लघुकथा ज्यों–ज्यों फैलाव ले रही है, त्यों–त्यों उससे कुछ सवालों को अकारण ही जोड़कर स्वयं को उभारने की कोशिश भी होती रही है। ऐसी स्थिति में रचना और आलोचना तथा इसके रिश्तों पर बुरा असर पड़ा है।
वे सिद्धान्त, जो रचना को बेहतरी की ओर न ले जाएँ या व्यावहारिक न हों–व्यर्थ होते हैं। सिद्धान्त रचना में से जन्म लेते हैं। यदि उन्हें बाहर से लागू करने का प्रयास किया जाएगा तो या तो रचना नहीं रहेगी या सिद्धान्त नहीं रहेंगे। उदाहरण दिलचस्प है। हिन्दी में महाकाव्य के लिए जो लक्षण संस्कृत और हिन्दी के नामी आचार्यों ने दिए, उन पर हिन्दी का एक भी प्रसिद्ध महाकाव्य खरा नहीं उतरता। इससे रामचरितमानस, पद्मावत, साकेत या कामायनी का महत्त्व कम नहीं हो जाता। यहाँ तक कि आधुनिक काल में महाकाव्य के नए लक्षण दिए गए, जो काव्य के कण्टेण्ट और थीम को अधिक महत्त्व देते हैं। हालाँकि ये लक्षण एक क्लासिक किस्म की काव्य विधा के लिए थे, लेकिन लघुकथा तो इस दायरे में नहीं आती है।
एक समय था, जब कहानी और उपन्यास को छह तत्त्वों (कथानक, पात्र, संवाद, वातावरण, भाषा–शैली, उद्देश्य) के आधार पर परखा जाता था। लेकिन 1960 के आस–पास कथाकारों व समीक्षकों को अनुभव हुआ कि रचना की संश्लिष्टता को तत्त्वों में बाँटकर नहीं परखा जा सकता। समय के अनुसार सामाजिक प्रतिक्रियाएँ तेज होती जा रही हैं, ऐसे में ये स्थिर मापदण्ड उसके लिए प्रासंगिक नहीं रह गए। लेकिन इधर हिन्दी लघुकथा के क्षेत्र में लेखन के आधार तय करने के लिए कुछ शास्त्रीय सवाल रह–रहकर उभारे जा रहे हैं। तात्विक परख एक तरह की अध्यापकीय समीक्षा है, जो रचना की संवेदना से प्राय: दूर रहती है। और फिर समीक्षा की कसौटी आप जैसी भी बनाएँ, रचना करने के कोई ऐसे आधार कैसे बनाए जा सकते हैं?
एक सवाल है कि कथानक के दृष्टिकोण से लघुकथा में एक घटना या एक बिम्ब को उभारने की अवधारणा कहाँ तक सार्थक है? लघुकथा में घटना एक भी हो सकती है, एक से अधिक भी और एक भी नहीं हो सकती। कई बार केवल स्थिति ही काफी होती है। तो सभी सम्भावनाएँ लेखक के सामने खुली हैं। उद्देश्य के लिहाज से जिस रूप में वह अपनी बात को ठीक ढंग से कह पाए–वही उसे अपनाना चाहिए। यही बात बिम्ब के बारे में कही जा सकती है। एक से अधिक बिम्बों का प्रयोग भी हो सकता है। बिम्ब रचना के सौन्दर्य में वृद्वि तो करता है, लेकिन कई रचनाओं में इसको लाना उसकी गतिशीलता में बाधक बन सकता है। इसलिए एक घटना और एक बिम्ब का सिद्धान्त कोई मायने नहीं रखता। रचनात्मक कौशल से बड़े फलक पर भी लघुकथा लिखी जा सकती है।
