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बेहतर समाज का सपना बुनते हुए

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श्याम सुंदर दीप्ति पंजाबी में लघुकथा (मिन्नी कहानी) के प्रतिनिधि हस्ताक्षर है। व्यवसाय से डॉक्टर होने के बावजूद विगत चालीस वर्षो से एक्टिविस्ट और कलमकार दोनों भूमिकाएँ बड़ी सजगता और सक्रियता से निभाते आ रहे हैं। अब तक विभिन्न सामाजिक विषयों, विभिन्न सेहत, बाल मनोविज्ञान के अलावा साहित्य की अनेक विधाओं (कविता, कहानी, ललित निबंध, लघुकथा आदि) की पंजाबी व हिंदी में आपकी लगभग 50 मौलिक और 30 संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। आपकी कुछ चुनिंदा लघुकथाओं की चर्चा अपेक्षित है।
श्याम सुंदर दीप्ति की लघुकथाओं का अपने समय से नाभि-नाल संबंध है। प्रतिबद्ध सामाजिक चेतना से युक्त रचनाकार का साहित्य जमीनी हकीकतों को कभी नजर अंदाज नहीं करता, अपितु बेहतर समाज के लिए यथार्थ की चीर-फाड़ करते हुए उसकी ‘दवा’ की खोज भी करता है। लघुकथाएँ इसी दिशा की और बढ़ती दिखाई देती है।
‘धन्यवाद’ लघुकथा एक साथ कई दिशाओं में सोचने को प्रेरित करती है। घरों में कामवालियाँ भी असंगठित मजदूर वर्ग का हिस्सा हैं। घर पर बेटी अपने पिता से सवाल कर रही है हम सबको पन्द्रह अगस्त की छुट्टी है, तो काम करने वाली को क्यों नहीं? वह पिता से भोलेपन में स-तर्क बहस करती है, जिसे पढ़कर प्रेमचंद का निबंध ‘बच्चों को स्वाधीन बनाओ’ याद आ जाता है। विचार-विमर्श का यह पारिवारिक माहौल कितने घरों में है कितने घरों में बच्चों को व इस तरह खुलकर कहने का अधिकार है एक कवि ने लिखा है-
जिस समाज में कहना मुश्किल है बाबा
उस समाज में रहना मुश्किल है बाबा
इस रचना में कामवाली बाई के माध्यम मजदूर वर्ग के प्रति संवेदना जगाने का प्रयास है, तो दूसरी और एक बेहतर सोच-विचार वाले पारिवारिक वातावरण की वकालत की गई है। पिता इस बातचीत के लिए बेटी का शुक्रिया अदा करता है। इस रचना की ये पंक्तियाँ हमारे बंद समाज के लिए खुली खिड़की की तरह है।
“बात करनी जरूरी है। सवाल उठाने चाहिए। बच्चों के मन में उठते हैं। हमारे मन में नहीं। शायद कहीं सो गए हैं या सुला दिए गए हैं। …. चुप रहते हैं तो कोई हल नहीं निकलता।’’
देश में सन् 1995 से 2015 तक तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। आज भी किसानी की समस्याएँ ज्यों की त्यों मुँह बाए खड़ी हैं। करीब बारह करोड़ किसानों में हर दूसरा किसान कर्जदार है। तिस पर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कुत्तों के झुंड की तरह उसे घेरे हुउ हैं। वह स्वयं भी रूढ़िवादिता और फिजूलखर्ची की शान में धँसा हुआ है। डा. दीप्ति की लघुकथा ‘शीशा’ किसान की खुदकुशी की समस्या को समाज -मनोवैज्ञानिक धरातल पर उठाकर कोई राह तलाशने का उपक्रम करती है। रचना गहरे चिंतन की उपज है। निहाल सिंह के लिए शीशा दो तरह का है। एक तो इस विषय पर मनोविज्ञानी सरदूल सिंह के बताए तथ्य और तर्क और दूसरा उसका अपना मन। हालात का उल्लेख करने के बाद रास्ते की तलाश करते दो वाक्य देखें-
