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लघुकथा की विकास-यात्रा में उत्तर प्रदेश का योगदान

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समकालीन लघुकथा का औपचारिक आरंभ 1971 से माना जाता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि लघुकथा का जन्म 1971 में हुआ है। लघ्वाकारीय कथात्मक रचनाओं से हमारा पुरातन साहित्य भरा पड़ा है। प्राप्त जानकारियों के अनुसार बीसवीं सदी के चौथे दशक तक, स्वभाव से प्राचीन लघ्वाकारीय कथात्मक रचनाओं से कुछ अलग लघ्वाकारीय कथा रचनाएँ सामने आना आरंभ हो जाती हैं। साहित्य के अन्य रूपों के मध्य कुछेक रचनाएँ उससे पहले भी देखने को मिल जाती हैं। पाँचवें दशक में लघुकथा शब्द प्रचलन में आ जाता है। इसी के साथ इन रचनाओं की स्वभावगत भिन्नताएँ, विशेषतः छठे दशक में क्रमशः और स्पष्ट होना आरंभ हो जाती हैं। यह प्रक्रिया सातवें दशक के अंत तक चलती है, जब नई पीढ़ी के अनेक कथाकार इन भिन्नताओं के स्वरूप को अपने समय की आवश्यकताओं के साथ जोड़कर देखना आरंभ करते हैं और उनके आधार पर एक भिन्न कथारूप की पहचान करके उसकी स्थापना, विकास और स्वीकार्यता के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयास आरंभ कर देते हैं। इस प्रकार 1971 से समकालीन लघुकथा का युग आरंभ होता है। यहाँ दो बातें स्पष्ट हैं, लघुकथा का वास्तविक युग समकालीन लघुकथा के आन्दोलनबद्ध होने से लगभग तीन दशक पहले ही आरंभ हो चुका था और कुछ लघुकथाएँ कथा से भिन्न रूपाकारों एवं विधागत संज्ञाओं से विभूषित होकर भी रची जा रही थीं, जिनमें समकालीन लघुकथा के बीज विद्यमान मिलते हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र की परिहासिनी (1876) में शामिल ‘अंगहीन धनी’ जैसी रचनाएँ एवं रामवृक्ष बेनीपुरी के शब्दचित्रों के संग्रहों- ‘लाल तारा’ (रचनाकाल 1938-39) में शामिल ‘कुदाल’ जैसी एवं ‘गेहूँ और गुलाब’ (रचनाकाल 1948-50) में शामिल ‘पनिहारिन’ जैसी रचनाएँ उदाहरण हैं। इस (1971 के पूर्ववर्ती) कालखंड की लघुकथाएँ सामूहिक रूप से समकालीन लघुकथा की विशिष्टताओं को एक साथ, एक रूपाकार में प्रदर्शित नहीं कर सकीं। सामान्यतः लेखकों द्वारा अपने समय की आवश्यकताओं, भाषा-शैली एवं जीवन-मूल्यों व उनसे जुड़ी आस्थाओं के अनुरूप लघुकथाओं को रचा गया, जबकि उनके कुछ समकालीनों ने भविष्य के पदचिह्नों को पहचानकर तदनुरूप कुछ ऐसी लघुकथाओं की रचना की, जिनमें कथ्य ही नहीं, भाषा-शैली और अन्य तकनीक के स्तर पर 1971 के बाद जैसी समकालीनता देखने को मिल जाती है।
1971 के बाद की लघुकथा अपनी पूर्ववर्ती लघुकथा से पूर्णतः भिन्न है, जिसमें आज़ादी के बाद भारतीय समाज में आए परिवर्तनों का प्रतिबिंब देखने को मिलता है। आज़ादी के बाद की पीढ़ी ने न तो आज़ादी का संघर्ष देखा, न ही ग़ुलामी के अपमान और पीड़ा से भरी परिस्थितियों को। दूसरे, सत्ता का लालच, राजनैतिक दाँव-पेंच, आज़ादी के बाद स्वशासित व्यवस्था से आकांक्षाओं की पूर्ति न होने से जनित निराशा, सामाजिक-आर्थिक भेदभाव, जीवन-स्तर एवं आर्थिक संप्रभुता की होड़ और उनसे जनित परिस्थितियों के उभार के साथ बाबुओं और इंसपेक्टरों के राज की बुनी हुई परिस्थितियों ने मनुष्य के चरित्र और आकांक्षाओं के ताने-बाने को बदलकर रख दिया। वैचारिक स्तर पर आम आदमी की पक्षधरता के नाम पर उसे अपने जबड़ों में दबोचकर रखने वाली एक नई क़ौम का उदय भी हुआ। इस तरह की तमाम चीज़ों और उनके परिणामों के प्रभाव से जनित समकालीनता ने लेखन की भाषा-शैली और व्यंजनात्मक कथ्यों को नव्यता की कोंपलों से आच्छादित करना आरंभ कर दिया। अनुभति की प्रकृति व सान्द्रता और उसके संप्रेषण की तीव्रता में अभूतपूर्व परिवर्तन आया। ये परिवर्तन कविता और कथा साहित्य- दोनों में प्रतिबिम्बित हुए। लंबी कविताएँ और लंबी कहानियाँ लिखीं अवश्य गईं, किंतु अभिव्यक्ति की छटपटाहट जीवन के हर पक्ष से जुड़ी अलग-अलग संवेदना और अलग-अलग अनुभूति में निहित दिखाई देने लगी। परिणामस्वरूप कविता और कहानी- दोनों में घनीभूत अभिव्यक्ति के तीव्र संप्रेषण ने नए विधागत स्वभावों के संयोग उत्पन्न किए। इसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप लघुकथा का नया अवतार नई पीढ़ी की नई ऊर्जा के साथ एक नए युग के निर्माण की आकांक्षा लेकर सामने आया। समकालीन लघुकथा के रूप में कथा साहित्य की रचनात्मक नव्यता का यह आंदोलन यूँ तो किसी न किसी रूप में पूरे देश में चला, किंतु हिन्दीभाषी प्रांतों में कुछ अधिक स्फूर्तिवान बना, शायद इसलिए कि हिंदी बोलने-समझने वालों का क्षेत्रीय दायरा अधिक बड़ा है। दूसरा कारण मेरी दृष्टि में यह रहा होगा कि सत्ता और राजनीति के केंद्र के सर्वाधिक निकट होने के कारण लघुकथा की विषयवस्तु बनी स्थितियों-परिस्थितियों के सबसे निकट और सबसे अधिक भोक्ता बने लोगों का संकेन्द्रण इसी क्षेत्र में रहा है।

यद्यपि लघुकथा के विकास में समस्त हिन्दीभाषी प्रांतों ने एक इकाई की तरह काम किया, किंतु स्थानीय सहभागिता की दृष्टि से उत्तर प्रदेश ने सबसे बड़ा प्रदेश होने के सानुरूप लघुकथा के आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। भले ही उत्तर प्रदेश से पत्र-पत्रिकाओं के लघुकथा विशेषांक अपेक्षित संख्या में नहीं आ पाए हों; किंतु पर्याप्त संख्या में लघुकथा लेखन की ओर आकृष्ट युवा लेखकों की टीम व लघुपत्रिकाओं ने लघुकथा लेखन, उसके फुटकर प्रकाशन, विमर्श एवं अन्य गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
