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सेतुः कथ्य से तथ्य तक

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लघुकथा विधा आज तेजी से लोकप्रिय होती जा रही है। लेखकों में भी और पाठकों में भी। अनेक कारणों में इसका एक कारण ये भी है कि अधिकतर लघुकथाओं में भाषा, प्रतीक और बिम्ब सरल होने के कारण आम पाठक को आसानी से समझ में आ जाती हैं। इसलिए यदि हम चाहते हैं कि समीक्षा केवल लेखकों तक सीमित न रहे, उसको आम पाठक भी पढ़े और लघुकथा से जुड़े, तो मेरा मानना है कि समीक्षा को भी लघुकथाओं की तरह लघु, सरल और संप्रेषणीय होनी चाहिए। शोभना श्याम द्वारा अपने सम्पादकीय में फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आंचल के उदाहरण से ये बात स्पष्ट है कि कृति की समीक्षा कृति के प्रचार- प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है; इसलिए लघुकथा हो या उसकी समीक्षा मैं उसमें सरलता और सहजता का पक्षधर हूँ। कुछ समीक्षक समीक्षाओं में जरूरत से ज्यादा अपने विचार, टिप्पणियाँ और ज्ञान भर देते हैं, जिससे समीक्षा बोझिल होने लगती है। यह ध्यान रखना चाहिए कि जो पाठक लम्बी कहानी पढ़ने से बचता है, वह लम्बी समीक्षा क्या पढ़ेगा।

साहित्य-संवेद का 2020 अंक सेतु: कथ्य से तत्त्व तक बहुत ही आकर्षक आवरण में बढ़िया लघुकथा-समीक्षा संग्रह है। मृणाल आशुतोष ने आलोचना तथा समीक्षा पर सम्पादकीय में जिस विनम्रता से साहित्य संवेद की स्थापना, लक्ष्य और गतिविधियों का वर्णन किया है वह प्रशंसनीय तो ही, आश्चर्यजनक भी है। आज लेखकों में अहंकार को देखते हुए, आशुतोष द्वारा हर बात के लिए दूसरों को श्रेय देना बहुत बड़ी बात है, सराहनीय है। मृणाल ने जहाँ समीक्षकों के योगदान पर चर्चा की है वहीं शोभना श्याम ने दूसरे सम्पादकीय में आलोचना, समीक्षा के इतिहास को छूते हुए समीक्षा की दशा दिशा पर गहन लेखन किया है। समीक्षा के बहाने लेखकों की प्रशंसा सुनने की चाहत और समीक्षकों पर बाजारवाद हावी होने के कारण समीक्षा में परिश्रम तथा ईमानदारी के अभाव पर साहसिक आक्रमण किया है, बधाई।

रचनाओं की बात करें तो अनिल मकरिया की लघुकथा ‘लूसीफर’ सही चलते-चलते अंत में थोड़ा अस्वभाविक और नाटकीय हो गई है फिर भी पाठक पर अच्छा प्रभाव छोड़ने में सफल मनोवैज्ञानिक रचना है। उस पर डॉक्टर कुमार संभव जोशी की तीन पृष्ठ की समीक्षा पढ़ते समय ऐसा लगता है, जैसे कोई अध्यापक ब्लैक बोर्ड पर बच्चों को विस्तार से समझा रहा है। बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’ समाज का दर्पण है; किन्तु डॉ. छतलानी की समीक्षा, शास्त्रीयता, सुझावों और टिप्पणियों में उलझ गई है। कुमार गौरव की लघुकथा ‘निष्ठुर’ में ‘नीति ने सीट पर जोरदार घूँसा मारा’ वाला दृश्य अस्वभाविक है; लेकिन लघुकथा बहुत ही सशक्त और कसी हुई है। संस्कारों से बँधे पिता और स्वार्थी, संवेदनाहीन संतान का सशक्त चित्रण है। शेफाली झा की समीक्षा भी उसी तरह कसी हुई और सशक्त है।

यद्यपि डॉ. लता अग्रवाल ने अशोक वर्मा की लघुकथा ‘संस्कार’ को एक श्रेष्ठ लघुकथा बताया है, पर मुझे रचना में प्रयोग किए गया प्रतीक अटपटा लगा;  क्योंकि वहाँ साँड, गाय का सगा बेटा है, दूसरा ये विकृति केवल गाँवों तक सीमित नहीं है, पूरे मानव जगत में है, विश्वव्यापी है। डॉ.चन्द्रेश कुमार छतलानी की रचना ‘ अन्नदाता’राजनीति में नेताओं के चुनाव में प्रपंच जैसे पुराने विषय पर लघुकथा है, जिसको पाठक बीच में ही भाँप लेता है। रजनीश राम, उर्मिला दीक्षित की समीक्षा में सब कुछ है, बस रचना की समीक्षा नहीं है। अनूप बंसल मधुकांत की लघुकथा ‘विश्वास का पुल’ रिश्तों में संवाद से समाधान के महत्त्व का संदेश देती अच्छी लघुकथा है। डॉ. लता अग्रवाल ने अपनी समीक्षा के बाइसकोप से पाठकों को लघुकथा अच्छी तरह से समझाई है।

