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भावनाओं, वैज्ञानिकता, संदेशों और व्यंग्य से परिपूर्ण लघुकथाएँ

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जो मुकम्मल हो जाए वही प्यार है, नहीं तो सब कोशिशें भर हैं। ऐसा ही कुछ कहा जा सकता है लघुकथा के बारे में। मैंने जब पहली लघुकथा लिखी और जो उस समय नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुई थी, तब मुझे पता भी नहीं था कि यह एक लघुकथा है। सत्य तो यह है कि मुझे तो यह भी पता नहीं था कि ऐसी कोई विधा भी अस्तित्व में है।

मैंने बचपन में कविताओं से लेखन शुरू किया था और धीरे-धीरे निबंध लिखते हुए लघुकथा, कहानी, संस्मरण आदि गद्य की विधाओं में लिखने लगा। मेरी पहली लघुकथा ‘जिज्जी की राखी’ थी। जब पहली बार यह रचना एक समूह की साप्ताहिक प्रतियोगिता में भेजी और उस सप्ताह मुझे इसके लिए ‘सर्वश्रेष्ठ लघुकथाकार’ का सम्मान मिला था, तो थोड़ा आत्मविश्वास जागा था।

आज लघुकथा हिन्दी साहित्य की एक परिपक्व और स्थापित विधा है। बावजूद इसके कि इसके साथ कई सवाल और विवाद हमेशा जुड़े रहते हैं और यदा कदा विमर्श से लेकर बहस तक की यात्रा इसे करनी पड़ती है, यह अपने आप को स्थापित विधाओं में शामिल कर चुकी है।

लघुकथा की बनक-ठनक और उसे मारक बनाने के बारे में, शब्द संख्या, पंच लाइन, इत्यादि को लेकर अक्सर बातें चलती रहती हैं। मेरा मानना है कि अच्छी लघुकथा के लिए आवश्यक है कि कथानक अच्छा हो, कथ्य और लिखने की शैली परिपक्व हो, तो फिर अन्य बातों पर अपने आप लघुकथा संज्ञान ले लेती है। एक सुदृढ़ लघुकथा शब्द सीमा अपने आप तय कर लेती है। रही-सही कसर लघुकथा का शीर्षक करता है, जिसे चुनने में लेखक को अपनी सोच को विस्तार देना पड़ता है।

इस आलेख हेतु मुझे मेरी पसंद की दो लघुकथाओं को चुनना था। यह बहुत ही दुष्कर काम था। लेकिन फिर भी करना तो था ही। मेरी पसंद की इन दो लघुकथाओं में पहली है श्रीमती सीमा सिंह जी की ‘मायका’ और दूसरी है डॉ कुमारसम्भव जोशी जी की ‘वाई क्रोमोसोम’।

सीमा जी की लघुकथा ‘मायका’ इतनी भाव -ओतप्रोत है कि जिसका वर्णन शब्दों में करना कठिन है। इसका कथानक लगभग हर सामान्य मध्यम वर्ग के घर-परिवार की कहानी समेटे हुए है। जब एक बहन के लिए भाई द्वारा उसके विवाह के लिए किया गया उपक्रम उसके सामने आ जाता है, तो अतीत जैसे वर्तमान बन जाता है। एक बेटी के लिए मायका और उसकी अहमियत क्या होती है, इस लघुकथा में जैसे बहुत करीने से लिखा गया हो। इस रचना में पंच लाइन अंतिम पंक्तियों  में नहीं है। न ही इस रचना में कोई रहस्योद्घाटन होता है। सम्भवतः पाठक शुरू में ही रचना का अंत समझ लेता है; लेकिन जो जादूगरी परिवेश, वाक्य-विन्यास और संवादों के माध्यम से की गई है, उससे रचना का स्तर बहुत ऊँचा हो जाता है। यह रचना समाज में व्याप्त दहेज़ प्रथा के ऊपर तंज भी है, समाज के  दिखावटी स्याह चेहरे से पर्दा भी हटा है और सीखने वालों के लिए सीख भी। 

डॉ कुमारसम्भव  जोशी जी की रचना एक नएपन की लघुकथा है। इसमें वैज्ञानिकता का आधार है, गजब की सांकेतिकता है, उच्चकोटि का व्यंग्य है, समाज के लिए सीख है, बेहतरीन संवाद समायोजन है और जिसने सोने पर सुहागा किया है वह है इसका शीर्षक- ‘वाई क्रोमोसोम’। हमारे समाज में अज्ञानता के कारण सदैव ही बच्चों के लिंग निर्धारण के लिए महिला को जिम्मेदार ठहराया जाता है, जिसे विज्ञान ने गलत सिद्ध किया है। किसी महिला की कोख में पल रहा शिशु लड़का या लड़की होगा , इसके लिए सिर्फ पुरुष जिम्मेदार होता है न कि महिला।

प्रस्तुत हैं दोनों लघुकथाएँ-

मायका /  सीमा सिंह

“रिक्शा रोकना, जरा!”

भाई को राखी बांधकर वापस लौटते समय गुमसुम नंदिनी अचानक बोल पड़ी तो रिक्शें में साथ बैठे पतिदेव ने चौंक कर पूछा,

 “क्या हुआ, कुछ भूल आई क्या?”

पति कुछ और बोलते, तब तक रिक्शा रुक गया था। किसी जादू के वशीभूत सी नंदिनी रिक्शे से उतरी, और कुछ ही पलों में वह  रेलवे पटरी के उस पार,पुराने  बरगद के पेड़  से बिल्कुल सटे हुए एक खाली प्लॉट में खड़ी थी।

अवाक पति भी लगभग भागते हुए उसके पीछे-पीछे वहां आ पहुंचा।

 “क्या बचपना है, नंदिनी?” घड़ी की तरफ़ नज़र डालते हुए पति ने झुँझलाते हुए कहा, “ट्रेन छूट जाएगी… समय हो गया है!”