यदि हम समकालीन लघुकथा के पूर्ववर्ती (1971 से पहले) कालखंड की लघुकथा संबंधी सक्रियता की बात करें तो हमें काफ़ी पीछे जाना होगा। भारतेंदु हरिश्चन्द्र (बनारस) की भूमिका को उनकी रचना ‘अंगहीन धनी’ के पहली लघुकथा होने के साथ परिहासिनी (रचनाकाल 1875-80) में शामिल रचनाओं में उपलब्ध प्रभावी कथासूत्रों के लिए जाना जाता है। अन्य प्रमुख साहित्यकारों में प्रेमचंद (बनारस), जयशंकर प्रसाद (बनारस), कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (सहारनपुर), (आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र (सहारनपुर), पाण्डेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’ (मिर्जापुर), सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला (प्रयाग), रावी (हमीरपुर/आगरा), विष्णु प्रभाकर (मुजफ्फरनगर/नोएडा), काशीनाथ सिंह (चंदौली/बनारस), विनायक (फैजाबाद), शरदकुमार मिश्र ‘शरद’ (सहारनपुर) आदि की लघुकथाओं की व्यापक चर्चा होती रही है। इन सभी ने कुछ-न-कुछ लघुकथाएँ अवश्य लिखी हैं। माना जाता है कि इनमें से कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर (आकाश के तारे: धरती के फूल/1957), आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र (पंचतत्व/1857, खाली भरे हाथ/1958, मिट्टी के आदमी/1966, ऐतिहासिक लघुकथाएँ/1971, उड़ने के पंख’, ‘धूल के फूल, माणिक मोती, हीरे-मोती), रावी (मेरे कथागुरु का कहना है-भाग 01 व भाग 02/क्रमशः 1958 व 1961, रावी की परवर्ती लघुकथाएँ/1984), विष्णु प्रभाकर (जीवन पराग, आपकी कृपा है, कौन जीता कौन हारा), विनायक (‘काक्रोची’) एवं शरदकुमार मिश्र ‘शरद’ (‘धूप और धुआँ’/1957) के लघुकथा संग्रह भी प्रकाशित हुए। इन साहित्यकारों की रचनाओं में अलग-अलग प्रकृति की लघुकथाएँ मिलती हैं और कई लघुकथाएँ किसी न किसी रूप में समकालीन लघुकथा के निकट हैं। इनमें प्रेमचंद की रचना ‘राष्ट्र का सेवक’, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की रचना ‘इन्जीनियर की कोठी’, जयशंकर प्रसाद की रचना ‘गूदड़ साईं’, रावी की रचना ‘भिखारी और चोर’, विष्णु प्रभाकर की लघुकथा ‘फ़र्क़’, शरदकुमार मिश्र ‘शरद’ की लघुकथा ‘स्नेह का स्वाद’ आदि का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
1971 के बाद की लघुकथा पर दृष्टि डालें तो लघुकथा के कई शीर्षस्थ व्यक्तित्त्व उत्तर प्रदेश से ही आते हैं। इनमें से जगदीश कश्यप (गाज़ियाबाद) संभवतः 1971 के पूर्व ही लघुकथा से जुड़ चुके थे और 1972-73 तक आते-आते वह लघुकथा की पत्रिका ‘मिनी युग’ का आरंभ भी कर चुके थे। मूर्धन्य कथाकार बलराम (कानपुर) भी लघुकथा-सृजन से 1970 में ही जुड़ चुके थे और बाद के वर्षो में उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लघुकथा के लिए जो समर्पित प्रयास किए, उनसे साहित्य की दुनिया का हर व्यक्ति परिचित है। यद्यपि रोज़ी-रोटी के सिलसिले ने लोगों की दृष्टि में उन्हें दिल्ली का बना दिया। 1972 में डॉ. बलराम अग्रवाल (बुलन्दशहर) व रामेश्वर कांबोज ‘हिमांशु’ (सहारनपुर) तथा 1973 में सुकेश साहनी (लखनऊ/बरेली) जैसे प्रमुख हस्ताक्षर लघुकथा सृजन की कमान सँभाल चुके थे। बाद में डॉ. बलराम अग्रवाल ने अपनी कर्मभूमि दिल्ली को बना लिया। राजेंद्र परदेसी (लखनऊ़), राजेन्द्रमोहन त्रिवेदी ‘बंधु’ (रायबरेली), नंदल हितैषी (प्रतापगढ़/इलाहाबाद) भी लघुकथा आंदोलन के आरंभ काल से ही लघुकथा से जुड़े वरिष्ठ लघुकथाकार हैं। 1977 में लघुकथा सृजन से जुड़े वरिष्ठ लघुकथाकार सतीशराज पुष्करणा की कर्मभूमि भले मुख्यतः बिहार रही हो, किंतु उनकी शिक्षा-दीक्षा एवं अंशतः उनकी कर्मभूमि भी उत्तर प्रदेश रही है। जन्मतः एवं संपर्क सूत्र की दृष्टि से मूर्धन्य कथाकार असग़र वजाहत साहब का संबंध भी (फतेहपुर/नोएडा) उत्तर प्रदेश से है। लघुकथा के समालोचक एवं सिद्धान्तकार के रूप में सुपरिचित मूर्धन्य साहित्यकार डॉ. कमलकिशोर गोयनका साहब (बुलन्दशहर) भी मूलतः उत्तर प्रदेश के हैं। यद्यपि वजाहत साहब व गोयनका साहब- दोनों की कर्मभूमि दिल्ली को माना जाता है। समकालीन लघुकथा सृजन से आंदोलन काल (बीसवीं सदी के अंत तक) में जुड़ने वाले उ. प्र. के अन्य प्रमुख रचनाकारों में जिनका नाम लिया जा सकता है, अकारादि क्रम में ये इस प्रकार हैं- अखिलेन्द्र पाल सिंह (गाज़ियाबाद), अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’ (लखनऊ), अनिल जनविजय (इटावा), अमर गोस्वामी (गाज़ियाबाद), अमरीक सिंह दीप (कानपुर), उमाशंकर मिश्र (गाज़ियाबाद), उमेश महादोषी (बरेली), अरविंद बेलवाल (बरेली), अवधेश श्रीवास्तव (हापुड़), अशोक गुप्ता (गाज़ियाबाद), ओमप्रकाश कश्यप (गाज़ियाबाद), कमल गुप्त (वाराणसी), कमलेश भट्ट ‘कमल’ (सुल्तानपुर/गाज़ियाबाद), कालीचरण प्रेमी (गाज़ियाबाद), किशन लाल (आगरा), कुँअर बेचैन (गाज़ियाबाद), के. पी. सक्सेना (लखनऊ), चित्रेश (सुल्तानपुर), दिनेश पाठक ‘शशि’ (मथुरा), दामोदर दत्त दीक्षित (लखनऊ), निर्मला सिंह (बरेली), प्रमोद कुमार बेअसर (कानपुर), प्रेम गुप्ता ‘मानी’ (कानपुर), पुष्कर द्विवेदी (इटावा), पुष्पा रघु (गाज़ियाबाद), भगवती प्रसाद द्विवेदी (बलिया), महेश चंद्र सांख्यधर (बिजनौर), मुद्राराक्षस (लखनऊ), डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव (लखनऊ), रघुनाथ प्यासा (मुराद नगर), रमेशचंद्र श्रीवास्तव (मऊ/लखनऊ), रमेश गौतम (बरेली), रमेश राज (अलीगढ़), राजेन्द्रकृष्ण श्रीवास्तव (लखनऊ), राजकुमार गौतम (नोएडा), राजेंद्र वर्मा (लखनऊ), डॉ. रामबहादुर व्यथित (बदायूँ), विनोद कपाड़ी शांत (नोएडा), विपिन जैन (गाज़ियाबाद), विष्णु सक्सेना (गाज़ियाबाद), वी. के. जौहरी ‘बदायूँनी’ (बरेली), वेदप्रकाश अमिताभ (अलीगढ़), श्याम बिहारी श्यामल (वाराणसी), शराफ़त अली खान (बरेली), स्वप्निल श्रीवास्तव (फैजाबाद), सुरंजन (गाज़ियाबाद), सुरेंद्र सुकुमार (अलीगढ़), सुधा शर्मा (मेरठ) सुधाकर शर्मा आशावादी (मेरठ), सुनील कौशिश (मुराद नगर), सुरेंद्र कुमार अरोड़ा (गाज़ियाबाद), श्रीराम शुक्ला ‘राम’ (फतेहपुर), हरिशंकर शर्मा (बरेली), हरिशंकर सक्सेना (बरेली) आदि। वरिष्ठ लघुकथाकारों में कई और भी ऐसे हैं, जो जन्मतः उत्तर प्रदेश के हैं या जिनकी आरंभिक कर्मभूमि उत्तर प्रदेश रही है; किंतु बाद में अन्य राज्यों को उन्होंने अपनी कर्मभूमि बना लिया। इनमें अशोक मिश्रा, अशोक वर्मा, आभा सिंह, रूपसिंह चन्देल, सुभाष नीरव, विभा रश्मि, हीरालाल नागर, डॉ . उपमा शर्मा, रोचिका शर्मा आदि प्रमुख हैं।
आलेख की सीमाओं के दृष्टिगत उत्तर प्रदेश में अनवरत क्रियाशील लघुकथाकारों में से, जिनकी जितनी जानकारी विभिन्न स्रोतों से प्राप्त करना संभव हो पाया है, उसके अनुरूप यहाँ उनके योगदान की संक्षिप्त चर्चा करना प्रासंगिक होगा।
