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मिट्टी की महक

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       माधव नागदा की लघुकथाएँ अपनी केंद्रिकता, सुगठित बुनावट एवं स्थानीयता के कारण पाठकों को न केवल बांधे रखती हैं बल्कि अपनी अंतर्वस्तु और ट्रीटमेंट के चलते उन्हें प्रभावित भी करती हैं| हाल ही में उनकी गौरतलब लघुकथाओं का संग्रह ‘माटी की महक’ आया है | इन लघुकथाओं का चयन वरिष्ठ कथाकार बलराम अग्रवाल ने किया है। आपने बड़े ही मनोयोग से उन-उन लघुकथाओं को चुना है जो ताजगी से परिपूर्ण हैं एवं कलात्मक सुगठित शिल्प के साथ जीवंत प्रभाव उत्पन्न करने में समर्थ हैं। निश्चय ही ‘माटी की महक’ लघुकथा-कृति की प्रत्येक लघुकथा पाठकों को वैचारिक बनाती है, उन्हें अपने परिवेश के प्रति सजग भी करती है।

आकारगत लघुकाय होने की वजह से लघुकथा का निर्विकल्प तीक्ष्ण होना बहुत जरूरी है। व्यर्थ की बातें, उपमाएँ और चित्रात्मकता की लघुकथा में कहीं जगह नहीं है। यदि इन सब के लिए जगह बनाई भी जाए तो लघुकथा का कलेवर ही समाप्त हो जाएगा। यह लघुकथा का विधागत हनन होगा जिसे किसी भी स्तर पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत संग्रह की समस्त लघुकथाओं का भाषाई-सौष्ठव पूर्ण रूपेण सुगठित और कसा हुआ है। जिसमें व्यर्थ का कुछ भी नहीं है। इस कारण प्रत्येक लघुकथा पाठक के मर्म को बहुत ही महीन तरीके से छूती है। यह मर्म-संस्पर्शन अनुभूति प्रत्येक लघुकथा मे भिन्न तरीके से होती है । इस अनुभूति में कभी टीस उठेगी, कभी आक्रोश जागेगा, कभी अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं के प्रति श्रद्धा हो उठेगी तो कभी आप अपने पारिवारिक-सामाजिक रिश्तों के प्रति अधिक संवेदनशील हो उठेंगे । लेकिन; हर स्तर पर ये रचनाएँ आपको समसामयिक रखेंगी और आपको ताजगी से भर देंगी। एक सजग और प्रबुद्ध पाठक-वर्ग इससे अधिक किसी भी रचनाकर से अपेक्षा भी नहीं रखता।

‘माटी की महक’ लघुकथा-कृति में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से प्राप्त अनुभूतियों को लेकर लिखी गई लघुकथाएँ हैं। समस्त लघुकथाओं को कथानक के आधार पर निम्न तीन प्रकार में व्यवस्थित किया जा सकता है-

  • पारवारिक संस्थितियों से युक्त कथानक को लेकर गुंफित रचनाएँ।
  • सामाजिक संस्थितियों से युक्त कथानक को लेकर गुंफित रचनाएँ।
  • व्यवस्थागत विसंगतियों से युक्त कथानक को लेकर गुंफित रचनाएँ।

प्रथम प्रकार की लघुकथाओं में उन विकृत पारिवारिक संस्थितियों का उजागरण हुआ है जिनमें हमारी पारिवारिक व्यवस्थाओं पर पुनः विचार करने की आवश्यकता पर संकेत किया गया है। साथ ही ये लघुकथाएँ इन विसंगतियों को हटाने के लिए हमें मानसिक रूप से भी तैयार करतीं हैं। इस प्रकार की लघुकथाओं द्वारा कथाकार मानवीय मूल्यों की कामना के साथ संवेदनशील होकर हमारे सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा की अघोषित कामना रखता है। विवेच्य कृति की प्रथम रचना है- ‘परिवार की लाड़ली’। यह लघुकथा पाठकों को पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर प्रश्न-चिह्न लगाती हुई खुली चुनौती देती है। मार्बल से भरे कराहते हुए ट्रक के पीछे लिखा है – ‘परिवार की लाड़ली’। यही उक्ति बस की प्रतीक्षा में खड़े परिवार के सदस्यों के मध्य संवाद और आत्म-मंथन का हेतु बनता है। लड़के की पत्नी, माँ और दादी के मध्य संवाद और प्रतिसंवाद के साथ लघुकथा अपना उद्देश्य पूरा करती है। लेकिन इस उद्देश्य तक पहुँचने से पहले लघुकथा चार चरणों से निकलती है।