राहिला आसिफ की लघुकथा ‘दो इस्लाम’ इस अंक की उपलब्धि है। आज के विश्व की सबसे बड़ी समस्या को चुनौती देती इस रचना में भाषा, घटनाक्रम, संवाद सभी संतुलित हैं । शैली भी रोचक है, अतिप्रभावशाली हैं;  लेकिन समीक्षा में शेख शहजाद उतने प्रभावशाली नहीं है, संप्रेषण की समस्या है। शेख का ये कहना कि कट्टरता के कारण अन्य धर्मों में भी दो चेहरे होते हैं, बिल्कुल संदर्भहीन है, अनुचित है, सीमा का अतिक्रमण है। अन्य धर्मों में छोटी-छोटी बात या केवल अफवाह पर-पर दंगा, लूटपाट, सर कलम नहीं किया जाता। इसी प्रकार पृष्ठ 63पर सुधीर द्विवेदी की लघुकथा ‘जगह’ स्वच्छता और पर्यावरण पर समसामयिक, कसी हुई, सशक्त और सुन्दर रचना है, पर स्मिता श्री की समीक्षा में लय की कमी के कारण उतना मजा नहीं आया। पृष्ठ 69 पर उषा भदौरिया की रचना ‘सिक्सटी प्लस’ महानगरों में वृद्धों के अकेले रह जाने से उत्पन्न समस्याओं पर अच्छी लघुकथा है,  पर आधुनिक बच्चों का माँ के फेसबुक फ्रेंड होने की बात पर अचम्भे-अविश्वास वाली प्रतिक्रिया गलत है, अनावश्यक नाटकीयता है। समीक्षा में महिमा श्रीवास्तव वर्मा ने इस लघुकथा से जुड़ी एक कथा का ही वर्णन कर डाला।

पृष्ठ 77 पर एक अज्ञात लेखक की एक पंक्ति की लघुकथा वास्तव में एक जबरदस्त व्यंग्य है। समीक्षा भी ठीक-ठाक है। संजय पुरोहित की लघुकथा ‘मुखौटे’ इस सत्य का बहुत अच्छा चित्रण है कि हर आदमी चेहरे पर चेहरा लगाए है। स्वाति जोशी की समीक्षा भी उतनी ही संक्षिप्त होते हुए भी पूर्ण है। पृष्ठ 96 पर मृणाल आशुतोष की लघुकथा ‘डीएनए टेस्ट’ समाज में महिलाओं के सशक्तीकरण के कारण वधू पक्ष के बदलते तेवरों पर अच्छी रचना है। कविता वर्मा ने समीक्षा में लघुकथा के अंत पर जो टिप्पणियाँ की हैं, मैं उनसे सहमत नहीं हूँ। पृष्ठ 110 पर सीमा भाटिया की लघुकथा ‘आईना बोल उठा’ आज के समाज पर अच्छी रचना है, जिसमें एक स्त्री का तलाक की त्रासदी से सफलतापूर्वक उभरना दिखाया है। अरुण धर्मावत की समीक्षा बहुत अच्छी है, प्रोफेसर अखिलेश पर उठाया गया प्रश्न बहुत उचित है।

योगराज प्रभाकर की ‘बीज मंत्र’ , पुरानी पीढ़ी का अपनी जड़ों से लगाव और सामाजिक दायित्व के प्रति समर्पण, प्रकृति से लगाव, अभाव में भी संतोष तथा नई पीढ़ी की शहरी सोच पर बहुत अच्छी लघुकथा है। शीर्षक जरूर थोड़ा बेमेल लगा। मनोरमा जैन पारखी की समीक्षा भी बहुत अच्छी है। रोहित शर्मा की लघुकथा ‘पुरानी मिठास’ मानव मन की बहुत अच्छी रचना है। संवादों के माध्यम से पुराने प्यार की याद दिलाना अच्छा लगा। कमल नारायण मल्होत्रा की छोटी-सी समीक्षा लम्बी समीक्षाओं की अपेक्षा ज्यादा प्रभावशाली है। मधुदीप की लघुकथा ‘ मजहब’ एक सशक्त रचना बनते-बनते रह गई। पढ़ने के बाद ऐसा लगा कि कुछ ऐसा है, जो नहीं कहा गया, कुछ ऐसा है जो नहीं कहा जाता, तो अच्छा रहता। अनुराग शर्मा की समीक्षा भी पूरी तरह न्याय नहीं कर सकी। लेखक और समीक्षक दोनों ये समझने में चूक गए कि वह फौजी हिन्दू / हिन्दुस्तानी फौजी है, इसलिए उसका व्यवहार ऐसा है, इतना सहिष्णु है।