स्व. जगदीश कश्यप (01.12.1949-17.08.2004) समकालीन लघुकथा के पुरोधाओं में अग्रणी थे। उन्होंने न केवल महत्त्वपूर्ण लघुकथाओं का सृजन किया, लघुकथा के इतिहास एवं विकास यात्रा के सूत्रों की खोज एवं उसके संरचनात्मक स्वरूप पर भी पर्याप्त काम किया। समीक्षात्मक-समालोचनात्मक कार्य एवं संपादन के माध्यम से लघुकथा के प्रचार-प्रसार एवं स्वीकार्यता के लिए उनका समर्पण स्मरणीय है। उन्होंने नई पीढ़ी के अनेकानेक साहित्यकारों को लघुकथा-सृजन से जोड़ने का प्रयास भी किया। अंतिम ग़रीब, ब्लैक हार्स, साँपों के बीच, सरस्वती-पुत्र, सीढ़ी से उतरते हुए, उपकृत, दूसरा सुदामा आदि उनकी महत्त्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं। वह पहले लघुकथा संकलन ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ (1974/संपादक: रमेश जैन व भगीरथ) में भी शामिल हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं के साथ इण्टरनेट पर कई साइट्स पर उनकी लघुकथाएँ सहज उपलब्ध हैं। ‘कोहरे से गुज़रते हुए’ उनका लघुकथा संग्रह है। उनके परिचय में कुछ जगह उनके ‘नागरिक’ एवं ‘क़दम-क़दम पर हादसे’ संग्रहों की भी चर्चा की गई है। ‘छोटी-बड़ी बातें’ (महावीर प्रसाद जैन के साथ) एवं ‘विरासत’ तथा उनकी मृत्योपरान्त प्रकाशित ‘बीसवीं सदी की चर्चित हिंदी लघुकथाएँ’ उनके द्वारा संपादित लघुकथा संकलन हैं। लघुकथा की अनियतकालिक पत्रिका ‘मिनी युग’ का 1972-73 से प्रकाशन एवं संपादन भी उन्होंने किया। वह अखिल भारतीय लघुकथा मंच के महासचिव भी रहे। माना जाता है कि ख़लील जिब्रान में उनकी अटूट आस्था थी। कथाकार सुरंजन द्वारा संपादित पत्रिका ‘कथा संसार’ (गाज़ियाबाद) ने मरणोपरान्त उनके व्यक्तित्त्व व कृतित्व पर लघुकथा विशेषांक-2005 में विस्तृत चर्चा की है।
उत्तर प्रदेश में अनवरत रूप से साधनारत लघुकथा के दूसरे पुरोधा हैं सुकेश साहनी, जिन्होंने लघुकथा के विकास में अविस्मरणीय योगदान किया है। उनका लघुकथा सृजन कुछ अलग तरह से देखा जाता है। नए विषय, अद्यतन शब्दावली, नई दृष्टि के साथ बिंबों एवं प्रतीकों का व्यंजनात्मक एवं कुछ जगह अतिरंजात्मक प्रयोग देखने को मिलता है। गोश्त की गंध, ठंडी रजाई, चादर, आइसबर्ग, ओए बबली, खेल, वायरस, साइबरमैन, चिड़िया आदि उनकी महत्त्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं। डरे हुए लोग, ठंडी रजाई, सुकेश साहनी की 66 लघुकथाएँ और उनकी पड़ताल (पड़ाव और पड़ताल, खंड-25, संपादक मधुदीप) एवं साइबरमैन साहनी जी के लघुकथा संग्रह हैं। आपकी ठंडी रजाई, दादाजी एवं कुत्ते से सावधान लघुकथाओं पर लघु फ़िल्में भी बनी हैं। महानगर की लघुकथाएँ, स्त्री-पुरुष संबंधों की लघुकथाएँ, देह व्यापार की लघुकथाएँ, बीसवीं सदी: प्रतिनिधि लघुकथाएँ, समकालीन भारतीय लघुकथाएँ, दस्तक, गहरे पानी पैठ, मास्टर स्ट्रोक आपके द्वारा संपादित लघुकथा संकलन हैं। कई अन्य लघुकथा संकलनों- मानवमूल्यों की लघुकथाएँ, बालमनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ, लघुकथाएँ जीवनमूल्यों की, लघुकथाएँ देश-देशान्तर, मेरी पसंद (3 खंड), लघुकथा अनवरत (2 खंड) आदि का संपादन रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ के साथ किया है। लघुकथा की प्रथम वेबपत्रिका ‘लघुकथा डॉट काम’ का वर्ष 2000 से रामेश्वर कांबोज हिमांशु के साथ संपादन-प्रकाशन कर रहे हैं। ‘ख़लील जिब्रान की लघुकथाएँ’ तथा ‘पागल एवं अन्य लघुकथाएँ’ आपके द्वारा अनूदित लघुकथा पुस्तकें हैं। आपके लघुकथा संग्रहों का अनुवाद पंजाबी, मराठी, उर्दू, गुजराती व अँग्रेज़ी में हुआ है। ‘लघुकथा: सृजन और रचना कौशल’ लघुकथा पर आपके समालोचनात्मक आलेखों का संग्रह है। साहनी जी के लघुकथा रचनाकर्म पर वरिष्ठ लघुकथाकार भगीरथ परिहारने ‘कथाशिल्पी सुकेश साहनी की सृजन संचेतना’ नामक समालोचनात्मक पुस्तक भी लिखी है। बरेली शहर में आयोजित दो अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलनों के वह आयोजक रहे हैं, जिसमें रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, अरविंद बेलवाल एवं अन्य लघुकथाकारों का महत्त्वपूर्ण सहयोग रहा। ‘हिंदी चेतना’ (कैनेडा) एवं अभिनव इमरोज (रा.का.‘हिमांशु’ के साथ) के एक-एक लघुकथा विशेषांक का संपादन भी किया है। साहनी जी की प्रेरणा व सहयोग से कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है, जिसके माध्यम से युवा लघुकथाकारों को श्रेष्ठ लघुकथा सृजन हेतु प्रेरित किया जाता है। इस प्रकार साहनी जी ने लघुकथा के सभी पक्षों पर विस्तार से काम किया है, जो निरंतर जारी है।
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ उन महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों में से हैं, जिन्होंने अन्य विधाओं में सक्रिय रहते हुए लघुकथा में सृजन, संपादन एवं समालोचनात्मक- सभी स्तरों पर लघुकथा के विकास में योगदान किया है। ‘ऊँचाई’, पिघलती हुई वर्फ, कमीज़, नवजन्मा, चक्रव्यूह, छोटे-बड़े सपने हिमांशु जी की महत्त्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं। ‘असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ’ हिमांशु जी का लघुकथा संग्रह है। ‘लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य’ आपकी समालोचनात्मक पुस्तक है। मानवमूल्यों की लघुकथाएँ, बालमनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ, लघुकथाएँ जीवनमूल्यों की, लघुकथाएँ देश-देशान्तर, मेरी पसंद (3 खंड), लघुकथा अनवरत (2 खंड) लघुकथा संकलनो एवं लघुकथा की प्रथम वेबपत्रिका ‘लघुकथा डॉट काम’ का वर्ष 2000 से सुकेश साहनी के साथ संपादन कर रहे हैं। कैनेडा की पत्रिका ‘हिंदी चेतना’ के सह-संपादक हैं। अभिनव इमरोज (सुकेश साहनी के साथ) एवं शोध दिशा के लघुकथा विशेषांक-2015 व 2017 का संपादन भी किया है। आपकी लघुकथा ‘ऊँचाई’ पर बोझ नाम से लघुफिल्म बनी है।
