लघुकथा साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा के रूप में सुपरिचित व स्थापित है। जीवन-जगत की वे अधिकतर स्थितियाँ जिनसे सामान्यजन का रोज ही सामना होता है। लघुकथा की अन्तर्वस्तु बनती हैं। और जनमानस पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। किसी भी विधा के समग्र विकास के लिए प्रयोग आवश्यक होते हैं, वे विधागत जड़ता को समाप्त कर उसे गतिशील बनाते हैं व अपने समकाल की सार्थक अभिव्यक्ति कर पाते हैं। एक रचनाकार अपने चारों ओर बिखरी परिवेशगत स्थितियों के यथार्थ को व्यक्त कर पाने में तभी सफल हो पाता है, जब उसकी रचनात्मकता का पहले से कोई बना-बनाया स्वरुप नहीं होता। उसकी संवेदन-प्रखरता उसे अपनी रचना की नई कहन और शिल्प प्रदान करती है। पूर्वाग्रहों से मुक्त ऐसी रचनात्मकता निश्चय ही चमत्कृत करती है। ऐसी रचनाओं का शब्द-संगठन प्रतीक बन जाता है, जिन्हें समझना और उनके मर्म तक पहुँचना पाठक से अतिरिक्त एकाग्रता की अपेक्षा करता है जो उसे रचना के गहरे अर्थ तक पहुँचाती है। प्रख्यात लघुकथाकार सुकेश साहनी द्वारा संपादित ‘गहरे पानी पैठ’ ऐसी लघुकथाओं का अभिनव संग्रह है।
संग्रह की पहली लघुकथा ‘सीख’ (अंजली गुप्ता ‘सिफ़र’) ही हमें विमुग्ध करती है। अधुनातन समाज व्यवस्था जो अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को नोचते-खसोटते मार गिराने की अभ्यस्त हो चुकी है-‘एक हफ्ते से घर कितना सूना है न, सब लोग चले गये। हमारा खाना भी नहीं छोड़ गए। अब हम क्या खाएँगे?’ गोल्डी रुआँसी हो उठी। ‘तुम्हारा तो पता नहीं; लेकिन ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए यह मैंने इनसे जरूर सीखा है।’ मीनू गोल्डी की आँखों में देखते हुए बोली।’
कुछ देर बाद टैंक में केवल एक ही मछली तैर रही थी। लघुकथा मानवेत्तर (दो मछलियों) चरित्रों का सृजनकर आगे बढ़ती है जो लघुकथा के कथ्य का मेरुदण्ड बनकर उभरते हैं और आज की दुनिया के नख से शिख तक के बनावटीपन को अकस्मात उधेड़ डालते हैं। इसी तरह लघुकथा ‘हँसी’ (असगर वजाहत) अपनी अन्तर्वस्तु और भाषिक संरचना से पाठक को तत्क्षण बाँध लेती है। जटिल कथ्य भी भाषाई कौशल से अंत में सरल हो जाता है। एक विलक्षण चरित्र का सृजन कर लघुकथाकार हमारे भीतर के सारे खोखलेपन को उजागर कर हमें वस्तुस्थिति से अवगत कराता है। आज व्यक्ति स्वयं ही एक उत्पादित सामान की तरह बिखरा पड़ा है। उसका नैसर्गिक स्वरुप अनेक विखण्डित भूमिकाओं में है। ओढ़ी हुई गम्भीरता ने उसे अवसादपूर्ण परिस्थितियों में ढकेल दिया है। लघुकथा का अंत इनसे मुक्त होने का संकेत देता है।
