कलात्मक और संवेदित करने वाली है जो अपनी उत्कृष्ट भाव प्रवणता और खूबसूरत भाषा द्वारा समाज के अमानवीय चेहरे को बेनकाब करने का साहसिक कार्य करती है।
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पिता जी सीरियस हैं : रामकुमार आत्रेय
वृद्ध पिता की आँखों की रोशनी लगभग जा चुकी थी। किसी अन्य व्यक्ति को साथ लिए बिना वह कहीं नहीं जा सकता था। डाॅक्टरों ने भयंकर इंफेक्शन को मिटाने के लिए कई बार ऑपप्रेशन भी किया पर सब कुछ निष्फल रहा। उसके एकमात्र बेटे को भी कई दिनों तक पिता के साथ अस्पताल में रहना पड़ा था। इसके पश्चात पन्द्रह दिन पिता को अपनी आँखें दिखाने के लिए चंडीगढ़ जाना पड़ता था। पुत्र को उसके ऑफिस से छुट्टी न मिलने के कारण पिता को अपने किसी पड़ोसी को साथ ले जाना पड़ता । इसके लिए साथ चलने वाले का पूरा खर्च तो देना ही पड़ता, अनुनय-विनय भी करनी पड़ती। अहसान अलग से होता। पिता पुत्र की विवशता समझकर चुप रह जाता।
एक दिन की बात है, पिता को चंडीगढ जाना था। अभी एक पड़ोसी को साथ लेकर निकलने ही वाला था कि उसके सामने आकर पुत्र पूछने लगा ,’’ आप अभी तक गए नहीं। आठ बज चुके है, देर नहीं हो जाएगी क्या?’’
‘‘बस बेटा,निकल ही रहा हूँ; लेकिन आज तुम यहाँ हो? तुम तो आठ बजे से पहले ऑफिस जाने के लिए निकल जाया करते थे?’’ पिता ने प्रतिप्रश्न किया।
‘‘ नहीं पिता जी ,आज मेरे छोटे साले का जन्मदिन है। उसी के यहाँ जाना होगा। डाक से आया निमंत्रण पत्र तो आपने ही मुझे दिया था। रात उसका टेलिफोन भी आया था। रिश्तेदारी का ख्याल तो रखना ही पड़ेगा।’’ पुत्र ने उत्तर दिया।
‘‘ लेकिन बेटा तुम तो कह रहे थे कि तुम्हारी छुट्टियाँ नहीं बची हैं। तुम्हारा बॉस बहुत कड़ा आदमी है। वह तो उसी ऑफिस में कार्यरत अपनी पत्नी तक को छुट्टी नहीं देता। उस बेचारी को भी सुबह नौ बजे से लेकर शाम के पाँच बजे तक मुस्तैद रहकर ड्यूटी देनी पड़ती है। लगता है आज तुम्हें विदाउट पे लीव लेनी पड़ी होगी?’’ पिता ने बात आगे बढ़ाई।
‘‘नहीं पिता जी, विदाउट पे लीव नहीं ली। आज तो मैंने ऐसी चाल चली कि साला न नहीं कर पाया।’’ पुत्र ने गर्व से बताया।
‘‘ ऐसी कौन-सी चाल चली तूने, मुझे भी तो बताओ बेटा।’’ खुश होते हुए पिता ने पूछा।
‘‘कह दिया कि पिताजी सीरियस हैं और उन्हें चंडीगढ़ लेकर जा रहा हूँ।’’ बेटे ने बताया।
पलको के नीचे ढुलक आई आँसू की दो बूँदों को छिपाने के लिए पिता जी ने मुँह घुमा लिया।
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सज़ा : राधेश्याम भारतीय लघुकथा विधा के एक नव हस्ताक्षर हैं जो देश, समाज, परिवार और राजनीति को लेकर संभावनाओं की तलाश करते हैं। उनकी लघुकथाएँ सामाजिक व सांस्कृति परतों को रेशा – रेशा उधेड़ते हैं। इनकी लघुकथाएँ बड़ी ही मारक हैं। ये पूरी तरह लघुकथा के मानक रूप, आकार, शैली पर खरी उतरती हैं और अंत में बड़ा ही मार्मिक स्पर्श देती हैं। यहाँ पाठक झटका- सा खा जाता है कि ‘अरे यह क्या? ‘और सच पूछिए तो लघुकथा शुरू ही यहाँ से होती है। यहीं से लेखक का वैचारिक संवेदन और कलात्मकता उसे अन्य से अलग करती है। यहीं से पता चलता है कि लेखक किन आदर्शों और सपनों को स्थापित करना चाहता है ताकि एक बेहतर सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था हो सके। मैंने राधेश्याम भारतीय की अनेक लघुकथाएँ पढी हैं। ‘कीचड़ में कमल’, ‘कोट’, ‘मुआवजा’, ‘औकात’, -चेहरे’, आदि बहुत अच्छी रचनाएँ हैं पर मेरी नजर में इनकी लघुकथा ‘सज़ा’ इनसे बहुत आगे है। यह मुझे प्रिय क्यों चलिए देखिए…।
