बहुत बड़ी बात भी नहीं थी लेकिन बात बड़ी तो यहां तक पहुँची कि बहू ने साफ-साफ कह दिया, ‘अगर इस घर में तुम्हारी माँ रहेंगी, तो मैं नहीं ……… अब निर्णय आप पर है ,जो अच्छा लगे …….. करो!’ और गुस्से में अपने कमरे में चली गई थी।
माँ ने सुना तो छलक पड़ी, ‘बेटा मेरा क्या है। आज हूँ कल नहीं रहूँगी। तुम्हारे सामने पूरा जीवन पड़ा है। ……बहू की बात मान लो और मुझे किसी वृद्धाश्रम में छोड़ दो।…..मैं रह लूँगी। तुम दोनों का प्यार बना रहे।’
अब प्यार तो क्या रहना था। बेटे ने समझौता कर लिया था। माँ को छोड़ने वह वृद्धाश्रम चला गया था। जरूरी फ़ॉरमेलिटीज पूरी करने पश्चात् जब लौट रहा था, तो मुझे कुछ पैसे देते हुए बोला था। मैं उस वृद्धाश्रम का चौकीदार था तब, ‘मेरी माँ का ध्यान रखना।‘
मैंने पैसे नहीं लिये थे और सिर्फ इतना ही कहा था, ‘साहब मैं तो माँ का ध्यान रख लूँगा लेकिन…..लेकिन माँ की तरह आपका ध्यान कौन रखेगा।’
मैने देखा था उस दिन। बेटा मेरी बात पर मुँह बाए खड़ा था। वह न वृद्धाश्रम को छोड़कर जा पा रहा था और न ही वृद्धाश्रम में अन्दर जा पा रहा था।