विष्णु सक्सेना पहले लघुकथा संकलन ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ (1974/संपादक: रमेश जैन व भगीरथ) में सम्मिलित लघुकथाकार हैं। उनके प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘एक कतरा सच’ की जानकारी प्राप्त है।वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र परदेसी से प्राप्त सूचनानुसार उनके कथा लेखन का आरंभ लघुकथा से ही हुआ था। ‘दूर होता गाँव’ उनका प्रकाशित लघुकथा संग्रह है। परदेसी जी की लघुकथा ‘अपनी धरती’ सीबीएसई से संबद्ध कक्षा सात की पुस्तक ‘अनुपम भारती’ में लग चुकी है। राजेन्द्रमोहन त्रिवेदी ‘बंधु’ लघुकथा की विकास यात्रा में निरंतर सक्रिय रहे हैं। उनके दो लघुकथा संग्रह ‘काग़ज़ के रिश्ते’ व ‘रेत का सफ़र’ प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने दो लघुकथा संकलनों- ‘ज़िंदगी के आसपास’ व ‘पतझड़ के बाद’ का संपादन किया है। लघुकथा पोस्टर ‘ललकार’ का संपादन पुष्करणा जी के साथ किया है।नंदल हितैषी के तीन लघुकथा संग्रह- डायरी के पन्ने, दर्द अपना-पराया एवं यंत्रवत् तथा एक संपादित लघुकथा संकलन ‘आतंक’ प्रकाशित हुआ। नंदल जी का लघुकथा की विकास यात्रा में स्मणीय योगदान रहा है। भगवती प्रसाद द्विवेदी का एक लघुकथा संग्रह ‘भविष्य का वर्तमान’ प्रकाशित हुआ है। उन्होंने पुष्करणा जी के साथ ‘युवा रश्मि’ के लघुकथा विशेषांक (जून 1985) का संपादन भी किया है।कालीचरण प्रेमी भी अत्यंत सक्रिय लघुकथाकारों में शामिल रहे हैं। ‘कीलें’ एवं ‘तवा’ उनके प्रकाशित लघुकथा संग्रह हैं। संपादित लघुकथा संकलन ‘अंधा मोड़’ (पुष्पा रघु के साथ) प्रकाशित हुआ है।अमरीक सिंह दीप ने ‘आज़ादी की फ़सल’ लघुकथा संकलन संपादित किया। राजकुमार गौतम निरंतर लघुकथा में सृजनरत रहे हैं। उनकी लघुकथाएँ, पत्र-पत्रिकाओं, पड़ाव और पड़ताल खंड-5 के साथ उनके कहानी व लघुकथा के मिश्रित संग्रह ‘दूसरी आत्महत्या’ में प्रकाशित हुई हैं। शैल रस्तोगी (मेरठ) ने लघुकथा में पर्याप्त योगदान किया है। उनके तीन लघुकथा संग्रहों की जानकारी उपलब्ध है- ‘यह भी सच है’, ‘मेरा शहर और ये दंगे’ एवं ‘ऐसा भी होता है’।किशनलाल शर्मा लघुकथा की विकास यात्रा के अनवरत सक्रिय सहभागी हैं। उनके तीन लघुकथा संग्रह- पर्दे के पीछे, नीम का पेड़ एवं अनसुलझा प्रश्न प्रकाशित हुए हैं।
राजेंद्र कृष्ण श्रीवास्तव की लघुकथाओं का प्रकाशन 1975 से होता रहा है। उन्होंने 1980 में ‘प्रोत्साहन’ नामक पत्रिका का संपादन-प्रकाशन भी लखनऊ से आरंभ किया था। इस पत्रिका का लघुकथा विशेषांक भी संपादित-प्रकाशित किया।शराफ़त अली खान के दो लघुकथा संग्रह- अक्षरों के आँसू एवं कीकर के पत्ते प्रकाशित हुए हैं। विवशता, मज़हब, परिवर्तन, मुहब्बत आदि आपकी महत्त्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं।सुधाकर शर्मा आशावादी ने काफ़ी संख्या में लघुकथाएँ लिखीं हैं। उनके प्रकाशित संग्रह हैं- सरोकार, धूप का टुकड़ा, अपने-अपने अर्थ, मुखौटे, प्रतिनिधि लघुकथाएँ, आँच आदि। सुरेंद्र कुमार अरोड़ा के तीन लघुकथा संग्रहों- आज़ादी, विष कन्या एवं तीसरा पैग की जानकारी प्राप्त है। आपने ‘तैरते पत्थर डूबते काग़ज़’ व ‘दरकते किनारे’ लघुकथा संकलनों का संपादन एवं लघुकथा व काव्य की पत्रिका ‘मृग मरीचिका’ का संपादन-प्रकाशन भी किया है।
कमलेश भट्ट कमल समकालीन लघुकथा के आरंभिक काल में जुड़े रहे, बाद में दूसरी विधाओं की ओर चले गए। उनकी कुछेक लघुकथाओं की ही जानकारी प्राप्त है। ‘शब्द साक्षी’ उनके द्वारा संपादित लघुकथा संकलन है। कमलेश जी की डॉ. कमलकिशोर गोयनका जी के साथ बातचीत ‘साक्षात्’ भी प्रकाशित हुई है। वेदप्रकाश अमिताभ (अलीगढ़) ने त्रैमासिकी ‘अभिनव प्रसंगवश’ का संपादन करते हुए लघुकथा को समर्थन दिया। ‘ग़ुलामी तथा अन्य लघुकथाएँ’ आपका प्रकाशित संग्रह है। आपने लघुकथा पर छुटपुट समालोचनात्मक कार्य भी किया है। रमेश गौतम ने लघुकथा लिखना 1989 में आरंभ किया और उसी वर्ष लघुकथा पोस्टर ‘कथा दृष्टि’ का संपादन भी आरंभ किया। दैनिक ‘विश्वमानव’ के संपादन के दौरान आपने लघुकथा को उसके संघर्ष-काल में पर्याप्त समर्थन दिया। आपकी लघुकथाएँ पत्र-पत्रिकाओं व संकलनों में निरंतर प्रकाशित होती रही हैं। प्रेम गुप्ता ‘मानी’ ने 1986 में लघुकथा संकलन ‘दस्तावेज़’ का संपादन किया। उनकी लघुकथाएँ पत्र-पत्रिकाओं व संकलनों में निरंतर प्रकाशित होती रही हैं।
अरविंद बेलवाल की भूमिका बरेली लघुकथा सम्मेलन 1989 में महत्त्वपूर्ण थी। उनके एक लघुकथा संग्रह ‘धूमकेतु’ की जानकारी प्राप्त है। निर्मला सिंह निरंतर लघुकथा सृजन करती रही हैं। उनके निजी संग्रहों व संपादित संकलनों में बबूल का पेड़, साँप और शहर, यूज़ एण्ड थ्रो, माँ, शामिल हैं। वरिष्ठ साहित्यकार बंधु कुशावर्ती (लखनऊ) ने भी लघुकथा की विकास यात्रा में अश्विनीकुमार द्विवेदी के साथ चौमासा पत्रिका ‘लघुकथा’ (1974) के माध्यम से योगदान किया। लेकिन इस पत्रिका के मात्र दो अंक ही आ सके। अंकुर (आगरा/प्र.संपा. मंजुला सक्सेना) के लघुकथा विशेषांक-1982 तथा सामान्य अंकों लघुकथाओं के प्रकाशन के माध्यम से अजय सक्सेना का योगदान भी रहा है। लघुकथा पर रतनलाल शर्मा (बुलंदशहर) के विचार भी रूपसिंह चन्देल के लघुकथा संग्रह की भूमिका के रूप में सामने आए हैं।
डॉ. उमेश महादोषी की पहली लघुकथा 1981 में एवं लघुकथा विषयक बलराम अग्रवाल से चर्चा 1988 में एवं पहला आलेख व कुछ अन्य समीक्षात्मक कार्य 1989 में प्रकाशित हुआ। वर्ष 2010 से अविराम/अविराम साहित्यिकी के अंक संपादक के रूप में लघुकथा विषयक अनेक महत्त्वपूर्ण योजनाओं का क्रियान्वयन किया है। अब तक अनेक लघुकथाएँ व समालोचनात्मक आलेख लिखे हैं। इंटरनेट पर अविराम ब्लॉग पत्रिका के माध्यम से भी लघुकथा में संपादकीय-समालोचनात्मक योगदान के साथ ‘मधुदीप की 66 लघुकथाएँ एवं उनकी पड़ताल (पड़ाव और पड़ताल खंड-19) का संपादन एवं डॉ. बलराम अग्रवाल के लघुकथा संग्रह ‘जूझते हुए धूप से’ का रचना-चयन किया है।
इससे पहले कि हम उत्तर प्रदेश में लघुकथा की अगली पीढ़ी की उपस्थिति पर चर्चा करें, हमें वर्ष 2000 के बाद लघुकथा के सामान्य परिवेश पर दृष्टि डाल लेनी चाहिए। इससे हमें यह समझना आसान हो जाएगा कि लघुकथा के वर्तमान परिदृश्य में आए वृहद परिवर्तनों का स्रोत क्या है एवं नए लघुकथाकारों के लघुकथा से जुड़ने में समग्र परिस्थितियों एवं गतिविधियों की भूमिका क्या रही है।