1.जब सबकी चिंता मिलती है तो चिंतन की शुरूआत होती है।
2.हमें पढ़ाया जाता है कि मृत्यु अटल है….। नहीं, वास्तव में जिंदगी अटल है। मृत्यु अटल होती तो दुनिया सुनसान हो गई होती।
इन्सान ने जाने कितने बाहरी लबादे ओढ रखे हैं। इन पर्तो से ‘सुसज्जित’ होकर वह फूला नहीं समाता। डा. दीप्ति अपनी ‘रिश्ता’ लघुकथा में इन लबादों को एक-एक कर मानो हटाता जाता है। और फिर विशुद्ध मानवीय धरातल पर दो मनुष्यों का संवाद मानो हर समस्या का हल लेकर आता है। मानवीय धरातल पर किसी वर्ग, धर्म, जाति, क्षेत्रीयता का भला क्या काम, डॉक्टर दीप्ति ने ‘रिश्ता’ लघुकथा में कमजोर आँखों वाले लोगों के चश्में उतार फेंके हैं। पंजाब की पृष्ठभूमि इस रचना को और भी सप्राण बना देती है। इसके संवाद और उनकी सहजता’ सोने पे सुहागा’ का काम करती है। समाज को ऐसी उदार लघुकथाओं की बहुत जरूरत है। उदारता ही उदात्तता का पहला चरण है। ‘हद’ लघुकथा संकीर्णता का प्रतिकार एक अन्य धरातल पर करती है। साहित्य और संगीत एक संदर्भ में संस्कृति कसंरक्षक और उन्नायक होते हैं। इनकी जुगलबंदी मानव-निर्मित सीमाओं पर रूकती -टिकती नहीं। इसीलिए ‘हद’ लघुकथा में छेड़ा गया ‘अनहद नाद’ पाठक को विभोर भी करता है और उदारता की एक चिट्ठी भी उनके मन के लैटरबाक्स में छोड़ जाता है।
हिन्दी साहित्य में विगत तीन दशकों से स्त्री और दलित संबंधी विमर्श चलता रहा है। डा. दीप्ति की ‘नाइटी’ लघुकथा स्त्री को लेकर कई सवालों से टकराती है। समय बदला है, तो कुछ स्थितियों का अस्वीकार नए संदर्भो में सहज स्वीकार में बदल गया है। युवा बेटी की विधवा मां के पास अंकल बचपन से ही टूर के समय आते रहे हैं। कभी-कभी रात को भी ठहरते हैं तो मां उस दिन नाइटी पहनती है इस बार अंकल इतवार को आ रहे हैं।
बेटी को अगले दिन सुबह लौटना है, लेकिन वह दोपहर को ही खाना खाकर सहेली संग लौटने को कहती है। अंतिम पंक्तियों देखें-‘‘यह तो बताना भूल ही गई यह मम्मा आपके लिए। मुझे अच्छी लगी। यह देखो नाइटी। कितना प्यारा कलर है। आपका पंसदीदा।’’ यह कहकर वह अपने सामान को समेटने लगी।
यह लघुकथा वर्णन में भी सांकेतिकता का साथ लेती चलती है। बेटी का मां के संबंधों को लेकर स्वीकार-भाव समकालीन दौर का यथार्थ है। इसे अवैध संबंध कहना गलत है। हमें विधवा स्त्री के नज़रिए से उसकी ज़रूरत और बेटी के विवेकपूर्ण कदम की प्रशंसा करनी होगी। डा. दीप्ति की ही एक और लघुकथा ‘प्रशंसा’ कहीं आदिम पुरूष-मन की ओर संकेत करती हुई सभ्य, विवकेशील पुरूष के किरदार को सामने लाती है। साथ ही पाठक का मन वर्तमान में स्त्री को लेकर व्याप्त भयावह स्थितियों की ओर भी जाता है।
