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Channel: लघुकथा
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वक़्त के पास भी हर मर्ज़ की दवा नहीं होती।

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न जाने कितने चिरागों को मिल गई शोहरत
इक आफताब के बेवक्त डूब जाने से।

अब तक मन को विश्वास नहीं हो पाया है कि रवि सर अब हमारे बीच नहीं हैं। बल्कि यूँ कहें, कि विश्वास हो पाना असंभव सा लगता है, क्योंकि विश्वास करने को जी चाहता ही नहीं।

अब भी मन के किसी कोने से आवाज़ आती है कि रवि सर का फोन आएगा और वो कहेंगे, “अच्छा जी! मैंने फोन नहीं किया तो तुमने भी कोई खोज-खबर नहीं ली मेरी?!” अभी भी दिल को इंतज़ार है रवि सर के उलाहन भरे फ़ोन का, यह जानते हुए भी कि अब वो जहाँ हैं वहाँ से हम कभी एक दूसरे की कुशल-क्षेम नहीं जान पाएँगे।

ईश्वर, तेरा ये अन्याय बहुत असह्य है। अभी तो उन्हें बहुत काम करना था। कितनी योजनाएं अधूरी रह गईं, कितने सपने पीछे छोड़ वे बहुत आगे बढ़ गए।

समवयस्क होने के बाद भी रवि सर के लिए मेरे मन में सदैव एक बड़े जैसा आदर रहा। इसकी पहली वजह रहा उनका ज्ञान, और दूसरी वजह उनका गंभीर स्वभाव।

स्वयं बेहद मेहनती होने के कारण, रवि सर अपने साथ जुड़े सभी लोगों से भी कड़ी मेहनत की अपेक्षा रखते। उनकी हर कथा, हर आलेख उनके कठिन श्रम की भट्टी में तप कर ही बाहर निकलता। लेखन के प्रति वे सदा गंभीरता बरतते थे, उसमें ज़रा सी भी चूक क्षम्य नहीं होती थी।

ज़रा सा भी स्तरहीन काम उन्हें पसंद नहीं, यह बात समझ में तो लेखन के आरंभिक दिनों की उनकी टिप्पणियों से आने लगी थी, जब वे हमारी कथाओं का बड़ी बारीकी से निरीक्षण करके लिखते थे। मगर और गहराई से तब जानी जब लघुकथा कलश पत्रिका के लिए रचनाओं का चयन करते समय हमारा विमर्श होने लगा। वे हल्की कथाओं को देखकर अशांत हो उठते, और कहते, “ये लघुकथा को कैजुअली लेने वालों ने ही तो इसका बेड़ा गर्क किया हुआ है! लोग समझते क्यों नहीं है यह एक गंभीर विधा है, इसे गंभीरता से ही लिखना चाहिए।”

रवि सर हमेशा एक बात पर बहुत जोर देते रहे, कि अपने भीतर छुपी संभावनाओं को और अपनी क्षमताओं को पहचानने और उन्हें विकसित करने में मेहनत करनी चाहिए। उन्होंने बहुत बार कहा होगा, “एक बात याद रखो कि हमारा मुकाबला किसी और से नहीं, बल्कि स्वयं अपने आप से है। हमें दूसरों से नहीं, खुद से बेहतर करना है।”

मैं अपने आप में ये उतार सकी या नहीं मैं नहीं जानती, पर रवि सर ने बख़ूबी उतारा। उनकी हर कथा पहले से बेहतर, हर आलेख पहले से अधिक उच्च स्तरीय, और हर आलोचना पहले से और पैनी होती चली गई। जिसका कारण उनकी लगन तथा लघुकथा के विभिन्न पहलुओं पर उनका सतत परिश्रम रहे।

वह जितना लिखते उससे दसगुना अधिक पढ़ते। जब भी कोई नई परिभाषा, कोई स्तरीय आलेख, या फिर लघुकथा के मानदंडों पर खरी उतरती कोई विशिष्ट कथा पढ़ते, उसपर अवश्य चर्चा करते।

