प्रदीप कुमार अपने परिवार के साथ बाजार से खरीदारी करके घर लौट आये थे। उनकी रिश्तेदारी में एक शादी थी। उसी सिलसिले में सबको कपड़े दिलवाने वे बाजार गये थे।
उनकी पत्नी सीमा ने आठ हजार रुपये की साड़ी पसन्द की, मगर इतनी धनराशि प्रदीप कुमार के बजट से बहुत ज्यादा थी। इसलिए वे सीमा को पांच हजार रुपये की साड़ी ही दिलवा पाये थे। सीमा को यह अपनी बेइज्जती लग रही थी और उनका मुँह फूला हुआ था। वे सीधे अपने कमरे में गईं और भड़ाक से किबाड़ बन्द कर ली।
उनकी बेटी भी अपने कपड़ों से ज्यादा खुश नहीं थी इसलिए वह भी पैर पटकते हुए अपने कमरे में चली गयी। उन्होंने अपने बेटे के लिए अपनी हैसियत के हिसाब से बहुत अच्छे कपड़े दिलवाये थे। मगर उनका बेटा नये स्टाइल के कपड़े चाहता था। जिनकी कीमत बहुत ज्यादा थी। इसलिए उसका मूड उखड़ा हुआ था। वह नाराजगी भरे स्वर में अपने पापा से बोला, ‘‘सब बच्चों के पापा अपने बच्चों के लिए उनकी पसन्द के कपड़े दिलवाते हैं। मगर आपको तो हम लोगों की फीलिंग्स की कोई चिन्ता ही नहीं है पापा।’’
सबके व्यवहार से प्रदीप कुमार बड़े आहत थे। इन सबके चक्कर में वे अपनी माँ के लिए बहुत सस्ती सी साड़ी ही खरीद पाये थे। वे साड़ी लेकर माँ के कमरे की ओर चल दिये। माँ के लिए इतनी सस्ती साड़ी ले जाते हुए उन्हें बड़ी ग्लानि हो रही थी। सकुचाते हुए उन्होंने साड़ी माँ की ओर बढ़ा दी। साड़ी देखकर माँ बोलीं, ‘‘बड़ी सुन्दर साड़ी है बेटा, मगर मेरे लिये नई साड़ी की क्या जरूरत थी, तू अपने लिए कुछ ले आता।’’
माँ के प्यार भरे इन शब्दों को सुनकर प्रदीप कुमार को ऐसा लगा कि मानो रिश्तों के उष्ण मरुस्थल में कहीं से शीतल हवा का झोंका आ गया हो।
सुरेश बाबू मिश्रा
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