प्रथम चरण है- लड़के द्वारा ट्रक के पीछे लिखी उक्ति पढ़ना- “परिवार की लाड़ली”। उसके बाद उसका कहना- ‘देखो परिवार की लाड़ली जा रही है’। द्वितीय चरण है- लड़के द्वारा नव विवाहिता पत्नी को बड़े लाड़ से देखना। तृतीय चरण है- पत्नी का प्रतिसंवाद जो ‘परिवार की लाड़ली’ उक्ति पर व्यंग्य के रूप में निकलता है-  ‘हुंह, इतना बोझ तो लाद रखा है और परिवार की लाड़ली!’ इस व्यंग्य में क्षीण सा ही सही विद्रोह का स्वर है। चतुर्थ चरण है- सासु जी का अपने पति और सास को तिरछी निगाह से देखना और संवाद करना- “इतना बोझ लाद रखा है तभी तो परिवार की लाड़ली है। वरना….. । यह लघुकथा-अंश उद्देश्य का कार्य कर रहा है। यानी विसंगति को साफ-साफ दिखा दिया गया है । पंचम चरण है- बहू ने महसूस किया कि सासु जी की आवाज घुट कर रह गई है। उस घुटन को ही कथाकार उकेरना चाह रहा है। वह सौद्देश्यता के साथ पाठकों को खुले आसमान के नीचे छोड़ देता है जहाँ पाठक बिना किसी अवरोध के अपनी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की उन विसंगतियों का आकलन करे एवं संगति की स्थापना के लिए स्वयं को तैयार करे।

इसी प्रकार पारिवारिक मूल्यों और आस्थाओं के दरकन को बताने वाली एवं बच्चों के अवसर तथा अधिकारों पर चोट करने वाली मानसिकता को उजागर करती- ‘अपना-अपना आकाश’, दाम्पत्य जीवन के मध्य उभरती हुई शंकाच्छन्न स्थितियों और दरकते विश्वास को रेखांकित करने वाली ‘अग्निपरीक्षा’, परिवार के वृद्धों की घोर उपेक्षा और तिस पर उनके वार्धक्य के बड़प्पन को स्थापित करने वाली, संवेदना से परिपूर्ण खूबसूरत कथा‘माँ नहीं पूछती है कि …… ।‘, अभियांत्रिकी और इलेक्ट्रोनिक्स के इस युग में वात्सल्य-विलोपन को दर्शाने वाली कथा‘दादी, कहानी सुनाओ ना,’ तथाकथित कुलीनता का भंडाफोड़ करने वाली कथा‘डेड’, आधुनिकता के मोहजाल से ग्रसित युवाओं की   रुग्ण मानसिक प्रवृत्ति का चित्रण करने वाली प्रभविष्णुता सम्पन्न और कलात्मक कौशल से सम्पन्न ‘पुराना दरवाजा’, आर्थिक संकोच के चलते छिटकते रिश्तों को सहेजने वाली और, समर्थ संवेदना और सम्बन्धों को मजबूती देने वाली लघुकथा ‘रईस आदमी’, समय के साथ पारिवारिक सम्बन्धों और रिश्तों की दरकन और टूटन को बताने वाली कथा ‘पीहर’, दायित्व एवं आत्मबोध को जगाने वाली लघुकथा ‘निर्णय’ सहित कई कथा-रचनाएँ इस रूप में उल्लेख्य हैं। इस तरह की रचनाओं में बारीक सी व्यंजना है जो पाठक के मन में खदबदाहट पैदा करती है। इस खदबदाहट में पाठक का अंतर मुलायम होकर विस्तार को पाता है। उक्त लघुकथाएँ विसंगति को हटाने और संगति को स्थापित करने के लिए पारिवारिक सत्य को पुन:प्रतिष्ठित करने के लिए पाठकों को तैयार करती हैं। इन रचनाओं को माधव नागदा की प्रभविष्णुता की सफल निष्पत्ति कहूँगा।