रवि सर के गंभीर स्वभाव को देखते हुए शुरू में तो उनसे बात करने की हिम्मत ही नहीं होती थी। पर उनसे पहली ही बार मिलने के बाद यह डर जाता रहा। वे लेखन को ले कर जितने गंभीर थे, उसके इतर आम ज़िंदगी में उतने ही हँसमुख और विनोदी। उनके साथ जो सफ़र मार्गदर्शक के रूप में आरंभ हुआ था वह कब मित्रता में बदल गया, पता ही नहीं चला।

बहुत कम लोगों को पता होगा कि रवि सर जितने कलम के धनी थे उतने ही कुशल पाककला में भी थे। कुकिंग का स्थान उनके शौकों में लेखन के तुरंत बाद आता है। उनके इस हुनर से परिचय पटियाला यात्रा के दौरान हुआ, जब आ० योगराज प्रभाकर सर के विशाल रसोईघर में, घर में एकत्रित छोटे-बड़े सब मिलाकर बीस-पच्चीस सदस्यों के लिए रवि सर ने अपनी स्पेशल आलू टिक्की चाट बनाई। हालांकि उनकी मदद के लिए सर की बेटी ऋतु और स्वयं मैं पूरे समय रसोई घर में उपस्थित थे, पर उन्होंने किसी का भी सहयोग नहीं लिया। जून के उमस भरे मौसम में लगभग तीन घंटे रसोईघर में बिताने के बाद जो मुस्कान उनके चेहरे पर थी, वह अविस्मरणीय है।

पटियाला की वह यात्रा यूं भी कभी भुलाई न जा सकेगी क्योंकि यही वह समय था जब लघुकथा कलश की योजना पर आ० योगराज प्रभाकर सर के घर में कई बैठकों में जम कर चर्चा हुई थी। पत्रिका का स्वरूप, आकार आदि तय करते समय हम सभी बहुत उत्साहित थे।

कलश पत्रिका के लिए रवि सर की मेहनत को मैंने बहुत करीब से देखा है। हर नए अंक की घोषणा को लेकर बहुत उत्साहित रहते। आ० योगराज सर के चयन के बाद रचनाएं बहुत ध्यान से पढ़ने का सत्र आरंभ हो जाता। रवि सर स्वयं एक-एक आलेख, एक-एक कथा गौर से पढ़ते, और मुझे भी पढ़ने को प्रेरित करते। हर रचना पर बात होती थी हमारी, और उसके गुण दोषों पर विस्तृत चर्चा से अपनी समझ भी विकसित होती जाती।

उनकी एक आदत शुरू से रही – वो किसी भी कथा पर अपनी तुरतफुरत प्रतिक्रिया नहीं देते थे। हर कथा देखने के लिए समय मांगते थे, और उसे अच्छी तरह पढ़ने के बाद ही अपनी प्रतिक्रिया देते थे।

उनकी अधिकांश प्रतिक्रिया फोन पर होती थी, जिन्हें जितना मैं अपने भीतर भर सकी, बस उतनी ही मेरे साथ हैं। कभी सोचा ही नहीं इन प्रतिक्रियाओं को सहेज कर रखने की आवश्यकता भी होगी। रवि सर तो बस एक कॉल भर की दूरी पर रहे हमेशा, जब चाहा तब पूछ लिया। तब कहां सोचा था कि मेरे सौभाग्य ने ये दुर्लभ अवसर उपलब्ध करा दिया है।

रवि सर एक बेहद सजग लघुकथाकार थे। उनकी हर रचना गहन मंथन के बाद कागज पर उतरती। मुझे उनकी अधिकांश रचनाओं की पहली पाठक होने का गौरव प्राप्त हुआ। वे सुझाव मांगते, और जहाँ सहमत होने पर सहर्ष स्वीकार करते, तो वहीं असहमत होने पर सिरे से ख़ारिज भी कर देते।

चूँकि वह प्रभाकर परिवार में जन्में, उन्हें साहित्य की समझ विरासत में मिली। ईश्वर ने उन्हें भरपूर प्रतिभा दी, जिसे उन्होंने बहुत मेहनत से चमकाया। घर परिवार की ज़िम्मेदारी के साथ-साथ जो समय वह साहित्य के लिए निकालते वह प्रेरणादायक है।

