सांत्वना पुरस्कार-2
“क्या माँ! तुम सुबह से रात तक अकेली काम में लगी रहती हो। विकी को बोलो तुम्हारी मदद किया करे।” सिमरन माँ से कहने लगी।
“अरे! क्यों तू उसके पीछे पड़ी है…मदद करे! मदद करे! क्या हो गया है तुझे? पढ़ाई कर रहा है वो बेचारा। मैं कर रही हूँ न।” सदा की तरह, माँ का अपना रटा-रटाया जवाब था। “अच्छा ये बता! तू इस बार इतनी खीझी हुई क्यों है? जब से ससुराल से आई है, बात-बात पर विकी से गुस्सा हो रही है। लगता है, लॉकडाउन का कुछ ज़्यादा ही असर हुआ है तुझपर। पहले तो कभी नहीं टोकती थी इतना। किसी बात पर झगड़ा हुआ है क्या उससे?” मुस्कुराते हुए माँ ने पूछा।
“नहीं माँ! ऐसा कुछ नहीं है …” अनमनी -सी होकर सिमरन बोली, “उसे भी काम करने की आदत होनी चाहिए न, तुम्हारा हाथ बँटाना चाहिए। अब इतना छोटा भी नहीं रहा।” कहते हुए सिमरन कपड़े उठाने चली गई।
थोड़ी ही देर बाद विकी के कमरे से कुछ शोर की आवाज़ सुनाई दी। सिमरन विकी को डाँट रही थी कि वो जाकर चाय बनाए , और विकी था कि चादर ताने पड़ा था। माँ ने बीच-बचाव करते हुए कहा, “अरे क्या सिमु! सोने दे उसे! क्यों तू उसके साथ ज़बरदस्ती कर रही है? कुछ सालों में अपने आप समझ आ जाएगी। तेरी भाभी आएगी तो देखना, सब करेगा…” माँ हँसते हुए बोली।
“नहीं करेगा! तब भी कुछ नहीं करेगा! राजा-बेटा है न तुम्हारा! बल्कि तब तो और भी नहीं करेगा! वो इसलिए, क्योंकि तुमने तो उससे कभी कुछ कराया नहीं! और अगर करेगा … तो भी तुम्हें ही बुरा लगेगा कि देखो! पत्नी के लिए कैसे चाय बनाने पहुँच गया, कभी मुझे तो एक गिलास पानी तक नहीं पिलाया! तब तुम… हाँ माँ! तुम! तुम इसके और इसकी पत्नी के बीच में दीवार बनकर खड़ी हो जाओगी, उनके गले में एक काँटे की तरह फँस जाओगी और फिर… दोनों का जीना दूभर हो जाएगा; इसलिए बहुत ज़रूरी है, कि इन लाटसाहब से अभी से काम कराओ। …चलो! उठो विकी! …” विकी की चादर खींचते हुए सिमरन चीखती जा रही थी, मानों उसे कोई दौरा पड़ गया हो। उसकी साँस फूलने लगी थी।
और अवाक् खड़ी माँ, सिमरन के इस रूप में छिपे उसके गुस्से और दर्द को शिद्दत से महसूस कर पा रही थी। उसने हौले से सिमरन का हाथ थामा और गंभीर आवाज़ में बेटे से बोली, “विकी! बहुत देर हो चुकी है! सूरज सिर पर चढ़ आया है। दस मिनट में उठकर बाहर आ जाना।”
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