Quantcast
Channel: लघुकथा
Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

जिन्दगीभर हारता इन्सान और जीतने की जिद

$
0
0

मधुदीप की लघुकथाएँ-‘समय का पहिया

मधुदीप हिन्दी लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षरों में से एक हैं। उनका पहला लघुकथा संग्रह ‘हिस्से का दूध’ सन् 1991 में आया था जिसमें उनकी 30 लघुकथाएँ, ‘लघुकथा:एक विहंगम दृष्ति’ शीर्षक से लघुकथा पर एक लेख और 7 कहानियाँ संगृहीत थीं । उससे पहले उनके 6 उपन्यास, 1 कहानी संग्रह तथा 1 बाल उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। इनके अलावा  2 लघुकथा संकलनों का तथा 3 कहानी संकलनों का सम्पादन भी वे तब तक कर चुके थे। तात्पर्य यह कि लघुकथा-लेखन में आने से पहले कथा-लेखन और संपादन का उन्हें यथेष्ट अनुभव था। सन् 2010 में सरकारी सेवा से मुक्ति पाने के बाद उन्होंने अपनी रचनाशीलता को नए सिरे से सँवारना शुरू किया है। इस मुहिम का पहला पुष्प पाठकों को सन् 1988 में उनके द्वारा सम्पादित लघुकथा संकलन ‘पड़ाव और पड़ताल’ के पुनर्प्रकाशित संस्करण के रूप में प्राप्त हुआ जो 2013 में छपकर आया। इसके बाद उन्होंने ‘पड़ाव और पड़ताल’ को लघुकथा के स्तरीय एवं वरिष्ठ हस्ताक्षरों की प्रस्तुति का ऐसा मंच घोषित कर दिया जो अपने आप में अभूतपूर्व है। यह भूमिका लिखे जाने तक ‘पड़ाव और पड़ताल’ शृंखला के 10 खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें 59 लघुकथाकारों की 660 लघुकथाएँ, उन लघुकथाओं पर विभिन्न आलोचकों द्वारा लिखे गये एकल व संयुक्त 70 आलोचनात्मक लेख, लघुकथा की दशा-दिशा और प्रकृति-प्रवृत्ति पर 10 लेख तथा कुछ पूर्व प्रकाशित लगभग विस्मृत सामग्री लघुकथा साहित्य की ‘धरोहर’ के रूप में संकलित हो चुकी है। अनुमान है कि ‘पड़ाव और पड़ताल’ शृंखला अभी कुछ-और आगे तक चलेगी और लघुकथा का प्रतिमान सिद्ध होगी। ‘हिस्से का दूध’ में संगृहीत कहानियों के स्थान पर लघुकथा विषयक कुछ सामग्री जोड़कर सन् 1995 में उन्होंने ‘मेरी बात तेरी बात’ नाम से एकल लघुकथा संग्रह पुन: प्रकाशित किया था। प्रस्तुत लघुकथा संग्रह ‘समय का पहिया…’ में उक्त पूर्व संग्रहों में प्रकाशित सभी लघुकथाओं के साथ-साथ कथा-लेखन में पुनर्जन्म के उपरान्त, सम्प्रति नई सदी में अक्टूबर 2014 तक लिखित उनकी सभी लघुकथाएँ संगृहीत है।

कथा साहित्य की आलोचना में यथार्थ, भोगा हुआ यथार्थ, अनुभव और संवेदनशीलता आदि कुछ ऐसे शब्द प्रचलन में हैं जिन्हें विभिन्न संदर्भों में बार-बार दोहराया जाता है। इनमें यथार्थ को अपेक्षाकृत एक बाहरी अवयव माना गया। बाहरी न माना गया होता, तो स्वयं भोगे यथार्थ के ही विश्वसनीय होने की बात नहीं की जाती। भोगे हुए यथार्थ के भी वस्तुत: दो रूप हैं। एक वह, जिसे व्यक्ति घटना के समय दैहिक रूप से उपस्थित रहते हुए भोगता है; और दूसरा वह, जिसे व्यक्ति घटना का हिस्सा न होते हुए, दैहिक रूप से वहाँ उपस्थित न रहते हुए भी संवेदन-तंतुओं की सक्रियता के, जीवन्तता के चलते भोगता है। यही बात अनुभवशीलता और संवेदनशीलता पर भी लागू होती है। बड़ा प्रचलित एक मुहावरा है—जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई। क्या वास्तव में ही, पराई पीर को जानने के लिए अपने पाँवों  में बिवाई  को फाड़ लेना जरूरी है? आग से या खौलते दूध-पानी-तेल से जलने का अनुभव हर व्यक्ति यदि स्वयं जलकर प्राप्त करने लगेगा, तो ‘अनुभव’ शब्द बहुत छोटा और हेय नहीं हो जाएगा? पीड़ा अगर शरीर से आगे बढ़कर मनोमस्तिष्क में पैठ जाए तो व्यथा बन जाती है। आज की दुनिया में पीड़ितों की संख्या के मुकाबले व्यथितों की संख्या लगभग नगण्य है। व्यथित होने जितनी संवेदनशीलता ने शनै: शनै: हमसे जैसे किनारा ही कर लिया है। परिवार में किसी प्रिय  के मरने से शोक का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। व्यथा का उत्पन्न होना भी अस्वाभाविक नहीं है; लेकिन व्यथा की जिस ऊँचाई को राम का हृदय छूता है, मैं समझता हूँ कि अपने युग के हर लेखक को उस ऊँचाई तक पहुँचना चाहिए। मेघनाद की ‘शक्ति’ के आघात से मृतप्राय: लक्ष्मण के शरीर को अपने हृदय से लगाकर राम यह भूल जाते हैं कि लक्ष्मण और वे सहोदर नहीं हैं। विलाप करते हुए वे कहते हैं—अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥ यानी हे तात! संसार में एक ही माँ के उदर से उत्पन्न हुआ भाई दोबारा नहीं मिलता, हृदय में ऐसा विचार करके जागो (और मेरी व्यथा को दूर करो)। व्यथा की अभिव्यक्ति की यह पराकाष्ठा है। यह पराकाष्ठा करुणा से उत्पन्न होती है। राम को इसीलिए करुणानिधान कहा गया है। कोई माने न माने, एहसास के एक बिंदु विशेष पर हर लेखक में यह करुणानिधानता उपस्थित रहती ही है।

