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Channel: लघुकथा
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रंगोली व दिये की चमक

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सीमा जैन

बहु मंजिला अपार्टमेंट में नीचे के फ्लैट में रहने वाली आंटी से रिश्ता बहुत पुराना था। कभी-कभी छोटी बातों के अजगर भी पुराने बड़े रिश्तों को निगल जाते हैं। गाड़ी की पार्किंग, गमलों का पानी, सफाई करने वाली उमा की लापरवाहियों ने हमारे रिश्ते को खट्टा कर दिया। करीब दो महीने हो गए, हम दोनों की तरफ से सुलह की कोशिश भी नहीं हुई। आजकल आंटी घर में नहीं दिखती है। चौकीदार से पूछा, तो उन्होंने कहा- “अंकल अस्पताल में भर्ती हैं।” सुनकर मन बहुत दुखी हुआ।

अब चौकीदार को ये सब नहीं पता था कि क्या हुआ? कौन उनका साथ दे रहा है? पर मुझे उन दोनों की चिंता होने लगी। दोनों बच्चे बाहर हैं। अब ये त्योहार का समय है, वह भी दीपावली का! तो आधे लोगों के पास तो यह बहाना ही काफी होगा कि व्यस्तता के चलते वे सहायता न कर पाए।

शाम के समय मैं अपने घर में  रंगोली बनाकर दिए सजा रही थी। सोचा -जैसे हमेशा आंटी के घर में भी बनाती थी, आज भी बनाकर आती हूँ।  इस समय उनसे अपना प्यार जताने के सिवाय कोई और रास्ता समझ भी नहीं आया। एकदम फोन लगाने की हिम्मत नहीं हुई। पता नहीं, उनको कैसा लगे? परेशान की परेशानी बढ़ाना भी ठीक नहीं।

उनके सूने, ताला लगे दरवाजे पर रंगोली बना कर दिये रख रही थी कि लगा पीछे कोई खड़ा है। मुड़कर देखा- आंटी खड़ी थी। हाथ में थैले, चेहरे पर थकान पर आँखों में वह सब, जो मुझे उनकी बाहों में समा जाने को बुला रहा था।

रंगोली और दिए बातें कर रहे थे। हमारी दोस्ती की सफल पहल से वे दोनों चमक उठे। हम दोनों के तो बस आँसू ही बोल पाए।

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