नज़रों को इधर-उधर घुमाये बगैर मैं सीधे सामने की ओर देखता निकलता।ठीक नाक की सीध पर।जब भी उस रास्ते से गुजरना होता,तो मैं यही नीति अपनाता।लेकिन हद तो तब हो जाती,जब मेरे हाथ में सब्जी रखने वाला वेजिटेरिअन थैला देख कई दुकानदार चीख़ पडते,”….आइये…आइये…भाईजान ले जाइये बिल्कुल ताजा माल है…अभी अभी हलाल किया है….”मुझे आदतन उस ओर देखना पड़ता और मेरे सम्मुख बेहद रक्त-रंजित दृश्य प्रकट हो जाता….जगह-जगह फैला खून,उन पर भिनभिनाती असंख्य मक्खियां ,मांस की लिजलिजे टुकड़े,हड्डियां,खाल से अलग कर एक ओर रखा मांस का बड़ा सा लोथड़ा(पूँछ सहित)…एकबारगी कसाई प्रजाति से बेइंतहा नफ़रत होने लगती मुझे। किसी तरह अपनी उबकाई रोकते मैं वहां से निकलता ।
…एक रोज़ बचते बचाते जब मैं उधर से गुजर रहा था,तो किसी ने मुझे आवाज़ दी।उस स्वर में अन्य दिनों की भाँति बाज़ार की कर्कश गुहार न थी,वरन् अपनेपन की मिठास थी…
“…कैसे हो भाईजान…सब खैरियत तो है…” मैंने मुड़ के देखा,तो उस कत्लगाह में खून से सनी छुरी हाथ में लिए शरीफ कुरैशी खड़ा था।मेरे बचपन का यार। क्लासरूम से लेकर प्लेग्राउंड तक मेरे साथ साथ रहने वाला…उन दिनों उसकी टिफ़िन से टेस्टी सिवइयां छीन छीन कर खाने का मजा ही कुछ और था।
वह बायाँ हाथ हिलाकर मुझे पास आने का इशारा कर रहा था,पर मैं जड़वत खड़ा रह गया। मुझे हिलता डुलता न देख वह मेरी ओर बढ़ने को तत्पर हुआ,तो नज़र उसकी सफ़ेद टीशर्ट पर लाल रंग में लिखे दो शब्द् पर टिक गई। महसूस हुआ कि जैसे उनमे मेरे लिए एक सन्देश छिपा हो….
वे शब्द थे—बीइंग ह्यूमन!!!
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