चयन-डॉ. बलराम अग्रवाल
1-ऐसे
रात के गहराते अन्धकार में दो मित्र पार्क की सुनसान बैंच पर गुमसुम बैठे थे। इससे पूर्व वे काफी देर तक बहस में उलझे रहे थे। इस बात पर तो दोनों सहमत थे कि अब इस दुनिया में जिया नहीं जा सकता; इसलिए मरना बेहतर होगा। मगर मरें कैसे? काफी विचारने के बाद भी दोनों को आत्महत्या का कोई ढंग उपयुक्त नहीं लगा था।
“सुनो…!” एक ने खामोशी तोड़ी।
“हूँ…”
“मेरी मानोगे?”
“क्या?”
“क्यों न हम जिन्दगी से लड़कर मरें।” कुछ देर बाद दोनों मजबूती से एक-दूसरे का हाथ थामे; एक ओर बढ़े रहे थे।
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2- धर्म
यह एक खुशनुमा सुबह थी। वह ‘जॉगिंग’ से लौटकर बरामदे में रखी कुरसी पर बैठा सुस्ताते हुए बहुत हल्का महसूस कर रहा था।
वे आए और उसके कानों में ‘अल्लाह’ फेंककर चले गए।
वे आए और उसके हाथों में ‘ओम्’ थमाकर चले गए।
वे आए और उसके काँधों पर ‘क्रॉस’ लादकर चले गए। बाद अनमने मन से कार्यालय जाने की तैयारी करने लगा। आज नाश्ते की भेज पर उसने पत्नी के बनाए स्वादिष्ट नाश्ते की तारीफ नहीं की।
वह कार्यालय के लिए निकला तो उसके कानों में तेज साँय-साँय गूँज रही थी। उसके हाथ उससे अलग होकर झूल रहे थे। उसके काँधे बोझ से झुके जा रहे थे।
कार्यालय में उसके साथियों ने महसूस किया कि आज उसके स्थान पर कोई
अन्य व्यक्ति उसकी ड्यूटी पर उपस्थित हो गया है। पूरे दिन वह मशीन की तरह
काम करता रहा। शाम को घर लौटते हुए वह बहुत बेचैन था। उसके कानों में गूँजती साँय- साँय उसकी आँखों को बन्द कर दिया था। दोनों हाथ शरीर से विद्रोह करके अलग-अलग दिशाओं में जाने की चेष्टा कर रहे थे। काँधों पर लदा बोझ इतना बढ़ गया था कि उसके पाँव आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। फिर भी स्वयं को धकेलकर उसे आगे तो बढ़ना ही था ।
शहर के एक चौराहे पर वह रुका और उसने अपने काँधों से ‘क्रॉस’ उतारकर वहाँ टिका दिया। वह कुछ हल्का हुआ और आगे बढ़ चला। अगले चौराहे पर उसने चुपके-से ‘ओम्’ को एक गोलाकार चबूतरे पर टिका दिया। अब वह सामान्य होना चाहता था; मगर कानों में गूँजती साँय-साँय से उसकी आँखें बन्द हो रही थीं। आखिर वह शहर के तीसरे चौराहे के तिकोने पार्क में घुसा और वहाँ ‘अल्लाह’ को टिकाकर हल्का हो लिया ।
अब वह निर्बाध अपने घर की ओर बढ़ा जा रहा था जहाँ उसकी पत्नी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी।
शाम की चाय पीते हुए उसने अपनी पत्नी की प्रशंसा में कहा कि वह दुनिया की सबसे हसीन औरत है। पाठको! मेरे विचार से यह लघुकथा यहीं पर समाप्त हो जानी चाहिए ।
मगर त्रासदी मनुष्य का पीछा कहाँ छोड़ती है। यह लघुकथा मेरा हाथ पकड़कर मुझे आगे की राह पर ले गई। रात्रि का प्रथम प्रहर बीत रहा था। खाने की मेज पर उसका मन किशोरकुमार का गीत गुनगुनाने को कर रहा था। उसने टी.वी. का स्विच ऑन कर दिया। परदे पर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ चल रही थी… ‘शहर के तीन व्यस्त चौराहे दंगे की गिरफ्त में, लोगों में धार्मिक उन्माद बढ़ता जा रहा है…. रात्रि का दूसरा प्रहर बीत रहा था। वह अपने बिस्तर पर पड़ा थर-थर काँप रहा था।
