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लघुकथा की क्षमता

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परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत सत्य है।लेखन के क्षेत्र में ये तत्व पूरी प्रतिबद्धता के साथ विद्यमान है।विशेष रूप से, यदि लघुकथा के परिपेक्ष्य में देखें तो स्पष्टता से परिलक्षित होता है।

अपने उद्भव से लेकर आज के समय तक, लघुकथा ने देश, काल व परिस्थितियों के अनुरूप विभिन्न चोले बदले हैं, और आज लघुकथा का परिष्कृत रूप हमारे सामने है। विधा ने केवल शिल्प की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि कथ्य के दृष्टिकोण से भी एक लंबी विकास-यात्रा तय की है।

अज्ञेय के शब्दों में, ‘क्षण का अर्थ आप एक छोटा कालखंड,एक अल्पकालीन स्थिति, एक दृष्टि,प्रतिक्रिया या प्रक्रिया ले सकते हैं.’

लघुकथा के विषय में अज्ञेय की ये परिभाषा अपने आप में विस्तृत भाव समेटे हुए है। लघुकथा एक कोमल एवं एकांगी विधा है जिसमें संयमता,सूक्ष्मता, सहजता और संक्षिप्तता का निर्वहन करते हुए अपनी बात को स्पष्टता के साथ रखा जाना चाहिए।

लघुकथा के संदर्भ में नामवरसिंह जी केकथन को समझनाअतिआवश्यकहै:

‘यह धारणा गलत है कि साहित्य के तमाम रूपों में एक ही बात कही जाती है।रूपकी विशेषता से वस्तु में भी विशेषताआ जाती है।एक ही साहित्यकार कविता में वास्तविकता का एक पहलू दिखाता है तो उपन्यास में दूसरा और कहानी में तीसरा।’

यह कथ्य कथानक के चयन में सतर्कता बरतने की ओर इंगित करता है।हर कथानक पर लघुकथा नहीं कही जा सकती।कथानक के चयन की असावधानी से कईबारकुछलघुकथाएँ, लघुकथा ना होकर किसी कहानीका अंश बनकर रहजातीहैं।

एक सफल लघुकथा गम्भीर, यथार्थ सम्मत, मौलिक, सूक्ष्म, जुझारू तथा स्पष्ट होने के साथ-साथ सहज,सरल, गहन अर्थ लिए एवं अपने लक्ष्य पर चोट करने वाली भी होनी चाहिए।

भाषा के विषय में देखा जाए, तो लघुकथा की भाषा अन्य विधाओं की तुलना में अधिक सरल होनी चाहिए।आम जनसामान्य की भाषा में कही गई बात का प्रभाव स्वाभाविक होता है। इसका अर्थ ये कदापि  नहीं है कि भाषा में किसी प्रकार के नवीन प्रयोग वर्जित है।रचनाकार स्वविवेक से भाषा में अपना कौशल प्रदर्शित कर सकता है।कथानक की आवश्यकता पर, एवं पात्र के चित्रण के सहयोग के लिए भाषा में भिन्न-भिन्न प्रयोग द्वारा भाषा की विविधता भी दर्शाई जा सकती है, और व्याकरण का निर्वहन भी सहजता से किया जा सकता है।

लघुकथा के विषय में यह बात बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रकट होती है, कि आकार में लघु,कथ्य में सरल एवं भाषा में सहज होते हुए भी, यह आसान विधा नहीं है और इसमें हड़बड़ी, रचना के लिए ही नहीं, वरन्  विधा के लिए भी न केवल अनुचित है , बल्कि घातक है भी।

जितनी गहरी अनुभूतियों और गहन सम्वेदनाओं से कथा निकलेगी, उसका प्रभाव भी उतना ही मर्म को छूने वाला तथा हृदय को प्रभावित करने वाला होगा।लघुकथा की प्रभाव डालने की क्षमता उसकी सहजता के साथ-साथ कथ्य को प्रकट करने की तीव्रता पर भी निर्भर करती है।लघुकथा में लेखक की निज अनुभूतियाँ भी अपना प्रभाव डालती हैं, जिससे लेखक का अपना व्यक्तित्व रचना में परिलक्षित होता है। यही गुण, एक ही विषय पर विभिन्न रचनाकारों की रचनाओं को एक दूसरे से भिन्न बनाए रखता हैं।