इसी तरह ‘आखिरी रास्ता’ लघुकथा (अजय पालीवाल नरेश) उन मर्माहत स्थितियों की ओर ध्यान खींचती है जो वर्तमान समय में बुजुर्गों की नियति बन गई है। विखण्डित परिवारों की शृंखला में कहीं भी कोई ऐसा जोड़ नहीं जहाँ उनके अस्तित्व की कड़ी जुड़ती हो। ‘पतंग’ (अदिति मेहरोत्रा) लघुकथा भी ऐसी ही सामुदायिक आकांक्षा के सामने एक सामयिक प्रतिक्रिया है। ‘मुक्ति’ (अर्चना वर्मा) लघुकथा एक नई भाव-भंगिमा के साथ मनुष्य की संभावनाओं और उसके भीतर की रोशनी को परिभाषित करती है। अपनी ही रोशनी से आत्ममुग्ध होकर बाहर के कठोर यथार्थ से नहीं लड़ा जा सकता। लघुकथा में निहित गहरा अन्तर्बोध प्रभावित करता है। ‘नोट’ (अवधेश कुमार) अर्थग्रस्त मानसिकता को सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करती है। एक तरह से अर्थवादी सामाजिक संरचना की पर्तें खोलती है। कथ्य व शिल्पगत प्रयोग लघुकथाओं को ठोस बनाते हैं लेकिन बोझिल नहीं होने देते लघुकथाओं के निष्कर्ष पाठकों को चमत्कृत करते हैं। ऐसी ही लघुकथाओं के क्रम में ‘स्वाभिमान’ (अनिल शूर आजाद), ‘माँ’ (ऋता शेखर मधु), ‘गुलाब के लिए’ (कस्तूर लाल तागरा), ‘रास्ते’ (कृष्ण मधु), ‘अपनी ही आग में’ (आनंद), ‘संकट और सम्पर्क’ (ओमा शर्मा), ‘बड़ा होने पर’ (गंभीर सिंह पालनी), ‘कुत्ता’ (चंदर सोनले), ‘पति परमेश्वर’ (पल्लवी त्रिवेदी), ‘बिना शीशों का चश्मा’ (रामकुमार आत्रेय), ‘आतंकवादी’ (रामकुमार घोटड), ‘साँप’ (रामनिवास मानव), ‘रास्ते’ (लखन स्वर्णिक), ‘हाथी के दाँत’ (विष्णु नागर), ‘प्रार्थना’ (सुरेश शर्मा) हैं।
‘बैताल की नई कहानी’ (अशोक भाटिया) लघुकथा की कथास्थिति, चारित्रिक बुनावट और लयबद्धता पाठक को अपने में समेट लेती है। स्पष्ट रूप से पाठक लघुकथा में अपनी उपस्थिति को अनुभूत करता है कि सामाजिक, सामुदायिक व पंथगत संकीर्णताएँ किस तरह एक अंतहीन विस्तार बनती जा रही हैं। जिन्हें प्रगतिशील युग में भी बैताल अपनी पीठ पर ढो रहा है। शीर्षक का लघुकथा से जुड़ाव और उसकी अर्थवत्ता रोमांचित करती है। ‘पहरे पर संतरी’ (आनंद हर्षुल) लघुकथा बाहरी अनुभवों के कड़बे यथार्थ को बड़ी मार्मिकता से पिरोती है। ‘जात’ (कमल चोपड़ा) लघुकथा जात व्यवस्था पर गहरा कटाक्ष करती है। छोटे बच्चे के माध्यम से ज्वलन्त प्रश्न उपस्थित कर आत्मीय संस्पर्श की माँग करती है। ‘डर’ (उदय प्रकाश) लघुकथा का वैशिष्ट्य उसकी लघुता में सिमटी दीर्घता है जो पाठक को देर तक मथती है। आज की त्रासद स्थितियों में डरे हुए मनुष्य की उपस्थिति दर्ज करती है। लघुकथा की अर्थवत्ता समूची दारुण स्थितियों की मीमांसा करती है। कटु यथार्थ को व्यापक सन्दर्भों में प्रस्तुत करती है। ‘समाजवाद की प्रतीक्षा’ (उर्मिकृष्ण) लघुकथा में प्रजातंत्र की यथार्थ स्थितियों की गहन व्यंजना है। चुनावी कोख से जन्मी विद्रूपताओं के बीच पलते मनुष्य की मनःस्थितियों का चित्रण करती है। अपने कथ्य की संवेदना और भाषा सौष्ठव से लघुकथा प्रभावित करती है। ‘समाजवाद’ (उर्मिल कुमार थपलियाल) लघुकथा में स्थितियों का अतियथार्थवादी चित्रण होते हुए भी अनायास पाठक को अपनी ओर एकाग्र करती है। यह एकाग्रता केवल कथा-स्थिति के प्रति नहीं थके हुए पात्र के प्रति है जिसे मनुष्य के रूप में परिभाषित किया जाता है, वस्तुतः वह इतना यंत्रवत हो चुका है कि उसे अपने ही अस्तित्व की अनुभूति निर्मूल प्रतीत