वर्ष 2000 तक आते-आते समकालीन लघुकथा के विकास की दिशा में यद्यपि आधारीय स्तर पर काफ़ी कार्य हो चुका था, किंतु उसके अपेक्षित प्रभाव के अभाव में लघुकथाकारों में समुचित उत्साह नहीं बचा था। ‘लघुकथा के माध्यम से साहित्य में बड़ा योगदान नहीं किया जा सकता’ जैसी अनुचित एवं नकारात्मक धारणा के कारण अनेक लघुकथाकार लघुकथा लेखन की ओर से निष्क्रिय हो चुके थे। लघुकथा की महत्त्वपूर्ण पत्रिका ‘लघुआघात’ (संपा. डॉ. सतीश दुबे/विक्रम सोनी) बंद हो चुकी थी। 1993 में आरंभ ‘जनगाथा’ (संपा. बलराम अग्रवाल/किरनचन्द्र शर्मा) भी अधिक लंबे समय तक नहीं चली। नए रचनाकार बहुत कम संख्या में लघुकथा से जुड़ रहे थे। इसके बावजूद कुछ ऊर्जावान लघुकथाकारों ने साहस से काम लिया और लघुकथा की ज्योति जलाए रखी, अपनी-अपनी तरह से निरंतरता बनाए रखी। राष्ट्रीय स्तर पर इनमें डॉ. सतीश दुबे, भगीरथ परिहार, सुकेश साहनी, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया, श्यामसुन्दर अग्रवाल, रामेश्वर कांबोज हिमांशु, कमल चौपड़ा, सतीश राठी आदि प्रमुख थे। लेकिन वर्ष 2000 में दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं- सुकेश साहनी जी के संयोजन में वर्ष 2000 में बरेली (उत्तर प्रदेश) में वृहद लघुकथा सम्मेलन का आयोजन एवं इण्टरनेट की सुलभता के कारण उन्हीं के द्वारा रामेश्वर कांबोज ‘हिमांशु’ के सहयोग से लघुकथा की पहली बेवपत्रिका ‘लघुकथा डॉट कॉम’ का संपादन-प्रकाशन आरंभ करना। निश्चित रूप से लघुकथा की विकास-यात्रा में इसका बहुत सकारात्मक प्रभाव रहा। लघुकथा के क्षेत्र में हलचल बढ़ी और वेब पत्रिका के माध्यम से लघुकथा को अंतरराष्ट्रीय फ़लक मिला, जो भविष्य के लिए एक आधारस्तम्भ बना। किंतु भारत में उन दिनों इण्टरनेट के काफ़ी महँगे होने और सर्वसुलभ न होने के कारण इस प्रयास का प्रभाव उस समय अपेक्षाकृत कुछ सीमित रहा। इसकी अगली कड़ी के रूप में दिल्ली में बलराम अग्रवाल ने इण्टरनेट पर क्रमशः 2007 में जनगाथा एवं 2009 में कथायात्रा एवं लघुकथा वार्ता चिट्ठों के माध्यम से इस फ़लक को और विस्तार देने का प्रयास किया। इससे लघुकथा पर विमर्श का दायरा बढ़ा। प्रिंट में ‘संरचना’ वार्षिकी (सं. कमल चौपड़ा), अनियतकालिक क्षितिज (सं. सतीश राठी), प्रतिनिधि लघुकथाएँ (सं. कुँवर प्रेमिल), ‘लघुकथा अभिव्यक्ति’ त्रैमासिकी (सं. मो. मुइनुद्दीन अतहर), शुभ तारिका (संपा. उर्मि कृष्ण) की निरंतरता के साथ कुछ अन्य पत्रिकाओं के विशेषांकों के प्रकाशन एवं अन्य गतिविधियों के माध्यम से वर्ष 2010 तक लघुकथा की विकास यात्रा में सुकेश साहनी, बलराम अग्रवाल एवं उक्त पत्रिकाओं के संपादकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। 2010 के बाद परिदृश्य में अन्य महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आरंभ हुए। मार्च 2010 में अविराम (अंक सं. उमेश महादोषी/2012 से अविराम साहित्यिकी) का प्रकाशन आरंभ हुआ। यद्यपि यह पत्रिका सभी विधाओं को लेकर चली किंतु इसकी योजनाओं के केंद्र में मुख्यतः लघुकथा ही रही। लघुकथा को कई तरह से प्रस्तुत करने, बड़ी संख्या में प्रतियों के नि:शुल्क व रणनीतिक वितरण, 2011 में इण्टरनेट पर इसके ब्लॉग संस्करण आदि के कारण यह पत्रिका बड़ी संख्या में साहित्यकारों तक लघुकथा को पहुँचाने व उनका ध्यान आकर्षित करने में सफल रही। 2013 में फ़ेसबुक समूह के रूप में ‘लघुकथा-साहित्य’ (संचालक बलराम अग्रवाल) के बनने के बाद सोशल मीडिया का व्यापक उपयोग लघुकथा के पक्ष में होने लगा। वर्ष 2014 एवं उसके बाद सोशल मीडिया पर अनेक लघुकथा समूह बनने से नई पीढ़ी के लघुकथाकारों की सक्रियता में बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई। 2013 के उत्तरार्द्ध में ही मधुदीप जी द्वारा महत्त्वपूर्ण ‘पड़ाव और पड़ताल’ शृंखला (जिसके अब तक 33 खंड आ चुके हैं) का प्रकाशन गुणवत्ता की दृष्टि से काफ़ी प्रेरक वातावरण बनाने में सफल हुआ। वर्ष 2016 से अर्द्धवार्षिकी ‘दृष्टि’ (सं. अशोक जैन) आरंभ हुई। 2018 से ‘लघुकथा कलश’ (सं. योगराज प्रभाकर/रवि प्रभाकर) के महाविशेषांकों के प्रकाशन ने सूक्ष्म संपादकीय दृष्टि के साथ विविधतापूर्ण आयोजनों से लघुकथा वातावरण को ऊर्जावान बनाने का काम किया। कई वरिष्ठ लघुकथाकारों के आलोचनात्मक ग्रंथ एवं नई पीढ़ी द्वारा संचालित प्रश्नोत्तरी कार्यक्रमों एवं लघुकथा प्रतियोगिताओं (जिसमें कथादेश की महत्त्वपूर्ण प्रतियोगिता भी शामिल है) ने लघुकथा की हलचल को तो शिखर पर पहुँचाया ही, लघुकथा में विमर्श एवं अध्ययन-मनन की दृष्टि से संसाधनों की उपलब्धता भी सहज-सुलभ हो गई। इस प्रकार नए लघुकथाकारों को सीखने एवं स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए अन्य विधाओं के सापेक्ष लघुकथा में मंच की उपलब्धता एवं प्रोत्साहन की आपूर्ति बहुत तीव्र हुई है। इस सबका परिणाम अखिलभारतीय स्तर पर नए संभावनाशील रचनाकारों के लघुकथा में प्रवेश के रूप में दिखाई देता है। यदि विभिन्न क्षेत्रों में लघुकथा के स्थानीय फैलाव पर दृष्टि डालें तो जिन राज्यों में लघुकथाकार ढूँढ़ने पर भी मुश्किल से मिलते थे, वहाँ से कई अच्छे रचनाकार लघुकथा के क्षितिज पर अपनी उपस्थिति से पाठकों एवं समालोचकों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। जिन राज्यों में लघुकथा के लिए पहले से ही उर्वरा भूमि थी, वहाँ के परिदृश्य में भी काफ़ी कुछ अतिरिक्त देखने को मिल रहा है।
उत्तर प्रदेश में भी एक ओर बड़ी संख्या में लघुकथाकारों का उदय हुआ है, दूसरी ओर, कुछ अधीरता एवं तज्जनित अनपेक्षित चीज़ों के बावजूद लघुकथा में चिंतन-मनन के रचना-प्रक्रिया का हिस्सा बनने से शिल्प एवं कथ्य के स्तर पर नए लघुकथाकार सीमित समय में ही परिपक्व होते दिखाई देते हैं। इस कालखंड में कई वरिष्ठ साहित्यकारों ने भी लघुकथा में प्रवेश किया है। उपलब्ध विभिन्न पत्रिकाओं व अन्य स्रोतों में प्रकाशित रचनाकारों के संपर्क सूत्र के आधार पर इस कालखंड में उ. प्र. के जिन लघुकथाकारों की जानकारी मुझे प्राप्त हुई है, उनके नाम यहाँ दिए जा रहे हैं। इनमें नवोदित एवं वरिष्ठ- दोनों श्रेणी के रचनाकार हैं, किंतु जहाँ तक मुझे जानकारी उपलब्ध हो पाई है, लघुकथा लेखन से ये वर्ष 2000 के बाद ही जुड़े हैं।
