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पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथाएँ

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सत्तर के दशक से हिंदी के जिन कथा लेखकों की लघुकथाएँ ‘सारिका,’ ‘कथन’, ‘लहर’, ‘कहानीकार’, ‘वीणा’, ‘पहचान’, ‘कथादेश,’ ‘प्रभृति’ आदि साहित्यिक पत्र–पत्रिकाओं तथा दैनिक समाचार–पत्रों में निरन्तर प्रकाशित होती रही हैं, उनमें पृथ्वीराज अरोड़ा अग्रिम पंक्ति में आते हैं। नई सहस्राब्दी की शुरूआत पर षष्टिपूर्ति के पड़ाव को पार कर चुके पृथ्वीराज अरोड़ा का साहित्यिक लेखन की ओर रुझान किशोरावस्था में ही हो गया था। उनकी सबसे पहली प्रकाशित कहानी ‘प्यास’ है, लेकिन उससे भी पहले की एक अप्रकाशित कहानी ‘नौजवान बूढ़ा’ का शीर्षक नानकसिंह के उपन्यासों की याद दिलाता है : सफेद कालिख, सफेद कोयल, सच्चा पाप आदि। प्रेमचंद और शरत् के लेखन का प्रभाव तो उनकी समूची पीढ़ी और वर्तमान पीढ़ी पर भी देखा जा सकता है।

‘साहित्य–निर्झर’ पत्रिका (संपादक द्वय : रमेश बतरा एवं शामलाल मेहंदीरत्ता ‘प्रचंड’) के एक अंक में पृथ्वीराज अरोड़ा की प्रथम दो लघुकथाएँ ‘रामबाण’ तथा ‘अहसास’ प्रकाशित हुई। यह सन् 1974 की बात है। इससे पहले मात्र कहानी–लेखन में सक्रिय रहनेवाले पृथ्वीराज अरोड़ा ने लघुकथा के क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा। ‘तीन न तेरह’ उनका पहला और एकमात्र लघुकथा–संग्रह है, जिसमें लघुकथाएँ कालक्रम के अनुसार (1974 से 1995 तक) दी गई हैं। इस तरह ये लेखक की रचना–यात्रा के सभी पड़ावों से होकर गुज़रती हुई आज की स्थिति तक हमें पहुँचाती हैं। इस दृष्टि से ‘तीन न तेरह’ विविध प्रकार की लघुकथाओं का संग्रह मात्र नहीं है,बल्कि लघुकथा के एक प्रतिनिधि हस्ताक्षर की रचनाधार्मिता के विकास का लेखा–जोखा हमारे सामने रखनेवाला एक दस्तावेज है। बावजूद इसके कि पृथ्वीराज अरोड़ा का लेखन उन्हीं के शब्दों में ‘नियति’ नहीं है’, वह लेखन के प्रति गंभीरता बनाए हुए हैं।

‘साक्षात्कार’ में ‘तीन न तेरह’ की लघुकथाओं पर टिप्पणी करते हुए विभारानी ने इसी बात को रेखांकित किया है : ‘पृथ्वीराज अरोड़ा ने बहुत गंभीरता से लघुकथा लेखन किया है।’ उनके विचार में ‘पूरा संग्रह कुछ पढ़ने का और लघुकथाओं को समझने का सुख और संतुष्टि देता है।’ पूरन मुद्गल ने भी ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में प्रकाशित समीक्षा में इस पुस्तक को ‘गंभीर रचनाकर्म तथा कलात्मक शैली के प्रति सतर्कता की बिना पर दस्तावेजी महत्त्व की कृति’ बताया है।

