विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
शिक्षा का अर्थ क्या है ?
शिक्षा शब्द की उतपत्ति संस्कृत भाषा की धातु ‘शिक्ष’ से हुई है जिसका अर्थ है सीखना और सिखाना । जब शिक्ष धातु में ‘आ’ प्रत्यय जुड़ता है तो नवीन शब्द शिक्षा बनता है और अर्थ देता है सीखने-सिखाने की क्रिया ।
’’शिक्षा का अर्थ है- प्रत्यके मनुष्य के मस्तिष्क में अदृश्य रूप में विद्यमान संसार के सर्वमान्य विचारों को प्रकाण में लाना।’’ ( सुकरात)
“मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।”(स्वामी विवेकानन्द)
शिक्षा वह प्रक्रिया , विधि या साध्य है जिसके माध्यम से मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त होती है । शिक्षा न केवल मानव के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करती है वरन उसे समाज से जोड़ने का कार्य भी करती है । शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य समाज के आधारभूत नियमों , सिद्धांतों, व्यवस्थाओं , प्रतिमानों एवं मूल्यों को सीखता है । ज्ञातव्य है कि किसी भी समाज में संस्कृति का हस्तांतरण शिक्षा द्वारा ही सम्भव है । संस्कृति की निरंतरता आवश्यक ज्ञान के अभाव में विखंडित हो जाती है । संस्कृति से अछूता मनुष्य एक जिम्मेदार और अच्छा नागरिक नहीं बन पाता । कहने का तातपर्य है कि शिक्षा ही वह सीढ़ी है जिस पर एक-एक पायदान चढ़कर मनुष्य पृथ्वी के अन्य प्राणियों से अलग दिखता है ।
सामान्यतः शिक्षा का अर्थ केवल किताबी ज्ञान और अक्षर ज्ञान से लगाया जाता है । जबकि शिक्षा का अर्थ ढेर सारी सूचनाएँ एकत्र करना , डिग्रियों का पहाड़ इकट्ठा करना भर नहीं है । असल शिक्षा है अक्षर ज्ञान के साथ चरित्र निर्माण और आत्म निर्माण करना … यदि मनुष्य उच्च डिग्री धारी है लेकिन परिवार और समाज के प्रति अपने कर्त्तव्यों को बोझ समझता है उनका पालन नहीं करता है या मजबूरी वश करता है तो मानवीय गुणों से रहित ऐसी शिक्षा से बिना शिक्षा के होना ही बेहतर है ।
शिक्षा का महत्व या आवश्यकता
शिक्षा न केवल मनुष्य के विकास की पूर्णता की अभिव्यक्ति है वरन स्वयं को पहचानने व अपनी शक्तियों को पहचानने की क्षमता का विकास भी करती है । बिना शिक्षा के जीवन बिना पतवार की नाव की तरह हो जाता है , जिसे ज़माने की हवा अपने हिसाब से इधर-उधर डुलाती रहती हैं और अशिक्षित मनुष्य स्वयम हवा के झोंकों के साथ बहने को विवश हो जाता है ।
प्लेटो का कथन है “अज्ञान समस्त विपत्तियों का मूल कारण है अज्ञानी रहने की अपेक्षा जन्म न लेना ही अच्छा है।”
महर्षि वेदव्यास का कथन है ” ज्ञान जीवन के सत्य का दिग्दर्शन ही नहीं करता बल्कि वह व्यक्ति को बोलना ,चलना, व्यवहार करना भी सिखाता है”
भूलोक में अनेक प्रकार के प्राणी हैं। उनमें मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो प्राणी जगत के अन्य जीवों से पृथक है । जिसका कारण केवल और केवल शिक्षा है । शिक्षा ही उसे अन्य प्राणियों से अलग और विशेष दर्ज़ा देती है । शिक्षा ही वह साधन है जो मानव को पशु प्रवृत्ति से निकालकर मानवीय गुणों से ओत-प्रोत करती है । अतः शिक्षा का मानव जीवन में अत्यंत महत्व है । एक सुसभ्य , बेहतर जीवन और बेहतर समाज शिक्षा के अभाव में अकल्पनीय है । चूँकि समाज मनुष्यों से बनता है तो प्रत्येक मनुष्यों के लिए शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक है । शिक्षित मनुष्य जीवन में तो प्रगति करता ही है , साथ ही उसका सर्वांगीण विकास भी होता है । मनुष्य के जीवन में शिक्षा की भूमिका व्यक्तिगत विकास , आत्म विश्वास , मानव कल्याण , सभ्यता तथा संस्कृति , समाज तथा राष्ट्र की प्रगति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है । शिक्षित मनुष्य हर चुनौती चाहे वो व्यक्तिगत हो , आर्थिक हो , सामाजिक हो या अन्य कोई और … वह उस पर आसानी से विजय प्राप्त कर लेता है । शिक्षा विद्या के रूप में वह अमूल्य खज़ाना है जो एक बार प्राप्त होने पर कभी खाली नहीं होता । जिसके पास शिक्षा रूपी खज़ाना न हो तो इसके क्या दुष्परिणाम होते हैं , ये वही भली-भाँति समझ सकता है और महसूस कर सकता है , जिसका जीवन शिक्षा न मिलने के कारण ग़लत दिशा में मुड़ गया हो , उसके अपने साथ छोड़ गए हों । शिक्षा से वंचित रहने से कैसे जीवन अपनी राह से भटक जाता है इसके उदाहरण स्वरूप योगराज प्रभाकर की लघुकथा ” जम्बू द्वीपे भारतखंड ” के अंश संदर्भित हैं जिसमें राष्ट्रीय पर्व के अवसर पर कुछ कैदियों को उनके अच्छे चाल-चलन के कारण तय तिथि से पूर्व रिहा किया जा रहा है , जब नशीद का क्रम आता है तो वह उत्साहहीन होकर मंच पर पहुँचता है ।
“चार साल पहले जब ये जेल में आया था तो एकदम अनपढ़ थाI आज न केवल ये पढ़-लिख ही सकता है बल्कि वेल्डिंग के काम में भी महारत हासिल कर कर चुका हैI” जेल अधिकारी ने मंत्रीजी को बतायाI किन्तु अपनी प्रशंसा सुनकर नशीद के सपाट चेहरे पर गहरी उदासी छा गईI
“अरे! रो क्यों रहे हो? तुम तो बहुत खुशक़िस्मत होI” मंत्रीजी ने हैरान होते हुए पूछाI
“खुशक़िस्मत? मैं तो इतना बदक़िस्मत हूँ कि मेरे जेल जाने के बाद मेरे बूढ़े माँ-बाप इस दुनिया से चले गएI मैं तो आखरी बार उनका चेहरा भी नहीं देख पायाI”
“मगर तुम्हें इस बात का फखर होना चाहिए कि तुम यहाँ एक क़ैदी बनकर आए थे मगर आज एक हुनरमंद कारीगर बनकर लौट रहे होI तुम्हें सरकार का एहसानमंद होना चाहिएI”
“काश कि सरकार यह शिक्षण और प्रशिक्षण मुझे पहले दे देती तो मैं कभी अपराधी न बनता और आज मेरे माँ-बाप भी ज़िंदा होतेI”
वाक़ई शिक्षा की आवश्यकता और महत्व तभी समझ आता है जब हाथों से सब कुछ फिसल चुका होता है , जीवन में चारों ओर अंधेरा हो जाता है , कोई दिशा या आशा की किरण दिखाई नहीं देती है । कहने का तातपर्य है कि शिक्षा ही वह पतवार है जो जीवन के हर मझधार से पार लगाकर किनारे पहुँचा देती है ।
शिक्षा का उद्देश्य