“माटी की महक” लघुकथा कृति में दूसरे प्रकार की वे कथाएँ हैं जिनमें सामाजिक विसंगतियों का उजागरण है। इन कथाओं के चरित्र में आक्रोश है। कुछ बदलने की जिद है। सही को सही कहने की ही नहीं अपितु सही को पूरी तरह से सामाजिक जीवन मेँ स्थापित कराने का आग्रह है। इस आग्रह में व्यंजना है, दृष्टि का समंजन है, चोट है, समझ है और इन सब मंतव्यगत शीर्षस्थ बिन्दुओं के साथ अप्रत्यक्ष भविष्य-दर्शन भी है। दूसरे रूप में कहें तो पाठकों के माध्यम से समाज को दिशा-दर्शन है जैसे कि ‘शहर में राम लीला’ | यह लघुकथा समाज को दिशा-दर्शन दिखाने के लिए क्या-क्या ताना-बाना नहीं बुनती है?

शहर में राम लीला’ लघुकथा का कथानक सामान्य होकर भी अर्थगत दृष्टि से विशिष्ट कहा जाएगा। क्योंकि, इस कथानक के घटनाक्रम में सामाजिक चरित्र का खुलासा होता है। वहीं, उसके संशोधन का महीन परंतु कलात्मक तरीका भी सामने आता है । इस कथा के कथानक, चरित्र और घटनाक्रम पर जितना चिंतन किया जाएगा और विमर्श किया जाएगा उतनी ही महक केसर की पत्ती के प्रयोग की तरह व्यापती चली जाएगी ।

‘शहर में राम लीला’ लघुकथा का नायक है- नीलेश। पूरी तरह से सिरफिरा। लीक से हटकर चलने वाला। दक़ियानूसी परम्पराओं और मान्यताओं को किनारे करने वाला-‘नीलेश’। रामलीला में ‘बंदर’ बनने वाले ‘नीलेश’ को ‘राम’ बनने का अवसर हाथ लग ही जाता है। यह अवसर भले ही डायरेक्टर की विवशता के कारण और शर्तों पर मिला हो। परंतु दृश्य-प्रस्तुतीकरण में नीलेश परंपरित कथानक के अनुसार रामलीला में अभिनय न कर अपने मन का कर ही जाता है। इस दृश्य में ‘धोबी’ के कारण ‘सीता’ का राम द्वारा त्याग न कर के सिंहासन का त्याग किया जाता है। स्त्री के सम्मान की प्रतिष्ठा भले ही सिरफिराई में की जाती है। रामलीला में अनर्थ न हो जाए इस हेतु पर्दा गिरा दिया जाता है। लेकिन दर्शक वर्ग इस नए दृश्य के साथ राम के समयानुरूप बदले चरित्र को स्वीकृति देता है। आज के राम की जय-जयकार लगाई जाती है। यहाँ समर्थन में तीक्ष्ण महीन स्वर का उभरना अलग ही संकेत देता है | एक तरह से यह समय-बोध है जिसकी स्थापना कथाकार कर रहा है।