यह एक खौफनाक रात थी।
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3-तुम बहरे क्यों हो गए हो
बात कुछ खास नहीं थी मगर उन दोनों के लिए बहुत बड़ी हो गई थी। रातभर दोनों अपने-अपने स्तर पर पड़े तमतमाते रहे थे। यह सच है कि दोनों एक-दूसरे के धुर विरोधी हैं, मगर प्रश्न अब उनकी अस्मिता का हो गया था।
शहर की नगरपालिका को पिछले बीस सालों में दोनों ने बारी-बारी से खूब लूटा है। चुनाव में दोनों ही एक-दूसरे को पानी पी-पीकर कोसते थे। एक-दूसरे की सच्ची-झूठी पोल-पट्टी खोलने की धमकी भी दी जाती थी। मगर चुनाव दोनों में से, कोई भी जीतता, एक दूसरे की पोल-पट्टी कभी नहीं खुलती थी। शायद दोनों के बीच कोई लिखित समझौता था जिसका पालन दोनों तरफ से पूरी ईमानदारी से किया जाता था।
मगर इस बार के चुनाव में दोनों को ही कुछ अनहोनी घटने की आशंका हो रही थी।
हाँ तो पाठको!, कस्बाई शहर के उन दो किनारों को बदले हालात ने सुबह-सुबह इस व्यस्त चौराहे पर एक साथ आने को मजबूर कर दिया था। लोगों ने आँखें चौड़ाकर देखा कि वे दोनों माइक हाथ में थामे एक साथ चीख रहे हैं… “क्या यह सच नहीं है कि मेरे शासनकाल में आपने इस कस्बे को शहर बनते हुए देखा है!” माइक पर एक की गर्जना थी। “क्या मेरे शासनकाल में इस शहर बनते कस्बे ने विकास की नई बुलन्दियों की नहीं छुआ है!” माइक अब दूसरे के हाथ में आ चुका था।
“जब हम दोनों ने इस शहर का चरम विकास किया है, तो कोई तीसरा हमारे बीच कैसे आ सकता है!” अब माइक दोनों के हाथ में था और स्वर समवेत था।
चौराहे की सड़कों पर अब लोगों का आवागमन बढ़ता जा रहा है। लोग एक पल ठिठककर उन दोनों की बढ़ी हुई तोंद देख रहे हैं मगर कोई उनकी बात सुनने के लिए ठहर नहीं रहा है।
दोनों माइक थामे चीख रहे हैं… चीख रहे हैं… “शहर के लोगो! तुम बहरे क्यों हो गए हो?”
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4-महानायक
यह सच है कि पिछले बीस वर्षों से वह शहर के रंगमंच पर नायक का पर्याय रहे हैं; मगर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि अब उन पर उम्र सवार होने लगी है। उनकी आवाज में वह गूँज नहीं रह गई है जो खचाखच भरे थिएटर की तालियाँ बटोर सके। वह ढल चुके हैं मगर रुपहले पर्दे के राजेश खन्ना की तरह स्वयं को रंगमंच का महानायक ही मानते हैं। उनकी जिद है कि वे आज भी नायक की भूमिका किसी भी अन्य कलाकार से अधिक बेहतर ढंग से अदा कर सकते हैं।
आज नाटक की रिहर्सल में जब उनकी साँस उखड़ रही थी, तो उन्हें अलग ले जाकर निर्देशक वासु दा को आखिर कहना ही पड़ा, “विरोचन भाई, इस नाटक में आप नायक के किरदार को सँभाल नहीं पा रहे हैं। मेरी नजर में तो रहमान का किरदार आप अच्छा निभा पाएँगे।”
“क्यों… ?” गम्भीर आवाज में आश्चर्य से अधिक व्यंग्य का पुट था ।
“कुछ बातें कहने से अधिक समझने की होती हैं विरोचन भाई! दूसरों से पूछने की बजाय उन्हें खुद से पूछना पड़ता है।” वासु दा के इतना कहने के साथ ही दोनों के बीच सन्नाटा खिंच गया ।
