बची-खुची संपत्ति
‘‘अनन्त सौन्दर्य और अखण्ड रूप-माधुरी लेकर भी तुम भीख माँगने चली हो सुन्दरी!’’-कहते हुए धनी युवा की सतृष्ण आँखें उसके मुख-मण्डल पर जम गईं। वह मुस्कुराने लगा और साथ ही साथ विचित्र भाव-भंगिमा भी दिखलाने लगा। युवती के कोमल कपोल रोष और लज्जा से लाल-लाल हो उठे। उसकी आँखें पैरों के नीचे, भूमि में छिपे किसी सत्य के अन्वेषण में लग गईं।
युवक ने पूछा-‘‘भीख माँगने में क्या मिलेगा? पैसा, दो पैसे या चार पैसे; इतना ही न? क्या तुम इतने से ही अपने पति को टी.बी . से मुक्त कर लोगी? याद रक्खो, यह राजरोग है और इसकी चिकित्सा के लिए चाहिए रुपया, काफी रुपये; हाँ!’’
‘‘तो फिर और क्या करूँ बाबूजी?’’-दबे स्वर में युवती ने पूछा। युवक ने व्यंग्य भरे स्वर में कहा-‘‘और क्या करोगी? मुझ ही से पूछती हो? यह सरस अधर, सुरीला कण्ठ-स्वर, कोमल बाँह, किस दिन के ये काम देंगे? कहता हूँ, हाथ फैलाओगी तो ताँबे के टुकड़े पाओगी और बाँह फैलाओगी तो पाओगी हीरे, जवाहर!’’-इतना कहकर युवक ने अपनी तिजोरी खोल दी।
उस रमणी ने उन्हें देखा। आँखें उनके झिलमिल प्रकाश में न ठहर सकी। वह चुप रह गई। उसका सारा शरीर पीला पड़ गया। उसे ऐसा लग रहा था, मानों उसके ये शब्द सदा से अपरिचित हों।
कुछ देर तक वह इसी प्रकार स्तब्ध, भीत-सी खड़ी रह गईं। अन्त में वह अपने बिखरे साहस को समेटकर उसने उत्तर दिया-‘‘बाबू जी, इसी हिन्दुस्तान में आने के लिए अपनी सारी सम्पत्ति तो पाक़िस्तान में गँवा आई हूँ। क्या हिन्दुस्तान पहुँचकर भी अपनी बची खुची सम्पत्ति को गँवा दूँ? नहीं बाबू, यह नहीं होने का। माफ कीजिए, यह बहुत बड़ा देश है। एक-एक पैसा तो मिल जाएगा?-यही बहुत है।’’कहती हुई वह नारी बहुत शीघ्रता से बाहर निकल गई।
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