पर, नंदिनी तो जैसे किसी और लोक में थी। वह वहीं नीचे बैठ गयी, और दोनो हाथों से  ज़मीन सहलाने लगी।

उसकी इस हरकत को देख कर अब पति का पारा चढ़ गया,जमीन पर बैठी  नंदिनी की बांह नीचे झुककर पकड ली और  झंझोड़ते हुए भड़का,

 “तुम ये कर क्या रही हो?!”

जवाब में नंदिनी की आँखे भर आईं। अब भी वह कुछ न बोली बस ज़मीन सहलाती रही।

“अचानक तुम्हें हो क्या गया है, नंदिनी?” पति की आवाज़ में परेशानी बढ़ती जा रही  थी।

“ये… ये वही प्लॉट है जो बाबा के बाद, हम दोनों बहनों को ब्याहने के लिए… भैया को बेचना पड़ा था,” नंदिनी बमुश्किल बोल पाई।

उसका जवाब सुनकर पति सकपका गया। वह कुछ बोला तो नहीं, पर नंदिनी की बांह पर से उसकी पकड़ कमज़ोर जरुर हो गई।

“माँ यहाँ अपना घर बनाना चाहती थी।”

 एकाएक नंदिनी ने वहीं  पास पड़ी हुई सूखी लकड़ी उठाई, और प्लॉट के दूसरे छोर पर जा खड़ी हुई।

पति हतप्रभ सा खड़ा उसे उस ओर जाते हुए देखता रह गया।

“ये, यहाँ पर माँ की रसोई… यहाँ पूजाघर… ये माँ-बाबा का कमरा, ये भैया का कमरा!” प्लॉट के छोर से लकड़ी से भुरभुरी मिट्टी पर नक्शा उकेरती हुई वह पीछे खिसकती आ रही थी। 

“और ये रहा हम दोनों बहनों का कमरा…”  इससे आगे वह कुछ कहती, कि पति से टकरा जाने से वह लड़खड़ा गई।

पति ने फौरन उसे अपनी बाँहो में सम्हाल लिया। “चलो, नंदिनी, यहां से चलो। अब न माँ है, न बाबा रहे। और ये प्लॉट भी अब तो अपना नहीं है।” पति ने नंदिनी को अपने सीने में समेट लिया।

“सब समझती हूँ, पर… ज़रा सा रुक जाओ, न! दो पल… बस दो पल, इस मायके का सुख और ले लूँ।” बुदबुदाते हुए, दोनों मुट्ठियों में प्लॉट की मिट्टी समेटे नंदिनी की नजरें ज़मीन में उकेरे नक़्शे में मायका तलाशती जा टिकी।

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2-वाई क्रोमोसोम/ डॉ कुमारसम्भव जोशी          

“वाओ! पाँच दिन की छुट्टी है। क्या कहती हो, शिमला घूम आएँ?” मनीष बड़ा खुश होता हुआ घर आया।

“जी, वो गाँव में माँजी की तबीयत कुछ ठीक नहीं है, आप कहें तो उनसे मिल आते हैं?” अनिता ने झिझकते हुए कहा।

“अरे यार तुम भी ना! कहाँ शिमला, कहाँ माँ!” मनीष का मूड उखड़ा।

“वे माँ हैं आपकी।” अनिता ने हौले  से नज़रें उठाई।

“हाँ.. हाँ दादी के पास।” उछलती, ताली बजाती दोनों बेटियाँ भी खुश होती वहाँ आ पहुँची।

“ओफ्फोह! अच्छा चलो चिट डाल लेते हैं। जो आएगा वही कर लेंगे।” उसने अनिच्छा से कहा।

“जैसा आप ठीक समझें।” अनिता ने कोई प्रतिवाद नहीं  किया, मगर बेटियों के लिए मनीष की निगाहों में भरा तिरस्कार भी उससे छिपा नहीं।

“चलो कोई एक चिट उठा लो।” दो पर्चियों पर नाम लिख कर मोड़कर अनिता के सामने डालते हुए वह बोला।

“उम्म्… ये वाली।” कहते हुए अनिता ने एक चिट खोली।

“माँ से मिलने…उफ! अरे यार! तुम्हें कहना ही बेकार था। तुम कभी कोई चीज सही कर ही नहीं सकती। मेरा इच्छित तुम दे ही नहीं सकती। तुम हो ही पनौती।” इच्छित चिट न निकलने से बुरी तरह खीझा मनीष उसकी दुखती रग पर चोट कर बैठा।

“मैं? मैं पनौती? मैं कुछ सही नहीं कर सकती?” इस दोषारोपण से अनिता अचानक क्षुब्ध हो उठी।

“और नहीं तो क्या! तुम्ही ने तो यह चिट खोली है।” मनीष भड़का।

“हाथ तुम्हारा, कलम तुम्हारी, लिखा तुमने, चिट तुमने बनाई, और बंद करके मेरे समक्ष रख दी। मेरे वश में तो सिर्फ तुम्हारी डाली चिट खोलना था। फिर भी हर बार दोष सिर्फ मेरा?”

जैसे बरसों का बाँध टूट गया हो, अनिता दोनों बेटियों को चिपटा कर रो पड़ी।

और दोनों बच्चियाँ सोच रही थी कि ये वाली चिट खुलने में गलत क्या है?

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