बिना कुछ बोले विरोचन बाहर निकल आए। एक तूफान अपने में समेटे वह कार में आ बैठे। ड्राइवर ने गाड़ी उनके बंगले की तरफ बढ़ा दी । वह गाड़ी से उतरकर सीधे ड्राइंगरूम में पहुँचे। सामने आदमकद शीशे में खुद को देखते हुए काफी देर तक खड़े सोचते रहे। फिर एक निश्चय कर दृढ़ता से बुदबुदा उठे, “मैं सब समझ गया हूँ वासु दा! वाकई, कुछ बातें कहने से अधिक समझने की ही होती हैं!” उनकी निगाहें कुशल मेकअपमैन से भी छूट गए कनपटी के कुछ सफेद बालों पर टिकी थीं, “लेकिन मैं नायक हूँ वासु दा… महानायक ! मैं रहमान के रोल में भी दूसरों पर भारी पड़ूँगा…”
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5-डायरी का एक पन्ना
31 मई, 2015, दोपहर 2 बजे
फिर वही मनहूस-सी सुबह थी। फिर वही अवसादग्रस्त-सा मन था। फिर वही निरर्थकता का-सा बोध था। फिर वही अनजाना-सा भय था कि आज का दिन भी हाथ से फिसल जाएगा और मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा ।
हाँ, पिछले तीन महीने से मेरे साथ हर रोज यही हो रहा है। जहाँ तक मुझे याद है, मैं आखिरी बार 28 फरवरी की शाम को उस समय हँसा था, जब मैं सेवामुक्त होकर कार्यालय से अपने परिवार सहित घर लौटा था और वहाँ मेरे मित्र हाथों में गुलदस्ते लिए मुस्कराते हुए मेरे स्वागत में खड़े थे।
उत्कृष्ट साहित्य पढ़ने का मुझे बेहद शौक रहा है। पूरे चालीस साल मुझे शिकायत रही थी कि कार्यालय और परिवार की व्यस्तताओं के बीच मैं अपना यह शौक कभी पूरा न कर सका। सेवामुक्ति से पहले ही मैंने अपनी मेज पर हिन्दी साहित्य की दस बेहतरीन पुस्तकें सजाकर रख ली थीं कि अब पूरे मन से इन्हें पढ़ूँगा; लेकिन सच मानो, तीन महीनों में एक लाइन भी नहीं पढ़ पाया था। पढ़ने के लिए बार-बार पुस्तक उठाता, मगर व्यर्थताबोध इस कदर सवार हो जाता कि आँखें बन्द हो जातीं और मैं कुर्सी से उठकर पलंग पर लेट जाता ।
‘नहीं, इस क्रम को तोड़ना ही होगा। इस तरह तो मैं अनजाने ही मृत्यु की ओर अग्रसर हो रहा हूँ।’ बहुत दृढ़ता से मैंने सोचा था और मैं बरामदे में आकर खड़ा हो गया था। मैं अपने आपको और अपने इरादों को मजबूत कर रहा था, ढुलमुल तरीके से नहीं; बल्कि अपनी पूरी शक्ति के साथ। आश्चर्य, पूरी शक्ति खर्च करने के बाद भी आज मैं थकान महसूस करने की बजाय जैसे हल्का होकर हवा में तैर रहा था। अरे! यह क्या! मैं तो बदल रहा था… स्वयं को पहचानने का प्रयास कर रहा था मैं। हाँ, यह मैं ही तो था… यह चेहरा मेरा ही तो था ! सामने वाश बेसिन पर लगे शीशे में यह मेरा ही प्रतिबिम्ब तो था।
“जरा थैला देना, मैं सैर को जा रहा हूँ, लौटते हुए फल और सब्जियाँ लेता आऊँगा।”
मेरे इतना कहते ही घर के सभी सदस्य मुझे घेरकर खड़े हो गए थे। उनके चेहरों पर आश्चर्य लिपटा हुआ था और मेरे होंठों की मुस्कान चौड़ी होती जा रही थी। हाँ, आज पूरे तीन महीने बाद मेरे चेहरे पर मुस्कराहट उगी थी। मुझे विश्वास होने लगा था कि मेरा आज का दिन व्यर्थ नहीं जाएगा।
आज मैं बहुत खुश हूँ। मैंने आज अपनी मेज पर रखी दस पुस्तकों में से एक ‘पीले पंखोंवाली तितलियाँ’ उठाकर उसमें से तीस लघुकथाएँ पढ़ ली हैं। मैं हाथ जोड़कर प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि मेरे आनेवाले दिन शुभ हों।
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