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति विशेष , स्थान और परिस्थितियों पर निर्भर करता है , जो व्यक्तिगत रूप से सबके लिए अलग अलग हो सकता है , लेकिन मौटे तौर पर देखेंगे तो अधिकतर मनुष्य के शिक्षा प्राप्त करने का उद्देश्य अच्छा व्यक्ति बनना होता है और उनके लिए अच्छे व्यक्ति की परिभाषा होती है मोटी रकम अर्जित करना । जबकि शिक्षा ज्ञानवर्धन का साधन है , सांस्कृतिक जीवन का माध्यम है , चरित्र की निर्माता है , जीवनोपार्जन का द्वार है । स्व सामर्थ्य का पूर्ण उपयोग करते हुए जीवन जीने की कला के साथ-साथ व्यक्तित्व के विकास का पथ-प्रदर्शन भी है । शिक्षा का उद्देश्य ही होता है व्यक्तिगत उन्नति को बढ़ावा देना , सामाजिक स्वास्थ्य में सुधार करना , राष्ट्र और अर्थिक प्रगति करना , जीवन में लक्ष्यों को निर्धारित करना , सामाजिक मुद्दों के विषय में जागरूक करना , पर्यावरण समस्याओं को सुलझाने के लिए हल प्रदान करना , जात-पात और वर्णभेद को दूर करना , समाज में व्याप्त रूढ़ियों , कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठाना , अपने कर्त्तव्यों व अधिकारों के प्रति सजग रहना , लिंग भेद की खाई को पाटना आदि । धन अर्जित कर लेना ही शिक्षा नहीं है । ये एक असामाजिक प्राणी भी कर लेता है । एक शिक्षित मनुष्य समाज को बहुत तरीके से मदद करता है और उसे सुगम बनाता है । अतः केवल व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करना ही शिक्षा का उद्देश्य नहीं ।
शिक्षा एवं विद्या में अंतर
सामान्यतः शिक्षा एवं विद्या को एक ही समझ लिया जाता है , जहाँ शिक्षा का मूल उद्देश्य केवल नौकरी या आजीविका का अर्जन है , वहीं विद्या से मनुष्य को आत्मिक ज्ञान मिलता है । शिक्षा द्वारा मनुष्य की भौतिक उन्नति और विकास होता है। शिक्षा अक्षर ज्ञान , पुस्तकीय ज्ञान , सूचना संग्रह और डिग्रियों का संचयन भर है । इससे केवल शारीरिक सुखों की प्राप्ति होती है। विद्या आत्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है , जिससे जीवन श्रेष्ठ और पवित्र बनता है । विद्या नैतिकता और सदाचार की कुंजी है । जीवन को सुसंस्कृत बनाती है , सजाती-संवारती है । तभी कहा गया है , ‘विद्याविहीन: पशुभि: समान:’ अर्थात् विद्याहीन व्यक्ति पशु के समान होता है । विद्या ही व्यक्ति को विद्वान बनाती है। जबकि शिक्षा मनुष्य के जीवन-विकास की रीढ़ होती है , जब यह रीढ़ कमजोर हो जाती है या गल जाती है ,जर्जर हो जाती है तो रीढ़विहीन शरीर के समान लड़खड़ाकर गिर जाती है । शिक्षा से तरह-तरह का ज्ञान तो एकत्र हो जाएगा , मगर सच्चे अर्थ में आत्मज्ञानी तथा विद्वान् नहीं हो सकता । यूरोप ने शिक्षा के क्षेत्र में बहुत उन्नति की है , परन्तु मनुष्योचित गुण , संस्कारों से वह अछूता ही रह गया है क्योंकि विद्या के महत्त्व से वह अनजान है । शास्त्रों में वर्णित है , ‘विद्या सा या विमुक्तये’,अर्थात सच्ची विद्या वह है जो हमें वचनों , बुराइयों , दोषों एवं अवगुणों से बचाए , हमारे भीतर की देवत्व की भावना जाग्रत करे ।
वर्तमान परिदृश्य में विद्यालयों , महाविद्यालयों का पूरा ध्यान भौतिक ज्ञान पर ही केंद्रित हो गया है । वे अपना पूरा समय , शक्ति , धन का उपयोग सिर्फ़ किताबी शिक्षा के लिये ही उपयोग कर रहे हैं । यही कारण है कि आज मनुष्य के पास डिग्रियों , सूचनाओं का ढेर तो है, लेकिन इंसानियत , नैतिकता , चारित्र बल खोजे से नहीं मिलते । विद्या से जीवन में आर्ट ऑफ लिविंग की कला आती है जबकि शिक्षा स्टैंडर्ड ऑफ लिविंग को बढ़ाती है । स्टैण्डर्ड ऑफ लाइफ को विद्या ही ऊँचा ले जाती है । शिक्षा से भौतिक सुख , भोग पदार्थ तो मिल सकते हैं , परन्तु आत्मिक खुशी , सच्चा आनन्द नहीं । इसकी कुंजी सिर्फ़ विद्या के पास है । भारतीय शिक्षा दर्शन में विद्यार्थी और विद्यालय कहा जाता है, जिसका सीधा सम्बन्ध विद्या के साथ है न कि शिक्षा के साथ । शिक्षा का स्तर जहाँ ऊँचा होगा , निश्चित रूप से वहाँ सभ्यता का विकास सर्वोच्च स्तर पर होगा , यदि शिक्षा के साथ-साथ विद्या भी जुड़ी होगी तो संस्कारवान सुसन्ततियाँ समाज में बढ़ती चली जाएँगी ।शिक्षा जहाँ सभ्यता के विकास के लिए आवश्यक है , व्यावहारिक ज्ञान के संवर्धन तथा अपने पैरों पर खड़े होने के लिए ज़रूरी है , वहाँ विद्या अपने जीवन के उद्देश्य को समझने , अनगढ़ता को सुगढ़ता में बदलने और जीवन जीने की कला के शिक्षण के रूप में एक पूरक की भूमिका भी निभाती है । इसके लिए पढ़ाई पूरी कराना और उससे आगे का शिक्षण भी कराना हर समाज के लिए आवश्यक है , किंतु यह परिश्रम अधूरा माना जायेगा यदि शिक्षार्थियों में संवेदना का विकास सद्वृत्तियों का संवर्धन , समाज परायण बनने का शिक्षण साथ-साथ नहीं दिया गया हो ।
शिक्षा का उदाहरण प्रस्तुत करती है लघुकथा ‘ हारते हुए’ सुकेश साहनी की इस लघुकथा में बताया गया है कि कॉन्वेंटी संस्कृति छोटे-छोटे बच्चों के भीतर अभिजात्यता का भाव इस क़दर कूट-कूटकर भर देती है कि बच्चे अपने जनक की आर्थिक स्थिति से स्वयं को शर्मिंदा और उपेक्षित महसूस करने लगते हैं । उनके त्याग, समर्पण का बच्चों की नज़र में कोई मोल नहीं रहता । उनकी आर्थिक विपन्नता बच्चों के लिए हिक़ारत बन जाती है । लघुकथा की कुछ पँक्तियाँ संदर्भित हैं –
” क्या बात है बेटा ? मैं रोज़ तुम्हें स्कूल के गेट पर ही तो छोड़ता हूँ … अभी पहुँचाये देता हूँ …” कहते हुए सीताराम ने तेज़ी से पैडल मारते हुए साइकिल की स्पीड बढ़ाने का प्रयास किया ।
” कहा न … रोकिए!!” राहुल का कर्कश , आदेश भरा स्वर उसके कान में पड़ा और उसके हाथ अपने आप ब्रेक पर कसते चले गए । सीताराम अपने बेटे के इस अप्रत्याशित कठोर रवैये से हैरान था । वह किसी आज्ञाकारी बालक की तरह साइकिल से उतरकर खड़ा हो गया । राहुल ने बिना उसकी ओर देखे कैरियर से बस्ता निकाला और पैदल ही स्कूल की ओर बढ़ गया ।
इससे पहले कि सीताराम कुछ समझ पाता एक चमचमाती सफ़ेद कार सरसराती हुई उसके बगल से गुजरी और राहुल के बिलकुल बगल में जाकर रुक गई । कार की पिछली खिड़की से एक नन्हा हाथ ‘हाय… राहुल’ के स्वर के साथ बाहर निकला । प्रत्युत्तर में सीताराम ने एक नए राहुल को देखा , जिसने चहककर अपने मित्र के ‘हाय’ का ज़वाब दिया और बिजली की सी तेज़ी से कार का पिछला दरवाज़ा खोलकर अपना बस्ता अंदर उछाल दिया । कार में बैठने से पहले राहुल ने हिक़ारत भरी नजरों से सीताराम की तरफ देखा और ‘खटाक’ से कार का दरवाजा बंद कर लिया ।
राहुल बड़े विद्यालय में शिक्षा तो प्राप्त कर रहा है , परन्तु जीवन की असल शिक्षा यानि विद्या ग्रहण करने से वंचित रह गया । ये विद्यालय बच्चों के मस्तिष्क में ढेर सारा किताबी ज्ञान तो ठूँस देते हैं , परन्तु जीवन मूल्य की बहुत छोटी-छोटी बातें सिखाना भूल जाते हैं क्योंकि जीवनोपयोगी बातें किताबों का नहीं अनुभव और संस्कृति का हिस्सा होती हैं जो दिखती नहीं महसूस की जाती हैं और आज के विद्यालय तो ‘जो दिखता है , वो बिकता है ‘ के सिद्धांत पर चलकर फ़ीस के रूप में मोटी रकम वसूलते हैं । शिक्षा लघुकथा समाज से सीधे-सीधे प्रश्न भी करती है कि क्या सुविधा विहीन माता-पिता को अपने बच्चों को बड़े स्कूल्स में भेजने का स्वप्न नहीं देखना चाहिए ?
