1-तलाश
“क्या कर रहा है यहाँ ?” बंद सीलन -भरी गली में उस बूढ़े को देख वो चिल्लाया।
“अपनी बेटी की ओढ़नी ढूँढ रहा हूँ।” बूढ़े ने आँखें और गड़ा दीं।
“यहाँ क्यों?”
” वो कह रही है, इसी गली में खोई है।”
“फिर मिली ?”
“अब तक तो नहीं। सुना है तार-तार कर दी।”
“तू भी पागल है !खोई हुई चीज भी मिलती है कभी। अच्छा बता बेटी यहाँ भेजी ही क्यों थी तूने?”
“भूख से लड़ने।”
“कौन थे वो ? पता चला कुछ ?”
“हाँ चल गया पता।”
“कौन ! उसने राज़दराना अंदाज में पूछा।
“थे इंसानियत के दुश्मन।”
“किसी ने देखा तो होगा ये सब।”
” नहीं। सब मुर्दा थे।”
“फिर अब क्या ढूँढ रहा है ? टुकड़े हो चुकी होगी।”
“अब इंसानियत ढूँढ रहा हूँ।”
“हा हा हा !अब उसका क्या करेगा?”
“दूसरी बेटी की ओढ़नी बचाऊँगा। पर तू यहाँ क्या कर रहा है ?”
“मैं भी बरसों से वही तलाश रहा हूँ। चल मिलकर ढूँढते हैं।
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2-बदलते दृष्टिकोण
सुबह-सुबह पूजा के लिए फूल तोड़ती मीनू माँ की आवाज पर रुक गई। वह गुस्से में जोर-ज़ोर से चिल्ला रही थीं। सदा की तरह निशाना भाभी थीं। जल्दी से गुलाब तोड़ अन्दर भागी मीनू।
“क्या हुआ माँ? इतनी गुस्सा क्यों हो रही हो ?”
“तो और क्या करूँ? बता! इतने दिनों में घर के तौर-तरीके नहीं सीख पाई ये। कोई काम ढंग से नहीं होता इससे। एक तो महारानी जी चाय अब लाई हैं, उसमें भी चीनी कम।” माँ ने गुस्से में ही जवाब दिया।
“माँ मेरी चाय में तो चीनी सही थी, फिर तुम्हें क्यों कम लगी?” मीनू ने प्रश्नवाचक नजरों से भाभी को देखा। “वो दीदी!माँ जी की चाय में ज्यादा चीनी डालने पर आपके भाई नाराज होते हैं। माँ को शुगर है न।” भाभी ने सहमे स्वर में ननद को जवाब दिया।
“बस! सुन लो इसका नया झूठ। अब मुझे मेरे बेटे के खिलाफ भड़का रही है। वो मना करता है इसे!” माँ जी का गुस्सा और बढ़ गया।
“माँ! भाभी ठीक ही तो कह रही हैं। आप डायबिटिक हो। ज्यादा मीठी चाय पिओगी तो आपको ही दिक्कत होगी।”
“अच्छा जी! तो अब ये भी बता दे कि मेरे लिए सब्जी में नमक, मसाले और तेल क्यों नाम का डालती है ? उसमें किसने मना किया है इसे ?” माँ ने व्यंग्य के स्वर में पूछा बेटी से।
“माँ! आप भी जानती हो। हृदय रोगी हो आप और ये सब नुकसान देता है आपको।”
“अच्छा देर तक भी इसीलिए सोती होगी कि जल्दी उठने से मेरी बीमारी बढ़ जायेगी।”
“माँ! क्या देर से उठती हैं भाभी? आजकल कौन उठता है सुबह पाँच बजे! फिर रितु कितनी छोटी है। रात भर जगाती होगी भाभी को।” मीनू ने माँ को समझाना चाहा।
“और क्या दुख हैं इसे! यह भी बता… और तू कब से इसकी इतनी तरफ़दारी करने लगी! कल तक तो मेरी हाँ में हाँ मिलाती थी!!”माँ ने आश्चर्य से बेटी को देखते हुए कहा।
हाथ में पकड़े गुलाब का काँटा जोर से चुभ गया मीनू के हाथ में। नजरें झुकाकर जबाब दिया, “तब मैं किसी की भाभी नहीं थी माँ।”
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3-अहल्या