होती है। एक विचार शून्यता इसे घेरे रहती है, दरअसल यह विचार शून्यता उस यथास्थितिवाद की परिणति है जहाँ बदलाव की कोई गुंजाइश शेष नहीं रह जाती। देह के भीतर की जीवन्तता से थका हुआ मनुष्य पूरे अस्तित्व को ही विभाजित कर स्थितियों के हवाले कर देता है। लघुकथा की व्यंजकता से विचार की कई धाराएँ फूटती हैं। ‘दुम वाला आदमी’ (भगीरथ परिहार) लघुकथा सीधा लक्ष्य संधान करती है कि एक झूठ दूसरे झूठ में किस तरह से एकाकार हो जाता है। इस लघुकथा का गहन कथ्य व्यवस्था के कलपुर्जों की कलई खोलता है। ‘दौड़’ (मधुदीप) लघुकथा मर्म स्पर्शी है। अति महत्वाकांक्षाएँ व्यक्ति को किस तरह अकेला कर देती हैं। लघुकथा अपनी अन्तर्वस्तु से व्यक्ति की अनेकरूपता के कोहरे को छाँटती है इसे दिशा देती है। इस क्रम में ‘जानवर भी रोते हैं’ (जगदीश कश्यप), ‘चोर’ (जोगिंदर पाल), ‘वह तीसरा’ (दीपक मशाल), ‘मदारी और खेल’ (पारस दासोत), ‘तुमसे मैं’ (पूनम डोगरा), ‘दो तितलियाँ और चुप रहने वाला लड़का’ (प्रबोध गोविल), ‘चश्मदीद’ (बलराम अग्रवाल), ‘शहर और आँखें’ (मनोज कौशिक), ‘अधूरे ख्वाब’ (महेन्द्र कुमार), ‘आदेश’ (युगल), ‘खोया हुआ आदमी’ (रमेश बतरा), ‘चिड़िया’ (रवीन्द्र वर्मा), ‘अपने पार’ (राजेन्द्र यादव), ‘जिस्मों का तिलिस्म’ (सतीश राठी), ‘आईना’ (सत्यनारायण) आदि महत्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं।
‘जरूरत’ (महेश शर्मा) लघुकथा एकाएक ध्यान आकर्षित करती है। पुराने सामान को ऑनलाइन बेचने के चलन के बीच सामान का फोटो सेशन करते पोते द्वारा ग्रैण्ड पा, स्माइल प्लीज कहते उनका फोटो क्लिक कर लेना। एक क्षण भर का घटनाक्रम। दादा के पूरे अस्तित्व को हिला देता है। वृद्धों की घर में स्थिति का एक रूपक सामने खड़ा हो जाता है। ‘फक्कड़ उवाच’ (योगराज प्रभाकर) लघुकथा दिन और रात के भौगोलिक व्याकरण को सामाजिक सन्दर्भ देती है। सूरज की उपस्थिति को भिन्न आयाम देती है, सत्ता के अहंकार को एक फक्कड़ ही ललकार सकता है। ‘चिरसंगिनी’ (रामेश्वर काम्बोज हिमांशु) लघुकथा में कुंठाग्रस्त मनुष्य की भाव स्थितियाँ एक बार को विस्मित करती हैं कि कथावस्तु कितनी सूक्ष्मता के साथ कुंठाग्रस्त मनः स्थितियों की शल्यक्रिया करती है। अपराधबोध के पर्यवेक्षण में बुना गया कथ्य प्रभावित करता है। एक तरह से लघुकथा मनुष्य के जटिलतम अन्तर्बोध की व्याख्या करती है। लघुकथा उस व्यतीत को पुनर्जीवित करती है जिसे लेकर मनुष्य सोया हुआ है। ‘और वह मर गई’ (शंकर पुण तांबेकर) लघुकथा एक प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह सामने आती है। सत्य और नीति लघुकथा में दो भाव वाचक संज्ञाएँ भर नहीं हैं। क्षयग्रस्त जीवन मूल्यों का रुदन है। जो आज भी हाशिए पर पड़ा है। ‘वर्ग-भेद’ (सतीश राज पुष्करणा) लघुकथा समाज में व्यक्ति की वस्तु स्थिति और उसकी मूल संवेदना को बहुत गहरे से रेखांकित करती है। ‘और वह मरी नहीं’ (संध्या तिवारी) लघुकथा स्त्री मन की गाँठों को परत-दर-परत खोलती