प्राचीन शिक्षा पद्धति
प्राचीन काल में वही विद्या श्रेष्ठ मानी जाती थी जो गुरु के साथ प्रत्यक्ष रहकर उसके निरीक्षण में अर्जित की जाए , यही कारण था कि इस समय शिष्य गुरुकुल में रहा करते थे । गुरुकुल का शाब्दिक अर्थ है – गुरु का परिवार अथवा गुरु का वंश । ऐसे विद्यालय जहाँ विद्यार्थी अपने परिवार से दूर गुरु के परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता है , गुरुकुल कहलाता है ।
अधिकतर गुरुकुल गाँवों या नगरों के समीप किसी बाग अथवा निर्जन स्थान में बनाये जाते थे। जिससे उन्हें एकान्त एवं पवित्र वातावरण प्राप्त हो सके। इससे दो लाभ थे; एक तो गृहस्थ आचार्यों को सामग्री एकत्रित करने में सुविधा थी, दूसरे ब्रह्मचारियों को भिक्षाटन में अधिक भटकना नहीं पड़ता था।
शिष्य गुरुकुल के समस्त कार्य करते थे , जैसे झाड़ू लगाना , कुएँ से पानी लाना , लकड़ी बीनना , दूध दुहना , भोजन पकाना , गुरु की सेवा करना आदि । शिष्यों की संख्या भी प्रायः पंद्रह से अधिक नहीं होती थी । विद्यार्थी निःशुल्क शिक्षण ग्रहण करते थे । विद्यार्थी से धन माँगना अध्यापक के लिए अति निन्दनीय माना जाता था । निर्धन विद्यार्थी को भी गुरु पढ़ाने से मना नहीं कर सकते थे । गुरु द्वारा प्रदत्त एक ही अक्षर के ज्ञान से शिष्य स्वयं को जीवनभर के गुरु का ऋणी मानता था । तभी एकलव्य ने दक्षिणा स्वरूप गुरु के एक ही आदेश पर अपना अँगूठा काटकर चरणों में समर्पित कर दिया । प्राचीन शिक्षा पद्धति के पात्र आचार्य द्रोणाचार्य , अर्जुन और एकलव्य को आधार बनाकर नए दृष्टिकोण से मेघा राठी द्वारा लिखी गई लघुकथा ‘अस्तित्व’ संदर्भित है । गुरुकुल का दृश्य है । आचार्य द्रोण एकलव्य का अँगूठा दक्षिणा स्वरूप कटवाकर अपने प्रिय शिष्य अर्जुन के साथ आगे बढ़ गए हैं और अब एक ओर पड़ा रक्तरंजित अँगूठा एकलव्य की अंधभक्ति का मज़ाक उड़ाते हुए एकलव्य से प्रश्न पर प्रश्न कर रहा है और साथ ही उसकी परीक्षा भी ले रहा है कि कहीं एकलव्य इस दक्षिणा से व्यथित या गुरु से नाराज़ तो नहीं ।
” अब क्या करोगे ? कैसे चलाओगे धनुष ? देखा द्रोण का छल ? अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर कोई न हो , इसलिए मुझे पृथक कर दिया तुमसे । ”
” मेरे बिना ? तुम जानते हो न इस विद्या के लिए मेरा होना कितना महत्व रखता है ? कुछ नहीं कर पाओगे अब तुम एकलव्य । गुरु की अंधभक्ति में तुमने ख़ुद का भविष्य समाप्त कर दिया । ”
एकलव्य बिना विचलित हुए गुरु के प्रति अपना दृढ़विश्वास व्यक्त करते हुए कहता है –
” नहीं , तुम्हारे इसी अभिमान के कारण ही तुम्हारा त्याग कराया है मेरे गुरु ने । बहुत अभिमान है न तुमको कि मेरी धनुर्विद्या तुम्हारे बिना सम्भव नहीं । तुम देख लेना , तुम्हारा दम्भ चूर होगा । ”
प्राचीन और आधुनिक गुरु शिष्य सम्बंध
भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोच्च रहा है । उसे ईश्वर से ऊपर का दर्ज़ा दिया गया । ब्रह्मा , विष्णु , महेश की उपाधि से नवाज़ा गया , कारण इस काल में गुरु शिष्यों को ज्ञान और नैतिक बल ही प्रदान नहीं करता था वरन निःस्वार्थ भाव से सभी शिष्यों के प्रति स्नेह भाव रखते हुए संरक्षक की भूमिका भी अदा करता था । शिष्य भी अपने गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा , विश्वास, समर्पण का भाव रखते थे । गुरु एक मशाल थे तो शिष्य प्रकाश । शिष्य गुरु के हर एक आदेश का पालन बिना कोई प्रश्न किये करते थे । एकलव्य की भक्ति इसका श्रेष्ठतम उदाहरण है ।
आज न गुरु गुरु है न शिष्य ही शिष्य । अब ये सम्बंध शिक्षक और शिक्षार्थी का हो गया है । आज न शिक्षक में शिक्षण के प्रति समर्पण है और न शिक्षार्थी में शिक्षक के प्रति पहले जैसी श्रद्धा व विश्वास । सनातन काल में जिस गुरु को देव तुल्य सम्मान दिया गया , उसी शिक्षक को आज न जाने कितने उपनामों से पुकारा जाता है , अपशब्द कहे जाते हैं । व्यवस्था और अभिभावकों का दबाव उस पर सदा बना रहता है । एकलव्य की रज मात्र भी किसी विद्यार्थी में दिखाई नहीं देती । आज शिक्षा खरीदी और बेची जा रही है और जिस का क्रय-विक्रय हो वह वस्तु में परिणित हो जाती है । वस्तु का आदर गुणपरक तो होता है परन्तु मूल्यता का अभाव होता है । जब भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में भगवतगीता गाई तब अर्जुन ने उनसे ढेर सारे सवाल किए । सभी प्रश्नों का निवारण होने के बाद कठोर पालन भी किया । इसी कारण भगवद् गीता हमारे लिए इतनी महत्वपूर्ण है । अर्जुन ने भगवान से प्रश्न किये और उनके हर उत्तर को बिना किसी संदेह के स्वीकार्य किया । आज शिक्षक के ज्ञान और समझ पर , बात बात पर प्रश्नचिह्न लगाए जाते हैं , उसकी सामर्थ्य पर संदेह किया जाता है । इसके लिए केवल शिष्य ही जिम्मेदार नहीं , व्यवस्था , शिक्षण पद्धति , भौतिकतावाद , नैतिक मूल्यों का पतन , जीवकोपार्जन लायक अर्जन न मिलना जैसे कारक भी शिक्षक के शिक्षण को प्रभावित करते हैं और वह अपने कर्त्तव्य से ईमानदारी नहीं रख पाता है ।