‘क्या उन्हें खुद की कमाई इस दौलत में से अपनी मर्जी से कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है?’—यह सवाल हर उस व्यक्ति के जेहन में कभी-न-कभी अवश्य पाँव पसारता है जिसने कुछ चल-अचल सम्पत्ति अपने बूते कमाकर जमा की हो। ‘अबाउट टर्न’ के रामप्रसादजी उस समय इस सवाल से टकराते हैं जब घर की मेहरी की बिटिया की शादी में वे कुछ आर्थिक मदद करना चाह रहे थे। उनकी इस कोशिश से आहत बेटे ने उनके चरित्र पर ही लांछन लगाते हुए उनसे कह दिया कि—“आप महरी से जुड़ते जा रहे हैं…।”  घर-परिवार में धन-सम्पत्ति सम्बन्धी विवाद संस्कारहीन व्यक्ति को कितने भी गहरे गर्त में गिरा सकता है। कथानक और स्थापना, दोनों में भिन्नता होते हुए भी लघुकथा ‘दौड़’ के मुख्यपात्र का कष्ट भी मानसिक शान्ति का छिन जाना है। वह कहता है—“…यह सच है कि आज मेरे पास सब-कुछ है मगर उससे भी बड़ा सच यह है कि आज मेरा अपना कोई नहीं है।” ‘दौड़’ का उल्लेखनीय पक्ष उसकी फैंटेसी में पिरोया गया बिम्ब है। सामने की कुर्सी पर तब भी कोई नहीं था जब इस व्यक्ति (मुख्य पात्र) ने ‘दौड़’ शुरू की थी। वह उस सच को नजरअन्दाज करके दौड़ता रहा। सामने की कुर्सी पर आज भी कोई नहीं है, जब वह स्वयं रुककर उसे देखना चाहता है।

‘दौड़’ के मुख्य पात्र जैसी हताशाजनक स्थितियों को ‘सन्नाटों का प्रकाशपर्व’ के पाँच बूढ़े भी झेल रहे हैं। दोनों लघुकथाओं के कथानकों में नि:संदेह अन्तर है। दोनों का द्वंद्व भी अलग है; लेकिन त्रास दोनों का एक-सा है। ‘दौड़’ का मुख्य पात्र जहाँ इस त्रास से पराजित-सा नजर आता है, ‘सन्नाटों का प्रकाशपर्व’ के पाँच बूढ़े वहाँ अपने आप को जीवित और प्रसन्न रखने का बिन्दु तलाश कर लेते हैं—

लक्ष्मी-पूजन के बाद जब सम्भ्रांत लोग अपने-अपने परिवारों के साथ कॉलोनी में फैले प्रकाशपर्व को देखने छतों पर पहुँचे, तो उनकी आँखों के सामने अद्भुत नजारा था…

साथ लगी कामगारों की कॉलोनी में मोमबत्तियों, दीयों और बिजली की लड़ियों की रोशनी का झलमला फैल रहा था…सम्भ्रांत कॉलोनी के ये पाँचों बुजुर्ग वहाँ वाले बच्चों के साथ गोल-गोल घूमते हुए ताली बजा रहे थे, छोटे-छोटे पटाखे छुड़ा रहे थे।

यह लघुकथा बताती है कि जिन्दगी में अकेलेपन के तनाव से उत्पन्न सन्नाटे को तोड़ने का एक सफल उपाय यह है कि उसे सदा-सदा के लिए दूर ठेलने की ओर अग्रसर हुआ जाए। जब अपने साथ छोड़ गए हों, तो किसी अन्य को अपना बना लेने के बारे में सोचने को नकारात्मक नहीं कहा जा सकता। लघुकथा ‘साठ या सत्तर से नहीं’ में भी वृद्ध-जीवन की एक हताशा से परिचित कराती है। इतना ही नहीं यह एक सत्य का भी प्रतिपादन करती है। वृद्ध दम्पत्ति के बीच सम्पन्न वार्तालाप के इस अंश से उस सत्य का आभास आपको मिल जाएगा—

“आने के बारे में कुछ कह रहा था?”

“वह अब शायद ही लौटेगा…उसने लन्दन में ही शादी कर ली है।”

“ओह! हमसे पूछा तक नहीं!”

“मैंने कहा था ना लीलावती, आदमी साठ या सत्तर से बूढ़ा नहीं होता।”

मैं समझता हूँ कि पाठक के लिए लघुकथाकार इतना संकेत यथेष्ट है और यही कौशल लघुकथा को स्तरीय कथा रचना बनाता है।

हिन्दी लघुकथा में एक उल्लेखनीय शैल्पिक विकास देखने को मिल रहा है। मुख्य कथा में पात्र की मानसिकता और वस्तु की सघनता को सम्प्रेषित करने की दृष्टि से कथाकार अलग से बिम्ब न जोड़ने के परम्परागत चलन को त्याग चुका है। अब वह कथा के समान्तर एक दृश्य जोड़ता है जो कथा के प्रवाह को गति भी देता है और उसके मन्तव्य तथा दिशा को स्पष्ट करने में भी सहायक होता है। मधुदीप की ‘अबाउट टर्न’ और ‘आल आउट’ में इसे आसानी से रेखांकित किया जा सकता है। ‘अबाउट टर्न’ में यह मिलिट्री के सैनिकों की परेड के रूप में सामने आता है तो ‘आल आउट’ में क्रिकेट कमेंटरी के रूप में। यहाँ ‘अबाउट टर्न’ का अर्थ स्पष्ट कर देना बहुत जरूरी लग रहा है। इस शब्द का इस्तेमाल प्रमुखत: मिलिट्री परेड के दौरान ग्रुप लीडर द्वारा किया जाता है। उसके द्वारा यह आदेश देने का अर्थ होता है कि जिस दिशा में जा रही है, पूरी टुकड़ी 180 डिग्री पीछे की ओर घूम जाए। आम जन-जीवन में इसका अर्थ होता है—अपने मन्तव्य, अपनी धारणा, अपने पूर्व निश्चय को पूरी तरह त्याग देना, बदल लेना। पार्क से उठकर घर जाने की दिनचर्या को रामप्रसादजी एकदम उल्टी दिशा में घुमा देते हैं और वृद्धाश्रम की ओर मुड़ जाते हैं। इस सम्बन्ध में ‘उनकी अपनी जिन्दगी’ का उल्लेख भी आवश्यक है। उसके विनय प्रसाद जी भी पत्नी सहित अपने तथा बहू के विचारों में तालमेल न बैठ पाने से क्षुब्ध होकर वृद्धाश्रम का पलायनवादी मार्ग अपनाने को विवश होते है—

“सुनो! तैयारी कर लो…हम कल एक महीने के लिए ‘मनहर आश्रम’ जा रहे हैं।” विनय प्रसाद जी ने कहा तो पत्नी ने अपना हाथ उनके हाथ पर रख दिया।