एक बार फिर अहल्या इंद्र से छली गई थी। इस बार इंद्र को गौतम ऋषि का चोला ओढ़ने की आवश्यकता नहीं थी। न चंद्रमा को इस बार इस कुकृत्य में भागीदार होना पड़ा। इस युग का इंद्र घर में ही था और अवसर मिलते ही अपनी कुटिल चाल में कामयाब हो गया था। गौतम ऋषि ने एक बार फिर शाप के लिए मुख खोला कि अहल्या ने अपने को शीशे की पारदर्शी दीवारों में बंद कर लिया। गौतम ऋषि को ज्ञात हुआ ये अहल्या भी निर्दोष थी।
अब वो शीशे की दीवार के पार से उसे सिर्फ देख सकते थे। स्पर्श के द्वार इस बार अहल्या ने बंद किए थे। ऋषि की कोई भी पुकार शीशे के पार से लौट जाती। ऐसे ही समय बीतता रहा। इस बार सजा ऋषि को मिली थी एक निर्दोष को शापमुक्त न करा पाने की। ऐसे ही सालों बीत गए। ऋषि को अपनी अहल्या को इस शाप से मुक्ति दिलानी थी। उनकी करुण पुकार पर धरती माता प्रकट हुईं। एक कोमल स्नेहिल स्पर्श से अहल्या की मृगनयनी आँखों से वर्षों से रुकी अश्रुधारा बहने लगी।
“बेटी, तूने अपने को सजा क्यों दे दी? तू पत्थर क्यों बन गई ? बाहर आ बेटी। देख !तेरा गौतम तुझे पुकार रहा। “
“माँ! मैंने सजा मैंने कहाँ दी ? विश्वास की डोर टूटने से हर नारी पत्थर हो जाती है। कितने ही इंद्र आज भी बिना सजा घूम रहे। और पत्थर बन रही युग- युगान्तर से नारी। ऋषि ने इंद्र को सहस्र आँखों का शाप न दे सजा दी होती तो पुरुष के रोम- रोम में बिंधी ये आँखें आज भी स्त्री को न बेध रही होती और कोई पुरुष उसे पत्थर न बना पाता।”
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4-बोनसाई
“चल तुझे फुरसत तो मिली मुझसे मिलने की । पुरस्कृत होने पर ढेर सारी बधाई तुझे” चहकते हुई अवि ने अपनी सखी अनु को गले लगाते हुए कहा।
“थैंक्स यार! फुरसत तो सच में मुश्किल से ही मिली है; लेकिन ये तेरा प्यार है, जो सौ काम छोड़ तुझसे मिलने आती हूँ। तू तो कभी बिटिया के लिए कोचिंग ढूँढने में व्यस्त रहेगी। कभी उसे पढ़ाने में। एक शहर में रहते हुए भी मिलने नहीं आ सकती ।” शिकायती लहजे में बोली अनु।
“सॉरी यार! लेकिन तुझसे रोज ही बात कर लेती हूँ। रूटीन टफ है थोड़ा । ऑफिस, बच्चे, घर । इसी कारण मिलने कम आ पाती हूँ अनु; लेकिन तेरी चित्र -प्रदर्शनी देखने जरूर पहुँचती हूँ। फिर कैसे कह सकती है ऐसा ?और तू भी तो कहाँ घर पर रुक पाती है ?”अवि ने मुस्कुराकर कहा।
“तभी तो मैं तेरे लिए दुखी हूँ।”
“मेरे लिए दुखी! वो क्यों अनु ? मुझे क्या हुआ?” आश्चर्य से बोली अवि।
“अवि! तू भी मेहनत करती, तो मेरी तरह पुरस्कार न सही, लेकिन कुछ नाम तो होता तेरा भी आज। कैनवास पर रंग तो तूने भी मेरे साथ ही बिखेरे; पर देख न तू कहाँ रह गई और मैं कहाँ पहुँच गई?” गर्व मिश्रित स्वर में कहा अनु ने।
“अच्छा है अनु तू पुरस्कृत हो रही है। मुझे भी खुशी हो रही है मेरी सखी प्रगति के पथ पर अग्रसर है। लेकिन तू जानती है ये मेरी प्रिऑरिटी नहीं अभी। बच्चों का भविष्य बनाना ही मेरा उद्देश्य है अभी। ये फिर कभी जब समय मिला। और रंग तो अभी भी बिखेर लेती हूँ कैनवास पर” -अवि मुस्कुराई
“क्या अवि तू भी? पति क्या करते हैं तेरे सारे दिन ?बच्चे उनके भी हैं ,तेरे अकेले के ही नहीं। तू क्यों अपनी प्रतिभा दबा रही है ?”