राधेश्याम भारतीय द्वारा लिखी लघुकथा ‘बच्चे’ शिक्षक के मनोविज्ञान और उसके विद्यार्थियों के साथ के सम्बंध को बहुत ख़ूबसूरती से उभारती है । एक ईमानदार और समर्पणशील शिक्षक अपने विद्यार्थियों से बहुत गहरे जुड़ जाता है । वह उनका मानस पिता बनकर संरक्षक की भूमिका का निर्वाह करता है । उन्हें हर कदम पर सही राह दिखाता है । शिष्यों के सुख में सुखी और दुःख में दुःखी होता है । शिष्य उसके हृदय , मस्तिष्क यहाँ तक कि अवचेतन में भी अपना स्थान बना लेते हैं । जैसे लघुकथा ‘बच्चे’ में । ‘बच्चे’ लघुकथा का मास्टर मनमोहन ब्रेनहेमरेज़ के कारण अपनी याददाश्त खो बैठता है । जिसे लौटाने के लिए उसे स्कूल के पुराने दिन याद करवाये जाते हैं , परन्तु वह निर्विकार रहता है । लेकिन ,जैसे ही विद्यार्थियों का नाम सुनता है तो उसकी चेतना लौट आती है , वे मुस्कुरा उठता है , उसके नेत्र बहने लगते हैं । ये सोचकर कि जिन्हें वह पिता बन स्नेह लुटाता रहा , आज उनमें से एक भी शिष्य मेरे सिरहाने नहीं । इस लघुकथा में शिक्षक तो शिक्षक बना लेकिन शिष्य , शिष्य न बन सका ।
सतीश राज पुष्करणा की लघुकथा ‘ऊँचाई’ भी गुरु शिष्य सम्बन्धों का सर्वोत्तम उदाहरण है । इस कथा में शिक्षक अपना सर्वस्व बेचकर अभाव का नाटक कर रहे विद्यार्थी के लिए सहायता करना चाहता है, जिसे सुनकर विद्यार्थी के मुख से निकलता है , ‘गुरु की ऊँचाई हिमालय है।’ ये लघुकथा गुरु के विशाल हृदय और पवित्र भावना को भी बख़ूबी दर्शाती है । एक और लघुकथा है सतीश राज पुष्करणा की , ‘अंतश्चेतना’ ये लघुकथा भी गुरु-शिष्य के सम्बंध कैसे हों के साथ गुरु कैसा होना चाहिए बताती है । इस लघुकथा में शिक्षक विद्यार्थी के ग़लती करके स्वीकारने पर उसे अपमानित न करके सत्य के लिए प्रोत्साहित करता है । पुष्करणा की ही लघुकथा ‘उपहार’ में शिक्षक न केवल विद्यार्थी को वर्ष भर ट्यूशन के रूप में ली गई राशि उसके फर्स्ट डिवीजन पास होने पर उपहार स्वरूप लौटा देता है , वरन इसकी आर्थिक स्थिति समझते हुए पढ़ाई में आगे की जिम्मेदारी के लिए भी सहमति प्रदान कर देता है ।
शिक्षा के रूप
शिक्षा शब्द को दो रूपों में प्रयोग में लाया जाता है – व्यापक एवं संकुचित । व्यापक अर्थ में शिक्षा उद्देश्य के तहत निरंतर चलने वाली सामाजिक प्रक्रिया है । इसमें मनुष्य समूहों , उत्सवों , पत्र-पत्रिकाओं , दूर संचार माध्यम जैसे रेडियो , टेलीविज़न आदि से जीवनभर और हर पल अनौपचारिक रूप से सीखता रहता है । जबकि संकुचित रूप निश्चित समय तथा निश्चित स्थान जैसे विद्यालय , महाविद्यालय आदि में निश्चित पाठ्यक्रम को पढ़ना और परीक्षा प्रक्रिया से गुज़रना होता है । अतः व्यवस्था की दृष्टि से विद्वानों ने शिक्षा को तीन रूपों में बाँटा है : औपचारिक , निरौपचारिक , अनौपचारिक ।
औपचारिक शिक्षा – विद्यालयों , महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में निश्चित समयावधि और निश्चित पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाने वाली निश्चित शिक्षण विधियाँ इसके अंतर्गत आती है । ये योजनाबद्ध होती है । इसने ही गुरुकुल का स्थान ग्रहण कर लिया है , लेकिन विडंबना है कि गुरुकुल के मूल्य ये शिक्षा अंगीकार नहीं कर पाई । आज विद्यार्थी , अभिभावक ,शिक्षक , विद्यालय , शिक्षा व्यवस्था , सरकार सभी कटघरे में है ।
औपचारिक शिक्षा में शिक्षक की भूमिका
यूँ तो शिक्षा कोई भी हो , शिक्षक की भूमिका ही महत्त्वपूर्ण होती है बावज़ूद औपचारिक शिक्षा में उसकी भूमिका और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि समाज का भविष्य उन्हीं बच्चों के कंधों पर टिका होता है जो इनसे शिक्षा ग्रहण कर आने वाले समाज की नींव रखते हैं । एक अच्छा शिक्षक विद्यार्थी का सबसे अच्छा मित्र , सलाहकार , पिता तुल्य और सबसे अच्छा आदर्श होता है । वह सभी विद्यार्थियों पर बराबर ध्यान देता हो , कमजोर या असमर्थ समझकर उनका अपमान न करता हो , जातिसूचक शब्दों का प्रयोग न करता हो , विद्यार्थी हित का सदा ध्यान रखता हो ,विद्यार्थी की रुचि को ध्यान रखता हो । विडंबना कहें , मज़बूरी कहें या जीविकोपार्जन की मजबूरी या फिर दिन प्रति दिन बढ़ती महत्वाकांक्षाएँ , प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ …. सारे आदर्श , नियम , सिद्धांत , मानक ताक पर रखे जा चुके हैं ।
दलित विमर्श और शिक्षक की भूमिका के संदर्भ में डॉ0 श्याम सुंदर दीप्ति की लघुकथा ‘हिम्मत’ प्रासंगिक है । विद्यालय जिसे शिक्षा का मंदिर कहा जाता है , यदि उसी मंदिर में शिक्षक बच्चों के बीच भेदभाव करे , जाति सूचक शब्दों का प्रयोग कर उन्हें अपमानित करे तो समाज से क्या उम्मीद की जा सकती है । हिम्मत कथा का पात्र बीरा कक्षा में रोज़-रोज़ जाति सूचक शब्दों से अपमानित करने पर स्कूल छोड़ने का फैसला करता है वहीं दूसरा अछूत पात्र छिंदे वीरा को अपने पिता की सीख का हवाला देते हुए कहता है , ” बात तो तेरी ठीक है “, गम्भीर होते छिंदे ने नज़दीक आकर कहा, ” मैंने भी कई बार सोचा है कि क्या पड़ा है ऐसी पढ़ाई में । मैंने अपने बापू से बात की। बापू बोला , ‘देख , इसीलिए तो पढ़ाई करनी है कि जलालत से , बेइज़्ज़ती के इस माहौल से बाहर निकल सकें । ‘ बापू ने समझाया कि यही एक रास्ता है । ” यहाँ लघुकथा एक सकारात्मक संदेश तो देती है , साथ ही प्रश्न भी छोड़ती है कि फ़िर उसी शिक्षा को ग्रहण कर शिक्षक के भीतर से जाति-पाँति की भावना क्यों नहीं मिटी ?
