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लघुकथाएँ

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जिस देश में गंगा बहती है

1

गंगा जी में बहते मुर्दे ने दूसरे से पूछा, हम तैर कर कहाँ जा रहे हैं?

दूसरे मुर्दे ने पहले को करेक्ट किया, तैर नहीं रहे हम, बह रहे हैं। तैरने के लिए हिम्मत चाहिए होती है। मुर्दे तैरते नहीं बहते हैं, बेशक उनमे साँस हो या न हो।

2

सुनो

हाँ

बहुत डर लग रहा है

क्या यार। ज़िंदा थे तब भी डरते रहे। अब मुर्दा हो तब भी डर? जान निकल गई डर नहीं निकला?

नहीं । बहुत डरावना मंज़र है। कितनी लाशें बह रही हैं चहूँ ओर।

तो यह शर्म का विषय है भाई। एक काम करो तुम।

क्या? जल्दी बताओ

पानी में डूब जाओ। कुछ मत देखो, ज़िंदा लोगों की तरह।

मुर्दे डूब भी तो नहीं सकते न यार।

3

सुनो, मैं जब डरता हूँ तो गाना गाने लगता हूँ। एक मुर्दे ने डर से काँपते हुए कहा।

हाँ, मैं भी यही करता हूँ, अच्छा, गाओ तुम।

” कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैं

इंसान को कम पहचानते हैं

ये पूरब है पूरब वाले

हर जान की क़ीमत जानते हैं”

नहीं  गाया जाएगा हमसे यार। औऱ मुर्दा फूट-फूट कर रोने लगा।

अच्छा मैं गाता हूँ। तुम सुनना,

” जो जिससे मिला सीखा हमने

गैरों को भी अपनाया हमने

मतलब के लिए अंधे होकर

रोटी को नहीं पूजा हमने”

नहीं  गाया जा रहा यार और दूसरा मुर्दा भी फूट-फूट कर रोने लगा

4

मैं पूरा करता हूँ तुम्हारा अधूरा गाना। तीसरे मुर्दे ने कहा

दोनो मुर्दे रोते रहे

” अब हम तो क्या सारी दुनिया

सारी दुनिया से कहती है

हम उस देश के वासी हैं

हम उस देश के वासी हैं

जिस देश में गंगा बहती है”

सभी मुर्दों ने देखा, गंगा जी ख़ुद जार-जार रो रही थीं।

-0-

2- मुक्तिघाट के मुर्दे

1

कौन-सा नंबर है तुम्हारा, एक मुर्दे ने पास पड़े मुर्दे से पूछा?

मालूम नहीं। दूसरे ने बेतकल्लुफ जवाब दिया।

कौन से नम्बर का दाह हो रहा है?

अरे मालूम नहीं बोला न, तुम्हें क्या जल्दी पड़ी है दाह संस्कार की। ज़िंदा था तब राशन, टिकट, बैंक की लाइन में घण्टों खड़ा रह लेता था। आज क्या हुआ?

उस लाइन में मैं ख़ुद लगता था। यहाँ बच्चे लगे हैं लाइन में।

एक काम कर। खड़ा होकर बजा डाल सबकी। एकदम से नम्बर आएगा।

जब खड़ा हो सकता था, तब नहीं बजाई। काश तब बोलते हम।

तो अब पड़ा रह शांति से। चुप्पी मारने की सजा यही होती है। जब आदमी कुछ नहीं बोलता, तब ही आदमी मर जाता है।

2

तुम्हारी जान कैसे गई- एक मुर्दे ने दूसरे से पूछा

ऑक्सीजन नहीं मिली

तुम कैसे मरे

मुझे हॉस्पिटल में बेड नहीं मिला।

कितने सस्ते में मर गए न हम लोग, पहले ने आह भरी।

हम यही डिज़र्व करते थे भाई। चुपचाप जैसे मर गए॥वैसे चुपचाप अंतिम संस्कार का इंतज़ार करो।

-0-

मुक्तिघाट के मुर्दे-3

2

सबै मानुष एकौ जात। यह दर्शन जीवन भर पढ़ता रहा, लेकिन समझ आज आ रहा है।

क्यों? आज कैसे?

मुझे न जाने किस जात किस धर्म के आदमी ने प्लाज़्मा दिया। कौन जात कौन धर्म का आदमी उठाकर लाया। कौन चिता को मुखाग्नि देगा। कुछ भी तो नहीं पता। धर्म की सीमाओं के बाहर ही असली धर्म है यह आज समझा हूँ।

तो क्या धर्म का ज्ञान हम मरते हुए ही प्राप्त करते हैं? दूसरे ने अति गम्भीर सवाल किया।

हाँ शायद। असल धर्म हमें मरने पर ही समझ आता है। काश यही बातें जीते जी समझ आई होतीं।

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