इस लघुकथा में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि सन्तानोत्पत्ति और उसके पालन-पोषण के बारे में यह युवा पीढ़ी के दृष्टिकोण, उसकी सकारात्मक आकांक्षा और बुजुर्ग पीढ़ी द्वारा उसकी विवशता को न समझकर अपनी स्वतंत्रता को ही सर्वोपरि मानने को दर्शाती हुई आगे बढ़ती है। सास-बहू के बीच सम्पन्न यह वार्तालाप देखिए—

“बहू! शादी को तीन साल हो गए, आगे क्या विचार है?” पत्नी ने संकेत में पूछा था।

“माँजी, आप तो जानती ही हैं, हम दोनों नौकरी करते हैं। ऐसे में…। आप सम्भाल लें तो…” बहू ने भी संकेत में ही बोलकर अपनी बात अधूरी छोड़ दी।

सुनकर एक पल को पत्नी सकते में आ गई थी। दाल में जैसे कंकड़ आ गया हो।

“बहू, हमने अपने बच्चों को पाला-पोसा, अच्छी शिक्षा दी और उनका शादी-ब्याह भी कर दिया। अब हम अपने दायित्व से मुक्त हो चुके हैं। तुम्हारी सन्तान तुम्हारा ही दायित्व होगा, यही विचारकर कोई निर्णय लेना।” पत्नी ने दृढ़ स्वर में कहा था और खाने की मेज से उठ गई थी।

यहाँ ‘पत्नी’ यानी सास का चरित्र समय और परिस्थिति के प्रतिकूल है। देखने की बात यह है कि सन्तानोपत्ति का मामला सास ने उठाया था, बहू ने नहीं। उसमें रुचि सास की है, बहू की नहीं। क्यों नहीं है, इसका खुलासा वह सास के सामने कर भी देती है; लेकिन सास उसे सहयोग करने को तैयार नहीं है। बहू को खरी-खरी सुनाते समय वह यह भूल जाती है कि उसने जिन दिनों सन्तान को पैदा किया, पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया और शादी-ब्याह किया, वह संयुक्त परिवार का युग था। दूसरे, वह स्वयं कामकाजी महिला न होकर गृहिणी मात्र थी।

समाज की भलाई के मद्देनजर बनने वाली राष्ट्रीय योजनाएँ नौकरशाहों की ठस मानसिकता के चलते कितनी विध्वंसक और समाज-विरोधी बन जाती हैं इसका एक रूप ‘अवाक्’ में देखने को मिलता है। मिड-डे मील की राष्ट्रीय योजना इन लोगों के कुकृत्य के कारण बच्चों में पढ़ने के लिए स्कूल जाने का संस्कार पैदा करने के स्थान पर भोजन के लिए स्कूल जाने का संस्कार पैदा कर रही है। बेटा बाप से कहता है—“बापू, मैं तो स्कूल में इसलिए जाता हूँ फ़्द वहाँ दोपहर में भरपेट खाना मिले है। और देख बापू, मैं छोटे के लिए भी लाया हूँ।”  इसी लघुकथा में “पर बापू! मास्टरजी तो खाना बनाने और बाँटने में लगे रह हैं, वे पढ़ावें कब!!” पिता से कहे गये बेटे के इस वाक्य को सुनते ही स्पष्ट हो जाता है कि स्कूल-अध्यापकों के साथ शिक्षा विभाग के नौकरशाह और उनके सहयोगी अधिकारी किस स्तर का व्यवहार करते हैं।

समाज में प्रतिष्ठा पाने हेतु दलित एवं पिछड़े वर्ग की प्राथमिकताएँ आज बदलती नजर आ रही हैं।  सवर्ण की मान्यता है कि दलित एवं पिछड़े वर्ण के व्यक्ति को सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ उठाकर अपनी उन्नति के रास्ते को बरकरार रखना चाहिए; परन्तु दलित एवं पिछड़े वर्ग का व्यक्ति ऐसा करने को अब छद्म उन्नति मानने लगा है। वह समाज में सवर्ण के समान, उसके बराबर की इज्जत चाहता है। इसे पाने का उसे बेहतर उपाय यह नजर आता है कि अपनी पहचान के पिछले चिह्नों से मुक्ति पाकर नई पहचान ग्रहण करे, आर्थिक रूप से तो सम्पन्न हो ही, किसी कार्य-क्षेत्र में प्रतिष्ठा भी प्राप्त करे। ऐसा करते हुए उसे ‘कोटे’ से मिलने वाली सरकारी सुविधाओं का त्याग भी स्वीकार्य है। लघुकथा ‘इज्जत का मोल’ में परस्पर वार्तालाप का यह अंश देखिए—

“अरे घासीराम तुम…!” उसने उसे पुकारा है।

“अरे वाह! घनश्याम भाई आप!!” उधर से आई आवाज ने पहचान पक्की कर दी है।

“यह अग्रवाल चाट भण्डार…?”

“अपना ही है।”

“मगर तुम तो…?” वह प्रश्न को रोक नहीं पाता है।

“सब चलता है घनश्याम भाई।” वह लापरवाही से उत्तर देता है।

“क्यों बच्चों का नुकसान कर रहे हो! कुछ पढ़-लिख जायेंगे तो ‘कोटे’ से अफसर बन जायेंगे।” वह अपनी बात कहे बिना नहीं रह पाता।

“उसकी फिक्र क्यों करें भाई। अपना धन्धा है ना। और फिर, समाज में इज्जत का भी तो कुछ मोल होता है ना!”

इस लघुकथा में रेखांकनीय यह भी है कि सवर्ण मानसिकता उनके प्रति आज भी जहाँ की तहाँ है; जब कि दलित एवं पिछड़े वर्ग की मानसिकता सरकारी कृपा के जरिए समरसता मिलने के खोखलेपन को जान चुकी है और उससे आगे बढ़ चुकी है।

‘उसके बाद’  तात्कालिक लाभ की ओर दौड़ लगाने की आम प्रवृत्ति की ओर इशारा करती है; और सांकेतिक भाषा में बता देती है कि तात्कालिक लाभ स्थाई नहीं, अल्पकालिक होते हैं।

राजपथ के चौराहे पर अपार भीड़ जमा है। सभी के हाथ में अपने-अपने डंडे हैं और उनपर अपने-अपने झंडे हैं। लाल रंग, हरा रंग, नीला रंग, भगवा रंग और कुछ तो दो-दो, तीन-तीन तथा चार-चार रंग के झंडे भी हैं। भीड़ में सभी अपने झंडे को सबसे ऊपर लहराना चाह रहा है।