“बच्चे हम दोनों के हैं, ये ठीक कहा अनु; लेकिन सारा दिन थक जाते हैं। ऑफिस का लोड उन पर भी है। जितना वक्त मिलता है, वो भी देखते हैं बच्चों को।”
“छोड़ तू मानेगी थोड़े ही कि तू नौकरानी बन गई है अपने ही घर की। खैर छोड़, ये बात! चल मेरे साथ ,एक बहुत बड़े कलाकार की पेंटिंग की प्रदर्शनी लगी है। “
“नहीं अनु। फिर कभी। बच्चे घर आते होंगे। पिछले दिनों रुचि के एन्ट्रेंस एक्जाम के लिए छुट्टियाँ ली थीं तो काफी काम पेंडिग है ऑफिस का।”
“तूने छुट्टियाँ क्यों लीं? मेरी बेटी का भी एक्जाम था रुचि के साथ ही। मैं तो घर नहीं रुकी। इतनी बड़ी हो गई है अपना काम खुद देखे। तू शुरू से ही महान है। कितने ही साल तूने अपने हाथ से खाना खिलाया है रुचि को। मैंने ये झंझट कभी नहीं पाले। तेरा तो प्रमोशन भी ड्यू था इस साल।”
“हाँ। तो क्या हुआ? अगली बार हो जाएगा। रुचि रात में अकेले जल्दी सो जाती है। साथ में मैं रही तो ठीक से पढ़ पाई। प्रि-मेडिकल था तो नर्वस थी थोड़ी।”
” तू भी न! वो अपनी बनाई पेंटिंग देख रही है गमले में लगे बोनसाई की। बिल्कुल उसी के जैसे तुझे काट -छाँट कर सजावटी वस्तु बना दिया गया है। बस फर्क है तू घर की बोनसाई है और वो गमले का।”
“माँ!कहाँ हो तुम ?”दोनों बच्चों का समवेत स्वर गूँजा । “यहाँ हूँ बेटा ड्रांइग रूम में। तुम्हारी अनु मौसी के साथ।”
“अरे वाह! मौसी भी आई हैं।”
“तेरा रिजल्ट आने वाला था बेटा । मैं बातों में देख नहीं पाई।”
“वही मैं कहूँ! माँ को दीदी से ज्यादा इंतजार था उनके रिजल्ट का जैसे माँ ने ही पेपर दिए हों फिर माँ ने देखा क्यों नहीं अब तक ?माँ दीदी ने टॉप रैंक ली है प्रि मेडीकल में।”खुशी से चिल्लाया बेटा।
“ओह पेपर रिशू ने भी दिया था। मुझे तो याद ही नहीं रहा आज रिजल्ट आने वाला है। फोन करती हूँ घर” अनु को जैसे याद आया।
“मौसी रिशू का सलेक्शन नहीं हो पाया। वो काफी दुखी थी। उसने मेहनत काफी की; लेकिन कुछ कॉन्सेप्ट क्लीयर नहीं हो पाए। माँ आपने सच में बहुत अच्छे टीचर सलेक्ट किए मेरे लिए। आपके बिना ये मुश्किल था”- बेटी लाड़ से कँधों पर झूल गई।
अवि के कन्धों पर झूलती यह जीवन्त पेंटिग अनु को बहुत कुछ समझा गई।
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5-हूर्छन
“दीदी, आपके दोनों बेटों मनु और आकाश से तो मिल ली, लेकिन आपकी बेटी नहीं दिखी मुझे अब तक।” लगभग एक वर्ष बाद दूर के रिश्ते की बहन से मिलने पहुँची रचना ने कहा।
“किस बेटी की बात कर रही है, रचना?”
“आपकी बेटी, जिसे आपने पिछले वर्ष ही गोद लिया है।” रचना ने मुस्कराकर कहा।
“ओह! तो तुम महक को पूछ रही हो।”
“हाँ दीदी, बहुत ही नेक काम किया आपने। समाज में एक सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है, एक लड़की को गोद लेकर…भविष्य सुधर जायेगा बेचारी अनाथ लड़की का।” रचना गर्व-मिश्रित स्वर में बोली।
“मिल लेना उसे भी। अभी आराम कर रही है ।” दीदी ने धीमे स्वर में कहा।
“दीदी आपकी ये नई काम वाली काम बहुत अच्छा करती है। साफ-सफाई से घर कितना चमका रखा है। खाना भी बड़े प्यार से परोसा और फिर फटाफट बरतन भी साफ कर दिए। कितना काम करती है।”
“रचना, धीरे बोल। सुन न ले वह। जिसे तू पूछ रही है, यही है वह महक।”
“महक! वह आपकी गोद ली हुई बेटी।” रचना ने हैरानी से पूछा।
“अरे काहे की बेटी। परेशान थी कामवालियों के नखरों से। मुँह-माँगे पैसे, उस पर अनगिनत छुट्टियाँ। अब इसे अनाथ आश्रम से गोद ले लिया। इससे सोसायटी में नाम भी और चाइल्ड लेबर एक्ट की परेशानी भी खतम।”
