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Channel: लघुकथा
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जलती हुई नदी

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            मुझे डर लग रहा था जैसे मेरे पूरे शरीर  में खुजली हो आई हो। एक बारगी तो मैं डर गया कि चेचक के दाने ही निकल आए हैं परन्तु, डाक्टर ने बताया कि मौसम बदलने के कारण ऐसे दाने उग आते हैं लोगों को, फिर भी, फरवरी के महीने में वैसी गर्मी भी तो नहीं होती। नौकरी में नहीं था मैं, तब कुछ दूसरी ही बेचैनी थी। पर, नौकरी के चार सालों के बाद मन पहली बार देखा उद्विग्न था। न पत्नी से भर मुँह बातें कर पा रहा था, न दोनों बच्चों को सुबह-शाम घुमाने ले जा पा रहा था। उस दिन तो जवान हो रही बहन पर तमाचा भी चला दिया और तो और हे ईश्वर! जीवन में पहली बार बूढ़ी माँ पर इस तरह झुँझलाया मैं।

            ऑफिस के कितने सारे काम पड़े थे। पता नहीं, मेरे इन हाथों को हो क्या गया था, कलम चलती ही नहीं थी। भूख भी नहीं लगती, पानी भी पीने का तो मन नहीं करता था। बार-बार वह बूढ़ा नाच जाया करता था मेरी आँखों में। मेरी कुर्सी के पास जमीन पर घुटनों में सिर छिपाए  बैठा, मेरी तरफ कातर दृष्टि से देखने के बाद वह फटी हुई धोती की गाँठ से दस, पाँच और दो के ढेर सारे मुड़े-तुड़े नोट निकालता है और मैं उससे झपट लेता हूँ। फिर, साकार हो जाते मेरे बच्चों के पुराने शर्ट और पत्नी की एकमात्र साड़ी, जवान होती बहन और माँ की जानलेवा होती जा रही खाँसी।

            मुझे लगा जैसे मेरे हाथों की अँगुलियाँ फट गई  हैं और खून बह रहा है, देह पर जैसे कोई चिनगारी धर रहा था। दीवार से सटकर बह रही नदी में बचपन से छपकुनियाँ खेलता आया हूँ। इसमें कूदा तो यह तो और भी उबल रही थी। बदले हुए मौसम में नदी भी जल रही थी?

            नदी ने मुझे उठाकर फेंक दिया। साइकिल ली बूढ़े के दरवाजे पर ही दम लिया। टूटी हुई झोपड़ी में वह अकेले खाट पर सोया था। मुझे देखा तो धड़फड़ाकर उठ बैठा। मैंने उन मुड़े-तुड़े रुपयों को वैसे ही उसके हाथों में दे मारा।

            बूढ़ा तो जैसे रो ही पड़ा, ‘मेरा काम बाबू?’

            मैंने झोले से निकाला, ‘ये लो आवास-योजना के कागज। तुम्हारा काम हो गया है।’

            वह जड़ हो गया।

            ‘पानी पिलाओ न।’ मैंने टोका।

            वह जैसे नींद से जागा। और एक गिलास पानी ने मेरी पीड़ा हर ली।

            लौटा, तो नदी जैसे उतावली थी मुझे बाँहों में भरने को, आश्चर्य कि देह पर के लाल दाने भी गायब थे।

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