यह आधुनिक भारत की यथार्थ तस्वीर है जिसे लघुकथा ‘एकतन्त्र’ में दिखाया गया है।  देश इसमें अध-बूढ़े इन्सान के रूप में अवतरित हुआ है और खासा हताश है—

एक अध-बूढ़ा व्यक्ति अपनी हथेली माथे पर टिकाए उस सन्नाटे में दूर तक देखने की कोशिश कर रहा है…झंडों के रंग एक-दूसरे में गडमड होते जा रहे हैं। वह उन रंगों को अलग-अलग पहचानने का भरसक प्रयास कर रहा है मगर अब उसे वे सारे झंडे एक ही रंग के नजर आ रहे हैं। स्याह रंग ने सभी रंगों को अपने में सोख लिया है।

अध-बूढ़ा व्यक्ति जनपथ से राजपथ को जोड़ने वाले चौराहे पर घबराया-सा खड़ा सोच रहा है—यह कैसे हो सकता है? कहीं उसकी आँखों की रोशनी तो नहीं चली गई है!”

‘एकतन्त्र’ लोकतन्त्र को राजशाही में बदलता देख रहे आम भारतीय की त्रस्त मानसिकता का बिम्ब और प्रतीक व्यवस्था के माध्यम से बेहद उत्कृष्ट चित्र प्रस्तुत करती है। पूरा देश इस समय अध-बूढ़े व्यक्ति को जनपथ को राजपथ से जोड़ने वाले स्थान को दोराहे की बजाय चौराहा दिखाकर कथाकार ‘तन्त्र’ की तीसरी और चौथी सम्भावना की ओर भी इशारा कर रहा प्रतीत होता है; लेकिन हालात से घबराया उसका पात्र वहाँ घबराया-सा खड़ा है, इन सम्भावनाओं की ओर अभी उसकी दृष्टि नहीं है। ‘महल में तो राजा रहता है’ जनतन्त्रिक देश में राजशाही की भाषा के प्रयोग की ओर संकेत करती है।

लघुकथा ‘कल की ही बात है’ की बॉडी-लेंग्वेज बताती है कि इसे यह दिखाने के उद्देश्य से लिखा गया है कि जो पिता नौकरी में रहते हुए परिवार में सर्वोपरि था, नौकरी से रिटायर होने के बाद वही अप्रासंगिक मान लिया गया है, घर के सदस्यों पर उसका रौब-दाब खत्म हो गया है। लेकिन, इसके केन्द्रीय भाव को देखें तो पायेंगे कि व्यक्ति को रिटायरमेंट के बाद अपनी पूर्व प्राथमिकताओं में बदलाव कर लेना चाहिए।  पत्नी, बड़ा बेटा और छोटा बेटा पिता को यदि नई भूमिका सौंपना चाहते हैं तो इससे उनका ‘घर का मुखिया’ न रहना कहाँ सिद्ध होता है?

‘किस्सा इतना ही है’ ऐसे सहृदय नागरिक की व्यथा को व्यक्त करती है जिसे परिस्थितिवश  एक तेज रफ्तार ‘स्कोडा’ की टक्कर से घायल व्यक्ति की मदद करनी पड़ती है। इस हादसे के माध्यम से मधुदीप उन सभी नागरिक लापरवाहियों तथा वैधानिक पेंचीदगियों से पाठक को परिचित कराते चलते हैं जिनके चलते उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, जिसे वास्तव में बचाया जा सकता था। एक अंश देखिए—

अब, मैं अगर वह सब वर्णन करूँगा कि हस्पताल में कैसे-क्या हुआ, कितनी परेशानियाँ हुईं, मुझे किन-किन सवालों और कैसी-कैसी निगाहों से दो-चार होना पड़ा तो यह किस्सा लघुकथा की सीमा का अतिक्रमण कर जायेगा। वैसे भी, आप उन सब स्थितियों से अच्छी तरह परिचित हैं और इसी कारण से किसी जरूरतमन्द घायल की मदद करने की बजाय स्थिति से अक्सर किनारा कर जाते हैं।

तो पाठको! यह किस्सा यूँ समाप्त होता है कि सारी औपचारिकताओं को पूरा करते-करते उस वृद्ध ने हस्पताल में दम तोड़ दिया। अब, मैं इस कारण से तो व्यथित हूँ ही, इसके बाद आने वाली परेशानियों के बारे में सोचकर दहशत में भी हूँ। घर पर पत्नी और बच्चे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

किसी भी समाज के लिए इससे अधिक शर्मनाक स्थिति और क्या हो सकती है कि उसका एक सहृदय नागरिक दुर्घटना में घायल किसी जाने-अनजाने व्यक्ति की मदद करने से केवल इसलिए किनारा करने लगे कि ऐसा करके वह  अनेक कानूनी झंझटों में फँस जाएगा।

अपने आप को लाइम-लाइट में रखने के लिए पूँजीपति और राजनेता अनेक हथकंडे अपनाते हैं। कुछेक कलमकारों, कलाकारों, शिक्षाविदों एवम् समाजसेवियों का सम्मान करने का कार्यक्रम तैयार करना। उसकी अध्यक्षता के लिए किसी राजनीतिक पार्टी के प्रमुख नेता को पटाना तथा प्रिंट और इलैक्ट्रिक मीडिया के पत्रकारों को आमंत्रित करना किस बड़ी साजिश का हिस्सा हो सकता है—इस रहस्य को शहर के एक चर्चित दैनिक के संवाददाता विनोद मिश्र अच्छी तरह समझ रहे हैं, लेकिन अपने काम में व्यस्त रहते हैं। वह क्षुब्ध तब होते हैं जब यह देखते हैं कि सम्मान के लिए बुलाए गए भद्रजन हास्यास्पद स्थिति में पहुँचा दिए गए हैं और उन सबके सम्मान की अवहेलना करके संचालक उक्त समारोह के आयोजक नगर सेठ के सम्मान की घोषणा करके उस काम में मंच को व्यस्त कर देते हैं।  लघुकथा ‘चिड़िया की आँख कहीं और थी’ संकेत मात्र से यह बताती है कि आज के युग में शिकार करने वाली चिड़िया देखती कहीं और है और झपटती कहीं और है। एकदम इसी कुटिलता को ‘राजनीति’ का चौधरी प्रेमसिंह अपनाता है। लघुकथा ‘रात की परछाइयाँ’ में भी भारतीय लोकतन्त्र में राजनीतिक पार्टियों के कामगार समर्थकों द्वारा वोट गरीब और अनपढ़ प्रजा का वोट खरीदने, हड़पने, झटकने के प्रयासों का यथार्थ अंकन हुआ है; तथापि इसमें चुनाव आयोग द्वारा ऐसे तत्त्वों पर लगाम कसने की सफल कार्रवाही का भी अंकन हुआ है जो लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कथाकार की सकारात्मक सहमति की ओर संकेत करता है। राजनीतिक धरातल की ही एक अन्य लघुकथा है—‘हड़कम्प’। लेकिन यह निरी राजनीतिक धरातल की रचना न होकर देश की रक्षा हेतु सीमा पर जान गँवाने वाले शहीदों के प्रति वर्तमान राजनीतिज्ञों की संवेदनहीनता के खिलाफ आम आदमी के सचेत हो उठने की कथा है।