मातृभाषा पंजाबी होने के बाद भी उनका हिंदी, और उसके साथ ही संस्कृत, से अनुराग अनुकरणीय था। वो हिंदी लेखन के अलावा पंजाबी से हिंदी और हिंदी से पंजाबी में अनुवाद इतनी सहजता से कर लेते थे, कि देखने वाला आश्चर्य चकित हो जाए। उन्होंने ना जाने कितनी हिंदी लघुकथाएं पंजाबी में अनुवाद कर ‘गुसैंया मासिक पत्रिका’ में लगाई होंगी, जिसका वह एक दशक से भी अधिक समय से संपादन कर रहे थे।

अहिंदी भाषी होने के कारण कभी-कभी उन्हें हिंदी में अतिरिक्त श्रम करना पड़ जाता। तब उन्हें छोटी सी भी सहायता कर देती तो वे बहुत प्रसन्न हो जाते। मगर, उन्हें कोई शब्द सुझाने पर वह उसपर आँख मूंद कर कभी विश्वास नहीं करते थे। अलग-अलग शब्दकोशों में उसके पर्यायवाची ढूंढकर जब तक स्वयं संतोष ना हो जाता, तब तक वह उसका प्रयोग नहीं करते।

उनके शब्दकोश अध्ययन का लाभ मुझे भी भरपूर मिला। जब कभी किसी कथा के शीर्षक को लेकर अटकाव होता, तो रवि सर के पिटारे में से एक नहीं अनेक ऐसे शब्द निकल आते जिनमें से कोई ना कोई मेरी कथा का शीर्षक बनने योग्य अवश्य होता। उसी के साथ सटीक शीर्षक के चयन पर कुछ सुझाव भी वह अवश्य देते।

इसी सन्दर्भ में शीर्षक चयन पर उनके द्वारा दी गयी एक टिप्पणी प्रस्तुत है: “लघुकथा के अच्छे शीर्षक की विशेषता उसकी उचितता, उपयुक्तता, सुरूचिपूर्णता, नवीनता और संक्षिप्तता में होती है। क्योंकि शीर्षक की नवीनता और उचितता से लघुकथा की सफलता उजागर होती है।”

मैंने उनसे बहुत सीखा, भले ही अपने आचरण में उतना ना उतार सकी हूँ ।

उन्होंने कथाओं को पढ़ने के लिए मेरे भीतर एक नया नज़रिया जगाया। वह हमेशा कहते थे कि किसी भी कथा को समझने के लिए कम से कम दो बार पढ़ना चाहिए – पहली बार सामान्य पाठक की तरह, और दूसरी बार लेखकीय दृष्टिकोण के साथ, जिससे हम जान सकें कि उस कथा में लेखक ने कहना क्या चाहा है। उनका कहना था कि यदि हम लेखक होकर लेखक का दृष्टिकोण नहीं समझेंगे, तो सामान्य पाठक तक रचना कैसे पहुँच पाएगी।

ईश्वर ने उन्हें गज़ब की आलोचकीय दृष्टि प्रदान की थी, जिसे उन्होंने अपने गंभीर अध्ययन और चिंतन से बहुत मांज लिया था।

जहाँ वे पुराने लेखकों के श्रम का सम्मान करते थे, वहीं आने वाली पीढ़ी के रचनाकारों को लेकर बेहद आशान्वित भी थे। पटियाला यात्रा के समय भी योगराज सर और रवि सर ने बहुत से नए लेखकों के बारे में आशा जताई जो समय के साथ खरी उतरी।

विधा की बात चलने पर रवि सर बेहद उत्साहित हो उठते। जिन साहित्यकारों को हमने अपने पाठ्यक्रम में पढ़कर बिसरा भी दिया था, रवि सर उनका बड़ी गंभीरता से अध्ययन करते थे। फिर वो चाहे आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की ‘समालोचना’ पर विचार हों, अथवा हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की ‘शवसाधना’ पर विचार।

लघुकथा के विषय में उन्होंने कई नई परिभाषाएं गढ़ी हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है ये सारी परिभाषाएं समय के साथ पूर्णतः सिद्ध और स्थापित होंगी।

रवि सर जितने अच्छे लघुकथाकार थे, उससे कहीं बढ़कर आलोचक। किसी भी रचना का ऐसा नीर क्षीर विवेचन करते देखने वाला मुग्ध हो जाए। इसकी बानगी उनके आलेख यह अंश स्वयं देता है:

सोद्देश्यता सार्थकता है जिसका अर्थ है संकेत, संकेत एक दिशा की ओर या एक अनदेखी स्थिति की ओर। प्रत्येक शब्द का एक अर्थ होता है और उस अर्थ के साथ कुछ संकेत भी होते हैं। लेखकीय कौशलता केवल इसमें  नहीं कि वह शब्द को पकड़े वरन् इस बात में है कि उसमें छिपे संकेत को भी उजागर करे।”

एक और उदाहरण स्वरूप देखें:

“लघुकथा सृजन हेतु अथवा किसी भी साहित्यक रचना सृजन के दो पक्ष माने गए हैं । एक पक्ष वह होता है जिसमें भावनाओं की प्रधानता होती है और दूसरे में उन भावनाओं अथवा मनोभावों की प्रस्‍तुति के माध्‍यम की जिसे आमतौर पर शिल्प कह दिया जाता है जो अभिव्यक्ति पक्ष भी कहलाता है । किसी भी रचना का मूलभाव ही लेखक की संवेदना है परन्तु सफल रचना के लिए केवल संवेदना ही पर्याप्त् नहीं अपितु सवेदना के पुन: निर्माण के लिए कल्पना भी अपरिहार्य है क्यों कि मनोभावों के चित्रों का अंकन कल्पना द्वारा ही संभव है।”

लघुकथाओं की भाषा के संदर्भ में एक अन्य समीक्षा का अंश दृष्टव्य है:

“अनुभवों  की  सार्थक  अभिव्यक्ति  का  माध्यम  भाषा है।  रचनाकार  अपने  जीवन  का  व्यापक  बोध,  उसकी  जटिलताएँ  एवं  मानवीय  संवेदनाएँ  भाषा  के  माध्यम  से  ही अभिव्यक्त  करता  है  अर्थात्  भाषा  ही  भावाभिव्यक्ति  का  प्रमुख  साधन  है।  भाषा  की  यह  संप्रेषण  क्षमता जीवन-यथार्थ  के  स्पंदित  परिवेश  द्वारा  ही  संभव  है।  भाषा,  जीवन  सापेक्षता  का  पारस  स्पर्श  पाकर  ही सृजनात्मक,  अर्थपूर्ण  और  संप्रेषणीय  बनती  है।  भाषा  जितनी  जन  सामान्य  के  करीब  होती  है  संप्रेषण  उतना अधिक  प्रभावकारी  होता  है।    लेखक  अपने  जीवन-परिवेश  से  जो  कुछ  ग्रहण  करता  है  उसका  एक  प्रकार  का आभ्यंतरीकरण  होता  है  और  अभिव्यक्ति  के  समय  जीवन-परिवेश  के  विभिन्न  चिह्नों,  प्रतीकों  और  बिंबों  से संचालित  होकर  ही  वह  संप्रेषणीय  बनता  है।”

जीवन की कुछ हानि ऐसी होती हैं जिनकी भरपाई किसी भी तरह संभव नहीं होती। रवि सर का जाना भी ऐसी ही क्षति है जिसके लिए हर लघुकथा शुभचिंतक एवं हितैषी हाथ मलता होगा। इतने कम समय में रवि सर ने लघुकथा जगत में अपना जो स्थान बना लिया था उसकी भरपाई संभव नहीं है।

उनका जाना साहित्य जगत का जितना नुकसान है, उतनी ही बड़ी मेरी व्यक्तिगत हानि भी है। मैंने न सिर्फ एक पथ प्रदर्शक खोया, बल्कि एक बेशकीमती मित्र को भी गँवा दिया।

रवि सर जैसा सुलझा हुआ बहुआयामी व्यक्तित्व होना बहुत दुर्लभ सी बात है। उनका असमय जाना लघुकथा के विकास के मार्ग में एक बहुत बड़ा अवरोध है। उनके जाने से लघुकथा जगत में जो रिक्तता आई है, उसका दंश आने वाली पीढ़ी वर्षों तक महसूस करेगी।

कुछ ज़ख्म सदियों बाद भी ताजा रहते है फ़राज़,
वक़्त के पास भी हर मर्ज़ की दवा नहीं होती।


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