है, उसके जर्जर आत्मविश्वास को सिलने की कोशिश करती है। ‘नंगा आदमी’ (सुकेश साहनी) लघुकथा मनुष्य की उस प्राकृतिक मनोदशा का चित्रण करती है जो उसे जन्म से मिली है। परन्तु सामाजिक स्थितियों में उसे न जाने कितनी पोशाकें और मुखौटे पहन कर जीवन यापन करना होता है। सामाजिक परिवेश के प्रयोजन नित्य रूप-रंग बदलते हैं। आदमी को उसी क्रम में नकलीपन ओढ़े रहने की कलात्मकता को सीखना पड़ता है पर एक दिन ऊब कर वह उसे उतार फेंकता है। छल, फरेब, प्रपंच की पोशाकों से अलग होते ही अवसाद की स्थिति से मुक्ति मिलती है एक अलग सुख की अनुभूति होती है। किन्तु समाज को वह स्वीकार नहीं। वास्तव में यह पोशाकें विभिन्न विचार धाराओं की प्रतीक हैं। जिनसे स्वतन्त्र होना दुष्कर है और पहनकर सत्य से दूर हो जाते हैं। समाज में व्यक्ति की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है। लघुकथा की प्रतीकात्मकता और भाषायी सौष्ठव मुग्ध करता है। ‘सफर में’ (सुभाष नीरव) लघुकथा मनुष्य के स्थितिपरक व्यवहार की व्यंजना करती है। समय और स्थिति के अनुसार मनुष्य स्वतः सामंजस्य की ओर उन्मुख होता है। नीरव जी अपनी रचनात्मकता में कहीं भी तनाव नहीं आने देते। ‘तिल’ (हरि मृदुल) लघुकथा स्त्री के प्रति पुरुष के वर्चस्ववादी सोच की व्यंजना करती है। पुरुष हमेशा स्त्री के भीतर के व्यक्तित्व को बाहर के देह सौष्ठव से पढ़ने की कोशिश करता है। ‘तिल’ शीर्षक एक बिम्ब के रूप में उभरता है। कथा-सौष्ठव प्रभावित करता है।
संग्रह की अन्य महत्वपूर्ण लघुकथाओं में ‘जूते और कालीन’ (चैतन्य त्रिवेदी), ‘अभी’ (जसवीर चावला), ‘तकनीक का धमाका’ (जावेद आलम), ‘पश्चाताप’ (नर्मदा प्रसाद उपाध्याय), ‘दया’ (पृथ्वीराज अरोड़ा), ‘रोटी की शक्ल’ (भगवान प्रियभाषी), ‘लकीरें’ (मनन कुमार सिंह), ‘चिड़िया’ (राजेश सकलानी), ‘निकाहल चंद’ (रघुनन्दन त्रिवेदी), ‘छाता’ (रमेश आजाद), ‘कुकनूस’ (रवि प्रभाकर), ‘लांग शाट’ (राकेश कुमार), ‘हाथी के दाँत’ (विष्णु नागर), ‘आद्र्रता’ (संतोष सुपेकर), ‘आमने-सामने’ (सुधीर अग्निहोत्री), ‘भला आदमी’ (सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा), ‘पल-पल’ (सोनाली सिंह), ‘एहसास’ (हरदर्शन सहगल), ‘लूट’ (हरीश करमचंदाणी), ‘लाठी’ (हरीश नवल), ‘खुशफहमी’ (हसन जमाल) की चर्चा उल्लेखनीय है। सभी लघुकथाएँ अपने कथ्य-विधान यथार्थवादी सोच प्रतीकात्मकला, लाक्षणिकता और भाषायी सौष्ठव से ‘गहरे पानी पैठ’ शीर्षक की अर्थवत्ता को सार्थक करती हैं। लघुकथाओं की श्रेष्ठता इस बात का प्रमाण है कि उनके चयन में संपादक सुकेश साहनी जी बहुत श्रम किया है। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की आवरण-टिप्पणी प्रभावशाली है। चित्रकार के रवीन्द्र का आवरण ध्यान खींचता है। अस्तु निश्चय ही पाठकों के बीच ‘गहरे पानी पैठ’ लघुकथा संग्रह चर्चित होगा।
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रमेश गौतम
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