अकारादि क्रम में उत्तर प्रदेश के ये लघुकथाकार इस प्रकार हैं- अंकिता कुलश्रेष्ठ (आगरा), अंजुल कंसल ‘कनुप्रिया’ (लखनऊ), अंजना बाजपेई (कानपुर), डॉ. अनिल चौधरी (बिजनौर), डॉ. अनिल शर्मा ‘अनिल’ (धामपुर), डॉ. अ. कीर्तिवर्द्धन (मु. नगर), अनिता ललित (लखनऊ), अनिल द्विवेदी ‘तपन’ (कन्नौज), अनुभूति गुप्ता (लखीमपुर खीरी), अन्नपूर्णा बाजपेई (कानपुर), अनुराग (बाँदा), अनामिका शाक्य (मैनपुरी), अलका चन्द्रा (कानपुर), अलका प्रमोद (लखनऊ), अरुण कुमार गुप्ता (लखनऊ), अर्चना गंगवार (कानपुर), अर्चना तिवारी (लखनऊ), अर्पणा गुप्ता (लखनऊ), अरविंद अवस्थी (मिर्जापुर), अर्विना गहलोत (बुलन्दशहर/नोएडा), अपर्णा थपलियाल (गाज़ियाबाद), अमन चाँदपुरी (अम्बेडकरनगर), अशोक ‘अंजुम’ (अलीगढ़), आकांक्षा यादव (गाजीपुर/आजमगढ़), आदित्य प्रचण्डिया (अलीगढ़), आभा अदीब राज़दान (लखनऊ), आभा चंद्रा (लखनऊ), आशीष कुमार (उन्नाव), आभा खरे (लखनऊ), डॉ. आशा सिंह (कानपुर), उपेन्द्र प्रताप सिंह (लखीमपुर खीरी), डॉ. ऊषा उप्पल (बरेली), उर्मिल थपलियाल (लखनऊ), उमेश मोहन धवन (कानपुर), ऊषा यादव (आगरा), ओमप्रकाश मंजुल (पीलीभीत), ओमप्रकाश हयारण ‘दर्द’ (झाँसी), कमला अग्रवाल (गाज़ियाबाद), कल्पना मिश्रा (कानपुर), कुमार आनंद पाण्डे (बरेली), कुसुम जोशी (गाज़ियाबाद), कृष्ण कुमार यादव (आजमगढ़), कौशलेन्द्र पाण्डेय (लखनऊ), गीता कैथल (लखनऊ), गीता सिंह (नोएडा), गुडविन मसीह (बरेली), डॉ. गोपाल बाबू शर्मा (आगरा), छवि निगम (लखनऊ), जफ़र अहमद जाफरी (लखनऊ), जयति जैन ‘नूतन’ (झाँसी), जयराम सिंह ग़ौर (कानपुर), जयेन्द्र कुमार वर्मा (फतेहपुर), डॉ. जितेन्द्र जीतू (बिजनौर), जितेन्द्र जौहर (सोभद्र), जानकी बिष्ट ‘वाही’ (नोएडा), ज्योत्स्ना सिंह (लखनऊ), ज्योत्स्ना कपिल (बरेली), चित्रा राणा राघव (गाज़ियाबाद), तनु श्रीवास्तव (लखनऊ), दीपक मशाल (जालोन/विदेश प्रवास), देशपाल सिंह सेंगर (ओरैया), नज़्म सुभाष (लखनऊ), नरेंद्र सिंह (कन्नौज), डॉ. नितिन सेठी (बरेली), निधि चतुर्वेदी (बदायूँ), निधि शुक्ला (लखीमपुर खीरी), निधि अग्रवाल (झाँसी), निरंजन धुलेकर (झाँसी), निर्देश निधि (बुलंदशहर), निरूपमा अग्रवाल (बरेली), निरुपमा कपूर (आगरा), नीलम सिंह (शाहजहाँपुर), नीलम राकेश (लखनऊ), डॉ. नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ (बिजनौर), निवेदिता श्रीवास्तव (लखनऊ), नेहा अग्रवाल ‘नेह’ (लखनऊ), पंकज जोशी (लखनऊ), प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा (लखनऊ), प्रभा रानी (वाराणसी), प्रियंका गुप्ता (कानपुर), प्रेरणा गुप्ता (कानपुर), प्रवीण झा (नोएडा), प्रतिभा मिश्रा (कानपुर), प्रकाश सूना (मुराद नगर), डॉ. प्रभा दीक्षित (कानपुर), प्रेमबाला प्रधान ‘मोना’ (बरेली), प्रेम बहादुर कुलश्रेष्ठ ‘विपिन’ (अलीगढ़), पूर्णिमा शर्मा (मुरादाबाद), पूनम गुप्ता (रामपुर), बीना सिंह (गाज़ियाबाद), भावना कुँअर (गाज़ियाबाद/विदेश प्रवास), मंजू मिश्रा (मेरठ/विदेश प्रवास), मधु प्रधान (कानपुर), डा. मधु आंधीवाल (अलीगढ़), मनीष कुमार सिंह (गाज़ियाबाद), मनीषा सक्सेना (प्रयागराज), महेन्द्र कुमार (प्रयागराज), डॉ. मिथिलेश दीक्षित (लखनऊ), मीनू खरे (लखनऊ), मुन्नूलाल (बलरामपुर), मुकेश कुमार ऋषि वर्मा (आगरा), मीना अग्रवाल (बिजनौर), रचना श्रीवास्तव (लखनऊ/विदेश प्रवास), रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’ (वाराणसी), रजनीश त्रिपाठी (गोरखपुर), रश्मि बड़थ्वाल (लखनऊ), रविन्द्र कुमार रवि (शाहजहाँपुर), राकेश चक्र (मुरादाबाद), राज्यवर्धन सिंह ‘सोच’ (वाराणसी), रामकरन (बस्ती), राशि सिंह (मुरादाबाद), राजेंद्र प्रसाद यादव (आजमगढ़), लता कादम्बरी (कानपुर), डॉ. लवलेश दत्त (बरेली), वर्षा अग्रवाल (अलीगढ़), विधु यादव (लखनऊ), विनय कुमार सिंह (वाराणसी), विष्णु प्रिय पाठक (कुशीनगर), वी. के. शर्मा (कासगंज), शुभ्रांश पाण्डेय (प्रयागराज), शिखा तिवारी (प्रयागराज), शिखा कौशिक ‘नूतन’ (शामली), शिव अवतार पाल (इटावा), शिव प्रसाद कमल (मिर्जापुर), शिवानंद सिंह ‘सहयोगी’ (मेरठ), शैलबाला अग्रवाल (आगरा), डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ (फतेहपुर), संगीता शर्मा (आगरा), संदीप ‘सरस’ (सीतापुर), डॉ. संध्या तिवारी (पीलभीत), संजीव आहूजा (बाराबंकी), संयोगिता शर्मा (प्रयाग), सतीश चंद्र शर्मा ‘सुधांशु’ (बदायूँ), डॉ. सत्यकाम पहारिया (कानपुर), डॉ. सुधाकर ‘अदीब’ (लखनऊ), सुधा शुक्ला (लखनऊ), सुधीर द्विवेदी (कानपुर), सुधीर निगम (कानपुर), सुधीर मौर्या ‘सुधीर’ (उन्नाव), सपना मांगलिक (आगरा), सरस दरबारी (प्रयागराज), सविता मिश्रा (आगरा), सियाराम भारती (लखनऊ), सीमा सिंह (कानपुर), सुषमा सिन्हा (वाराणसी), सुनीता त्यागी (मेरठ), सुबोध श्रीवास्तव (कानपुर), सुरेश उजाला (लखनऊ), सुरेश बाबू मिश्रा (बरेली), स्वेतांक गुप्ता (सोनभद्र), सुवेश यादव (कानपुर), सूर्य प्रकाश मिश्र (वाराणसी), सुनील कुमार चौहान (बदायूँ), सुरेश सौरभ (लखीमपुर), सुशांत सुप्रिय (गाज़ियाबाद), सौरभ पाण्डेय (प्रयागराज), हेमंत राणा (बुलंदशहर) आदि।
उपर्युक्त लघुकथाकारों में से कई अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय रहे हैं। कई लेखकों ने सोशल मीडिया पर लघुकथा के पक्ष में काम किया है, कई के संग्रह प्रकाशित हुए हैं। कई लेखकों ने संपादन के माध्यम से लघुकथा को आगे बढ़ाने में योगदान किया है। कुछ लेखकों के समालोचनात्मक योगदान की जानकारी भी मिली है। आइए उपलब्ध जानकारी के अनुरूप हम उनके योगदान की संक्षिप्त चर्चा भी कर लेते हैं।