‘चैटकथा’, जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, दो युवाओं की परस्पर चैटिंग की दास्तान है। इस लघुकथा की अनेक विशेषताओं में से एक उन शब्दों और सम्बोधनों का प्रयोग है जिन्हें चैट-युग के विशेष शब्द कहा जा सकता है। वे हैं—‘हाय सैक्सी’, ‘हॉट’, ‘सुपर्ब’, ‘क्यूट’, ‘स्मार्ट’। इन चैट-सम्बन्धों का सच यह है कि ये चैट-बॉक्स तक ही सीमित रहने के आदी हैं। वास्तविक जिन्दगी में उतरने से ये डरते हैं। यह माध्यम आज के युवाओं में ऐसा मानसिक रोग उत्पन्न कर रहा है जिसके चलते वे रोमांस की काल्पनिक दुनिया का बाशिंदा ही बने रहना पसंद करते हैं। यथार्थ जीवन का रोमांस उन्हें आतंकित करता है—“शिट, कर दिया न चैट का रोमांस खत्म।” लघुकथा ‘महानगर का प्रेम सम्वाद’ भी कमोबेश इसी धरातल पर खड़ी है।  ‘आधी सदी के बाद’ लिव-इन की अत्याधुनिक अवधारणा का अनुसरण करते एक युवा जोड़े का आख्यान प्रस्तुत करती है। इसके माध्यम से मधुदीप दर्शाते है कि सारी आधुनिकता को भोग रही होने के बावजूद लड़की विवाह-संस्था में ही अपनी सुरक्षा और संतुष्टि देखती है और उसके लिए दशकों तक इन्तजार करने को तैयार रहती है।

‘बड़ा’ बनने की दौड़ को लघुकथा ‘छोटा, बहुत छोटा’ के रामनिवास मिश्र ने जिस बिन्दु पर पहुँचकर जीता हुआ समझा था, उन्हें पता चला कि असल में उस बिन्दु पर वे उतने ‘छोटे’ सिद्ध हो गये हैं जितने छोटे अब से पहले वे तब भी नहीं थे जब उन्होंने एक सरकारी कार्यालय में तृतीय श्रेणी के लिपिक के तौर पर ज्वाइन किया था ।

‘टोपी’ राजनीतिक धरातल की लघुकथा है, लेकिन किंचित उलझी हुई।

सामाजिक स्थितियाँ बेहद त्रासद हैं। त्रासद इस अर्थ में कि हर व्यक्ति दूसरे की विवशता, दीनता को संदेह की दृष्टि से देखने का अभ्यस्त हो चुका है। विश्वास हमारे बीच से उठ ही गया है। माना कि दूसरों के सद्प्रयासों पर भी संदेह करने की जड़ें हमारे मन में अनायास नहीं उपजीं। सैकड़ों साल तक धोखाधड़ी का शिकार होते रहने ने हमारे जीन के मूल-धर्म को बदल डाला है। लेकिन इसकी भयावहता का पता हमें तब चलता है जब हम स्वयं किसी के अनाधिकारपूर्ण संदेह का शिकार हो जाते हैं। लघुकथा ‘ठक-ठक…ठक-ठक’ ऐसे ही अनाधिकारपूर्ण संदेह से आहत व्यक्ति की त्रासदी को व्यक्त करती है। देश के बुद्धिजीवी लम्बे समय से गर्मागर्म बहसों में उलझे हुए हैं। इनके बीच ‘कुछ कहने की कुछ करने’ की इच्छा वाले लोगों की उपस्थिति सुकून प्रदान करती है। मुसीबत यह है कि उबाल इन लोगों के खून में आने की बजाय ‘प्याले की ठंडी हो रही कॉफी’ में ही आ रहा है। लघुकथा ‘तुम तो सड़कों पर नहीं थे’ में नाटकीयता का पदार्पण हुआ है। निम्न बिम्ब के माध्यम से मधुदीप साम्प्रदायिक विद्वेष को जन्म देने और बढ़ाने में राजनीतिकों की भूमिका की ओर संकेत करते हैं—

तभी, दो पल्सर मोटर-साइकिलें विपरीत दिशाओं से आकर वहाँ ठहरीं। उन पर बैठे दो धुर विरोधी पार्टियों के नेता एक-दूसरे को देखकर मुस्कराए; और विषैला धुआँ छोड़ते हुए फर्राटे से आगे बढ़ गये।

लघुकथा ‘वोट में तब्दील चेहरा’ भी राजनीतिकों की कुटिलता को दर्शाती है।

समाज में सच कहने और उचित करने का साहस घटा है, इस सचाई से आज कोई भी इंकार नहीं कर सकता। सम्बन्ध भी आज लाभ और हानि के गणित से ही संचरित होने लगे हैं। बड़प्पन को नैतिकता की बजाय धनढ्यता से जुड़ा समझा जाने लगा है। यही कारण रहा कि पारिवारिक एकसूत्रता को धता बताते हुए ‘नामचीन कॉलोनी में पांच बैडरूम का शानदार फ्लैट’ लेकर बड़ा भाई गरदन ऊँची समझने लगा है; जब कि सबसे छोटा माँ के साथ दो कमरों के एक छोटे-से ‘घर’ का ही जुगाड़ कर पाता है। रक्षा-बन्धन के पर्व पर बड़े का गर्वपूर्ण आग्रह बहनोई से होता है कि उनके पाँव पहले उसके मकान पर पड़ने चाहिए; परन्तु बहनोई उसके आग्रह को ठुकराकर दो कमरों वाले उस छोटे घर की ओर अपनी मोटर-साइकिल का रुख करता है जिसमें सबसे छोटे भाई ने अपने साथ माँ को रखा है।

