अनुवाद-योगराज प्रभाकर
‘‘सर, इस फार्म पर मोहर लगवानी है।’’ मैंने खिड़की से हाथ बढ़ाकर कहा।
‘‘अरे! ऐसे कैसे मोहर लगा दें भला…न कोई जान, न पहचान। ये फॉर्म तो वैसे भी अधूरा है, जो पहले पूरा करके ला।’’ बड़बड़ाते हुए क्लर्क ने फॉर्म मुझे लौटाते हुए कहा।
‘‘फॉर्म तो पूरा है सर जी….और साथ ही जान-पहचान भी फार्म के अंदर लगी है, जरा खोलकर तो देखो।’’ मैंने चिरौरी-सी करते हुए कहा।
खीझे हुए क्लर्क ने जलती हुई निगाह मुझपर डाली और फॉर्म को पलटने लगा, लेकिन फार्म खोलते ही उसके चेहरे का रंग बदल गया और बात करने का ढंग भी। फॉर्म के अंदर रखे लाल नोट को जेब में डालते ही उसने मेरे फॉर्म का एक-एक कॉलम ध्यान से निरीक्षण करना शुरू कर दिया, फिर मेरे घर का पता पढ़कर वह खिसियानी-सी हँसी हँसता हुआ बोला, ‘‘कमाल है यार….तुमने पहले क्यों नहीं बताया कि तुम मास्टर बाबूराम जी के बेटे हो। और बताओ, हमारे मास्टरजी का क्या हाल है?’’ कहते ही उसने ताबड़तोड़ मोहरें लगा दीं और फॉर्म मुझे पकड़ाते हुआ बोला, ‘‘भई! हमनें तो कभी आम बंदे को भी इनकार नहीं किया, फिर तुम तो हमारे मास्टरजी के बेटे हो। जब चाहो आ जाया करो, ऐसे छोटे-मोटे काम काम के लिए। बस आकर आज की तरह ही अपना परिचय जरूर दे देना। हमारे पास दिन में न जाने कितने लोग आते हैं, इसलिए बिना परिचय के कैसे पता चलेगा कि कौन, कौन है?’’ कुटिल-सी हँसी हँसते हुए क्लर्क अपने काम में व्यस्त हो गया।
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