पसंद की लघुकथाओं की बात करने पर एक के बाद एक लघुकथाएँ जगमगाने लगीं। किसकी बात करूँ,किसे छोड़ दूँ? बड़ा मुश्किल हो गया मेरे लिए अपनी पसंद की चंद लघुकथाओं पर टिक रहना।

युगल जी की कथा ‘पेट का कछुआ’ का इस संदर्भ में पहला नाम लेना चाहूँगी। इस कथा में गरीबी और लाचारी के साथ-साथ स्वार्थ का भी ऐसा प्राकट्यहै कि पाठक सन्न रह जाता है। पिता अपनी संतान का कष्ट देख शहर आता है, उसके इलाज़ के लिए, और पैसे का प्रबन्ध ना हो पाने पर चंदा इकट्ठा करते-करते मज़मा लगाने लग जाता है। जिसके इलाज़ के लिए पैसा जमा कर रहा था, उसकी पीड़ा ही जब आय का सुलभ-साधन दिखने लगती है ,तो वह बदल जाता है और अंत में अपने बेटे को समझाते हुए कहता है, ‘…यों जिंदा तो है। मरने में कित्ती देर लगती है? असल तो जीना है।’

हाल ही में पुष्करणा जी की कथा ‘झूठा अहं’ पढ़ने को मिली। पति-पत्नी के बीच के सहज से मनमुटाव को केन्द्र में रख कर बुनी गई  कथा, बरबस मुस्कुराने की वजह बन जाती है।

इसी क्रम एक और कथा की भी बात करना चाहूँगी; योगराज प्रभाकर जी की कथा ‘लावा’।जिसमें बीमार स्त्री को सास के मायके से आए मेहमानों के लिए भोजन बनाता देख, उसकी किशोरवय बेटी को बहुत कष्ट होता है। वह इस बात से बेहद नाखुश होती है  कि जब माँ के मायके से कोई आता है ,तो दादी का व्यवहार कुछ और हो जाता है, और अपने मायके वालों के लिए उसकी माँ की बीमारी की भी परवाह नहीं की। कथा का अंत उसके क्रोध के चरम के साथ होता है, जब दादी के सब्जी चख कर निश्चित हो जाने के बाद वह सब्जियों में मुट्ठी भर नमक मिला देती है।कथा का समापन पाठक को स्तब्ध कर जाताहै।

इसके अतिरिक्त, ‘लगाव’, ‘नवजन्मा’, ‘मकड़ी’, ‘धूल सने दर्पण’, ‘वर्ण व्यवस्था’, ‘रंग’ तथा ‘जब पापा छोटे थे’ कथाएं भी मेरे मन के बहुत करीब हैं।

बात अगर रचना से बढ़ कर रचनाकार तक जाती है, तो मेरी पसंद की फ़ेरहिस्त यहाँ भी लंबी ही है। रामेश्वर काम्बोज,सतीशराज पुष्करणा, योगराज प्रभाकर,सुकेश साहनी , सुभाष नीरव , दीपक मशाल, चित्रामुद्गल, कमल कपूर, श्यामसुंदर अग्रवाल , बलराम  एवं अशोक भाटिया को पढ़कर हमेशा सीखने की प्रेरणा मिलती है।

इनके साथ ही कुछ और नाम भी हैं, वीरेंद्र वीर मेहता, रवि प्रभाकर, डॉ०चंद्रेश कुमार छतलानी, कुणाल शर्मा, सुधीर द्विवेदी,जानकी वाही, शशि बंसल व संध्या तिवारी जो सतत प्रयत्नशील हैं, और जिनका लेखन अपनी ओर ध्यान खीचने में सफल हो रहा है।