सम्प्रभुता और राष्ट्रीयता किसे कहते हैं, भारतीय राजनीति के अधिकतर चेहरे इसे न तो जानते हैं और न ही जानने के इच्छुक हैं। उनकी दृष्टि में अर्थ और एय्याशी ही सब-कुछ है। नारायण दत्त तिवारी को जहाँ इस बारे में वर्षों कोर्ट और खबरिया चैनल्स के सामने आने से कतराते रहना पड़ा था, वहीं दिग्विजय सिंह ने इसे ढीठता के साथ स्वीकारते हुए बयान दिया कि उन्होंने गलत कुछ नहीं किया है। छुटभैये राजनीतिकों का तो यह घिनौना चेहरा कभी सुशील शर्मा, कभी गोपाल कांडा, कभी विकास यादव आदि के रूप में अक्सर ही सामने आता रहता है। अपने पूर्ववर्तियों का अनुसरण करते हुए वे अपने इस कुकृत्य पर शर्मिंदा भी नहीं होते हैं, ढीठ बने रहते हैं और इसे अपना चारित्रिक पतन न मानकर वैधानिक किस्म की कोई लापरवाही हो जाना ही मानते हैं।  वे मानते हैं कि वह न हुई होती तो वे पाक-साफ बने रहते।  ऐसे पतनोन्मुख समाज में बहुत जरूरी है कि साहित्य अपनी रीढ़ को सीधा और घुटनों को मजबूत बनाए रखे; लेकिन यह आसान नहीं है। जो बिचौलिए राजनीति के गलियारों में अपनी पैठ बनाए हुए हैं, वे ही साहित्य के गलियारों पर भी काबिज हैं। किसे प्रोजेक्ट करना है और किसे नेपथ्य में भेज देना है, लगता यही है कि वे ही तय करते हैं। अन्यथा क्या कारण है कि जीवित और दिवंगत अनगिनत प्रभावशाली लेखक, विचारक हमारे देखते-देखते ही गुमनामी के अंधेरों में धकेल दिये जाते हैं। इस कारनामे के पीछे साहित्य में लाबियों का सक्रिय रहना बताया जाता है, लेकिन सभी लाबियों को जो बनाता और सक्रिय रखता है, वह एक ही व्यक्ति है—बिचौलिया। हम उसके कुछेक शाब्दिक झाँसों में आकर  सतही आरोप-प्रत्यारोप में उलझ जाते हैं और इस तरह अपनी रचनाशीलता का हनन कर बैठते हैं।

कथा-लेखन में प्रवृत्त रहने के लिए दो बातें आवश्यक हैं—अनुभवों की चौतरफा ग्राह्यता और संवेदन-तंतुओं की जागरूक सक्रियता। चौतरफा ग्राह्यता से तात्पर्य है कि लेखक को पूर्वग्रहों और पूर्वाग्रहों, दोनों से मुक्त रहना चाहिए। उसे वह सब भी पढ़ना चाहिए जिससे, वह समझता है कि, उसका वैचारिक मतभेद है। वैचारिक मतभेद वाली चीजों को गहराई तक जाने-समझे बिना कोई भी व्यक्ति उनका सार्थक विरोध दर्ज करने का अधिकारी नहीं बन सकता। यही कारण है कि मत-विरोध की बहुत-सी कथाएँ सतह पर तैरती, बहुत हल्की प्रतीत होती हैं और लेशमात्र भी प्रभावित नहीं कर पातीं। देखने में आता है कि अनेक कथाओं के कथ्य अनुभवजनित तो महसूस होते हैं, प्रभावित नहीं कर पाते। ऐसा तब होता है जब कथाकार तथ्य को कथा बनाने की कोशिश करता है। याद रखना चाहिए कि विशेषत: समकालीन लघुकथा तथ्य और सिद्धांत की पैरोकार बन जाने वाली कथा-विधा कतई नहीं है। कई कथाएँ ऐसी भी होती हैं जो कथ्य के स्तर पर तो प्रभावित करती-सी लगती हैं लेकिन वस्तु के तौर पर कमजोर रहती हैं। लघुकथा एक सम्पूर्ण कथा-रचना है, आपके अच्छे-बुरे सिद्धांतों की वाहिका नहीं। इस तथ्य को सभी समकालीन लघुकथाकारों को स्वीकार करके इसका अनुसरण करने की कोशिश करनी चाहिए। सिद्धांत-प्रस्तुति को प्रमुखता देने की अपनी इसी कमजोरी के कारण रावी लघुकथा के इतिहास में ऐसे पुरुष होकर रह गये हैं। गतानुगतिक लोको की तर्ज पर उनकी कथा-श्रंखला  ‘मेरे कथागुरु का कहना है’ के नाम का ही उल्लेख किया जाता है, रचनाओं का नहीं।  मधुदीप की लघुकथा ‘विषपायी’  और ‘मज़हब’ में  सिद्धांत-प्रस्तुति जैसा प्रयास नजर आता है। इनमें     ‘मज़हब’ पर बात करते हुए मिर्ज़ा ग़ालिब की एक लोकप्रिय ग़ज़ल का यह शे’र अनायास ही याद हो आता है—

रगों  में  दौड़ते फिरने  के हम नहीं क़ायल

जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

‘मज़हब’ में, सितम्बर 2014 में कश्मीर घाटी में बाढ़ से हुई तबाही और उस मौके पर सेना की टुकड़ियों द्वारा आम नागरिकों की मदद के अवसर की एक घटना को कथानक बनाया गया है। पन्द्रह साल पहले, सुभाष कौल के परिवार को धर्म-विशेष के आधार पर कुछ दहशतगर्दों ने घाटी से भाग जाने को मजबूर कर दिया था। सोजुद्दीन नाम का शख्स उन दहशगर्दों का सरगना था। वही सोजुद्दीन बाढ़ में बुरी तरह फँस गया है और जो फौजी उसे नाव में बैठाकर सुरक्षित स्थान की ओर ले जाने के लिए आता है, संयोग से,  वह पूर्वोक्त सुभाष कौल का बेटा है। इन दोनों पात्रों के बीच सम्पन्न यह वार्तालाप देखिए—

     “तुम सुभाष कौल के बेटे हो ना ?”

     “हाँ बाबा |”

     “तुम मुझे पहचानते हो ?”

     “हाँ बाबा, आप सोजुद्दीन हैं |”

     “तुम्हें कुछ याद है ?”

 “हाँ बाबा ! पन्द्रह साल पहले, दहशतगर्दों ने मुझे और मेरे परिवार को इस जन्नत से बेदखल कर दिया था |”

                                “तुम्हें यह भी पता होगा कि उन दहशतगर्दों का

     सरगना कौन था ?”

     “उस चेहरे को मैं कैसे भूल सकता हूँ बाबा !”

     “क्या तुम्हारे मजहब में दुश्मन की जान बचाना जायज  है ?”