शहर में राम लीला’ लघुकथा का समापन पाठकों के लिए उत्तेजना के साथ भले ही पूर्णता को प्राप्त करता है। परंतु, यह उत्तेजना से निर्मित वातावरण पाठकों को उस ओर ले जाता है जिसकी महती सामाजिक और पारिवारिक आवश्यकता है। आवश्यकता है- युवा जन के लिए अवसर सुलभ कराने की। आवश्यकता है- युवा जन के नवीन और रचनात्मक चिंतन को स्वीकृति देने की। जिन्हें हम सिरफिरा मानकर सिरे से ही नकार देते हैं, वे सिरफिरे ही समाज को नवीन संस्करण की भूमिका तैयार कराने में नींव का पत्थर प्रमाणित होते हैं। निश्चित ही कथाकार के तीक्ष्ण चिंतन और सहृदयता के परिणाम के रूप में इस प्रकार का सृजन आकार लेता है और सामाजिक मूल्यों की समग्र प्रतिष्ठा को प्राप्त करने में समर्थ होता है। इस तरह की अनेक लघुकथाएँ हैं जिनमें सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर तीक्ष्ण चोट की गई है, सामाजिक आवश्यकता को पहचाना गया है और मूल्यों को सामाजिक स्तर पर स्थापित करने की सफल कोशिश की गई है | उदहरणार्थ वृद्धों के अनुभूति से संपृक्त जीवन की अवहेलना करने वाली लघुकथा- ‘बुढ़ापा’, परिवारों में वृद्धों के प्रति असंवेदनशील व्यवहार को दर्शाने वाली लघुकथा ‘माँ बनाम माँ’, महान संत के उपदेशों को भी मनोरंजन या समय काटने का साधन मानने वाली मनोदशा पर चोट करने वाली लघुकथा ‘मीठा बोलो’, स्त्रियों के प्रति पुरुष वर्ग की सड़ी-गली मानसिकता की बख़ियाँ उधेड़ने वाली तीखे तेवर से युक्त लघुकथाएँ ‘परिचय’ एवं ‘नशे’ में’, संस्कृति के तथाकथित संवाहकों की कलाई खोलती लघुकथा- ‘पुनर्मूषकों भव :’, भ्रूण हत्या की अमानवीय कुवृत्ति पर चोट करने वाली लघुकथाएँ- “हम हैं न’, ‘बातचीत’ और ‘अगले जनम में”, पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर चोट करने वाली लघुकथाएँ- “ख़्वाहिश’ एवं ‘लड़की”  तथा निम्न मध्यवर्गीय मजबूरीयों को दर्शाने वाली मर्म भेदी लघुकथा- ‘तोहफा” जैसी अनेकों रचनाएँ ।

“माटी की महक” लघुकथा संकलन की तीसरे प्रकार की रचनाएँ वे हैं, जिनमें समाज में व्याप्त अव्यवस्थाएं, भ्रष्टाचार, सामन्तवादी सोच, भटकते एवं छूटते हुए सामजिक-सांस्कृतिक मूल्य एवं सरोकार, भौतिक ऐश्वर्य की अभिलिप्सा, संवेदनहीनता, साम्प्रदायिकता, कथनी और करनी में अंतर, तथाकथित नागर जीवन एवं नगरीकरण, अस्तित्व का भय और तलाश, सोशल मिडिया का जीवन में प्रवेश और जीवन-सत्य को झुठलाने की मनोवृत्ति पर कथाकार ने सधा हुआ व्यंग किया है। व्यंजना से कथाकार पाठकों के लिए बौद्धिक विकास की संभावना और अवसरों को उपलब्ध कराता है। उद्धरण के रूप में   ‘वह चली क्यों गई’ लघुकथा पारिवारिक और सामाजिक ताने-बाने के खिसकने-उलझने की स्थिति को दर्शाने वाली व्यंजनापूर्ण मार्मिक रचना है। यह लघुकथा संकेत करती है कि अमूर्त और अनुभूति के धरातल पर पलने वाले भावपूर्ण संबंध मूर्त वस्तुओं जैसे, उपहारों, साधनों और दौलत से नहीं सहेजे जा सकते। उन्हें सहेजने के लिए वैसे ही तरल-सरल और मधुर भावपूर्ण व्यवहार की आवश्यकता है। नोटों की बरसात कर जाने वाला पति यह सोचता है कि उसके लौटने तक पत्नी इन नोटों से खेलती रहेगी। पति का यह सोच नितांत भौतिकवादी है। ‘नोट’ निश्चित ही साधन जुटा सकते हैं। परंतु अपने आस-पास विकराल और डरावनी शक्ल वाले भयंकर एकाकीपन को समाप्त नहीं कर सकते हैं।