माँ की ममता के कई रूप हैं। डॉ. लता अग्रवाल ने अपनी लघुकथा ‘ममता’ में ममता कि एक अलग रूप के दर्शन कराए हैं, भाषा में आंचलिकता का समावेश अच्छा है। सराहनीय लघुकथा है; लेकिन भूपेन्द्र कौर भोपाली की समीक्षा में कुछ अधूरापन लगा। कान्ता राय की लघुकथा ‘ टी 20 अनवरत’अच्छी लघुकथा है, पर बहुत अच्छी होने से रह गई;  क्योंकि उपमाएँ ठीक से नहीं बैठाई गईं थोड़ा और समय तथा ध्यान देने की जरूरत थी। मिनी मिश्रा ने शीर्षक को सही नहीं बताया है, मैं असहमत हूँ डॉ. जेन्नी शबनम की’ पहचान’अलग रंग की साफ सुथरी अच्छी लघुकथा है। अंत बहुत ही सशक्त है। ‘अपराजिता अजितेश’ जग्गी की समीक्षा भी उतनी ही अच्छी है।

लेखकों में प्रवृत्ति होती है कि कुछ अनोखा प्रयोग करके ढेर सारी प्रशंसा बटोर लें। कान्ता राय की लघुकथा ‘रंडी’ में कुछ ऐसा प्रयास ही लगता है। मुझे ये रचना बिल्कुल बेतुकी और नकारात्मक लगी। आरम्भ ही बेतुका है। एमएनसी में एचआर के पद पर काम करनेवाले का वेतन 20 लाख से 50 लाख सालाना तक होता है। अपने लिए पति के मुँह से रंडी शब्द सुनकर एक मिनट भी नहीं रुकेगी जिन्दगी भर तो दूर की बात है, लात मार।कर चली जाएगी। नारी सदा ही जिजीविषा, संघर्ष के लिए जानी गई है। जबकि वेश्यावृत्ति पराजय को स्वीकार करना है, आत्मसमर्पण है। वेश्यावृति ऐसा व्यवसाय है, जो अपने त्याग, अपने संस्कारों, अपने संघर्ष से हमारे घरों को बसाने, पति के संघर्ष में सम्बल बनने वाली, बच्चों को संस्कार देने वाली गृहणियों को मुँह चिढ़ाने की कोशिश करता है। कारण या उद्देश्य कुछ भी हो वेश्यावृत्ति का महिमामंडन स्वीकार्य नहीं है। ऐसी लघुकथा न छापी जाएँ, तो अच्छा रहेगा। सीमा भाटिया नारी होते हुए भी अपनी समीक्षा में प्रभावित नहीं कर सकीं। बारीक विश्लेषण की अपेक्षा थी।

भगीरथ परिहार का लघुकथा पर गूढ़ लेख लघुकथा के शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी हो सकता है। चूँकि मेरा लघुकथा के विधान आदि पर ज्ञान न के बराबर है इसलिए मैं परिहार जी के लेख पर टिप्पणी करने में असमर्थ हूँ। चन्द्रेश छतलानी ने अपने आलेख में बहुत विस्तार से लघुकथा लिखने की तकनीक का वर्णन किया है, जो निश्चित ही नए लेखकों के लेखन में सुधार लाने की क्षमता रखता है।

योगराज प्रभाकर के साक्षात्कार से पहले रश्मि ने भूमिका में उनकी बहुत प्रशंसा की है। साक्षात्कार पढ़कर संतोष हुआ कि प्रशंसा में अतिशयोक्ति नहीं है। उनकी समझ और अभिव्यक्ति दोनों ही बहुत स्पष्ट हैं। लघुकथा में अछूते रह गए विषयों में जिन विषयों का जिक्र प्रभाकर जी ने किया है वह वास्तव में बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। उन विषयों पर न लिखा जाना हिन्दी लघुकथा को विश्वस्तरीय होने से रोक रहा है। योगराज जी ने दुनियाभर में धार्मिक अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचारों को भी एक अछूता विषय बताया। इस पर थोड़ा स्पष्टीकरण अपेक्षित है;  क्योंकि ऐसा केवल मुस्लिम देशों में होता है, दुनियाभर में नहीं। अंत में योगराज जी से मेरा भी एक प्रश्न। लघुकथा में लॉजिक का कितना महत्त्व है, फैंटेसी और लॉजिक में संतुलन कितना महत्त्वपूर्ण है।

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सेतु:कथ्य से तत्व तक- सम्पादक-शोभना श्याम और मृणाल आशुतोष, प्रकाशक का नाम-मनोजवं प्रकाशन,मनोजवं पब्लिशिंग हाउस,मोहब्बेवाला गोल मार्केट, देहरादून,उत्तराखंड- 248002,संस्करण-द्वितीय 2021(प्रथम संस्करण 2020),मूल्य- 250₹,पृष्ठ-141

-0-4-7-126,ईसामिया बाजार,हैदराबाद -500027


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