अपनी पसंद की जिन  दो लघुकथाओं की  मैं  चर्चा करना चाहूँगी, वे हैं-रवि प्रभाकर जी की ‘डूबा तारा’  और और सुधीर द्विवेदी जी की ‘लिट्टिल बिट’ है।

‘डूबा तारा’ घु कथा आम जीवन का सामान्य सा कथ्य लिये है।मानव मन के भीतर छुपे ईर्ष्या-भाव को लेखक ने बखूबी दर्शाया है। सम्वाद शैली में लिखी,इस कथा में गज़ब का प्रवाह है। एक के बाद एक आते सम्वाद कथ्य को प्रकट करते चले जाते हैं, और अंत में शीर्षक को सार्थक करती कथा अपने चरम बिंदु को प्राप्त करती है। लेखक की अनुपस्थिति इस कथा का सुखद पहलू है। कथा में पात्रों की संख्या अधिक होते हुए भी, वे अनावश्यक अथवा थोपे हुए नहीं लगते। कथा की एक अन्य विशिष्टता ये भी है कि पूरी कथा जिस पात्र को केन्द्र में रख कर बुनी है वह पात्र ‘बिट्टो’ पूरी कथा में कहीं नहीं है। माता पिता की युवा बेटी के विवाह को लेकर चिंता का स्वाभाविक चित्रण है। साथ ही माँ की स्त्रियोचित ईर्ष्या का भी सजीव दृश्यांकन है।जो तब जागृत हो जाती है जब रिश्तेदारी की,अपनी ही बेटी की हमउम्र लड़की के विवाह के आमंत्रण पर पति साथ चलने का आग्रह करता है,वह अपने मनोभाव छुपा नहीं पाती और अपने ज्योतिष के ज्ञाता,पुरोहित श्वसुर से अपने मन की पीड़ा कह देती।कथा का अंतिम सम्वाद,’सुनो जी! मौंटी को रहने दो। मैं ही चलती हूँ आपके साथ।’ पूरी कथा का अर्थ प्रकट कर,पाठक को मन में ही विमर्श करने को प्रेरित कर देता है। अपेक्षाकृत आकार में बड़ी कथा में एक भी अनावश्यक शब्द नहीं है कथा पढते समय लगता है कि जैसे पाठक स्वयं भी वहीँ कहीं उपस्थित है और इतनी सघन अनुभूति प्रदान करना लेखकीय सफलता है।

‘लिट्टिल बिट माँ-बेटी के स्नेहिल रिश्ते की सार्वभौमिकता पर मोहर लगाती कथा,सम्वाद एवं विवरणात्मक शैली का सम्मिश्रण है। भाषा बिना किसी आडम्बर के कथ्य को प्रकट करती है। ‘सीखने की कोई उम्र नहीं होती’ का सकारात्मक संदेश देती कथा, देर तक पके दूध में स्वतः आ जाने वाली मिठास में पगी हुई प्रतीत होती है। कथा का सुखद भाव ये है कि माँ अपनी बेटी के उज्ज्वल भविष्य की राह में अपने मोह को नहीं आने देती और बेटी भी अपनी माँ के क्रोधी स्वभाव के पीछे छिपे उसके स्नेह और ममत्व को भली भाँति समझती है कथा का अंत होठों पर मुस्कान और भावुक पाठकों की आँखों में नमी भी छोड़ जाता है। माँ का अपनी बेटी से झिझकते हुए अनुरोध करना मन छू जाता है।यादों में डूबी बेटी का अपनी माँ के गुणों को दोहराकर,कथ्य को प्रकट करने जो सलीका लेखक ने अपनाया है वह सराहनीय है।

