हम सब जानते हैं कि साहित्य समाज की धरोहर है। कथाएँ सिर्फ कथाएँ ही नहीं होती, वे इतिहास और संस्कृति को एक साथ लेकर चलती हुई दस्तावेज होती हैं। यह सत्य है कि कविताएँ मुझे बेहद प्रभावित करती करती हैं पर लघुकथा भी मुझे उतनी ही प्रिय और पसंद है।
लघुकथा यानी कि रचनाकार अपनी लेखनी के माध्यम से अपने पाठक के हृदय में त्वरित संवेदना जगा कर अपने भाव से विकारग्रस्त मनोभावों को पछाड़कर मानवीय गुणों को जगाने का काम करता है। जीवन के द्वंद्वात्मक- सुख-दुख, राग-द्वेष, कलुष-निर्मलता, मैत्री -संघर्ष आदि स्वरूप का बोध कराते हुए या शोक, भय, जुगुप्सादि दुखद एवं घृणोत्पादक स्थितियों को दिखाते हुए भी हमारे मन को उसमें संसिक्त, लिप्त अथवा उनसे विरक्त न करके एकाग्र किए रखने जैसी जो क्षमता लघुकथा में है वो किसी और विधा में नहीं है।
लघुकथा अंतस की गहराई से निकली हुई एक अनुभूति है जिसे कलात्मक ढंग से अभिव्यक्त किया जाता है। आधुनिक दौर की लघुकथा इतनी प्रयोगवादी हो गई है कि उस पर कोई लेबल चस्पां करने की जरूरत ही नहीं है।
मेरा ऐसा मानना है कि ऐसा कुछ भी नहीं लिखा जा रहा है, जो पहले नहीं लिखा गया। बस कोशिश यह होनी चाहिए कि उसमें लेखक का अपनापन और मौलिकता दिखे, प्रस्तुति की नवीनता दिखे। यही मौलिकता लेखक की भाषा-शैली बनती है, लेखक की पहचान बनती है।
मैं यह तो नहीं कहूँगी कि लघुकथा से मेरी गहरी अंतरंगता है; पर हाँ अपने सीमित अध्ययन के दायरे में मुझे सत्या शर्मा कीर्ति और सारिका भूषण की लघुकथाएँ बेहद प्रभावित करती हैं। मेरे कहने का तात्पर्य ये है कि इनकी लेखनी आत्मनिर्पेक्ष यथार्थवाद को बहुत ही संतुलित और विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत करती है। इनकी लघुकथाओं को पढ़ने के बाद और अधिक पढ़ने की जिज्ञासा, उत्सुकता की जैसे भूख जग जाती है।
अब मैं जिक्र करूँगी सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ की लघुकथा -फटी चुन्नी का। इस लघुकथा को पढ़ने के बाद ऐसा लगा मानो मन मस्तिष्क पर छप गया हो। दिमाग एक भँवर में गोल-गोल घूमने लग गया। पता नहीं पुरुष क्या खोजना और क्या पाना चाहता है। शायद वह हर स्त्री के शरीर में अपनी विपन्नता को खोजता है।
सीमा अपनी चुन्नी नहीं अपनी आत्मा को सिल रही थी। सब तो उधेड़कर रख दिया तथाकथित उसके अपनों ने, अब बचा ही क्या । क्या अब कभी पोंछ पाएगी अपनी चुन्नी से अपने प्रियतम की पेशानी को…? ऐसे अनगिनत सवाल आजीवन चोट पहुँचाएगे सीमा को और फिर ये सवाल उसी के सीने में दफन हो कर रह जाएँगे।
इस लघुकथा में अनुभूति की संवेदना है उसकी अभिव्यक्ति की नितांत मौलिक शैली बहुत प्रशंसनीय है। सत्या जी की लघुकथा की सरल भाषा सीधे मन को छूती है।
दूसरी लघुकथा है ,सारिका भूषण की ‘एक स्पेस’। सारिका भूषण, ऐसी संवेदनशील लेखिका हैं, जिनकी लेखनी जीवन सत्य के हर रूपों को उद्घाटित करती हैं। उनकी लघुकथा के पात्र पाठक से बात करते हुए लगते हैं। सार्वभौम सत्य की व्यापकता को इस लघुकथा में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह लघुकथा सहज भाषा भाव को अभिव्यक्त करने में सफल सिद्ध हुई है। इस लघुकथा में सरलता,सहजता, शब्द विन्यास आदि गुण विद्यमान हैं। रोचक प्रस्तुतीकरण पाठकों का दिल जीतने में सफल हुई है।
आप दोनों का सृजन भविष्य में और अधिक समर्थ हो यही शुभकामना है मेरी….।
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1- फटी चुन्नी / सत्या शर्मा ‘कीर्ति’
सीमा जो मात्र 14 साल की थी है ,बैठ कर सिल रही है अपनी इज्जत की चुन्नी को आँसुओं की धागा और बेबसी की सुई से ।