लघुकथा में एक यवक ने किसी युवती पर तेजाब फेंका होता है और अदालत में वह जज के सामने गिड़गिड़ाता है, माफी माँगता है। जब जज साहब उसके सामने दो विकल्प रखते हैं-उम्र कैद या फिर ठीक वैसे ही उसके भी चेहरे पर तेजाब फेंका जाए जैसे उसने लड़की के चेहरे पर फेंका था।
यहाँ लेखक दो बातों को स्पष्ट करता है एक तो हमारे समाज में जो मानसिकता पनप रही है और दूसरा तेजाब से जलने की जो भयानकता है, जो पीड़ा, जलन, झुलसने का अंतहीन सिलसिला है। आजकल संस्कार देने और लेने की जो व्यवस्था थी वह लगभग खत्म हो चुकी है और उसके कारण भी लाखों हैं। परिणामस्वरूप सुंदर युवतियों पर प्यार का प्रहार करने की प्रवृत्ति पनप रही है। जब युवा इसमें सफल नहीं हो पाते, तो वे हताश, निराश और कुंठित मानसिकता के शिकार हो जाते हैं। और वे इसी दुर्भावना से युवतियों के सौंदर्य को मिटाने के लिए उस पर तेजाब फेंक देते हैं। इसके पीछे उनकी एक निकृष्ट सोच होती है कि तुम मेरी नहीं हो सकी, तो किसी और की भी क्यों? बाद में उस लड़की की स्थिति समाज में क्या होगी या अपने जीवन को कैसे तिल- तिल जिएगी, इस पर जरा-सा भी विचार नहीं करते।
इन्हीं सब को लेकर राधेश्याम जी ने यह सुंदर और सुगठित सार्थक रचना रची है। जिसका नाम है- सज़ा। वास्तव में ऐसे युवक प्यार की भाषा या परिभाषा बिल्कुल नहीं समझते। ऐसी घटनाओं को अंजाम देना उनकी विवेकहीनता ही है और भारतीय संस्कारों को तिलांजलि भी। मैं सही हूँ….मेरा फैसला ही सही है… इसे विवेकहीनता ही कहा जाएगा। यह एक तरफा प्यार नहीं, बल्कि हवस का अंधापन है। प्यार में तो कहीं न कहीं संवाद की संभावना बनी रहती है। पर, यहाँ न संवाद, न विवाद, न ही धैर्य। यह वर्तमान समाज का भयानक सच है। मैं तो इसे विचार और संवेदना का दिवालियापन ही कहूँगा। जहाँ तक मैं देख पा रहा हूँ, कहानी के दो पक्ष हैं- एक घटना से पूर्व दूसरों के प्रति विचार नियोजन और दूसरा, घटना के बाद स्वयं के प्रति। अदालत में युवक गिड़गिड़ाता है, माफी भी माँगता है; क्योंकि उसने तेजाब से झुलसने की घटना को, उसकी भयानकता को, उसके दर्द, चीख, और पीड़ा को प्रत्यक्ष देखा है। इसलिए जब जज साहब उसे दो विकल्पों में से एक विकल्प चुनने की बात कहते हैं, तो युवक चुपचाप दूसरा विकल्प यानी उम्र कैद चुन लेता है। यह युवाओं में पनप रही निराशा और अपराध प्रवृत्ति की द्योतक रचना है। यह लघुकथा उस जलने- झुलसने की घटना को दृश्यमान कर देती है। इसका नाट्य रूपांतरण बड़ा ही गजब से किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह समाज मैं छुपे भयानक सच को सामने लाती है।
सज़ा : राधेश्याम भारतीय
आज अदालत में उस मुजरिम को सज़ा सुनाई गई, जिसने कभी एक तरफा प्यार मैं दीवाना होकर एक बेकसूर लड़की पर तेजाब फेंका था। लड़की बुरी तरह जल गई थी।
अदालत के कठघरे में मुजरिम रो-रोकर चिल्लाने लगा-” जज साहब मुझे इतनी बड़ी सज़ा मत दीजिए… मैं ताउम्र जेल में नहीं सड़ सकता…मैं मर जाऊँगा… “
“यह तो तुम्हें लड़की के चेहरे पर तेजाब फेंकने से पहले सोचना चाहिए था।”
साहब, गलती हो गई… माफ कर दीजिए… आगे से ऐसी गलती नहीं होगी। “
“अच्छा, यह बताओ, तुम्हें सज़ा क्यों न दी जाए?”
….. मुजरिम चुप खड़ा रहा।
” बोलो, अब जुबान क्यों नहीं खुलती? तुम्हें सज़ा जरूर मिलेगी। ”
“साहब, कम कर दीजिए सज़ा। “
जज ने कुछ देर सोचा, फिर बोले- “ठीक है, तुम्हारे सामने दो विकल्प हैं- एक तुम्हारे चेहरे पर वही तेजाब डाला जाए। दूसरा, उम्र भर कैद।” मुजरिम ने दूसरा विकल्प चुना।
-0- डॉ अशोक बैरागी , राजकीय कन्या उच्च विद्यालय हाबड़ी, कैथल
9466549394