सुख-दुख को साझा करने की नैसर्गिक मानवीय प्रवृत्ति है। इस प्रवृत्ति से उसे किसी के होने का बोध बनाए रखना चाहता है। उस बोध मात्र के भावरूप और मानसिक संबल मात्र से मनुष्य अनेक प्रकार के संभावित खतरों से जूझने का साहस बनाए रखता है। ‘एकाकीपन’ भविष्य के प्रति आशंकित करता है और मन को अशांत। इसके चलते परिवार जैसी संस्था जो समाज का एक महत्त्वपूर्ण घटक है, उस पर खतरा मँडराता है। फलस्वरूप, भारतीय परिवेश में भी परिवार नाम की संस्थाएँ कई बार चरमराते हुए देखी जाती रही हैं।

साहित्य की प्रत्येक विधा पाठकों की बुद्धि और हृदय को साथ-साथ प्रभावित करती हैं। कभी बुद्धि-पक्ष पहले प्रभावित होता है तो कभी हृदय-पक्ष। परंतु रचनागत प्रभविष्णुता के लिए दोनों पक्षों की संलिप्तता होना आवश्यक है। उसी से बल पाकर विधा अपने मंतव्य को लेकर सफलता की श्रेणी में स्वीकार की जाती है। “माटी की महक” लघुकथा संकलन इस दृष्टि से सफल कृति कही जाएगी। ‘वह चली क्यों गई’ लघुकथा पाठकों में इस गंभीर मुद्दे को लेकर एक जगह बनाती है और पाठकों को दाम्पत्य जीवन की सफलता के लिए भावगत जीवन-व्यवहार को प्रथम दृष्ट्या महत्त्वपूर्ण और सर्वोपरि अनुभव कराती है। इसी तरह की अन्य रचनाओं में- “व्यवस्था में सडांध फैलाने वाली अनैतिक वृत्ति पर चोट मारने वाली ‘माजना’, सोशल मीडिया की संवेदनहीनता पर तंज कसने वाली ‘जिवोजीवस्य भोजनम्’, सामंतवादी संस्कृति और व्यवहार के प्रति आक्रोश के साथ तीखा व्यंग्य करती ‘जली हुई रस्सी’, शोषकों के बदलते स्वरूप और अमानवीय सोच को स्पष्ट करने वाली ‘पुरानी फ़ाइल’, भ्रष्ट वणिक मानसिकता पर व्यंग्य करने वाली समर्थ रचना ‘प्रेरणा’, सोशल मीडिया से जन्म लेती छलने वाली मानसिकता एवं प्राकृतिक सत्य को झुठलाने वाली प्रवृत्तियों का उजागरण करने वाली ‘इस मोड़ पर’, अस्तित्त्व के खतरे को देखकर काइयाँ से काइयाँ व्यक्तित्त्व में भय वश होने वाला परिवर्तन दिखाने वाली ‘फैसला’, लालच के चलते पुनीत पारिवारिक संबंधों का मरण दिखाने वाली ‘नाटक’, गाँवों और कस्बों का नगरीकरण करने की अव्यवहारिक, अमानवीय, व्यवसायिक वृत्ति पर टिप्पणी करने वाली – ‘कॉम्प्लेक्स’, कर्म के प्रति समर्पित व्यक्तित्त्व के सम्मान और महत्त्व को प्रतिष्ठित करने वाली ‘कर्मयोगी’, आम आदमी की जरूरतों को दिखाने वाली तथा अभाव-ग्रस्त समुदाय के प्रति संवेदना जगाने वाली लघुकथा ‘किरच-किरच सपने’, कथनी और करनी में अंतर दिखाने वाली ‘प्रतीक चिह्न’, चुनावों में भ्रष्टाचरण और मतदाता की इसमें संलिप्तता पर प्रहार करने वाली ‘अब भुगतो’ के साथ अन्य भी कई रचनाएं उल्लेखनीय हैं.