दोनों कथाओं के शीर्षक  अपनी अपनी कथा को विशिष्ट आयाम प्रदान करतें हैं। भाषा एवं शिल्प की दृष्टि से सराहनीय कथाएँ एक अलग ही स्तर को छूती प्रतीत होती हैं।कथाओं का आकलन कर सकने की मेरी क्षमता नहीं हैं, पर ये कथाएँ मेरे ह्रदय के निकट हैं तो, अपने मनोभावों को रोक ना सकी।

1-डूबा तारा- रवि प्रभाकर

‘ओ मौंटी ! अब आ भी जा बाहर, मुझे भी नहाना है।’ बाबू जी बाथरूम की ओर देखते हुए चिल्लाकर बोले।

‘देख लो अपने लाडले को! रिसेप्शन पर साथ जाने से साफ इंकार कर दिया।’ सब्ज़ी काटती हुई पत्नी को कहा

‘नहा लेने दो उसे, अभी साढ़े छह ही तो बजे हैं। रिसेप्शन का  टाइम तो वैसे भी आठ बजे का है ना।’ पत्नी थोड़ी रूखे स्वर में बोली !

‘मैं तो कहता हूँ कि तू ही चल मेरे साथ ! कोई ज्यादा टाइम तो लगेगा नहीं, बस शगुन पकड़ाकर वापिस आ जाएँगे।’

‘देखो ! मैं नहीं जाने की वहाँ। किसी भी ब्याह-शादी में जाओ वहाँ बड़ी-बूढ़ी औरतें घेर कर बस यही पूछने बैठ जाती है कि बिट्टो की बातचीत चलाई कहीं कि नहीं? मुझे तो अब बहुत शर्मिंदगी होती है।’

‘देखो, अपनों की बातों का बुरा नहीं मनाया करते’ बाबू जी ने समझाते हुए कहा।’

‘अरे ! जिनसे हमारी बोलचाल तक नहीं है ,वो भी स्वाद लेने के लिए आ जाती है- ‘बिट्टो को एम.ए. किए भी अब तीन साल हो गए हैं, कोई अच्छा सा लड़का देखकर उसके भी हाथ पीले क्यों नहीं कर देती?’ पत्नी की आवाज़ में थोड़ी तल्खी थी।

‘मैनें तो इसके ब्याह के लिए सारा इंतज़ाम भी करके रखा हुआ है। इसके संजोग ही ठंडे है ,तो क्या किया जासकता है! ‘ बाबू जी ठंडी आह भरते हुए बोले।

‘भाभी ! मैनें तो बिट्टो को कई बार कहा है कि वो शादियों में आया जाया करे, पर वो किसी की सुने तब ना। पिछले महीने ज़िद करके ले गई थी इसे मौसी के बेटे की शादी में। पर ये लड़की तो वहाँ बुत ही बनी बैठी रही । उसी शादी में बबली बन-ठनकर सबसे आगे घूम रही थी। बस ! वहीं लड़के वालों को नज़र में चढ़ गई और देखो, हो गई न चट मंगनी और पट शादी?’ बुआ भी कुछ उखड़ी हुई सी बोली

‘पिता जी! आपने तो सैंकड़ों शादियाँ करवा दी हैं, पर अपनी पोती की ही कुंडली क्यों नहीं पढ़ पा रहे आप?’

पत्नी चारपाई पर बैठे ससुर को शिकायत भरे लहजे में बोली

‘तू फिक्र न कर बहू ! जब समय आएगा तो सब कुछ अपने आप हो जाएगा और तुम्हे पता भी नहीं चलेगा। और रही बात बबली की शादी की तो आजकल तारा डूबा हुआ है, तारा डूबा होने के वक्त भी भला शादी होती है कहीं? देख लेना ये शादी कभी कामयाब नहीं होगी।’

ससुर की बात सुनकर पत्नी के चेहरे की त्यौरियाँ कुछ कम हुईं, फिर राहत भरे स्वर में बाबू जी से बोली-

‘सुनो जी! मौंटी को रहने दो। मैं ही चलती हूँ आपके साथ।’

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 2-लिट्टिल बिट – सुधीर द्विवेदी