शिक्षक की भूमिका पर प्रश्न उठाती कुणाल शर्मा की लघुकथा ” उपेक्षित” संदर्भित है । शिक्षा में सभी को समान अवसर मिल सकें , साक्षरता का प्रतिशत बढ़े , निर्धन बच्चे पेट भरने के लिए मजदूरी में न जुटें इसलिए कहीं प्राथमिक तो कहीं माध्यमिक कक्षा तक निजी स्कूल्स में शिक्षा फ्री की गई है और निर्धन परिवार के बच्चों के लिए सीटें आरक्षित । कोई भी विद्यालय किसी भी निर्धन छात्र को तय सीट पर प्रवेश देने से इनकार नहीं कर सकता । निर्धन बच्चों को प्रवेश तो मिल जाता है परंतु उनकी अवस्था , रहने का ढंग , और गरीबी के चलते न कक्षा के विद्यार्थी और न शिक्षक उनसे ठीक तरह का व्यवहार करते हैं , फलस्वरूप उनके भीतर आक्रोश और हीनता की भावना घर कर जाती है । इन्हें स्कूल में दोनों का उपहास झेलना पड़ता है । “उपेक्षित” लघुकथा में भी निर्धन बच्चे को बैंच की जगह ज़मीन पर अकेला बैठाया जाता है । शिक्षक द्वारा ये पूछे जाने पर कि ” जब तेरे पास किताबें ही नहीं है तो स्कूल में क्या करने आता है ?” के जवाब में वह कहता है ” जी स्कूल में भरपेट खाना मिल जाता है ।” मुफ़्त शिक्षा को लेकर बने आधे-अधूरे कानून जहाँ गरीब माता-पिता की आँखों मे झूठे स्वप्न और उम्मीद पैदा करते हैं कि उनके बच्चे भी बड़े स्कूल में पढ़ेंगे , वहीं उन बच्चों के भीतर घृणा , उपेक्षा , वर्गभेद का भाव पैदा कर देते हैं । कुणाल शर्मा ही की लघुकथाएँ “कुर्बानी” और “स्वेटर” भी बताती हैं कि निर्धन बच्चे स्कूल्स में शिक्षा से अधिक इस बात के लिए चिंतित रहते हैं कि उनके परिवार के सदस्य भूखे न सोयें , ठंड में न कूड़कें । सच तो ये है कि भूखे पेट और फ़टे वस्त्रों में शिक्षा नहीं ली जा सकती , हाँ शिक्षा व्यवस्था का मज़ाक अवश्य बनाती हैं । सुकेश साहनी की लघुकथा ” मैं कैसे पढूँ ?” बताती है कि शिक्षकों पर कोर्स समाप्त करने , शत प्रतिशत परीक्षा परिणाम देने का दबाव इतना अधिक होता है कि वे बच्चों से आत्मीय रूप से जुड़ ही नहीं पाते , बस मशीनी मानव बनकर पढ़ाते रहते हैं । बच्चे का ध्यान कक्षा में क्यों नहीं है , उसकी क्या समस्या है ? इससे उन्हें कोई वास्ता नहीं होता । बच्चों के मनोविज्ञान को समझने का न तो उनके पास समय होता है ,न धैर्य । ” मैं कैसे पढूँ ” लघुकथा में एक बच्ची जो परिवार में घटी नवजात भाई की मृत्यु की घटना से बहुत अधिक विचलित है और कक्षा में ध्यान नहीं दे पा रही है बस बड़बड़ा रही है इसके साथ शिक्षक का अभद्र व्यवहार पाठक के मन को भीतर तक कुरेद जाता है । सीमा सिंह की लघुकथा “भुक्तभोगी” शिक्षकों के आदर्श और अनादर्श दोनों रूपों को।प्रकट करती है । बोर्ड की परीक्षाओं में अंदाज़े से कॉपी जाँचते समय विद्यार्थियों के भविष्य की किस तरह अनदेखी की जाती है , इसका बहुत अच्छे ढंग से इस लघुकथा में ज़िक्र हुआ है । शिक्षकों का ट्यूशन करने वाले बच्चों को अधिक नम्बर देकर पास करना या न करने पर ट्यूशन का दवाब डालना किसी से छिपा है भला ? शशि बंसल गोयल की लघुकथा “दीमक” में माँ बच्चे के ख़राब परीक्षा परिणाम की ओर ध्यान न देते हुए नए स्कूल की शिक्षिका को पिछले शत प्रतिशत परिणाम का कारण शिक्षक को बताती है ।
“ट्यूशन…? ट्यूशन का बच्चे के प्रदर्शन से क्या सम्बन्ध ? ” अव्यवहारिक रवैये और अप्रत्याशित प्रश्न से शिक्षिका हैरान थी।
” है क्यों नहीं मैडम , पुराने विद्यालय में सोनू सदा अव्वल आता था , क्योंकि वहीं के मास्टर जी से ‘ट्यूशन’ लेता था ।” दर्प मिश्रित शब्दों में उसने कहा ।
” ओह्ह्ह ! यानी बच्चे की बुनियाद में ही दीमक लगी है।”
भगरीथ की लघुकथा ” शिक्षा ” में शिक्षक क्रोधित है क्योंकि चालीस में से दो बच्चों ने ही होमवर्क किया है । क्रोध में जिस तरह के शब्दों का प्रयोग वह करता है उससे बच्चों में पढ़ने की रही सही कसर भी ख़त्म हो जाती है ।
” सभी लड़के लज्जित , अपमानित , मुँह लटकाए खड़े हैं । अध्यापक विजेता की तरह सीना ताने खड़ा है । सजा – चालीस उठक -बैठक और चार-चार बेंत ।”
सुकेश साहनी की लघुकथा ” शिक्षाकाल ” महाविद्यालयों में शिक्षकों की भूमिका और उच्च शिक्षा में विद्यार्थियों के शोषण को दर्शाती है । पी एच डी . जैसे शोध कार्यों में डिग्री प्राप्त करने के बदले में उसे गाइड की यातनाओं को सहना पड़ता है । घरेलू कार्यों के साथ धमकियों को भी सहना पड़ता है । उन्हें दिन-रात एक करके तैयार किये गए नोट्स को अन्य सम्पन्न परन्तु नकारा शिष्यों को देने हेतु बाध्य होना पड़ता है । यह लघुकथा उच्च शिक्षा में भी शैक्षणिक मूल्यों , प्रतिमानों और आदर्शों के क्षरण को बताती है । शिक्षा तंत्र ने नीचे से ऊपर तक व्यवस्था को मख़ौल बनाया हुआ है । यदि कोई शिक्षक ईमानदारी से शिक्षण करता है तो उसकी और परिवार की स्थिति डॉ0 दामोदर खड़से की लघुकथा “गोल्ड मेडल” के पात्र की तरह होती है । इस लघुकथा में शिक्षक के आदर्श और संस्कार ही पुत्र की नौकरी में बाधक बन जाते हैं । जैसे-तैसे मिलती भी है तो आधी पगार की । शेष आधी पगार पर स्कूल कमेटी एय्याशी करती है । जिसका विरोध करने पर उसके हाथ से ये नौकरी भी चली जाती है । कालांतर में वही पुत्र व्यवस्था से हाथ मिलाकर शिक्षा मंत्री बन जाता है । ये विफ़ल शिक्षा नीति का भी उदाहरण है । उच्चतम अंक प्राप्त कर जीविकोपार्जन लायक नौकरी भी प्राप्त न कर पाना इसी राह पर आगे बढ़ रहे युवाओं में निराशा पैदा करती है ।
अभिभावकों के महत्वाकांक्षाओं के बोझ तले पिसता बचपन –
वर्तमान में अभिभावकों की महत्वाकांक्षाएँ इतनी अधिक बढ़ चुकी हैं कि बच्चों का बचपन , मासूमियत कुम्हला गई है । बात-बात पर माता-पिता का अपने बच्चों की तुलना दूसरों से करना , कम अंक लाने पर प्रताड़ित करना , प्रतिस्पर्धा के चलते मोटी से मोटी रकम देकर बड़े स्कूल्स में पढ़ाना आम बात होती जा रही है । सुकेश साहनी की लघुकथा ” बैल ” कहती है कि शिक्षक ही नहीं माता पिता को भी अपने व्यवहार को सुधारने की आवश्यकता है । बच्चों पर अनावश्यक दबाव , दूसरे बच्चों से तुलना , अपनी इच्छाएँ थोपना उनका प्रदर्शन सुधारने की जगह और बिगाड़ उनके मानसिक रूप से पंगु बना देता है । ठीक इसी तरह की पढ़ने का दबाव बनाती सुकेश साहनी की ही लघुकथा “ग्रहण” भी है । दोनों ही लघुकथा शिक्षा जगत की सबसे बड़ी कमजोरी तथ्यों को जाने-समझे बिना सिर्फ़ रट लेना पर प्रकाश डालती है ।
“अँधेरा लग रहा है तो मैं लाइट जलाए देता हूँ। पाँच मिनिट में पाठ याद न हुआ , तो देखो मैं तुम्हारे साथ क्या सुलूक करता हूँ ?”
