उस दिन सूरज बहुत थका-थका-सा उगा था। रमेश की तरह वह भी मानो रातभर सोया न था। रमेश पूछ-पूछकर हार गया था। पत्नी घूम-फिरकर एक ही उत्तर देती ‘‘मुझे नहीं पता अस्पताल कैसे पहुँची, किसने पहुँचाया। होश आते ही तुम्हें फोन करवा दिया था।’’
वह बार-बार पूछता-
‘‘तुम सच-सच क्यों नहीं बता देती? जो हो गया सो हो गया।’’
‘‘कुछ हुआ तो बताऊँ।’’
‘‘देखो! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। अस्पताल ले जाने से पहले वे तुम्हें और कहाँ ले गए थे?’’
‘‘मैंने बताया न कि अँधेरे के कारण सामने पड़े पत्थर से ठोकर लगते ही मैं बेहोश हो गई थी। होश आया तो अस्पताल में थी।’’
‘‘डॉक्टर ने बताया था कि तीन युवक तुम्हें दाखिल करा गए थे। तुम सच-सच क्यों नहीं बता देती? मैं उस किस्म का आदमी नहीं हूँ, जैसा तुम सोच रही हो। आखिर तुम्हारा पति हूँ।’’
‘‘जब कुछ हुआ ही नही तो क्या बताऊँ? तुम मुझपर विश्वास क्यों नहीं करते?’’
रातभर पति-पत्नी के मध्य अविश्वास तैरता रहा था।
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