उर्मिल थपलियाल देश के जाने-माने नाटककार हैं। आपने कई मारक लघुकथाएँ लिखने के साथ लघुकथा पर कुछ समालोचनात्मक कार्य भी किया है। मुझमें मंटो, नारा, समाजवाद, गेट मीटिंग आदि उर्मिल जी की चर्चित लघुकथाएँ हैं। डॉ. संध्या तिवारी ने अपनी बिम्बधर्मी एवं प्रतीकात्मक लघुकथाओं और उनमें काव्यात्मक शैली के माध्यम से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। कविता, अँधेरा उबालना है, चप्पल के बहाने, श्मशान-वैराग्य, अल्प-विराम, और वह मरी नहीं, कौआ हड़उनी, ग्रेड शेड, सिलवट, सम्मोहित, ब्रह्मराक्षस, 254/- आदि आपकी चर्चित लघुकथाएँ हैं। आपके प्रकाशित लघुकथा संग्रह हैं- राजा नंगा है (ई-बुक), ‘ततः किम’ एवं ‘अँधेरा उबालना है’ (यंत्रस्थ)। अविराम साहित्यिकी की संपादकीय टीम में सक्रिय भूमिका। आपने अन्य विधाओं के साथ लघुकथा के मिश्रित संकलन ‘कॉफ़ी हाउस’ का संपादन भी किया है। कॉफ़ी हाउस नामक ह्वाट्सएप समूह के संचालन के माध्यम से लघुकथा के पक्ष में कार्य कर रही हैं। कुछ समालोचनात्मक व समीक्षात्मक कार्य भी किया है।
डॉ. नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ नई पीढ़ी की प्रतिनिधि लघुकथाकार, संपादक एवं प्रकाशक-आयोजक के तौर पर जानी जाती हैं। ‘निःशब्द नहीं मैं’ आपका प्रकाशित लघुकथा संग्रह है। बूँद-बूँद सागर, अपने-अपने क्षितिज, सफ़र संवेदनाओं का, लघुकथा में किसान आदि लघुकथा संकलनों का जितेन्द्र जीतू के साथ संपादन। वनिका पब्लिेकेशन के माध्यम से लघुकथा व अन्य विधाओं की अनेक पुस्तकों का प्रकाशन। हाल ही में आपने फ़ेसबुक पर ‘वनिका पब्लिकेशन्स लाइव मंच’ पर लघुकथा विषयक कार्यक्रमों का प्रसारण भी किया है।
डॉ. जितेन्द्र जीतू का सृजनात्मक लेखन अन्य विधाओं में अधिक, लघुकथा में कम है। किंतु लघुकथा समालोचना के सौंदर्य शास्त्र पर पीएच.डी. की उपाधि हेतु शोध के साथ हिंदी लघुकथा पर समालोचनात्मक कार्य काफ़ी किया है। लघुकथा के स्वतंत्र समालोचक के रूप में जाने जाते हैं। आपका शोधग्रंथ ‘समकालीन लघुकथा का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्रीय सौदर्य बोध’ तथा डॉ. नीरज शर्मा ‘सुधांशु’ के साथ संपादित- बूँद-बूँद सागर, अपने-अपने क्षितिज, सफ़र संवेदनाओं का, लघुकथा में किसान आदि लघुकथा संकलन प्रकाशित हुए हैं। जयेन्द्र कुमार वर्मा के दो लघुकथा संग्रह ‘और सब ठीक हैं’ व ‘भटका हुआ एक परिंदा’ की जानकारी प्राप्त है। कृष्ण कुमार यादव (आजमगढ़) की लघुकथाएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। आपने चर्चित पत्रिका ‘सरस्वती सुमन’ के लघुकथा विशेषांक का संपादन किया है। उमेश मोहन धवन का एक लघुकथा संग्रह ‘पीर पराई’ जानकारी में आया है। ज्योत्स्ना कपिल ने लघुकथा के सृजन और संपादन दोनों क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाई है। ‘लिखी हुई इबारत’ उनका लघुकथा संग्रह है। अविराम साहित्यिकी की संपादकीय टीम में सक्रिय भूमिका। आपने दो लघुकथा संकलनों- ‘आसपास से गुज़रते हुए’ (उपमा शर्मा के साथ) एवं ‘समकालीन प्रेम विषयक लघुकथाएँ’ का संपादन किया है।
दीपक मशाल ने कई विधाओं में लेखनरत रहते हुए लघुकथा में पर्याप्त योगदान किया है। अनेक महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं एवं संकलनों में उनकी लघुकथाएँ अपरिहार्यतः प्रकाशित हुई हैं। आपका एक लघुकथा संग्रह ‘खिड़कियों से…’ प्रकाशित हुआ है। दीपक जी कुछ महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं एवं बेवसाइट्स के संपादन मंडल से संबद्ध रहे हैं। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. मिथिलेश दीक्षित अनेक विधाओं में सृजनरत रहते हुए वर्तमान में लघुकथा में भी सक्रिय हैं। आपकी लघुकथाएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं व संकलनों में प्रकाशित हुई हैं। कुछ आलोचनात्मक आलेख भी लिखे हैं। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. गोपाल बाबू शर्मा (आगरा) के दो लघुकथा संग्रह ‘काँच के कमरे’ एवं ‘तीस हज़ारी दावत’ प्रकाशित हुए हैं। सुविख्यात छंदाचार्य ओम नीरव, गत दो-तीन वर्षों से लघुकथा लेखन कर रहे हैं। आपका प्रथम लघुकथा संग्रह ‘स्वरा’ वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ है।
मीनू खरे ने वर्ष 2000 के बाद के लघुकथा लेखकों के मध्य तेज़ी से अपना स्थान बनाया है। उनकी लघुकथाएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं एवं संकलनों में प्रकाशित हुई हैं। आपने केंद्र प्रभारी/सहायक निदेशक के रूप में कार्य करते हुए आकाशवाणी बरेली से व्यक्तिगत एवं सामूहिक लघुकथा-पाठ के अनेक प्रशंसनीय कार्यक्रमों का प्रसारण कराया है। गाज़ियाबाद की डॉ. कुसुम जोशी की पृष्ठभूमि उत्तराखंड, जो पहले उत्तर प्रदेश में ही शामिल था, की है। अपनी लघुकथाओं में उत्तराखंड की भौगोलिक व सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को वह बड़ी सहजता व कुशलता से बुनती हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं व संकलनों में उनकी लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं। ‘उसके हिस्से की धूप’ आपका लघुकथा संग्रह है। सविता मिश्रा ‘अक्षजा’ की अनेक लघुकथाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व संकलनों में प्रकाशित हुई हैं। ‘रोशनी के अंकुर’ उनका प्रकाशित लघुकथा संग्रह है। नीलम राकेश अनेक विधाओं में सृजनरत वरिष्ठ लेखिका हैं। उनका लघुकथाओं का एक संग्रह प्रकाशित हुआ है- ‘गुरुदक्षिणा’।
सीमा सिंह ने ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम के तत्त्वावधान में कानपुर शहर के विद्यालयों-महाविद्यालयों में लघुकथा के प्रचार व प्रसार के लिए सेमिनार, वर्कशॉप व प्रतियोगिताओं के आयोजन किए हैं। शक्ति ब्रिगेड संस्था के महासचिव के रूप में कक्षा छह से दस तक के छात्र-छात्राओं का लघुकथा से परिचय कराने तथा प्रोत्साहन हेतु भी प्रतियोगिताओं का आयोजन कराया है। सोशल मीडिया पर लघुकथा पर चर्चा में सहभागिता। ‘अनवरत वाणी’ में तीन वर्ष ‘लघुकथा खंड’ की प्रभारी रहीं, वर्तमान में ‘लघुकथा कलश’ की संपादकीय टीम से संबद्ध हैं। ‘मन का उजाला’, ‘अन्नपूर्णा’, ‘पुनर्नवा’ आदि आपकी महत्त्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं।