विक्की सहम गया । वह जोर-जोर से याद करने लगा ,” सूर्य और पृथ्वी के बीच में चंद्रमा के आ जाने से सूर्यग्रहण होता है … सूर्य और पृथ्वी के बीच…”
बच्चे और बचपन के बीच माता-पिता की महत्वाकांक्षाएँ बच्चे के जीवन में ग्रहण का ही कार्य करती हैं ।
बलराम अग्रवाल की ‘पीले पंखों वाली तितली’ में भी मासूम बचपन माता-पिता की अपेक्षाओं का भार ढोते नज़र आती है । बालक मन तितलियों की तरह चंचल होता है और उसे भी तितलियों की तरह पुष्प रूपी कोमल बच्चों का साथ आकर्षित करता है , वह उनके संसर्ग में ही प्रफुल्लित रहता है । लेकिन तितली की तरह उसके मासूम बचपन के भी पंख नोच दिए जाते हैं और किताब रूपी पिंजरे में कैद कर दिया जाता है । बच्चे के अपने जनक ही जिन्न बनकर उसका बचपन गप्प कर जाना चाहते हैं ।
डॉ0 श्याम सुंदर दीप्ति की लघुकथा “खो रहे पल” बताती है कि किस तरह बच्चे के जन्म के साथ ही डे केयर , प्री नर्सरी , और आगे की श्रेणी में भेजने की क़वायदों में उसका बचपन छीन लिया जाता है । लघुकथा के अंत में बच्चे का पिता से यह प्रश्न , ” पर पापा , मैं खेलूँगा कब?” अभिभावकों की महत्वाकांक्षाओंके साथ शिक्षा व्यवस्था पर भी प्रश्नचिन्ह लगा देता है कि क्या एडमिशन के नाम पर प्राथमिक कक्षाओं के लिए ये ढोंग ज़रूरी हैं । ठीक इसी कलेवर की अशोक भाटिया की लघुकथा “सपना” है । अंतिम पँक्तियाँ दृष्टव्य है –
” माँ ,जब मैं यूनिवर्सटी पढ़ लूँगा , तो उसके बाद ख़ूब खेलूँगा , कोई काम नहीं करूँगा ।”
निरौपचारिक शिक्षा – इसके अंतर्गत प्रौढ़ शिक्षा , सतत शिक्षा और दूरस्थ शिक्षा आती है । इसकी शिक्षण प्रक्रिया बहुत लचीली होती है । यह शिक्षा विद्यालयों , महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की सीमा से परे होती है । शिक्षण विधियाँ , सीखने का स्थान व समय आदि सीखने वालों की सुविधा पर निर्भर करता है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता होती है कि इसके द्वारा उन्हें शिक्षित किया जाता है जो विद्यालयों या महाविद्यालयों में नहीं जा सके जैसे प्रौढ़ व्यक्ति या कामकाज़ी महिलाएँ । पारस दासोत की लघुकथा “एक पाठ और ” संदर्भित है । “एक पाठ और ” लघुकथा में मुख्य पात्रा प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र में अध्ययन करती है । परिणामस्वरूप वह जान जाती है कि जहाँ वह इतने दिनों से मजदूरी करती है वहाँ का मुनीम बीस रुपये पगार पर हस्ताक्षर करवाकर हाथ में पंद्रह रुपये वेतन ही देता है । वह वेतन लेने से इनकार कर देती है । मुनीम समझाते हुए कहता है कि ,” पढ़ने – लिखने से क्या होता है । उसे तो महाभारत पढ़ना आता है , पर वह भी तो आठ सौ रुपये पर दस्तख़त कर तीन सौ रुपये ही पाता है । ”
ज़वाब में वह कहती है , ” धत्तss! मैं मुनीम थोड़े ही बनूँगी ।” मैं मुनीम थोड़े ही बनूँगी में बहुत बड़ा सन्देश छिपा है । जो शिक्षा सही को सही और ग़लत को ग़लत न कह सके , अन्याय का विरोध न कर सके , अन्याय सहने को मजबूर हो जाए , थोड़े से फ़ायदे के लिए समझौतावादी रूख़ अख़्तियार करे , वह कोरी शिक्षा है । पात्रा ऐसी दिखावटी शिक्षा का भी विरोध करती है । ख़ाली हाथ लौटने से उसके बच्चे भूखे सो जाते हैं , लेकिन वह वात्सल्य के वशीभूत होकर कमजोर नहीं पढ़ती और देर रात तक जागकर अगले दिन का पाठ याद करती है । वह अक्षर ज्ञान के साथ ये भी सीख चुकी है कि आज विरोध नहीं कर पाई तो कभी भी परिस्थिति नहीं बदलेंगी , तब मुझमें और अशिक्षित या मुनीम में कोई फ़र्क शेष न बचेगा । ये लघुकथा भ्रष्टाचार को भी उज़ागर करती है और कहती है कि जहाँ पूरा तंत्र बीमार हो , वहाँ शिक्षा भी बेमानी हो जाती है ।
अनौपचारिक शिक्षा – ये जन्म से मृत्यु तक आजीवन चलने वाली शिक्षा है । इसका न कोई उद्देश्य होता है और न कोई निश्चित योजना । कोई पाठ्यक्रम या शिक्षण विधियाँ भी नहीं होतीं । ये आकस्मिक रूप से सदैव चलती रहती है । मनुष्य के जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव यही शिक्षा छोड़ती है क्योंकि ये जीवन के प्रत्येक क्षण चलती है । इसमें शिक्षार्थी अपने सम्पर्क में आये व्यक्तियों व वातावरण से सीखता रहता है । यही कारण है कि माँ को प्रथम गुरु और परिवार को प्रथम पाठशाला कहा जाता है । आभा चंद्रा की लघुकथा ‘सबक’ अनौपचारिक शिक्षा का बढ़िया उदाहरण है । बाल्यावस्था में प्रथम गुरु माँ होती है , वह बालक के सम्पर्क में अधिक रहती है , इसलिए बच्चे माँ के अधिक करीब भी होते हैं । उनसे अपनी छोटी-छोटी बात साझा करते हैं । “सबक” लघुकथा में बालक बाबू एक दिन स्कूल से बहुत खुश होकर लौटता है । माँ के कारण पूछने पर जो कारण बताता है , दृष्टव्य है …
“आज पिंकी की नई स्कर्ट बहुत ही छोटी थी जो हवा में उड़कर … सब बच्चे हँस रहे थे । बहुत मज़ा आ रहा था माँ और , और…”
सम्वाद पूरा भी नहीं हुआ और माँ का एक झन्नाटेदार थप्पड़ बाबू के गाल पर पड़ा । बाबू बहुत छोटा है , नहीं जानता क्या कह रहा है लेकिन माँ का थप्पड़ उसे अहसास करा देता है कि उससे कुछ ग़लती हुई है । माँ द्वारा दिया गया थप्पड़ रूपी सबक वह सबक है जो बालमन कभी न भूला पाएगा ।
अनौपचारिक शिक्षा पर सुकेश साहनी की लघुकथा ‘स्कूल’ भी संदर्भित है । लघुकथा का बालक जो माँ के बग़ैर एक रात भी नहीं सोता था , वह चने बेचने शहर क्या जाता है , उसे अहसास हो जाता है ज़माने की ठोकरें क्या हैं , विधवा माँ के प्रति उसकी जिम्मेदारियाँ क्या हैं ? वह पैसों के साथ सबसे बड़ी पूँजी आत्मविश्वास कमाकर लौटता है । जो बालक माँ का आँचल नहीं छोड़ता था , वही लौटने पर माँ से कहता है –
” माँ तुम्हें इतनी रात गए यहाँ नही आना चाहिए था ।” उसके मुँह से निकला सम्वाद सुनकर माँ को विश्वास नहीं होता कि ये उसका ही बेटा है । वह उसके इस नए रूप को देखकर आश्चर्यचकित हो जाती है । बालक के भीतर स्वावलंबन और जिम्मेदारी की जिस भावना को माँ का प्यार और मोह नहीं भर पाया उसे ज़माने की तीन दिनों की ठोकरों ने भर दिया ।
स्त्री शिक्षा – आज भले ही स्त्री शिक्षा को लेकर अनेक आवाज़ें उठ रही हों परन्तु हम वैदिक काल की ओर दृष्टिपात करेंगे तो पाएँगे कि इस काल में स्त्री शिक्षा की मनाही नहीं थी । वेदों में उल्लिखित कुछ मंत्र इस बात का प्रमाण है कि स्त्रियों के लिए शिक्षा अपरिहार्य एवं महत्वपूर्ण मानी जाती थी । उन्हें लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की शिक्षाएँ दी जाती थीं । सहशिक्षा को बुरा नहीं समझा जाता था । उत्तररामचरित में वाल्मीकि के आश्रम में लव-कुश के साथ पढ़ने वाली आत्रेयी नामक स्त्री का उल्लेख हुआ है जो प्रमाणित करता है कि उस युग में सहशिक्षा का प्रचार था । गोभिल गृहसूत्र में कहा गया है कि अशिक्षित पत्नी यज्ञ करने में समर्थ नहीं होती थी । प्राचीन वेद ऋग्वेद की रचना में स्त्रियों का योगदान रहा , जिसमें घोषा , रोमशा , विश्वारा , इंद्राणी , शची और अपाला के नाम उल्लेखनीय हैं । स्त्री शिक्षा का अभाव उसे घाणी के बैल की तरह घणी में जुतने को विवश कर देता है ये कहती है भगीरथ की लघुकथा ” धापू घाचण सोचती है ” इस लघुकथा में धापू पूरे समय लंबे घूँघट में रहने को विवश है । ससुर से इशारों या विशेष आवाज़ के ज़रिए सम्वाद करना पड़ता है । जोर से बोलने या घूँघट उघाड़ने पर बेशर्म शब्द का हथौड़ा न मिले इस करके वह घूँघट में ही रहती है ,धीरे या किसी बच्चे की सहायता से अपनी बात कहती है । वह सदा सोचती है कि गाँव में नर्स और शिक्षिका भी हैं जो कभी पर्दा नहीं करतीं , बच्चे , बूढ़े , जवान सब पुरुषों से बात करती हैं लेकिन उन्हें तो कोई बेशर्म नहीं कहता , बल्कि सब इज़्ज़त करते हैं , क्यों ? क्यों मेरा ही जीवन पशुवत है ? धापु ये तो दिनभर सोचती है लेकिन ये नहीं सोच पाती कि उनके बीच फ़र्क शिक्षा का है । वह शिक्षित नहीं है इसलिए ये कुप्रथा ढोने को मज़बूर है । अगर शिक्षित होती तो उसमें भी ताकत होती इस कुप्रथा का विरोध करने की , उसे भी वह सम्मान मिलता जो उस गाँव की नर्स और शिक्षिका को मिला ।