कल ही लौटी है बुआ के घर से । वहाँजाते वक्त सुरमई – सा कौमार्य को ओढ़ कर गयी थी , पर आते वक्त सब कुछ बिखर गया था ।
बड़े मान से बुआ ने बुलाया था । प्रसव के दिन नजदीक आ रहे थे ।बुआ फिर से माँ बनने बाली थी ।पहले से वह इक प्यारी – सी तीन साल की बिटिया की माँ थी ।
वहाँ वह हँसती- खिलखिलाती बुआ का सारा काम करती ,फूफा जी भी बात – बेबात उसे प्यार करते रहते ।
सीमा खुश हो जाती ।पिता – तुल्य वात्सल्य से भरा प्यार ! पर कभी कभी चौंक जाती , पापा तो ऐसे प्यार नहीं करते ।ऐसे नहीं छूते ।
धीरे – धीरे हँसी खोने लगी ,उदासी की परत चढ़ने लगी उसकी मासूमियत पर ।
बुआ पूछती- ” क्या हुआ , मन नहीं लग रहा है ? देखो फूफा जी कितना मानते हैं जाओ साथ में कहीं घूम के आ जाओ ।”
पर सीमा बूआ को कभी उस ” मरदाना प्यार ” के बारे में नहीं बता पाई ।
कभी – कभी सोचती , चीख -चीख कर बता दे सब को पर बुआ की गृहस्थी का क्या होगा , जो फिर एक और बेटी माँ बन लोगों के ताने झेल रही है ।
कौन उठाएगा बुआ और उनके दोनों बेटियों का बोझ ।
माँ तो अनाथ बुआ को देखना नही चाहती ।
और वह बहुत शिद्द्त से सिलने लगती है अपनी फटी चुन्नी ।
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2-एक स्पेस / सारिका भूषण की
ठंड की दस्तक तेज थी । हवाएं बदन सिहराने के लिए काफी थीं । नवंबर माह में सुबह पांच बजे उठकर तैयार होकर पार्क जाना कोई मामूली बात नहीं थी । मैं बिना नहाए घर से बाहर नहीं निकल सकती और शायद इसलिए मुझे प्रतिदिन नहाते वक्त नानी का ‘ कार्तिक स्नान ‘ याद आता था , जो नानी की दिनचर्या में शामिल था गंगा नदी जाने के लिए ।
अब यहाँ छोटानागपुर में न ही गंगा नदी और न अब दिखता कोई नदी में कार्तिक – स्नान । हां ! बिजली नहीं रहने पर बाथरूम में ठंडे पानी से स्नान करने में ज़रूर कार्तिक – स्नान की याद आ जाती है । पौने छह में मैं अपने ट्रैक – शूट में पार्क में पहुँच जाती । न चाहते हुए भी निगाहें मिस्टर वर्मा को ढूंढने लगती । जैसे ही मिस्टर वर्मा दिख जाते तो मेरी नज़रें दूसरी और देखने लगती , मानो मैंने किसी को न देखा ।
” हेलो मिसेज फ्रेश ”
मिस्टर वर्मा के मुख से आज तीन शब्द सुनकर न जाने कौन सी नज़दीकियों का आभास होने लगा । आज थोड़ा और जोश से वाकिंग ट्रैक पर पांव बढ़ने लगे । कुछ मीठी -मीठी सी लगने लगी थी पार्क की हवा । पेड़ों से छन कर आती धूप भी गुदगुदाने लगी थी । एक घंटा टहलते हुए कैसे बीत गया पता ही न चला ।
पिछले एक महीने से हमारे बीच सिर्फ ‘हेलो ‘ ही होता था ।
पर ‘ हेलो ‘ भी बहुत अच्छा लगता था ।और आज तो …..दिल बहुत खुश था ।
आज नींद देर से खुली ।
“चलो आज मैं भी वाक पर चलता हूँ । अब तो खुश हो! ” घर से निकलते वक़्त पति की अचानक आवाज़ आयी । पता नहीं क्यों थोड़ी आज़ादी छिनती हुई लगी ।
मैंने मुस्कुराकर कहा “ हाँ ! हाँ ! चलो न !!” पर शायद थोड़े ऊपरी मन से ।
हम पार्क में पहुँच चुके थे । मेरी निगाहें आज किसी को नहीं ढूँढ रही थी । आज हवाएं भारी लग रही थी । धूप भी तीखी लग रही थी । पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था मानो मेरी आँखें खुद से आँखें चुरा रही हों।
शायद हर किसी को चाहे स्त्री हो या पुरुष अपने रिश्तों के बीच एक स्पेस चाहिए । रिश्ते बोझ न बने , उनके दायरों में घुटन न लगे , इसके लिए शायद एक मर्यादित स्पेस चाहिए ।
” देखो , देखो वह मिस्टर हैंडसम तुम्हें कैसे घूर रहा है । ” पति ने चुहलबाजी करते हुए कहा ।
“पता नहीं , मैं इधर – उधर नहीं देखती । ” बड़ी सहजता से मैंने अपनी सफाई दे दी और पार्क में अपने चक्कर गिनने लगी ।
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