“बाबा, एक फौजी का मजहब उसका फर्ज होता है और उसके तहत आपकी जान बचाना मेरे लिए बिलकुल जायज है |”

                           महफूज किनारा आ चुका था | सोजुद्दीन बोट
से उतरते  हुए इस मजहब को पुरजोर सलाम
कर रहा था |   

इस वार्तालाप में अंतिम संवाद फौजी व्यक्ति के उस धर्म से सम्बन्धित है जिसकी  रक्षा की शपथ कार्यक्षेत्र में उतरने से पहले उसे दिलाई जाती है; और जिसे मानवता कहते हैं। लेकिन सोजुद्दीन की ओर से जोड़ा गए बातचीत के सिलसिले पर कश्मीर से निष्कासित एक ऐसे नौजवान का, जो सौभाग्य से फौज की सेवा में आ गया हो, इतने ठंडेपन के साथ जुड़ना अस्वाभाविक महसूस होता है। बचाव-कार्य में लगा होने के कारण सोजुद्दीन की रक्षा के लिए वह विवश भले ही हो, उसे देखने और पहचानने के बाद उसकी आँख के डोरे तक लाल न होना रचना की स्तरीयता को कम करता है। यों भी, मधुदीप को ‘अस्तित्वहीन नहीं’ और ‘ऐलान-ए-बगावत’ जैसे तेवर के लिए जाना जाता है, इतने ठंडेपन के लिए नहीं। ‘सोजुद्दीन बोट से उतरते  हुए इस मजहब को पुरजोर सलाम  कर रहा था |’—इस समापन वाक्य के द्वारा लघुकथाकार दो लक्ष्य एक-साथ साधता-सा प्रतीत होता है। पहला यह बताने का प्रयास कि हिंसक मानसिकता वाला सोजुद्दीन उक्त फौजी नौजवान के व्यवहार से प्रभावित हो गया है जो पहचान लेने के बावजूद भी अपने परिवार के अपराधी को महफूज किनारे तक छोड़ देता है। दूसरा यह कि मुसीबत में घिरे एक पुराने दुश्मन को हिन्दू फौजी के हाथों बचवाकर वह हिन्दूधर्म के मानवतावादी सिद्धांत का परचम लहरा देता है। इनमें दूसरा लक्ष्य हितकर नहीं है। न रचनात्मक धरातल पर और न धर्म की पैरवी के धरातल पर।

लघुकथा ‘मसालेदार भोजन की तीखी सुगन्ध’ निगम में कार्यरत रहे नवीनजी के सेवा-निवृत्ति समारोह की अनुभव व यथार्थ मिश्रित झाँकी प्रस्तुत करती है  तो ‘हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ’  सेवा-निवृत्त होने वाले व्यक्ति के आत्मालाप का विषद चित्रण प्रस्तुत करती है। लघुकथाकार के तौर पर मधुदीप की विशेषता यह है कि उनके कथ्यों में भिन्नता है तथा वे कोई न कोई सकारात्मक व जुझारू प्रसंग अपनी काया में समाए होती हैं। इस कथन पर कि लेखन अन्तत: चेतना का क्षेत्र है—पूरी तरह खरी उतरती हैं। कथाकार के तौर पर उनमें अपनी बात करने का संयम, साहस और सलीका—सब-कुछ है। ‘हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ’ में अपने अपने मुख्य पात्र के माध्यम से वह घोषित करते हैं—

“मैं जिन्दगी से खुलकर बातें करना चाहता हूँ। सिर्फ बातें करना नहीं चाहता, जिन्दगी से अपनी बातें मनवाना भी चाहता हूँ। हाँ, मैं जीतना चाहता हूँ।”  

‘मुआवजा’ भी गहरे सामाजिक सत्य, अनुभव और पीड़ा से जुड़ी लघुकथा है।

समकालीन लघुकथाकार सिर्फ पात्र के ही अन्तर्द्वंद्व को नहीं दर्ज करता, वह पाठक को भी उसमें शामिल करता है। दार्शनिक स्तर का अन्तर्द्वंद्व और उसे उकसाने वाला उद्बोधन भारतीय लघुकथा की पुरातन विशेषता है। ‘एक टोकरीभर मिट्टी’ में उकसाने की इस प्रक्रिया को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है, तथापि अन्तर्द्वंद्व और उद्बोधन का रूप और उद्देश्य दोनों ही आज की लघुकथा से भिन्न होता था। ‘मुक्ति’ और ‘मेरा बयान’ मधुदीप की ऐसी लघुकथाएँ हैं जिनमें अन्तर्द्वंद्व को स्थूलत: नहीं  बल्कि अंडर करेंट चलाया गया है। अन्तर्द्वंद्व प्रत्येक पात्र के अपने हो सकते हैं। वे जैसे भी हों, लघुकथा में यथासम्भव आने अवश्य चाहिएँ। उनका आना साधारण विवरण को साहित्यिक ऊँचाई प्रदान करने में सहायक सिद्ध होता है।

किसी की मृत्यु के कारण परिवार में शोक का वातावरण बन जाना स्वाभाविक है। यह वातावरण स्थायित्व न ग्रहण कर ले, इसके लिए परिजनों द्वारा कुछ सामाजिक परम्पराओं का निर्वाह किया जाता है। इस परम्परा निर्वाह को मधुदीप ने ‘शोक उत्सव’ का रूप देकर एक द्वंद्व उभारने का प्रयास किया है। अभी, कुछ समय पहले जो नाते-रिश्तेदार जानकीदेवी के शोक में शामिल होने का स्वांग रच रहे थे, वे ही अब उनके पति की मौत को जश्न की तरह मना रहे थे। कथाकार बिना पूछे ही सवाल खड़ा करता है कि शोक को उत्सव की तरह मनाने तथा शोकग्रस्त व्यक्ति को अकेला छोड़ जाने की यह परम्परा स्वस्थ है या रुग्ण?