आधुनिक शिक्षा और उसका व्यवसायीकरण या बाज़ारीकरण
जो शिक्षा कभी मानव मस्तिष्क की देखभाल करती थी , मानव को असभ्यता के कँटीले रास्तों से बचाकर सभ्य ज़मीन उपलब्ध कराती थी , पाशविक व्यवहार से मुक्त करती थी , उन्नयन का सबल माध्यम हुआ करती थी , जीविकोपार्जन के लिए सही दिशा देती थी , वही शिक्षा समयांतर में आधुनिकीकरण के नाम पर बिकाऊ और व्यावसायिक होती चली गई । शिक्षा का बाज़ारीकरण से तातपर्य है शिक्षा का खरीदा और बेचा जाना । खरीद फरोख़्त की प्रक्रिया ने आधुनिक शिक्षा को वस्तु में बदलकर रख दिया । इसकी नींव अंग्रेज़ मैकाले द्वारा रखी गई थी । इसके पहले शिक्षा व्यावसायिक नहीं थी । आज शिक्षा मात्र एक वस्तु बन कर रह गई है । जितनी ऊँची बोली लगाकर प्राप्त कर सकते हो , कर लो । मैकाले की शिक्षा पद्धति ने शाब्दिक ज्ञान देकर रोबोट नुमा कर्मचारी तो तैयार किए , लेकिन हमें हमारी पुरातन दैनिक संस्कृति से काटकर पूरी तरह खोखला कर दिया । आज की शिक्षा प्रणाली से निकला विद्यार्थी अपनी संस्कृति से पूरा कटा हुआ है ।
भगवान वैद्य ‘प्रखर’ की लघुकथा ‘ताली’ आधुनिक शिक्षा और सरकारी तंत्र पर सीधे-सीधे उँगली उठाती है । निजी स्कूल शत प्रतिशत परीक्षा परिणाम की आड़ में कमजोर और अयोग्य बच्चों को पास कर अपना धंधा चलाते रहते हैं । सरकारी विद्यालयों में प्राथमिक कक्षाओं में फेल न करनी की नीति साक्षरता प्रतिशत बढाने का ढोंग मात्र है । दोनों ही सूरत में नुकसान विद्यार्थी का है । एक ओर जहाँ निजी विद्यालयों में शिक्षा का व्यावसायीकरण हो रहा है तो दूसरी तरफ ग़लत शिक्षा नीति द्वारा सरकार का अपनी पीठ थपथपाने का शुतुरमुर्ग प्रयास । दोनों के ही दूरंदेशी परिणाम विद्यार्थी , परिवार , समाज और देश के लिए बहुत घातक हैं ।
सरकारी और निजी विद्यालयों की स्थिति
निजी विद्यालयों में शिक्षा का पर्याय बन गए हैं भवनों की सुंदरता , ए. सी. युक्त कमरे , स्मार्ट क्लासेज़ , नर्सरी क्लास से किताबों का ढेर कुलमिलाकर बेकार की शूं शा… जिसका वास्तविक शिक्षा से सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं , लेकिन कमाई के लिए ऐसे गोरख धंधे बहुत ज़रूरी हो गए हैं । आज स्कूल चलती-फ़िरती दुकानें नहीं बल्कि बड़े-बड़े शो रूम हैं । माता-पिता की आँखें इन शो रूम्स के चमकते ग्लासों से चौंधियाई हुई हैं । उन्हें लगता है कि यदि उनके बच्चे शो रूम्स के इन गलियारों से नहीं गुजरेंगे तो अनपढ़ रह जाएँगे और वे स्वयं भी सोसाइटी में क्या मुँह दिखाएँगे ? सरकारी स्कूल्स की ओर तो थोड़ा सा भी सामर्थ्यवान् झाँकना ही नहीं चाहता । झाँकना भी चाहे तो कैसे ? उनकी स्थिति एकदम उलट है । न भवन , न खेल मैदान , न शिक्षक , न गम्भीरता । सरकारी खानापूर्ति के लिए खोले गए ये विद्यालय केवल कागजों पर ही बढ़ते हैं । यही कारण है कि माता-पिता बच्चों के सुनहरे भविष्य की ख़ातिर बाज़ारवाद का शिकार हो जाते हैं । प्राइवेट विद्यालय माता-पिता की नब्ज़ से परिचित हैं सो वह भी उसका भरपूर लाभ उठाते हैं और कसाई की तरह उनकी गर्दन दबोचने को तैयार बैठे रहते हैं । इस बिंदु के अतिरिक्त सभी बिंदुओं में निजी विद्यालयों की स्थिति दर्शाती लघुकथाएँ ही हैं सो यहाँ उनका ज़िक्र नहीं ।
सरकार द्वारा विद्यालयों में शैक्षिक स्तर को सुधारने के लिए अनेक प्रयास किए गए हैं , ढेर सारी योजनाएँ लागू की गईं हैं , फ़िर भी सरकारी स्कूलों की स्थिति वही ढाक के तीन पात जैसी ही है। सरकारी विद्यालय की दुर्दशा पर सतीश पुष्करणा जी की लघुकथा ‘परिभाषा’ उल्लेखनीय है । गाँव से कुछ दूर एक झोपड़ी में सरकार विद्यालय खोलकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेती है । विद्यालय में कभी-कभार चार-छह बच्चे चक्कर काट आते हैं । गाँव वाले ये भी नहीं जानते कि कौन शिक्षक पढ़ाता है । शिक्षा पदाधिकारी के पूछने पर, ” फ़िर यह कैसा स्कूल है ?” के ज़वाब में आया गाँववाले का अंतिम सम्वाद , ” सरकारी है ।” बिन कहे सब कुछ कह देता है । इसके बाद शिक्षा अधिकारी कुछ और पूछने की ज़हमत नहीं उठाता क्योंकि सरकारी स्कूल की ‘परिभाषा’ से वह स्वयं भी भली-भांति वाकिफ़ है ।
सरकारी स्कूल्स के भवन भी हों , शिक्षक भी हों और बच्चे भी वहाँ पढ़ाई की स्थिति क्या और क्यों होती है इसका सशक्त उदाहरण है अशोक भाटिया की लघुकथा ‘लगा हुआ स्कूल’ जिसमें बताया गया है कि किस तरह सरकारी स्कूल में शिक्षा व्यवस्था शिक्षा विभाग के नीति निर्देशों के तले पीस कर रह जाती है । लघुकथा में गाँव का सरकारी स्कूल मिडिल से हाई स्कूल तो बन गया है लेकिन महज़ खानापूर्ति के लिए और दिखावे के विकास के लिए । स्कूल में न लाइट है न हवादार खिड़की । भौतिकीय रूप से अनुपस्थित शिक्षकों को लेकर विद्यार्थी पहले से प्रशिक्षित हैं कि कोई बड़ी गाड़ी परिसर में आये तो खेल मैदान से चुपचाप कक्षा में जाकर दुबक जाना है ताकि आये अधिकारी को बग़ैर शिक्षकों के भी सुव्यवस्था जान पड़े । शिक्षक नौकरी जाने या किसी मेमो से पूर्णतः बेफिक्र हैं क्योंकि वे घर पर नहीं बैठे , बल्कि ऑन ड्यूटी हैं । सरकारी आदेशों के तहत कोई कोई शिक्षक मिड डे मिल के लिए सब्जी खरीदने गया है तो कोई दूध , कोई शिक्षक नए सत्र के कारण यूनिफार्म के लिए कपड़ा लेने तो कोई स्टेशनरी आदि । किसी शिक्षक की ड्यूटी जनगणना में लगी है तो किसी की चुनाव में । जिसकी कहीं ड्यूटी नहीं वह भला अकेला पूरा स्कूल कैसे संभालता ? सो पेशी होते ही उसने भी बहाना बनाकर सरकारी तंत्र का मज़ाक बनाया । यह लघुकथा शिक्षकों की मजबूरी पर भी करारी चोट करती है । सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की यह दशा है कि वह पढ़ाने के अतिरिक्त अन्य सारे कार्य करता है ऊपर से शत प्रतिशत परीक्षा परिणाम तो देना ही है । गोया कि वह कठपुतली है और तंत्र मदारी बनकर उसे नचा रहा है । जीविकोपार्जन की मजबूरी में एक वक़्त ऐसा भी आता है कि शिक्षक भूल जाता है कि उसका कार्य बच्चों को पढ़ाना भी होता है । श्याम सुंदर अग्रवाल की लघुकथा ” लोकसेवक ” सरकारी स्कूलों के लिए नियत फंड की कैसी बर्बादी की जाती है को दर्शाता है ।
सचिव ने बातचीत की दिशा बदलने का फिर प्रयास किया , ” स्कूल में कम्प्यूटर भेजा गया था , यहाँ दिखाई नहीं दिया कहीं ?”
