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Channel: लघुकथा
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लाठी

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“सुनिए जी, आज हमारा बेटा, बहू से कह रहा था कि, शहर में बनने वाला मकान कुछ दिनों में पूरा हो जाएगा और वे लोग वहाँ चले जाएँगे।”

“चलो अच्छा है।”- वृद्ध ने ठंडी साँस भरते हुए कहा।

” क्या अच्छा है? हम यहाँ, अपने पोते के बिना कैसे रह पाएँगे? अरे! वही तो हमारे बुढ़ापे की लाठी है।”- कहते- कहते उनकी आँखें नम हो गईं।

“भाग्यवान यही आज का चलन है। बच्चे अब अपने माँ-बाप को साथ नहीं रखना चाहते, इसलिए अपने मन को कड़ा कर लो।”- कहते -कहते उनकी सांसेंसे तेज हो गईं।

“अच्छा,… मुझे मन कड़ा करने के लिए कह रहे हैं, और आप अपने मन को  कर पाए। रुकिए मैं आपके लिए पानी लेकर आती हूँ।”

 पानी लेने के लिए जैसे ही भी रसोई की ओर मुड़ी बहू की आवाज सुनकर ठिठक गई।

“घर के नक्शे में इस कमरे के साथ में लगा बाथरूम भी बनवा दीजिए।”

 “बाहर आँगन में तो बना है, कमरे में क्या ज़रूरत है?”

“ज़रूरत है, माँ- बाबूजी को इतनी दूर जाने में परेशानी होगी।”

 बहू की बात सुनकर उनकी आँखें छलक आईं।वह आँसू पोंछकर वापस चली गई।

“पता नहीं बाबूजी हमारे साथ शहर आएँगे, इस उम्र में अपना घर को छोड़कर जाना उनके लिए मुश्किल होगा।” 

“क्यों नहीं जाएँगे? वे हमारे साथ जरूर जाएँगे,क्योंकि घर दीवारों से नहीं अपनों से बनता है।”- बहू ने कहा

“हाँ,… तुम ठीक कह रही हो।”

 “और अगर न जाने की जिद करेंगे तो हमारे पास उनकी जिद तोड़ने की लाठी तो है ही।” सोते हुए बेटे के सर पर हाथ फेरते हुए बहू ने इत्मीनान से कहा। 

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