एक चूल्हे पर दाल खदक रही थी,दूसरे चूल्हे पर भगोने में दूध चढ़ा रखा था। दो डग की दूरी पर बैठी भूमि जाने किस दुनिया में खोई हुई थी।
एक आकृति तेजी से चूल्हे की तरफ आयी और उफनते दूध से ढक्कन नीचे गिराकर चिल्लाई।
“देख लो अम्मा, दाल जलने को है और दूध बहकर आधा हो गया। लेकिन महारानी जाने कहाँ खोई हैं, आप हैं कि पूरे घर की चाभी इन्हें पकड़ा रखी हैं!”
“छोटी बहू, ध्यान रखा करो।”
“जी अम्मा!”
आए दिन जेठानियों के मुख से शब्दाग्नि का निकलना और भूमि की विनम्रता और शान्तिजल से बुझ जाना। गृहक्लेश को हवा नहीं मिल पा रही थी लेकिन लपटें कभी-कभी इतनी उठती कि पड़ोस को भी खबर हो जाती।
‘जब बड़ी बहुओं के रहते सास छोटी बहू को चाबियाँ पकड़ा देगी तो भला और क्या होगा।’ पड़ोसियों की दबी जुबान घर के आहते में बैठे सास-ससुर को सुनाई पड़ती रहती।
“सारी झंझट को विराम देते हुए चाबियाँ बड़ी बहू को क्यों नहीं दे देती हो।” ससुर ने सास को परामर्श दिया।
“छोटी बहू के पास लोहे की अलमारी है, उसमें चाबियाँ सुरक्षित रहेंगी। और वह धनिक परिवार की बेटी है हमारी पोटली के गहनें-रुपयों से उसे आशक्ति नहीं है। मैं बुद्धू थोड़े ही हूँ जो बक्सी-बक्से की चाबियाँ उसे दे रखी हैं।”
भूमि जेठानियों की मंडली से अलग-थलग पड़ रही थी। उसके सामने पड़ते ही उनकी कानाफूसियां बन्द हों जातीं, या वे उधर से उठकर कहीं और जाकर अपनी बैठकी जमा लेतीं।
चूल्हें पर चाय बना रही जेठानी ने कटाक्ष किया तो भूमि की त्योरियां चढ़ गयीं । वह अपने कमरे में गयी और घुन्नाई-सी सास के पास जाने लगी। आँगन से गुजरते हुए उसके हाथों में पड़ी चाबियों की खनक से जेठानियाँ फिर उबली लेकिन एकबारगी शांत हो गयीं। भूमि चाबियों का गुच्छा सास को पकड़ाकर बोली, “अम्मा! चाबियाँ बड़े-बुजुर्गों के पास ही रहनी चाहिए। इसके अदृश्य काँटे अब मुझे घायल करने लगे हैं।”
वह चाबियाँ देकर लौट रही थी कि उसके कानों में मधुर आवाज आयीं- “भूमि, आओ बेटा, आकर चाय पी लो।”
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