लघुकथाओं के अलावा ‘तीन न तेरह’ में इस विधा के विषय में चार आलेख भी दिए गए हैं, जिनसे सृजन–प्रक्रिया तथा विधा के शास्त्रीय पक्ष को लेकर लेखक की मान्यताओं का पता चलता है। अपनी रचना प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए लेखन ने बिना किसी लाग–लपेट के अपनी सामर्थ्य और सीमाओं को स्पष्ट किया है, मसलन अपनी एंकातप्रियता और एक ही स्थान पर नौकरी करने के कारण लघुकथाओं का फलक छोटा रह जाने की बात। बहरहाल, इस छोटे फलक में भी मानवीय संवेदनाओं, शोषण, अन्याय तथा विरूपताओं के साथ जी रहे चरित्रों और पात्रों से भरा–पूरा संसार मौजूद हैं यह बात इनकी लघुकथाओं से प्रमाणित हो जाती है। रचना में जब तक कथात्मकता, सृजनात्मकता, यथार्थ और जीवन–मूल्यों की पक्षधरता, इन सबका समावेश न हो, तब तक लेखक उससे संतुष्ट नहीं होता। वह एक ही पृष्ठभूमि पर छह लघुकथाएँ लिख डालता है और समान कथानक पर पाँच लघुकथाएँ लिखने का प्रयोग करता है। लगभग प्रत्येक लघुकथा में पृथ्वीराज अरोड़ा का यह प्रयास रहा है कि जिस स्थिति का अंकन उसे करना है, उस पर एक नई दृष्टि डाली जाए, जरा और गहराई से सोचा जाए और यदि संभव हो तो कोई असाधारण कोण तलाश किया जाए। यही कोण और नएपन की तलाश लेखक की सृजनात्मक पहचान के रूप में पाठक तक संप्रेषित होती है। इसी प्रयोगधर्मिता के कारण पृथ्वीराज अरोड़ा ने एक लोकप्रिय विधा की स्वीकार्यता के सैलाब में बहने से इन्कार करते हुए लिखी हुई रचनाओं को बार–बार तराशा और आलोचना से आहत होने की बजाए रचना के संशोधन का तरीका अपनाया है।

यद्यपि पृथ्वीराज अरोड़ा ने स्पष्टीकरण के स्वर में कहा है कि ‘मैं किसी विचारधारा से बंधकर नहीं लिखता।’ तथापि किसी भी पाठक के लिए यह समझ लेना मुश्किल नहीं है कि वह अपनी लघुकथाओं में, डॉ.योगेंद्र बख्शी के शब्दों में–‘समकालीन जीवन के अनेकानेक संदर्भों की नाना प्रकार की सूक्ष्म संवेदनाओं को उजागर कर आम आदमी के सहज यथार्थ को परत–दर–परत उघाड़ते हैं और इसी प्रक्रिया में हर प्रकार की मानव–विरोधी निरंकुश शक्तियों को रेखांकित करते हैं।’ इस संदर्भ में रूप देवगुण ने ‘अजीत समाचार’ (12 अक्टूबर, 1997) में लिखा है : ‘पृथ्वी की लघुकथाएँ विभिन्न विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे पात्रों की ओर ध्यान देती हैं और सामाजिक समस्याओं और विसंगतियों को आधार बनाकर परोक्ष रूप से उनका समाधान खोजने की कोशिश करती हैं।’

परंपरागत नीतिकथाओं, लोककथाओं, दृष्टांतों आदि से प्रेरित यह विधा ‘लघुकथा’ अपने आधुनिक स्वरूप में केवल चमत्कृत सूक्ति जैसा प्रभाव नहीं रखती, बल्कि समकालीन स्थितियों में निहित विडंबनाओं और विकृतियों को भी ‘फोकस’ में ले आती है। पृथ्वीराज अरोड़ा ने दोनों तरह की लघुकथाएँ लिखी हैं। ‘विकार’, ‘दया’, ‘अनुराग’ जैसी लघुकथाओं में मिथकों, पौराणिक गाथाओं, आभाणकों, नीतिकथाओं आदि को आधुनिक संदर्भों में नए ढंग से परिभाषित किया गया है। दूसरी ओर मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद के स्तर पर आपसी संबंधों, उनसे जुड़ी गलतफहमियों या अपेक्षतया उनके कम जाने–पहचाने पहलुओं को आलोकित करने वाली लघुकथाएँ भी ‘तीन न तेरह’ में मौजूद हैं। ‘शीश’, ‘साथी’, ‘प्यार’ ऐसी ही रचनाओं के उदाहरण हैं। इनमें रिश्तों के अंतर्गत आदान–प्रदान की तयशुदा शर्तों और नैतिकता–अनैतिकता की कसौटियों पर कई सवाल उठाए गए हैं। बहुधा कोई पात्र लघुकथा के अंत में स्थिति की ऐसी व्याख्या कर जाता है या ऐसी टिप्पणी कर देता है, जिससे अनेक सवाल पाठक के मन को आंदोलित करने लगते हैं। ये दोनों शैलियाँ पृथ्वीराज अरोड़ा को विशेष रूप से प्रिय हैं।