दीदी की आँखों में रचना को लोमड़ी की आँखों-सी चमक साफ दिख रही थी।
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6.गिद्ध
“छोड़ो मेरी मम्मी को । कोई हाथ नहीं लगाएगा मेरी माँ को” कहते हुए निधि माँ के शरीर से लिपट रोने लगी।
“निधि बेटी रो मत। होनी को कौन टाल सकता है?” बड़ी बुआ ने निधि को गले से लगा लिया। निधि के रोने में तेजी आ गई।
“बेटी! जा कोई नई साड़ी ले आ और नई न हो, तो जो सबसे ज्यादा पसंद थी भाभी को वह साड़ी ले आ। कीमती हो तो संकोच मत करना आखिरी शृंगार है ये इनका” बड़ी बुआ कहती हुई रो पड़ी।
“लो भाभी अलमारी की चाबी लो। मुझसे ये नहीं होगा।” बड़ी ननद भीगी आँखों से चाबी भाभी को थमाने लगी।
“दीदी! मुझसे भी नहीं होगा।”
अचानक छोटी बहू छवि ननद से चाबी छीनकर बोली- “मुझे दो चाबी। मुझे पता है वह कहाँ क्या रखती थीं? मैं निकालूंगी मम्मीजी की पसंद की साड़ी।”
“ये क्या कर रही है छवि? अन्दर आकर देख न लें बुआ”- बड़ी बहू प्रीति बोली
“देखने दो दीदी । देखने की फिक्र की तो सारा जेवर हाथ से निकल जाना है। ये दोनों बहनें कुछ हाथ नहीं लगने देंगी हमारे।”
“कह तो तू ठीक रही है। फिर कुछ नहीं मिलेगा हमें।”
“बहू, तुम मम्मी के नहलाने को पानी ले आओ। बाहर ये कौवे इतना शोर क्यों मचा रहे हैं ?”
“कोई जानवर बाहर मरा पड़ा है बुआ।”
“ओह ये कौवे और गिद्ध भी न मरा व्यक्ति दौड़े चले आते हैं । छवि साड़ी जल्दी ला बेटा।”बुआ बोली
“ये लीजिए बुआजी।”
“ये क्या? जीजी पर इतनी साड़ियाँ थीं । ये इतनी पुरानी और फीके रंग की क्यों लाई हो ?”
“ये मम्मी को बहुत पसंद थी।”
“अभी कुछ दिन पहले जो शादी पहनकर आई थीं, वह साड़ी कहाँ है ? वही दे दो। अब ये कब इन्हें पहनने आयेंगी प्रीति?”
“छवि । बाहर सब शोर मचा रहे हैं। कोई दूसरी साड़ी दे।” प्रीति बोली
“दीदी पता है कितनी मँहगी है वह। कह दीजिए नहीं मिल रही । पता नहीं कहाँ रखी होगी मम्मी ने।”
“वो नहीं मिल रही बुआ।” प्रीति ने अचकचाते हुए कहा।
“अच्छा! सोने का टुकड़ा दो मुँह में डालने को और गंगाजल,दही भी साथ ही ले आना।
“बुआ जी ये लीजिए।”
“बहू! ये इतना छोटा तार दिखाई भी दे रहा है? जीजी की नाक की नथुनी कहाँ है? वही डालते हैं मुँह में।” अब बड़ी चाची थोड़े गुस्से में बोली।
“लाती हूँ।”
“छवि, वो मम्मी की नथ तो दे जो मम्मी के ऊपर से उतारी थी।”
“दिमाग खराब हो गया है बुआ का दीदी। इतनी भारी नथ मुँह में डाल दें । और आप भी दीदी क्या आपको नहीं चाहिए जेवर ?”
“छवि! चूडियाँ तो मैं ही लूँगी मम्मी की। जा उतार जल्दी मम्मी के हाथ से। कहीं बुआ वही न तोड़ कर डाल दें मुँह में।” अब प्रीति अधीर हुई।
“कानों के मेरे हुए । कहे देती हूँ दीदी। वैसे भी वो मुझे बहुत पसंद हैं।” छोटी बहू जल्दी से बोली।
“ये जेवर हार रखे तो मेरी शादी के लिए थे मम्मी ने; लेकिन आप दोनों को ज्यादा जरूरत है भाभी। अब साड़ियों का भी बता दो ।”छोटी ननद व्यंग्य से बोली।
“मम्मी की साड़ियाँ मेरी पसंद की हैं। तो मेरी ही हुई। वैसे भी तुम क्या करोगी ? आजकल की लड़कियाँ कहाँ पहनती हैं साड़ी।”
“छवि! कुछ मुझे भी देगी।”
“हाँ हाँ। सब बाँट लेंगे दीदी आधा आधा।”
“कहाँ रह गई तुम सब? देर हो रही है ले जाने में। फिर रात में दाह-संस्कार नहीं होता।” बाहर से बुआ की आवाज आई।
“छवि!जल्दी कर।”
“हाँ रूको। देखने तो दे मुझे। कौन सी साड़ी देने से नुकसान कम होगा अपना।”
बाहर कौवों को शोर बढ़ता जा रहा था। और अन्दर बुआ की आवाज दबती जा रही थी।
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