‘माटी की महक’ की प्रत्येक रचना अपने कथ्य की प्रस्तुति और ताजगी के लिए साहित्य-जगत में विशिष्ट रूप से जानी जाएगी। इस संकलन की रचनाओं में कथाकार ने परिवेश का पूर्ण ईमानदारी से चित्रण किया है। इन कथाओं के पात्र भले ही ‘मेवाड़-अंचल’ के प्रतिनिधि बनकर उभरे हों, लेकिन ये सम्पूर्ण ग्रामीण अंचल और कस्बाई जीवन का प्रतिनिधित्व करते हैं। संग्रह की लगभग सारी लघुकथाएँ मनुष्य की पीड़ाओं, समाज में व्याप्त अमानवीय प्रवृत्तियों और व्यवस्थागत विद्रूपताओं का सटीक आकलन करने वाली सशक्त लघुकथाएँ हैं | लिजलिजी भावनाओं को इन लघुकथाओं में जगह नहीं दी गई है। ये किसी घटना का ब्यौरा मात्र नहीं हैं। इन कथाओं का अपना मन्तव्य है | इनमें कलात्मक शिल्प के साथ संवेदनशीलता का सघन पुट है। प्रसिद्ध साहित्यकार बलराम अग्रवाल कृति की भूमिका में  लिखते हैं –“नए-पुराने अनेक लेखकों के लिए लघुकथा किसी घटना या घटनात्मक प्रतिक्रियात्मक वर्णन मात्र है। कई के लिए चारित्रिक विवरण है, विश्लेषण है, तथ्यपरक कथन है, भोगा हुआ यथार्थ या देखी-सुनी सत्य-घटना सत्यकथा है। उन्हें नहीं मालूम कि इस सबको लघुकथा में पिरोने के लिए सर्जनात्मक दृष्टि की, विवेक की, कला की, सम्प्रेषण क्षमता की जरूरत होती है”

बलराम अग्रवाल की ये सब की सब बातें प्रसिद्ध कथाकार माधव नागदा की लघुकथाओं में सर्जनात्मक दृष्टि से सूक्ष्म कथात्मक संस्पर्शन के साथ रचनागत कौशल में देखी जा सकती हैं। यहाँ माधव नागदा व्यवस्था को ठीक कराना चाहते हैं, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के साथ मनुष्य और मनुष्यता को सतत सचेत व सचेष्ट रहते हुए स्थापित करने की कोशिश करते हैं। वे समय-बोध को लेकर चलते हैं। बौद्धिकता के साथ सम्यक भाव-संसार की प्रतिष्ठा करते हैं। मूल्यों के जीवंत परिवर्तन के लिए समतल धरातल बनाते दिखाई देते हैं। लेकिन यह सब जो भी करते-कराते हैं अप्रत्यक्ष रूप से और मर्मस्पर्शी कथा-कथन के साथ कलात्मक तरीके से करते हैं।

अंत में, मैं माधव नागदा की रचना-प्रक्रिया को जितना समझ पाया हूँ उसे लेकर कहना चाहूँगा –

प्रथम स्तर पर- माधव नागदा रचना की सौद्देश्यता को ध्यान में रखते हैं। उन्हें अपने पाठकों को क्या कहना है या उनके अंतर में किस तथ्य को स्थापित करना है; उसके लिए वे पूर्व से ही तैयार रहते हैं। वे अपनी रचना के मन्तव्य को तय कर लेने के उपरांत ही लघुकथा का ताना-बाना बुनने और सर्जना के लिए प्रस्तुत होते हैं। इसलिए प्रत्येक लघुकथा का स्वतंत्र उद्देश्य है और उसका अपना स्वतंत्र मन्तव्य है।