‘क्या मैं न समझूँ कि अम्मा का मुँह काहे फूला है?’भुनभुनाते हुए वह कपड़े तह करते-करते कब अपने बचपन की यादों को ही उधेड़ने लगी, जान ही न पाई।
‘बड़े घराने की बेटी हैं अम्मा! सो ठकुराई-ठसक तो है ही उनमें। कभी उनके अनुसार घर की लड़कियों का बाहर पढ़ने जाना घर की मर्यादा के ख़िलाफ़ होता था। पर ऐसा भी न है कि निरी अँगूठा-टेक हैं वे। दिमाग़ बहुत तेज़ है उनका..। कोठी की चाहरदिवारी से निकले बिना भी उन्हें रामायण, गीता सबका ज्ञान है। जब कभी कागभुसुंडि-गरुड़ सम्वाद सुनातीं हैं, तो लगता है वेद साकार रूप ले उनके मुख से प्रकट हो रहे हैं। सीता-विदाई का प्रसंग सुनाते-सुनाते सुबक-सुबक कर रो भी पड़तीं हैं। पर न जानें क्यों ? उन्हें मेरा बाहर पढ़ने जाने का विचार, कभी अच्छा नही लगा..। वो तो भला हो बाबा का, जो इतना पढ़ गई मैं.. ।”सोचते हुए उसने अपनी अटैची बन्द करने के लिए कसकर दबायी तो उसमें उँगली दब गई। और आऊच..की आवाज़ के साथ वह वर्तमान में लौट आई।
अम्मा अभी भी मुँह फुलाए बैठी थीं। उसे थोड़ा गुस्सा भी आ रहा था, फिर ये सोचकर आँसू भी छलक पड़े कि आख़िर माँ का दिल है, घबराता तो होगा ही। उनकी लाड़ली बेटी, वह भी अकेली, इतनी दूर जो जा रही है। वह भागकर पीछे से अम्मा के गले से लिपट गई। अम्मा ने भी झट से उसके दोनों हाथ थाम लिये। अम्मा की आँखें भीग गईं थीं।
‘सुन..जाते-जाते मेरा एक काम करेगी तू ?’अम्मा उससे बोलीं।
‘वाह री अम्मा ! अब इत्ती तो खराब न हूँ मैं.., जो अपनी अम्मा का काम न करूँ..बता क्‍या करूँ ?’वह लाड़ जताते हुए सामने आकर अम्मा की गोदी में लेट गई।
‘ये जो तेरा कम्पूटर है न, बस मोहे इतना चलाना सिखा दे कि जब भी तुझे देखना चाहूँ तो इसमें देख सकूँ.., बातें कर सकूँ तुझसे..।’ उसका सिर सहलाते हुए अम्मा की आवाज़ भर्रा आई थी।
‘अच्छा..! मतलब वीडियो कान्फ्रेसिंग…?’वह एक भौं ऊपर चढ़ाते हुए वह उठकर बैठ गई।
‘हाँ अब तू जो भी बोले है इसे वो मैं न जानूँ..,’अम्मा बोलीं।
‘पर अम्मा इसके लिए तो थोड़ी ‘इंगरेजी’ आनी चाहिए न ..।’ कहते-कहते उसने अम्मा की आँखों में आँखें डाल दीं।
‘जब से शहर के कॉलेज में तेरे दाखिले की चिट्ठी आई है ,तभी से से जगेसर से पूछ-पूछकर सीख रही हूँ ।’ अम्मा थोड़ा तुनकते हुए बोली।
‘सच्ची अम्मा …’ वह अम्मा की ठुड्डी ऊपर उठाते हुए चिहुँकी।
‘हूँ..ऊ.. ऊ..! अब तो आ भी गई है तेरी ‘इंगरेजी’ थोड़ी-थोड़ी ..। का कहे उसे.. ? अरे हाँ …! लिट्टिल बिट ..!’ सिर झुकाकर, दाँतों में अपना पल्लू का छोर दबाकर अम्मा, शरमा उठी।

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