विश्व की सबसे बड़ी समस्या नफ़रत है। हिंसा, युद्ध इसी के बायोप्रोडक्ट (उपोत्पाद) हैं। डॉ. दीप्ति की लघुकथा ‘हिम्मत’ इसी विषय को उठाती है। इस नफ़रत की जड़ें कितनी गहरी हैं- इसे एक लव्य से लेकर आज तक भुगतने वाले व्यक्ति भली भांति जानते हैं। बच्चों के स्कूल न जाने या छोड़ने का एक कारण उनके साथ जातीय घृणा के चलते किया जाने वाला अमानवीय व्यवहार भी हैं। इस कारण भी दलित समाज बड़ा सोचने में संकोच करता है – ‘‘हमने अब कौन सा डी.सी. लगना है।’’ लेकिन तमाम जद्दोजहद के बाद यह रचना अपना ‘भरत वाक्य’ प्रस्तुत करती है-‘‘इसी लिए तो पढ़ाई करनी है कि जलालत के इस माहौल से बाहर निकल सकें। अगर अब भी बीच में छोड़ दिया तो इसका अंत नहीं होगा।’’
इस रचना की संघर्ष -चेतना मार्गदर्शक बन गई है। इसे पढ़कर दलित-समाज पर कुछ न लिखने का जिद्दी और दुष्ट किस्म का गर्व करने वाले लघुकथा लेकर शायद अपनी सोच पर पुनविचार करें।
विगत कुछ वर्षों में जिस गति से संबंधों में स्वार्थ और संवेदनहीनता बढ़ी है, उसी अनुपात में वृद्धाश्रम भी बढ़े हैं। वृद्धों की स्थिति पर श्याम सुंदर दीप्ति की दो लघुकथाएँ ‘दीवारें’ और ‘अधर में लटके’ विचारणीय हैं। ‘दीवारें’ में बुजुर्ग के बेटे जस्सी के बोल बुजुर्गा के प्रति समाज की सीमित स्वार्थी और रेडिमेड सोच के प्रमाण हैं। लेकिन बुजुर्ग अपने बेटे के दोस्त को बताता है कि वह दो बातें कहने -सुनने के लिए ही दरवाजे पर जाकर बैठता है। तथाकथित सभ्य सन्तान बुजुर्ग को भला यह सहज आदान-प्रदान का अवसर से कहाँ दे सकती है।
‘अधर में लटके’ लघुकथा में दो पीढ़ियों की सोच का अन्तर दिखाया गया है। आज का बुजुर्ग युवा दिनों में अपने बड़ों के कहे मुताबिक घर में सबके लिए काम करता और बच्चों के लिए जीता रहा। लेकिन अब स्थितियाँ भिन्न हैं। यह रचना अधर में लटके वृद्ध के विवक और विवशताजन्य पीड़ा के मिश्रण से बुनी गई है। सब कुछ समझता हुआ भी वह स्थितिजन्य विवशता को गले लगा लेता है। देखें ‘‘अपनी दो-चार साँसो के बारे में क्या फिक्र करना। ठीक ही तो है, मेरे बारे में सोचेंगे तो आप अधर में लटक जाएँगे।’’
पिछले वर्ष चित्रा मुद्गल के किन्नर-केंद्रित उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नंः 203 नाला सोपारा’ पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने पर लेखकों का ध्यान इस तरफ बढ़ा है। डा. दीप्ति की ‘ताजा हवा’ लघुकथा ट्रास्जेंडर संवेदना की रचना है। लेखक की सोच और सवाल रचना में सहज रूप में बुने गए है। थर्ड जेंडर भी मां-बाप और कुदरत का परिणाम है। लेकिन ‘‘मैं मां के लिए शर्म थी, मजाक थी, थू-थू भी।’’ अब बीस पार होकर वह अपनी राह चुनती है-लावारिस बच्चों के लिए ‘मदरहोम’ का सपना लेकर नई शुरूआत करने की राह।