दूसरा सवाल है कि क्या लघुकथा में पेड़–पौधे आदि प्रकृति के उपादान केन्द्रीय पात्र की भूमिका निभा सकते हैं? मेरा अपना मत है कि कथाकार को एलीगरी से यथासम्भव बचना ही चाहिए। इसमें रोमानी मानसिकता का और समाज से कटने का खतरा साफ दिखाई पड़ता है। यह खतरे लेखक के साथ–साथ पाठक को भी चपेट में ले सकते हैं। पेड़–पौधों का लघुकथा में प्रयोग करना या उन्हें नायक बनाना वर्जित नहीं है, लेकिन उन पर प्राथमिक तौर पर निर्भर करना भी ठीक नहीं है। यदि मनुष्य पात्र को रचना में उतारने से लेखक अपनी बात बेहतर कह सकता है, तो पेड़–पौधों का सहारा लेने की क्या जरूरत है? मनुष्यों की जटिल मानसिकता का, जटिल सम्बन्धों का, आज के जटिल व संश्लिष्ट यथार्थ का आरोप पेड़ों आदि पर कैसे कर सकते हैं? यह भी अस्वाभाविक है कि कोई चिडि़या या कबूतर मानव–मन का विश्लेषण करते हुए दिखाए जाएँ। वैसे खलील जिब्रान ने एलीगरी का बहुत और असरदार प्रयोग किया है। लेकिन आज जैसी रचनाओं की जरूरत है, उसमें इसका अधिक प्रयोग रचनात्मक लक्ष्य को पीछे धकेल देगा। आज जब, ‘सीधी कार्रवाई’ और ‘निर्णयात्मक लड़ाई’ की बात की जा रही है, तो हमें अपनी बात यथासम्भव सीधे–सीधे ही कहनी होगी।
तीसरा सवाल यह है कि लघुकथा में कथोपकथन (संवाद) तत्त्व का होना अति आवश्यक है या नहीं? और संवादों के वाक्यों का छोटा होना भी क्या अनिवार्य हैं? एक रचना को वाक्य के स्तर पर न तो परखा जा सकता है, न ही लिखते समय लेखक का ध्यान वाक्य–संरचना की विशेषताओं पर रहता है। जब कण्टेण्ट अपना रूप स्वयं निर्धारित करता है तो वाक्यों व संवादों के छोटे (चुस्त) होने की बात रचना पर कैसे लादी जा सकती है? संवाद स्वयं में रचना का महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है। इससे कई बार बहुत बड़ी बात कही जा सकती है, लेखक को रचना में हस्तक्षेप भी नहीं करना पड़ता। लेकिन संवादों का होना कोई शर्त नहीं है। लघुकथा में संवाद हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते और सिफर् संवादों के बल पर लघुकथा लिखी जा सकती है। जब पूरी कहानी (ऊपर, नीचे और दरमियान : लेखक सआदत हसन मण्टो, सन्दर्भ पहल–31) संवाद शैली में लिखी जा सकती है, तो लघुकथा क्यों नहीं लिखी जा सकती? संवादों का प्रयोग लेखक व रचना पर निर्भर करता है।
लघुकथा के कुछ लेखक–समीक्षक काल के अन्तराल को लघुकथा का दोष मानते हैं। मेरे विचार में अन्य विधाओं में कभी प्रचलित रही प्राचीन कसौटियों को लघुकथा में लाकर खड़ा करने का कोई औचित्य नहीं है। काल–दोष (और स्थान–दोष) की बात सबसे पहले अरस्तू ने उठाई थी। लेकिन शेक्सपियर ने अपने नाटकों में उस कसौटी को कोई महत्त्व नहीं दिया। आखिर हर रचना की अपनी प्रकृति और अपनी ज़रूरत होती है। हिन्दी में नाटक की समीक्षा के लिए प्रसाद–युग तक ‘त्रिदोष’ (समय, स्थान और कार्य का अन्तराल) को एक कसौटी बनाया गया, उसके बाद रचनात्मकता पर से यह बन्धन हट गया। दरअसल काल–दोष वाली बात अपने में जड़ अवधारणा है। काल एक निरन्तर गतिशील प्रवाह है, जिसका वर्तमान अतीत से जुड़ता और भविष्य में घटता रहता है। लघुकथा की एक ही समय में घटित होने की कसौटी उसका गला घोंट देने में ही सहायक होगी। इस कसौटी से एक स्थिर और सतही पॉप्युलर