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के महत्त्वपूर्ण सम्मान ‘साहित्य भूषण’ से सम्मानित वरिष्ठ साहित्यकार सुरेश बाबू मिश्रा ने अन्य विधाओं के साथ लघुकथा में भी पर्याप्त सृजन किया है। ‘सहमा हुआ शहर’ उनका प्रकाशित लघुकथा संग्रह है। सुरेश सौरभ के दो लघुकथा संग्रह- ‘नोट बंदी’ व ‘तीस-पैंतीस’ प्रकाशित हुए हैं। समीक्षात्मक कार्य में भी योगदान कर रहे हैं। अनिता ललित लघुकथा में सृजन के साथ लघुकथा समीक्षक के रूप में भी योगदान कर रही हैं। डॉ. लवलेश दत्त ने लघुकथा सृजन के साथ अपने संपादन में प्रकाशित पत्रिका ‘अनुगुंजन’ के लघुकथा विशेषांक के माध्यम से भी योगदान किया है। डॉ. नितिन सेठी (बरेली) स्वतंत्र समीक्षक के रूप में लघुकथा पर पर्याप्त कार्य कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश से लघुकथा से जुड़े कुछ अन्य नामों की जानकारी भी वरिष्ठ साथियों से मिली है, इनमें योगन्द्र शर्मा, बी.आर. विप्लवी व चन्द्रमोहन दिनेश प्रमुख हैं, किंतु इनके जनपद व अन्य जानकारी मुझे प्राप्त नहीं हो सकी है।अन्य राज्यों को अपनी कर्मभूमि बना चुके डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, सुमन ओबेरॉय, संदीप तौमर, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, डॉ. पूरन सिंह, शोभा रस्तोगी, पवित्रा अग्रवाल, डॉ. विनीत उपाध्याय आदि कई रचनाकार भी मूलतः उत्तर प्रदेश के ही हैं, जिन्हें आलेख की सीमाओं के दृष्टिगत चर्चा में शामिल नहीं किया गया है।
इस आलेख के ‘लघुकथा कलश’ में प्रकाशन के दौरान श्री योगराज प्रभाकर जी द्वारा मेरा ध्यान ‘साहित्यिक मुरादाबाद’ नामक ब्लॉग की ओर आकर्षित किया गया। किन्तु दिए गये समया में उस समय मेरे लिए इस ब्लॉग का पूरा अध्ययन करके सक्रिय लघुकथाकारों की जानकारी संकलित करना संभव नहीं था। बाद में अध्ययन करने उक्त ब्लॉग पर मुरादाबाद मण्डल के विभिन्न जनपदों के काफी लघुकथाकार सक्रिय दिखाई दिए। चूकि इन लघुकथाकारों की विशेष उपलब्धियों एवं उनकी वरिष्ठता के बारे में मुझे जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई है, अतः इन लघुकथाकारों का नामोल्लेख उनके मूल जनपद सहित इस अतिरिक्त नोट के अन्तर्गत किया जा रहा है। ‘लघुकथा कलश’ में प्रकाशित आलेख में इनका नामाल्लेख नहीं किया जा सका था। लघुकथाकार इस प्रकार हैं- अखिलेश वर्मा (मुरादाबाद), अटल मुरादाबादी (सम्भल / नोएडा), अनुराग रोहिल्ला (मुरादाबाद), अरविन्द कुमार शर्मा आनन्द (मुरादाबाद), अशोक विद्रोही (मुरादाबाद), अशोक विश्नोई (मुरादाबाद), इन्दु रानी (मुरादाबाद), इला सागर रस्तोगी (मुरादाबाद), कमाल जैदी वफा (सम्भल), कंचन खन्ना (मुरादाबाद), कंचन लता पाण्डेय (आगरा), चन्द्रकला भागीरथी (बिजनौर), दुष्यंत बाबा (मुरादाबाद), धर्मेन्द्र सिंह राजौरा (सम्भल), नजीब जहाँ (मुरादाबाद), नवल किशोर शर्मा नवल (मुरादाबाद), नवाज अनवर खान (मुरादाबाद), नरेन्द्र सिंह नीहार (बिजनौर / वर्तमान में दिल्ली), निवेदिता सक्सेना (मुरादाबाद), नृपेन्द्र शर्मा सागर (मुरादाबाद), पुनीत कुमार (मुरादाबाद), प्रवीण राही (मुरादाबाद), प्रीति चौधरी (अमरोहा), प्रीति हुंकार (मुरादाबाद), पंकज दर्पण अग्रवाल (मुरादाबाद), पंकज शर्मा (सम्भल / वर्तमान में अम्बाला), फरहत अली खान (मुरादाबाद), मनोज कुमार मनु (मुरादाबाद), मनोरमा शर्मा (अमरोहा), मीनाक्षी ठाकुर (मुरादाबाद), मीनाक्षी वर्मा (मुरादाबाद), मुजाहिद चौधरी (अमरोहा), रचना शास्त्री (बिजनौर), रवि प्रकाश (रामपुर), रागिनी गर्ग (रामपुर), राजीव प्रखर (मुरादाबाद), राजेन्द्र मोहन शर्मा शृंग (मुरादाबाद), राजेन्द्र सिंह विचित्र (रामपुर), राम किशोर वर्मा (रामपुर), रेखा रानी (अमरोहा), रंजना हरित (बिजनौर), विभांशु दुबे विदीप्ति (मुरादाबाद), विवेक आहूजा (मुरादाबाद), वीरेन्द्र सिंह बृजवासी (मुरादाबाद), वैशाली रस्तोगी (मुरादाबाद / वर्तमान में जकार्ता), श्वेता पूठिया (मुरादाबाद), श्याम सुन्दर भाटिया (मुरादाबाद), शोभना कौशिक (मुरादाबाद), स्वदेश सिंह (मुरादाबाद), सीमा रानी (अमरोहा), सीमा वर्मा (मुरादाबाद), सुभाष रावत राहत बरेलवी (मुरादाबाद/बरेली), हेमा तिवारी भट्ट (मुरादाबाद), श्रीकृष्ण शुक्ल (मुरादाबाद) ।
इस प्रकार इस आलेख में हमारी जानकारी में आए उत्तर प्रदेश के यथासंभव लघुकथाकारों की चर्चा करने का प्रयास किया गया है, तदापि सबसे बड़े एवं विशाल प्रदेश के सभी लघुकथाकारों से परिचित होना संभव नहीं है। यदि मेरे द्वारा फ़ेसबुक पर दी गई विज्ञप्ति पर लघुकथाकारों ने स्वयं से जुड़ी सूचनाएँ उपलब्ध करवाने में रुचि ली होती तो इसे और अधिक प्रासंगिक बनाना संभव हो सकता था।
उत्तर प्रदेश के 1971 के बाद के इन लघुकथाकारों की लघुकथा पर एक संक्षिप्त सामान्य दृष्टि डाली जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर समकालीन लघुकथा में उभरकर आए तमाम शिल्प और कथ्य का सामान्य प्रतिबिम्बन इस क्षेत्र की लघुकथाओं में भी दिखाई देता है। जीवन की नई चुनौतियाँ और बदलते जीवन मूल्य भी सामान्य स्तर पर समाहित हुए हैं। उत्तर प्रदेश के कई लघुकथाकारों की क़लम से अनेक सार्वकालिक लघुकथाएँ सामने आई हैं। किंतु क्षेत्रीय स्तर की भाषाई, सांस्कृतिक, राजनैतिक व भौगोलिक भिन्नताएँ और विषमताएँ, विशेषतः पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दूरस्थ क्षत्रों से जुड़ी, यहाँ की लघुकथा में बहुत अधिक रेखांकित नहीं हो पाई हैं; यद्यपि कुछेक लघुकथाकार कहीं-कहीं इस संदर्भ में अपनी स्थानिकताओं के प्रति जागरूक दिखाई देते हैं। चूकि ये स्थानिकताएँ ज़मीन से जोड़ने के साथ वैश्विक होती लघुकथा को वास्तविक और सामर्थ्यवान बनाती हैं, इसलिए इन्हें रचनात्मकता से जोड़ा जाना चाहिए।
अन्त में उपलब्ध पत्र-पत्रिकाओं, बेव पत्रिकाओं, चिट्ठों, संकलनों-संग्रहों एवं विश्व हिंदी लघुकथाकार कोश (सं. मधुदीप/बलराम अग्रवाल), जिनके अध्ययन के बिना यह आलेख संभव नहीं था, के संपादकों व लेखकों के प्रति विनम्र आभार प्रकट करता हूँ। कुछ छूट रहे महत्त्वपूर्ण नामों का स्मरण कराने के लिए अग्रज डॉ. बलराम अग्रवाल, सुकेश साहनी, रामेश्वर कॉबोज हिमांशु एवं भाई शराफ़त अली खान और इस आलेख के प्रेरक भाई योगराज प्रभाकर का भी आभार।
.-121, इन्द्रापुरम, निकट बीडीए कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उत्तर प्रदेश
चलभाष : 09458929004


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