यथार्थ के कुछ अन्य पक्षों पर लिखी लघुकथाओं पर बात करें। ‘यादों के कोने’ सूक्ष्म यथार्थ को सांकेतिक रूप में व्यक्त करती लघुकथा है। रचना बड़े रोचक, हल्के-फुल्के रूप में प्रवाहमयता के साथ आगे बढ़ती है। रमन माह -भर पहले विधुर हो गया। उसकी कुलीग रही साधना उसके घर आती रही है। आज भी आई है। प्रेम का प्रतीक बन गये जिस ‘पैन’ से आज वह लिख रहा है, वह साधना का दिया था। न कोई विस्फोटक घटना, न भारी-भरकम शब्दावली, न कोई पंचलाइन, फिर भी लघुकथा इतनी आकर्षक हो सकती है- यह लघुकथा पढ़कर ही जान सकते हैं। प्रेम और रोमांस का वयस्क विवेक इस रचना को प्रौढ़ता प्रदान करता है।
‘गुब्बारा’ बाल-मनोविज्ञान की सुंदर रचना है। बच्चे का बचपन उसकी ही नहीं, समाज की एक बड़ी सम्पदा है। बेटी को तीन दिन रोज गुब्बारा ले देने के बाद पिता द्वारा गुब्बारा न लेकर देने के लिए दिए तर्कों का बेटी अस्त्र की तरह इस्तेमाल करती है। ‘गुब्बारा अच्छा नहीं होता न। ……….. अच्छे बच्चे गुब्बारा नहीं लेते न। गुब्बारा तो मिनट में फट जाता है’ कहती हुई बेटी यह सब निष्फल होते देख मां के पास गुब्बारा के लिए पहुँच जाती है। इस सन्दर्भ में प्रौढ़ मनोविज्ञान को लेकर लिखी गई लघुकथा ‘गुलाबी फूलों वाला कप’ भी पाठकों के लिए आकर्षक रचना बन पड़ी है।
भारतीय भाषाओं में विशुद्ध प्रकृति से प्रेम पर बहुत कम लघुकथाएँ मिलती हैं। जो हैं भी, वे प्रकृति को माध्यम रूप में लेकर चलती हैं। ‘सहेली’ रचना कोयल की कुहू-कुहू से जुड़कर बसंत की प्रतीक्षा तक का सफर करती है। अंतिम वाक्य-‘‘मुझे धीरे – धीरे कोयल से प्यार होने लगा है।’’ पाठक को प्रकृति के साथ जोड़ने का एक उपक्रम ही है।
स्त्री-पुरूष संबंध छिपे नहीं रह सकते। इसके उत्साह में जोश हमेशा होश से ज्यादा होता है। इश्क की गंध छिप नहीं सकती। इसे डा. दीप्ति ने ‘तुम्हारे लिए’ लघुकथा में उभारा है। प्रेमिका के लिए फोन के साथ लगाई मादक बोल युक्त ट्यून उत्साह में प्रेमिका की बेटी को सुना बैठना यही बताता है। ‘रिश्ते की बुनियाद’ लघुकथा बताती है कि जहाँ भर-पेट मिले, मजबूत रिश्ता वहीं बनता है। ‘कहानी बनी नहीं’ स्वयं में फुटपाथ पर रहने वाले, गंदे दिखते लोगों की मुकम्मल कहानी है। लेखक कथा कहते हुए पाठक के मन को कुरेदता चलता है, प्रकारान्तर से उसके मन में ऐसे जी रहे लोगों के प्रति जगह बनाने की कवायद करता है।
डा.श्याम सुन्दर दीप्ति की और बहुत सी लघुकथाएँ हैं, जैसे लैपटॉप, जवाब, लाइटों वाला चौक, शार्पनर, पहली बार, ईमान की इबादत, खुशगवार मौसम, स्वागत आदि जो पाठक की सोच को समृद्ध करने, बेहतरी की और ले जाने का उपक्रम करती हैं। ये लघुकथाएँ बेहतर समाज के सपने को लेकर चलती हैं और आवश्यकानुसार कहीं वर्णन, कहीं विश्लेषण, तो कहीं नए-नए सहज प्रयोग करती चलती है। ये रचनाएँ जहाँ विचारक पक्ष से समृद्ध हैं, वहीं अपनी पेशकश में नए रूप को लाने में महत्वपूर्ण हैं। ये लघुकथाएँ बहुत बड़े पाठक-वर्ग के लिए अपनी उपयोगिता प्रमाणित करती हैं।
1882, सेक्टर 13,करनाल-132001
94161 52100


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