मेघा राठी
“कब तक इस सीलन और अंधेरे में बन्द रखोगी मुझे? मेरा क्या कुसूर है सुनन्दा?”, अँधेरे कोने में रखे एक बक्से से रोज की तरह आवाजें आ रही थीं जिसे सुनकर भी सुनन्दा अनसुना करते हुए यंत्रवत् अपने काम कर रही थी। घड़ी की सुइयों के साथ उसकी दिनचर्या भी चलती जा रही थी।
” यह खिड़की किसने खोल दी?”, अचानक ठंडी हवा की सिहरन महसूस कर सुनन्दा चौंक गई। ” इस खिड़की का बन्द रहना ही अच्छा है।”
“लेकिन क्यों? क्यों इस कमरे को और खुद को तुमने बाहर की हवा और रोशनी से महरूम रखा हुआ है?”, इस बार खिड़की चुप न रह सकी और उसने अपने पल्लों को बन्द होने से बचाने के लिए जकड़ लिया।
“क्योंकि यहीं से आये थे वे ख़ौफ़नाक तीन शब्द जिनके झाँसे में आकर मेरा सब कुछ खत्म हो गया।”, दाँत भींचते हुए सुनन्दा ने जकड़े हुए पल्लों को हिलाने की कोशिश करते हुए कहा।
“मेरी जान, जरूरी है कि एक बार हुआ हादसा बार- बार हो। उसे याद करके खुद को सजा क्यों दे रही हो।”, हवा के झोंके ने उसके बालों की लट को प्यार से सहला दिया।
“क्या कहा तुमने… जान…मेरी जान!”, सुनन्दा विस्फारित होकर कुर्सी पर बैठ गई।
हवा का झोंके ने उसे अपनी बाहों में भर कर फिर से कहा, ” हाँ मेरी जान, जान ही तो हो तुम जो अपनी मुस्कान से, अपने शब्दों से और अपने प्रेम से किसी को भी जीवंत कर सकती हो। उठो और अपनी बनाई दुनिया से बाहर निकल कर देखो।”
यंत्रवत्- सी मंत्रमुग्ध वह खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई। बाहर खिली गुलाबों की क्यारियों ने मुस्कुराकर उसका अभिवादन किया और बादल झूम कर बरसने लगे।
सुनन्दा अचानक पलटी और संदूक की कैद से डायरी को आज़ाद कर उसके कोरे पन्नों को कलम से चूमने लगी।” दो शब्दों ने आज तीन शब्दों की कैद से आज़ादी दे दी मुझे।”