किस्म के यथार्थ को लेकर लिखी जानेवाली लघुकथाओं को बल मिलेगा। कई बार एक लम्बे समय को लेकर लघुकथा में अपनी बात अधिक सघन व असरदार ढंग से कही जाती है। जटिल, संश्लिष्ट व गतिशील यथार्थ को पकड़कर उसे कलात्मक यथार्थ तक पहुँचाने के लिए लेखक के पास विविध प्रयोगों के क्षेत्र खुले रहने चाहिएँ। कविता, उपन्यास और कहानी में एक लम्बे समय की बात को कहने के लिए लेखक कल से आज और आज से कल पर सुविधा या जरूरत के अनुसार फ्लिक करता है। समय का एक बड़ा दायरा, बड़ा फलक कई कथानकों के लिए जरूरी होता है। लघुकथा के लघु कलेवर में लेखक यदि समय के विशाल फलकवाले कथानक को सफलता से निभा जाता है, तो यह उसका रचनात्मक कौशल कहा जाएगा।
अनेक विश्वप्रसिद्व बाल–कथाओं और लोक–कथाओं में काल की सीमा का बन्धन नहीं माना गया। ‘मूर्ख गडरिया’ में अलग–अलग समय में गडरिया कुल चार बार ‘शेर–शेर’ चिल्लाता है। इस तरह काल–दोष देखने लगें तो उसमें तीन बार अन्तराल आया है, लेकिन लघुकथा प्रभावित करती है। पहली तीन बार झूठ–झूठ चिल्लाने पर लोग मदद के लिए आते हैं। चौथी बार सचमुच शेर के आने पर वह चिल्लाता है, पर लोग अब झूठ समझकर मदद को नहीं आते। इस लघुकथा का उद्देश्य अन्तराल को दिखाए बिना पूरा ही नहीं हो सकता था। इसलिए एक ही समय में घटना होने की कसौटी अतार्किक लगती है। उद्देश्य की दृष्टि से लघुकथा में अन्विति और एकतानता होगी तो काल–दोष वाली बात उसका बड़ा गुण दिखाई देगी। पाठक भी रचना के उद्देश्य को लेकर प्रभावित होता है, चाहे रचना कितने स्थानों और समय तक फैली हो। प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की कई लघुकथाएँ काल की सीमा से ऊपर हैं। ‘सूअर’, ‘अमरता’, ‘लिफ्ट’, ‘बाप बादल’, ‘थ्रू प्रॉपर चैनल’, ‘बात’ आदि उनकी ऐसी ही लघुकथाएँ हैं। इस तरह लघुकथा में काल को लेकर लेखक पर बन्धन नहीं लगाना चाहिए। एक उद्देश्य, एक बात के हिसाब से लेखक जहाँ जाना चाहता है, वह जाएगा ही।
तो ऐसी शुष्क और गैर–रचनात्मक कसौटियाँ लघुकथा ही नहीं, किसी भी प्रकार के लेखन पर लागू नहीं होतीं। लेखक रचनात्मक प्रक्रिया से गुजरते हुए इन कसौटियों पर कभी ध्यान नहीं देता, दे भी नहीं सकता। उसके सामने जीता–जागता, हलचलों से भरा जीवन है, पात्र हैं, लेखन का उद्देश्य है। रचना अगर लेखक के विचारशील–संवेदनात्मक व्यक्तित्व से उपजी है, तो वह उन सवालों से ऊपर है, बहुत ऊपर है। रचनात्मक क्षण इन प्रश्नों से अलग रहते हैं। बकौल रमेश बतरा–विचार और अनुभव तो जिन्दगी को भी पीछे छोड़ जाते हैं, शर्त तो क्या चीज है? एक श्रेष्ठ रचना वह है जिसमें पाठक की सोच, भावना और संवेदना को सही दिशा में प्रभावित करने की क्षमता हो।
(प्रकाशित :– ‘लघु आघात’ (त्रैमासिक), इन्दौर
अप्रैल–दिसंबर 1987)
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लघुकथा और शास्त्रीय सवाल
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