‘रुक्मिणी-हरण’ भी मधुदीप की अन्तर्द्वंद्व प्रधान लघुकथा है। यह उल्लेखनीय है कि धार्मिक कथाओं ने समाज को कीर्तन तो भरपूर दिया है, विचार और जुझारूपन उतना नहीं दिया जितनी उनके प्रवक्ताओं से अपेक्षा थी। यही बात भारत में वामपंथियों पर भी लगभग ज्यों की त्यों लागू होती है। उन्होंने समाज को मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के सिद्धांतों से परिचित तो कराया, उनमें उतारा नहीं। सही बात तो यह है कि उनमें से अधिकतर स्वयं में भी उन सिद्धांतों को नहीं उतार पाए। समाज में जातिवादी ऊँच-नीच को उनकी ऊपरी लेअर भी पूर्ववत् अपनाए रही। परिणामत: भारत में मार्क्सवाद फिलहाल मुँह के बल पड़ा सिसक रहा है। ‘रुक्मिणी-हरण’ की बात करें तो हमारे यहाँ धार्मिक आस्था की जड़ें भी कुछेक कीर्तनबाजों और मजमेबाज कथावाचकों तक ही सीमित हैं, जमीन में गहरे नहीं धँसी।

गाँव से निकला आदमी गाँव को साथ लेकर और अपनी जड़ें वहीं छोड़कर निकला होता है। फिर, वह जिन्दगीभर वापस वहाँ पहुँच पाए या न पहुँच पाए। संयोग से या सौभाग्य से वह कभी अगर वहाँ जा भी पाया तो क्या स्थिति बनने की सम्भावना रहती है? इस एहसास को मधुदीप ने ‘वजूद की तलाश’ में अंकित किया है। दो राय नहीं कि गाँव अब अपने ही पूर्व बाशिन्दों को आसानी से नहीं पहचान पा रहा तथापि पहचान लिया जाने पर वह उसके कन्धे पर अपना हाथ रखकर यह संकेत देने में नहीं हिचकता है कि उसमें अपनापन अभी शेष है।

‘समय का पहिया घूम रहा है’ का शैल्पिक विन्यास समकालीन लघुकथा के प्रचलित शैल्पिक विन्यास को साफ-साफ तोड़ता है। एक प्रयोग मानकर इस विन्यास को आप स्वीकार भी कर सकते हैं और नकार भी सकते हैं; सहमत हो सकते हैं और असहमत भी। इस लघुकथा के बहाने मधुदीप ने  शैल्पिक स्वतन्त्रता लेने के प्रश्न को लघुकथा के सैद्धांतिक, व्यवहारवादी और प्रयोगधर्मी—सभी आलोचकों की ओर उछाल दिया है। यह लघुकथा देश में वर्तमान राजनीतिज्ञों के चरित्र को मुगल बादशाह जहाँगीर के कार्यकाल जितना ही पतनशील और संदेहास्पद सिद्ध करती है  तथा लगभग 400 साल के इतिहास को अपनी छोटी काया में समेटे हुए है। सैद्धांतिक पक्ष पर अड़े रहें तो लघुकथा में इतनी लम्बी समयावधि को समेटने का प्रयास ही नियम विरुद्ध है; लेकिन  फिर यह भी बताना चाहिए कि लघुकथा में प्रयोग किस स्तर पर किए जाएं और किस स्तर पर नहीं। स्वस्थ स्थिति तो यही होगी कि इस विधा को सिद्धांतों और शास्त्रीय नियमों की कारा में बहुत अधिक न बंद किया जाए। इस कथन का यह भी तात्पर्य नहीं है कि इसमें अनुशासनहीनता की ओर से आँखें मूँद ली जाएँ और जो जैसा लिख रहा है उसे आने वाले समय की कृपा पर छोड़ दिया जाए। हाँ, कथ्य की आवश्यता और कथाकार की क्षमता के मद्देनजर कुछ प्रयोगों को विचार योग्य अवश्य स्वीकारा जाना चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछेक शास्त्रीय नियमों में बँधी होने के कारण भी रचना के तौर पर लघुकथा की स्वीकार्यता में कमी बनी रही है।

अब, दो बातें ‘हिस्से का दूध’ अथवा ‘मेरी बात तेरी बात’ नामक संग्रह में संग्रहीत लघुकथाओं के बारे में भी। अपनी अनेक विशेषताओं के कारण इनमें से मुख्यत: ‘हिस्से का दूध’, ‘तनी हुई मुट्ठियाँ’, ‘अस्तित्वहीन नहीं’, ‘नियति’, ‘ओवरटाइम’, ‘एलान-ए-बगावत’, ‘नवीन-बोध’ आदि आठवें दशक के उत्तरार्द्ध और नवें दशक में अपने प्रकाशनकाल से ही चर्चित व प्रशंसित रही हैं। अग्रज कथाकारद्वय डॉ॰ सतीश दुबे ने उन लघुकथाओं पर केन्द्रित ‘मधुदीप का रचना-संसार’ तथा भगीरथ ने ‘अभावों के टीसते घाव यानी मधुदीप का रचना संसार’ शीर्षक से अपने विचार काफी पहले व्यक्त कर रखे हैं। मैं बस इतना बता दूँ कि उनकी ‘अस्तित्वहीन नहीं’, ‘ऐलान-ए-बगावत’ तथा ‘हिस्से का दूध’ प्रारम्भ से ही मेरी प्रिय रचनाओं में शुमार रही हैं और प्रसंगानुरूप उनका जिक्र मैं उन दिनों भी अपने लेखों और बातचीत के दौरान करता रहा हूँ जब मधुदीप लेखन का वनवास भोग रहे थे। ‘अस्तित्वहीन नहीं’ को मैं उनकी लघुकथाओं का मुख्य स्वर मानकर चलता हूँ। यही स्वर ‘ऐलान-ए-बगावत’ में सुनाई देता है और यही स्वर उक्त लघुकथा के लगभग 25 साल बाद लिखित अनेक नवीन लघुकथाओं में भी मिलता है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह काम वे अपने लेखन को किसी चालू मुहावरे या नारे से जोड़े बिना चुपचाप किए जा रहे हैं। जहाँ तक भाषा का सवाल है, मधुदीप की भाषा आम जनजीवन के बिम्बों, प्रतीकों  और मुहावरों से बनी सहज ग्राह्य है। उसमें व्यंग्य का ऐसा पुट यदा-कदा शामिल रहता है जिसे भाषा-विज्ञान में गद्य का आवश्यक गुण माना गया है। जैसा कि हम सभी जानते हैं, लघुकथा को शाब्दिक मितव्ययता से जोड़कर देखा जाता है। अधिकतर लोग नहीं जानते कि यह शाब्दिक मितव्ययता की नहीं, शब्द प्रयोग के कौशल की कथा-रचना है। आपके पास अगर अनुभूत शब्दों का भंडार नहीं है, अपने आसपास के लोक से अगर आपका जुड़ाव नहीं है, उसके शब्दों, मुहावरों और संकेतों से यदि आप अपरिचित हैं तो लेखन में शाब्दिक मितव्ययता को आपका अपनाना नि:संदेह कृत्रिम होगा।

संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032

मोबाइल : 8826499115

ई-मेल : 2611ableram@gmail.com


Viewing all articles
Browse latest Browse all 2466

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>