द्वितीय स्तर पर- माधव नागदा इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि उनका पाठक-वर्ग किस प्रकार का है? उसी के अनुरूप वातावरण निर्माण करते हैं। इस हेतु देश-काल और वस्तु जगत का सटीक प्रयोग करते हैं। उचित भाषाई कौशलों, प्रतीकों, घटनाओं और संवादों के साथ चरित्रों का निर्माण करते हैं। वे संवेदनशीलता के साथ स्थितियों का जायजा लेते हैं तदुपरान्त विवेकवान होकर उसके अच्छे-बुरे परिणामों को परखते हैं। निज अनुभूतिपरक अभिव्यक्ति के लिए सारे संसाधन तलाशकर इकट्ठा करते हैं। उसके बाद अपने बुद्धि-पक्ष को साथ लेकर सधे हुए तरीके के साथ कथा के सम्पूर्ण रचनागत सौष्ठव को अपने पाठक-वर्ग के लिए खड़ा करते हैं।

तृतीय स्तर पर- माधव नागदा अपने सृजनात्मक उत्पादन को पाठकों के साथ कैसे रखना है, यह निर्धारित कर उस पर आगे बढ़ते हैं। जिसमें सलीका होता है, सुसंस्कृत तौर-तरीका होता है और संयम के साथ-साथ सघन आत्मीयता होती है। इस तरह से इन तीन बातों की अनुपालना से रचनाकार की गुणात्मकता में वृद्धि ही होती है। माधव नागदा अपने विचारों को परिचित कराते हुए ‘मेरी लघुकथा यात्रा’ में कहते हैं- ‘मैंने संख्या की अपेक्षा गुणात्मकता का विशेष ध्यान रखा है”। वे इसी के आगे वाले अनुच्छेद में कहते हैं-  “मैंने अपनी लघुकथाओं में सदैव इसी मितव्ययता का ध्यान रखा है, अनावश्यक ब्यौरों से बचता रहा हूँ। बात को प्रभावशाली ढंग से कहने के लिए कथ्य की माँग के अनुरूप व्यंग्य को हथियार के रूप में प्रस्तुत किया; किन्तु इस बात का ध्यान रखा कि लघुकथा व्यंग्य की धार पर चलते हुए हास–परिहास या चुटुकले की ओर न लुढ़क जाय’।

       अस्तु, ‘माटी की महक’ निश्चित रूप से प्रभावी, व्यंजना से परिपूर्ण, समय-बोध का निर्वाह करने वाली वह लघुकथा कृति है जिसे पाकर साहित्य-जगत समर्थ होगा। यह लघुकथा विधा को पुष्ट करने वाली, पाठकों की दृष्टि को पैना करने वाली कृति सिद्ध होगी। यह कृति श्रम, चेतना और समय-बोध का निवेश करने वाली संग्रहणीय पुस्तक के रूप में रेखांकित होती रहेगी। बलराम अग्रवाल जी ने तटस्थता से लघुकथा रचनाओं का चयन करने के साथ पाठकों को ही नहीं अपितु नवोदित लघुकथाकारों को  लघुकथा-रचना के लिए प्रभावी दिशा-दर्शन दिया है। उस हेतु हार्दिक बधाई देता हूँ। माधव नागदा के लिए अनेक शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ- वे इसी तरह से सृजन-संसार में अपनी उपस्थिती को अक्षुण्ण बनाए रखें।

माटी की महक(लघुकथा संग्रह), लेखक-माधव नागदा, प्रकाशक-विद्या बुक्स, नई,दिल्ली-110090, प्रकाशन वर्ष-2021, पृष्ठ-160, मूल्य-480.00 रुपये |

-0-त्रिलोकी मोहन पुरोहित,शांति कॉलोनी, कांकरोली, राजसमंद (राज.) पिन- 313324

Gmail- tmpshreeram@gmail.com

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