रचनाएँ आम तौर पर सशक्त बन पड़ी हैं, परंतु यौन वर्जनाओं पर आधारित कुछ रचनाओं में बीमार मानसिकता को अनावृत्त करने वाला वाचक–स्वर इस विषय में खुद अपनी विकृतियों को अनजाने में अनावृत्त कर जाता है और पाठक को यह बात अखरने लगती है। शब्द जो कुछ कह रहे हैं, सजग पाठक उनके पीछे कार्यरत जीवन–दृष्टि की सूक्ष्म तरंगों को भाँप लेता है। एकाध लघुकथा में पकड़ में न जाने वाली ऐसी तरंगों की गहरी पड़ताल का मौका लघुकथा–संग्रह में पाठक को उपलब्ध होता है।

अपने आसपास की दुनिया में हम सि‍र्फ़ व्यक्तियों और पदार्थों से नहीं, बल्कि बिंबों, छवियों और छायाओं से भी घिरे रहते हैं। कुछ छवियाँ लगातार पोषित होती रहती हैं और हमारे मन पर उनकी पकड़ मजबूत होती है। पृथ्वीराज अरोड़ा की कोशिश रहती है कि ऐसी छवियों को तोड़ा–मरोड़ा जाए, क्योंकि कई बार ये हमें संवेदनहीन बना देती हैं। इन्हें तोड़कर पुन: मानवीय संवेदना को स्थापित करना इस लेखक को सृजन और रचनात्मक के लिए बहुत जरूरी लगता है। ‘घर का ख्वाब’ और ‘कथा नहीं’ इसके सशक्त उदाहरण हैं।

शोषण के विविध रूपों में पृथ्वीराज अरोड़ा की गहरी दिलचस्पी हैं प्राय: उनकी लघुकथाओं का कोई पात्र शोषण के दबावों के चलते अपने आदर्शों और मूल्यों की रक्षा के लिए विद्रोह पर उतारू हो जाता है, जैसे ‘यही सच है’ में या फिर वह ऐसी टिप्पणी कर देता है, जो सुननेवाले को लाजवाब कर दे। स्थिति जब बर्दाश्त से बाहर हो जाती है तो इंसान विद्रोह के विकल्प के बारे में सोचता जरूर है। संवेदनशील रचनाकार विद्रोह के विकल्प पर विचार करने के क्षणों पर अकसर ध्यान केंद्रित करते हैं और पात्र द्वारा लिए गए निर्णय पर लघुकथा समाप्त होती है। इसमें समस्या यही रहती है कि कोई भी निर्णय पूरी तरह सही या संतोषजनक नहीं लगता। प्राय: विकल्प थोड़े होते हैं और सभी में कुछ न कुछ खोट जरूर रह जाता है। ऐसे में स्थिति का प्रस्तुतीकरण ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाता है। पृथ्वीराज अरोड़ा के लिए लघुकथा अच्छी या बुरी कैसी भी बने, पर वह असली होनी चाहिए, खरी, विश्वसनीय और प्रामाणिक। वह अनुभव की कसौटी पर भी खरी उतरे और जीवन–मूल्यों की पक्षधरता की कसौटी पर भी। रोचक भी हो; लघु तो खैर हो ही, पाठक को सोचने पर विवश भी करे। कुल मिलाकर यह काफी मुश्किल काम है। यही कारण है कि पृथ्वीराज अरोड़ा लघुकथा को ‘शार्टकट’ नहीं मानते। सरबजीत ने जब ‘नव’ पत्रिका के एक अंक में यह सवाल उठाया कि ‘क्या लघुकथा ‘शॉर्टकट’ है?’ तो पृथ्वीराज अरोड़ा का उत्तर स्पष्ट रूप से ‘नहीं’ में था। उनकी लघुकथाओं की विशेषता यह भी है कि वे पाठक को तटस्थ, निष्क्रिय और उदासीन नहीं रहने देतीं। उसकी आँखों में झाँककर सवाल करती हैं और इसी में उनकी सफलता निहित है।

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