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Channel: लघुकथा
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मोरी / खिड़की

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अनुवाद:गढ़वाली –डॉ. कविता भट्ट

ब्याखन बगत मोरी खुली। ट्रे सजैकी कमरा का भितर लीक औंदी विभा का हाथ अचानक कौंपीन। ऑफिस बिटी लौटी कि  सोफ्फा माँ पसरियाँ अजय का  हाथू माँ अबरी ये टैम विभा कु  ही फ़ोन छौ, कैकी स्क्रीन पर नज़र  जमैकि,  वींका भौं कट्ठा हूण लगिगे छा। हाथू परैं मैसूस हून्दी गर्म चाय

डॉ. छवि निगम

का छीटों की जलन का बावजूद विभा न अपड़ी  चिंता छिपौंणा वास्ता एक झूठी मुल मुल हैंसी ओढी, ज्वा अगली ई घड़ी अजय का तेज रगड़ताल़ा न गैब ह्वे गे छै।

“यू क्या ऊटपटाँग  लिखिक पोस्ट कन्नी रैंदी तू !! हैं ? अर यु  लोग कु छन , जु वाह-वाह लिखिक डालणा छन ?  बन्द कर यु सब फ़ौरन! समझी गें ?”

विभा न कुछ हिम्मत बटोली कि बोली-“वा…कविता…लिखी छै…बस .”

“अच्छा!!” अजय की आवाज़ ज्यादा तेज छै य फर्श पर पटकी कि टूटियां कपै की आवाज… बतौंण मुश्किल छौ। फिर भी झुकिक टुकड़ा उठौंदी विभा कु कणाट वेन सुणी ही याली , “…अफ्फू त अपड़ा फोन ख्वन्न कु …पासवर्ड तक नि…बतान्दा …अर…हम्मू तैं…!”

सोफा मून उठदा अजय का मुक्क पर सोशल मीडिया का आभासी सभ्यता कु मुखौटा चमकण लगी गे छौ।

मोरी बन्द ह्वे गे छै।

सम्पर्क-डॉ छवि निगम,503, हर्षित अपार्टमेंट,ए पी सेन रोड, चारबाग़, लखनऊ-226001

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