” वह तो जी डिब्बे में बन्द पड़ा है । यहाँ न रखने को जगह , न किसी को चलाना आता है । बिजली वैसे ही नहीं आती सारा-सारा दिन । बेकार है वह तो यहाँ ।” जवाब सरपंच ने ही दिया ।
शिक्षा का समाज पर प्रभाव
जैसे समाज शिक्षा के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित करती है , ठीक वैसे ही शिक्षा भी समाज के हर एक पहलू राजनैतिक , सांस्कृतिक , आर्थिक , भौगोलिक आदि को प्रभावित करती है । शिक्षा के भीतर ही वह परमाणविक शक्ति है जो अपने विस्फोट से पूरे समाज को बदलकर रख सकती है । शिक्षा न केवल समाज के दृष्टिकोण , रहन-सहन , रीति-रिवाज , खान-पान आदि प्रभाव डालती है , वरन उनकी सोच को भी परिष्कृत करती है , सही-ग़लत का भेद बताती है । सामाजिक सुधार की कल्पना बिना शिक्षा के करना असम्भव है । शिक्षा के द्वारा ही समाज में व्याप्त समस्याओं , जातिगत व लैंगिक असमानताओं , कुरीतियों और कुप्रथाओं का अंत किया जा सकता है । शिक्षा मानव समाज की आधारशिला है । वह ही समाज के निर्माण , परिवर्तन और विकास में सहायक होती है । अतः ये कहना कि समाज और शिक्षा अन्योन्याश्रित हैं , अतिशयोक्ति नहीं होगी । शिक्षा के समाज पर व्यापक को लेकर बिलकुल अलग फ़्लेवर की लघुकथा है , ” दिशा ” योगराज प्रभाकर ने इस लघुकथा के माध्यम से दर्शाया है कि वो दिन लद गए जब अशिक्षित और बेरोजगार लोगों को डरा-धमकाकर कुछ शरारती और पूँजीपति लोग उनकी अज्ञानता की पीठ पर अपनी रोटी सेंकते थे , दंगे करवाते थे और झूठी शानो शौकत की ज़िंदगी बसर करते थे । अब समाज में एक आशा की किरण चमकी है । समाज धीरे-धीरे बदलाव की ओर उन्मुख है क्योंकि कारखाने और विद्यालय रूपी सुगंधित पुष्प दूर-दूर तक अपनी ख़ुशबू फैला रहे हैं । लघुकथा “दिशा” की कुछ पँक्तियाँ दृष्टव्य हैं –
“पुराने वक्तों को याद कर रहे हो बच्चो?”
“अरे चाचा वो तो…I” यह अप्रत्याशित प्रश्न सुनकर, वह दोनों सकपका उठेI
“भूल जाओ बच्चो…. वो ज़माना अब शायद कभी वापिस नहीं आएगाI” खाली गिलास उठाते हुए उसने कहाI
“क्यों चाचा?” दोनों साथियों ने एक स्वर में प्रश्न चिन्ह उछाला I
“तुम्हे याद है वो टाइम, जब एक ही आवाज़ पर हमारे लोग सड़कों पर निकल आते थे?”
“हाँ चाचा! मगर अब तो लगता है कि किसी को फुर्सत ही नहीं हैI”
“बिलकुल सही कहा तुमनेI मैं भी उसी तरफ इशारा कर रहा हूँI”
“इसका मतलब ये कि सरकार के साथ साथ हमारे लोग भी हमारे दुश्मन हो गए हैं?”
“नहीं, बिलकुल नहींI दुश्मन न तो सरकार है न हमारे लोगI”
“तो फिर वो दुश्मन कौन है चाचा?”
सड़क की दूसरी तरफ बने कारख़ाने और स्कूल की तरफ इशारा करते हुए चाचा ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया:
“वोsss रहे तुम्हारे असली दुश्मन!”
कथा का मूल बिंदु यही है कि रोजगार और शिक्षा यदि प्रत्येक हाथ तक पहुँच जाए तो समाज से तमाम कुरीतियाँ , विसंगतियाँ , शोषण , दमन स्वयम ही समाप्त हो जाएगा ।
शिक्षालय और अपराध
जहाँ एक ओर शिक्षालय को मंदिर की उपमा से नवाज़ा गया है , वहीं दूसरी ओर शिक्षा परिसर रैगिंग , गुंडागर्दी , ड्रग्स,शिक्षकों की पिटाई जैसे जघन्य अपराधों की पनाहगाह बन चुके हैं । ये ऐसे विषय हैं जिन पर जितना लिखा जाना चाहिए था , नहीं लिखा गया । स्कूल के अनुशासित जीवन के बाद विद्यार्थी बहुत खुशी के साथ महाविद्यालय में कदम रखता है लेकिन वहाँ उसकी साड़ी खुशी और उम्मीदों पर पानी फिर जाता है । सीनियर्स द्वारा नवीन प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों के साथ रैगिंग की स्वस्थ परम्परा परिचय को विकृत परम्परा रैगिंग में बदलकर अमानवीयता की हद तक प्रताड़ित किया जाता है । न जाने कितने बच्चे इस कारण अवसाद में चले जाते हैं , आत्महत्या कर लेते हैं । इसके पीछे छिपी भयावहता को वे ही छात्र समझ सकते हैं जो इसके शिकार हुए हैं । बावज़ूद इसके जितने कदम प्रबंधन और सरकार द्वारा उठाये जाने चाहिए थे , नहीं उठाए गए । भगीरथ की लघुकथा ” एन्ट्रेन्स टेस्ट ” रैगिंग के घृणित रूप को बहुत ही सटीक ढंग से बयां करती है ।
” अबे छोरियों की तरह क्यों रो रहा है , चल मुर्गा बन जा । ” वह मुर्गा बन जाता है । तीसरा सीनियर उस पर आकर बैठ जाता है । ” अबे बोल कूकड़ -कूँ ।” चौथे ने उसकी जाँघों से एक अंडा निकाला । ” अरे दे दिया अंडा ।” सब हो होकर हँसने लगे । वे उसके शरीर से छेड़छाड़ करने लगे ।
अक़्सर विद्यालय , महाविद्यालय की खाली दीवारों , शौचालयों और कभी-कभी बोर्ड पर इतना कुछ आपत्तिजनक लिखा मिल जाता है कि विश्वास करना मुश्किल होता है कि क्या ये वास्तव में मंदिर कहलाने लायक हैं ? भद्दी से भद्दी गालियाँ , अश्लील शब्द , गंदी शायरियाँ , फिल्मी गीत , कामुक सम्वाद और भी न जाने कैसे-कैसे गंदे चित्र … विद्यार्थियों की सर्जनात्मकता , रचनात्मकता किस दिशा में जा रही है और क्यों , इसके प्रति कोई जवाबदेही तय नहीं । भगीरथ जी की ही लिखी लघुकथा ‘अपराध’ बहुत प्रभावशाली है ।
अंततः समाज को बदलने में शिक्षा और साहित्य का संगम अभूतपूर्व भूमिका निभाता है । साहित्य ही समाज का परावर्तित व्यवहार है । शिक्षा का उन्मेष , प्रकटीकरण , और आविष्कार स्वस्थ साहित्य और समाज को पोषित और पल्लवित करता है । साहित्य शिक्षा और समाज का वह शंखघोष है जो अनेक ज्वलंत समस्याओं का प्रभावशाली चित्रण कर मनुष्य को आईना दिखाता है । शिक्षा जगत की लघुकथाओं का भी यही उद्देश्य रहा है जिसमे वह पूर्ण सफ़ल हुई हैं ।
-0-( लघुकथा कलश-जुलाई- दिसम्बर 2020 . संपादक- योगराज प्रभाकर से साभार